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Full Description
- इस्लाम
- 1- इस्लाम, दुनिया के समस्त लोगों की तरफ अल्लाह का अंतिम एवं अजर अमर पैगाम है, जिसके द्वारा ईश्वरीय धर्मों और संदेशों का समापन कर दिया गया है।
- 2- इस्लाम, किसी लिंग विशेष या जाति विशेष का नहीं, अपितु समस्त लोगों के लिए अल्लाह तआला का धर्म है।
- 3- इस्लाम वह ईश्वरीय संदेश है, जो पहले के नबियों और रसूलों के उन संदेशों को संपूर्णता प्रदान करने आया, जो वे अपनी क़ौमों की तरफ लेकर प्रेषित हुए थे।
- 4- समस्त नबियों का धर्म एक, लेकिन शरीयतें (धर्म-विधान) भिन्न थीं।
- 5- तमाम नबियों और रसूलों, जैसे नूह, इबराहीम, मूसा, सुलैमान, दाऊद और ईसा -अलैहिमुस सलाम- आदि ने जिस बात की ओर बुलाया, उसी की ओर इस्लाम भी बुलाता है, और वह है इस बात पर ईमान कि सबका पालनहार, रचयिता, रोज़ी-दाता, जिलाने वाला, मारने वाला और पूरे ब्राह्मांड का स्वामी केवल अल्लाह है। वही है जो सारे मामलात का व्यस्थापक है, और वह बेहद दयावान और कृपालु है।
- 6- अल्लाह तआला ही एक मात्र रचयिता है, और बस वही पूजे जाने का ह़क़दार है। उसके साथ किसी और की पूजा-वंदना करना पूर्णतया अनुचित है।
- 7- दुनिया की हर वस्तु, चाहे हम उसे देख सकें या नहीं देख सकें, का रचयिता बस अल्लाह है। उसके अतिरिक्त जो कुछ भी है, उसी की सृष्टि है। अल्लाह तआला ने आसमानों और धरती को छह दिनों में पैदा किया है।
- 8- स्वामित्व, सृजन, व्यवस्थापन और इबादत में अल्लाह तआला का कोई साझी एवं शरीक नहीं है।
- 9- अल्लाह तआला ने ना किसी को जना और ना ही वह स्वयं किसी के द्वारा जना गया, ना उसका समतुल्य कोई है और ना ही कोई समकक्ष।
- 10- अल्लाह तआला किसी चीज़ में प्रविष्ट नहीं होता, और ना ही अपनी सृष्टि में से किसी चीज़ में रूपांत्रित होता है।
- 11- अल्लाह तआला अपने बंदों पर बड़ा ही दयावान और कृपाशील है। इसी लिए उसने बहुत सारे रसूल भेजे और बहुत सारी किताबें उतारीं।
- 12- अल्लाह तआला ही वह अकेला दयावान रब है, जो क़यामत के दिन समस्त इंसानों का, उन्हें उनकी क़ब्रों से दोबारा जीवित करके उठाने के बाद, हिसाब-किताब लेगा और हर व्यक्ति को उसके अच्छे-बुरे कर्मों के अनुसार प्रतिफल देगा। जिसने मोमिन रहते हुए अचछे कर्म किए होंगे, उसे हमेशा रहने वाली नेमतें प्रदान करेगा और जो दुनिया में काफ़िर रहा होगा और बुरे कर्म किए होंगे, उसे प्रलय में भयंकर यातना से ग्रस्त करेगा।
- 13- अल्लाह तआला ने आदम को मिट्टी से पैदा किया और उनके बाद उनकी संतति को धीरे-धीरे पूरी धरती पर फैला दिया। इस ऐतबार से तमाम इंसान वंशज के लिहाज़ से पूर्णतया एक समान हैं। किसी लिंग विशेष को किसी अन्य लिंग पर और किसी क़ौम को किसी दूसरी क़ौम पर, धर्मपरायणता अर्थात परहेज़गारी के अलावा, कोई वरीयता प्राप्त नहीं है।
- 14- हर बच्चा, फ़ितरत (प्रकृति) पर पैदा होता है।
- 15- कोई भी इंसान, जन्म-सिद्ध पापी नहीं होता और ना ही किसी और के गुनाह का उत्तराधिकारी होकर पैदा होता है।
- 16- मानव-रचना का मुख्यतम उद्देश्य, केवल एक अल्लाह की पूजा-उपासना करना है।
- 17- इस्लाम ने समस्त इंसानों, नर हों कि नारी, को सम्मान प्रदान किया है, उन्हें उनके समस्त अधिकारों की ज़मानत दी है, हर इंसान को उसके समस्त अधिकारों और क्रियाकलापों के परिणाम का ज़िम्मेदार बनाया है, और उसके किसी भी ऐसे कर्म का भुक्तभोगी भी उसे ही ठहराया है जो स्वयं उसके लिए अथवा किसी दूसरे इंसान के लिए हानिकारक हो।
- 18- इस्लाम धर्म ने नर-नारी दोनों को, दायित्व, श्रेय और पुण्य के ऐतबार से बराबरी का दर्जा दिया है।
- 19- इस्लाम धर्म ने नारी को सम्मान दिया है और उसे पुरुष के बराबर माना है। यदि पुरुष सक्षम हो, तो उसी को नारी के हर प्रकार का खर्च उठाने का दायित्व दिया है। इसलिए, बेटी का खर्च बाप पर, यदि बेटा जवान और सक्षम हो तो उसी पर माँ का खर्च और पत्नी का खर्च पति पर वाजिब किया है।
- 20- मृत्यु का मतलब कतई यह नहीं है कि इंसान सदा के लिए नष्ट हो गया, अपितु वास्तव में इंसान मृत्यु की सवारी पर सवार होकर, कर्म-भूमि से श्रेयालय की ओर प्रस्थान करता है। मृत्यु, शरीर एवं आत्मा दोनों को अपनी जकड़ में लेकर मार डालती है। आत्मा की मृत्यु का मतलब, उसका शरीर को त्याग देना है, फिर वह क़यामत के दिन दोबारा जीवित किए जाने के बाद, वही शरीर धारण कर लेगी। आत्मा, मृत्यु के बाद ना दूसरे किसी शरीर में स्थानांतरित होती है और ना ही वह किसी अन्य शरीर में प्रविष्ट होती है।
- 21- इस्लाम, ईमान के सभी बड़े और बुनियादी उसूलों पर अटूट विश्वास रखने की माँग करता है जो इस प्रकार हैं : अल्लाह और उसके फ़रिश्तों पर ईमान लाना, ईश्वरीय ग्रंथों जैसे परिवर्तन से पहले की तौरात, इंजील और ज़बूर पर और क़ुरआन पर ईमान लाना, समस्त नबियों और रसूलों -अलैहिमुस्सलाम- पर और उन सबकी अंतिम कड़ी मुह़म्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- पर ईमान लाना तथा आख़िरत के दिन पर ईमान लाना। यहाँ पर हमें यह बात अच्छी तरह जान लेनी चाहिए कि यदि दुनिया का यही जीवन, अंतिम जीवन होता तो ज़िंदगी और अस्तित्व का खेल बिल्कुल बेकार होता। ईमान के उसूलों की अंतिम कड़ी, लिखित एवं सुनिश्चित भाग्य पर ईमान रखना है।
- 22- नबी एवं रसूलगण, अल्लाह का संदेश पहुँचाने के मामले में मासूम हैं तथा हर उस वस्तु से पाक हैं जो बुद्धि तथा विवेक के विरुद्ध हो एवं सुव्यवहार से मेल न खाती हो। उनका दायित्व केवल इतना है कि वे अल्लाह तआला के आदेशों एवं निषेधों को पूरी ईमानदारी के साथ बंदों तक पहुँचा दें। याद रहे कि नबियों और रसूलों में ईश्वरीय गुण, कण-मात्र भी नहीं था। वे दूसरे मनुष्यों की तरह ही मानव मात्र थे। उनके अंदर, केवल इतनी विशेषता होती थी कि वे अल्लाह की वह़्य (प्रकाशना) के वाहक हुआ करते थे।
- 23. इस्लाम, बड़ी और महत्वपूर्ण इबादतों के नियम-क़ानून की पूर्णतया पाबंदी करते हुए, केवल एक अल्लाह की इबादत करने का आदेश देता है, जिनमें से एक नमाज़ है। नमाज़ क़ियाम (खड़ा होना), रुकू (झुकना), सजदा, अल्लाह को याद करने, उसकी स्तुति एवं गुणगान करने और उससे दुआ एवं प्रार्थना करने का संग्रह है। हर व्यक्ति पर दिन- रात में पाँच वक़्त की नमाज़ें अनिवार्य हैं। नमाज़ में जब सभी लोग एक ही पंक्ति में खड़े होते हैं तो अमीर-गरीब और आक़ा व गुलाम का सारा अंतर मिट जाता है। दूसरी इबादत ज़कात है। ज़कात माल के उस छोटे से भाग को कहते हैं जो अल्लाह तआला के निर्धारित किए हुए नियम-क़ानून के अनुसार साल में एक बार, मालदारों से लेकर गरीबों आदि में बाँट दिया जाता है। तीसरी इबादत रोज़ा है जो रमज़ान महीने के दिनों में खान-पान और दूसरी रोज़ा तोड़ने वाली वस्तुओं से रुक जाने का नाम है। रोज़ा, आत्मा को आत्मविश्वास और धैर्य एवं संयम सिखाता है। चौथी इबादत हज है, जो केवल उन मालदारों पर जीवन भर में सिर्फ एक बार फ़र्ज़ है, जो पवित्र मक्का में स्थित पवित्र काबे तक पहुँचने की क्षमता रखते हों। हज एक ऐसी इबादत है जिसमें दुनिया भर से आए हुए तमाम लोग, अल्लाह तआला पर ध्यान लगाने के मामले में बराबर हो जाते हैं और सारे भेद-भाव तथा संबद्धताएँ धराशायी हो जाती हैं।
- 24- इस्लामी इबादतों की शीर्ष विशेषता जो उन्हें अन्य धर्मों की इबादतों के मुक़ाबले में विशिष्टता प्रदान करती है, यह है कि उनको अदा करने का तरीक़ा, उनका समय और उनकी शर्तें, सब कुछ अल्लाह तआला ने निर्धारित कर दिया है, और उसके रसूल मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने उन्हें अपनी उम्मत तक पहुँचा दिया है। आज तक उनके अंदर कमी-बेशी करने के मकसद से कोई भी इंसान दबिश नहीं दे सका है, और सबसे बड़ी बात यह है कि यही वह इबादतें हैं जिनके क्रियान्वयन की ओर समस्त नबियों और रसूलों ने अपनी-अपनी उम्मत को बुलाया था।
- 25- इस्लाम के संदेष्टा मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम-, इसमाईल बिन इबराहीम -अलैहिमस्सलाम- के वंश से ताल्लुक रखते हैं, जिनका जन्म मक्का में 571 ईसवी में हुआ और वहीं उनको नबूवत मिली। फिर वे हिजरत करके मदीना चले गए। उन्होंने मूर्तिपूजा के मामले में तो अपनी क़ौम का साथ नहीं दिया, किन्तु अच्छे कामों में उसका भरपूर साथ दिया। संदेष्टा बनाए जाने से पहले से ही वे सद्गुण-सम्पन्न थे, और उनकी क़ौम उन्हें अमीन (विश्वसनीय) कहकर पुकारा करती थी। जब चालीस साल के हुए तो अल्लाह तआला ने उनको अपने संदेशवाहक के रूप में चुन लिया, और बड़े-बड़े चमत्कारों से आपका समर्थन किया, जिनमें सबसे बड़ा चमत्कार पवित्र क़ुरआन है। यह क़ुरआन सारे नबियों और रसूलों का रहती दुनिया तक बाकी रहने वाला चमत्कार है, जिसका प्रकाश कभी धूमिल नहीं होने वाला है। फिर जब अल्लाह तआला ने अपने धर्म को पूर्ण और स्थापित कर दिया और उसके रसूल मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने उसे पूरी तरह से दुनिया वालों तक पहुँचा दिया, तो 63 वर्ष की आयु में उनका देहान्त हो गया, और मदीने में दफ़नाए गए। पैग़म्बर मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- अल्लाह के अंतिम संदेष्टा थे। अल्लाह तआला ने उनको हिदायत और सच्चा धर्म देकर इसलिए भेजा था कि वे लोगों को मूर्तिपूजा, कुफ्र और मूर्खता के अंधकार से निकालकर एकेश्वरवाद और ईमान के प्रकाश में ले आएँ। स्वयं अल्लाह तआला ने गवाही दी है कि उसने उनको अपने आदेश से एक आह्वानकर्ता बनाकर भेजा था।
- 26- इस्लामी शरीयत (धर्म-विधान) जिसे अल्लाह के रसूल मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- लेकर आए थे, तमाम ईश्वरीय शरीयतों के सिलसिले की अंतिम कड़ी है। यह एक सम्पूर्ण शरीयत है और इसी में लोगों की धर्म और दुनिया, दोनों की भलाई निहित है। यह इंसानों के धर्म, खून, माल, विवेक और वंश की सुरक्षा को सबसे अधिक प्राथमिकता देती है। इसके आने के बाद, पहले की सारी शरीयतें निरस्त हो गई हैं, जैसा कि पहले आने वाली शरीयत को उसके बाद आने वाली शरीयत निरस्त कर देती थी।
- 27- अल्लाह के रसूल मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के लाए हुए धर्म इस्लाम के सिवा कोई अन्य धर्म अल्लाह की नज़र में स्वीकार्य नहीं है। इसलिए, जो भी इस्लाम के अलावा कोई अन्य धर्म अपनाएगा तो वह उसकी तरफ़ से अल्लाह के यहाँ अस्वीकार्य हो जाएगा।
- 28-पवित्र क़ुरआन वह किताब है, जिसे अल्लाह तआला ने पैग़म्बर मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- पर वह्य के द्वारा उतारा है। वह निस्संदेह, अल्लाह की अमर वाणी है। अल्लाह तआला ने तमाम इनसानों और जिन्नात को चुनौती दी थी कि वे उस जैसी एक किताब या उसकी किसी सूरा जैसी एक ही सूरा लाकर दिखाएँ। यह चुनौती आज भी अपनी जगह क़ायम है। पवित्र क़ुरआन, ऐसे बहुत सारे महत्वपूर्ण प्रश्नों का उत्तर देता है, जो लाखों लोगों को आश्चर्यचकित कर देते हैं। महान क़ुरआन आज भी उसी अरबी भाषा में सुरक्षित है, जिसमें वह अवतरित हुआ था। उसमें आज तक एक अक्षर की भी कमी-बेशी नहीं हुई है और ना क़यामत तक होगी। वह प्रकाशित होकर पूरी दुनिया में फैला हुआ है। वह एक महान किताब है, जो इस योग्य है कि उसे पढ़ा जाए या उसके अर्थों के अनुवाद को पढ़ा जाए। उसी तरह, अल्लाह के रसूल मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- की सुन्नत, शिक्षाएँ और जीवन-वृतांत भी विश्वसनीय वर्णनकर्ताओं के द्वारा नक़ल होकर सुरक्षित और उसी अरबी भाषा में प्रकाशित हैं, जो अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- बोलते थे और दुनिया की बहुत सारी भाषाओं में अनुवादित भी हैं। यही क़ुरआन एवं सुन्नत, इस्लाम धर्म के आदेश-निर्देशों और विधानों का एक मात्र संदर्भ हैं। इसलिए, इस्लाम धर्म को मुसलमान कहलाने वालों के कर्मों के आलोक में नहीं, अपितु ईश्वरीय प्रकाशना अर्थात क़ुरआन एवं सुन्नत के आधार पर परखकर लिया जाना चाहिए।
- 29- इस्लाम धर्म, माता-पिता के साथ शिष्टाचार के साथ पेश आने का आदेश देता है, चाहे वे ग़ैर-मुस्लिम ही क्यों ना हों, और संतानों के साथ सद्व्यवहार करने की प्रेरणा देता है।
- 30- इस्लाम धर्म कथनी और करनी दोनों में, न्याय करने का आदेश देता है। यहाँ तक दुश्मनों के साथ भी इसी आचरण का आदेश है।
- 31- इस्लाम धर्म, सारी सृष्टियों का भला चाहने का आदेश देता और सदाचरण एवं सत्कर्मों को अपनाने का आह्वान करता है।
- 32- इस्लाम धर्म, उत्तम आचरणों और सद्गुणों जैसे सच्चाई, अमानत की अदायगी, पाकबाज़ी, लज्जा एवं शर्म, वीरता, भले कामों में खर्च करना, ज़रूरतमंदों की मदद करना, पीड़ितों की सहायता करना, भूखों को खाना खिलाना, पड़ोसी के साथ अच्छा व्यवहार करना, रिश्तों को जोड़ना और जानवरों पर दया करना आदि, को अपनाने का आदेश देता है।
- 33- इस्लाम धर्म ने खान-पान की पवित्र वस्तुओं को हलाल ठहराया और दिल, शरीर तथा घर-बार को पवित्र रखने का हुक्म दिया है। यही कारण है कि शादी को हलाल क़रार दिया है। उसी प्रकार, रसूलों -अलैहिमुस्सलाम- ने भी इसी का आदेश दिया है, क्योंकि वे हर पाक और अच्छी चीज़ का हुक्म दिया करते थे।
- 34- इस्लाम धर्म ने उन तमाम चीज़ों को हराम क़रार दिया है, जो अपनी बुनियाद से हराम हैं। जैसे अल्लाह के साथ शिर्क एवं कुफ़्र करना, बुतों की पूजा करना, बिना ज्ञान के अल्लाह के बारे में कुछ भी बोलना, अपनी संतानों की हत्या करना, किसी को जान से मार डालना, धरती पर फ़साद मचाना, जादू करना या कराना, छिप-छिपाकर या खुले-आम गुनाह करना, ज़िना (व्यभिचार) करना, समलैंगिकता आदि जैसे जघन्य पाप करना। इसी प्रकार, इस्लाम धर्म ने सूदी लेन-देन, मुर्दार खाने, जो जानवर बुतों के नाम पर और स्थानों पर बलि चढ़ाया जाए, उसका माँस खाने, सुअर के माँस, सारी गंदी चीज़ों का सेवन करने, अनाथ का माल हराम तरीक़े से खाने, नाप-तौल में कमी-बेशी करने और रिश्तों को तोड़ने को हराम ठहराया है, और तमाम नबियों और रसूलों का भी इन हराम चीज़ों के हराम होने पर मतैक्य है।
- 35- इस्लाम धर्म झूठ बोलना, धोखा देना, बेईमानी, फ़रेब, ईर्ष्या, चालबाज़ी, चोरी, अत्याचार और अन्याय आदि बुरे आचरणों ही नहीं, बल्कि हर अश्लील कार्य से मना करता है।
- 36- इस्लाम धर्म, उन सभी माली मामलात से मना करता है जो सूद, हानिकारिता, धोखाधड़ी, अत्याचार और गबन पर आधारित हों या फिर सामाजों, खानदानों और लोगों को व्यक्तिगत रूप से तबाही और हानि की ओर ले जाते हों।
- 37- इस्लाम धर्म, विवेक और सद्बुद्धि की सुरक्षा तथा मदिरा-पान आदि हर उस चीज़ पर मनाही की मुहर लगाने हेतु आया है, जो उसे बिगाड़ सकती है। इस्लाम धर्म ने विवेक की शान को ऊँचा उठाया है और उसे ही धार्मिक विधानों पर अमल करने की धुरी क़रार देते हुए, उसे ख़ुराफ़ात और अंधविश्वासों से आज़ाद किया है। इस्लाम में ऐसे रहस्य और विधि-विधान हैं ही नहीं, जो किसी खास तबके के साथ खास हों। उसके सारे विधि-विधान और नियम-क़ानून इंसानी विवेक से मेल खाते तथा न्याय एवं हिकमत के अनुसार हैं।
- 38- यदि असत्य धर्मों के अनुयायी अपने-अपने धर्म और धारणा में पाए जाने वाले अंतर्विरोध और उन चीज़ों की पूरी जानकारी प्राप्त नहीं करेंगे, जिनको इंसानी विवेक सिरे से नकारता है, तो उनके धर्म-गुरू उन्हें इस भ्रम में डाल देंगे कि धर्म, विवेक से परे है और विवेक के अंदर इतनी क्षमता नहीं है कि वह धर्म को पूरी तरह से समझ सके। दूसरी तरफ़, इस्लाम धर्म अपने विधानों को एक ऐसा प्रकाश मानता है, जो विवेक को उसका सटीक रास्ता दिखाता है। वास्तविकता यह है कि असत्य धर्मों के गुरूजन चाहते हैं कि इंसान अपनी बुद्धि-विवेक का प्रयोग करना छोड़ दे और उनका अंधा अनुसरण करता रहे, जबकि इस्लाम चाहता है कि वह इंसानी विवेक को जागृत करे, ताकि इंसान तमाम चीज़ों की वास्तविकता से उसके असली रूप में अवगत हो सके।
- 39- इस्लाम सही और लाभकारी ज्ञान को सम्मान देता है और हवस एवं विलासिता से खाली वैज्ञानिक अनुसंधानों को प्रोत्साहित करता है। वह हमारी अपनी काया और हमारे आस-पास फैली हुई असीम कायनात पर चिंतन-मंथन करने का आह्वान करता है। याद रहे कि सही वैज्ञानिक शोध और उनके परिणाम, इस्लामी सिद्धान्तों से कदाचित नहीं टकराते हैं।
- 40- अल्लाह तआला केवल उसी व्यक्ति के कर्म को ग्रहण करता और उसको पुण्य तथा श्रेय प्रदान करता है जो अल्लाह पर ईमान लाता है, केवल उसी का अनुसरण करता और तमाम रसूलों -अलैहिमुस्सलाम- की पुष्टि करता है। वह सिर्फ उन्हीं इबादतों को स्वीकारता है जिनको स्वयं उसी ने स्वीकृति प्रदान की है। इसलिए, ऐसा भला कैसे हो सकता है कि कोई इंसान अल्लाह के प्रति अविश्वास भी रखे और फिर उसी से अच्छा प्रतिफल पाने की आशा भी अपने मन में संजोए रखे? अल्लाह तआला उसी व्यक्ति के ईमान को स्वीकार करता है जो समस्त नबियों -अलैहिमुस्सलाम- पर और मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के अंतिम संदेष्टा होने पर भी पूर्ण ईमान रखे।
- 41- सभी ईश्वरीय संदेशों का एक मात्र उद्देश्य यह है कि इंसान सत्य धर्म का पालनकर्ता बनकर, सारे जहानों के पालनहार अल्लाह का शुद्ध बंदा बन जाए और अपने आपको दूसरे इंसान या पदार्थ या फिर ख़ुराफ़ात की अंधभक्ति और बंदगी से मुक्त कर ले। क्योंकि इस्लाम, जैसा कि आपपर विदित है, किसी व्यक्ति विशेष को जन्मजात पवित्र नहीं मानता, ना उसे उसके अधिकार से ऊपर का दर्जा देता है और ना ही उसे रब और भगवान के पद पर आसीन करता है।
- 42- अल्लाह तआला ने इस्लाम धर्म में तौबा (प्रायश्चित) को मान्यता प्रदान की है। प्रायश्चित यह है कि जब कोई इंसान पाप कर बैठे तो तुरंत अल्लाह से उसके लिए क्षमा माँगे और पाप करना छोड़ दे। जिस प्रकार, इस्लाम क़बूल करने से पहले के सारे पाप धुल जाते हैं, उसी तरह तौबा भी पहले के तमाम गुनाहों को धो देती है। इसलिए, किसी इंसान के सामने अपने पापों को स्वीकार करने की कोई ज़रूरत नहीं है।
- 43- इस्लाम धर्म के दृष्टिकोण से, इंसान और अल्लाह के बीच सीधा संबंध होता है। आपके लिए यह बिल्कुल भी ज़रूरी नहीं है कि आप अपने और अल्लाह के बीच किसी को माध्यम बनाएँ। इस्लाम इससे मना करता है कि हम अपने ही जैसे दूसरे इंसानों को भगवान बना लें या रबूबियत (पालनहार होने) या उलूहियत (पूज्य होने) में किसी इंसान को अल्लाह का साझी एवं शरीक ठहरा लें।
- 44- इस पुस्तिका के अंत में हम इस बात का उल्लेख कर देना उचित समझते हैं कि लोग काल, क़ौम और मुल्क के लिहाज़ से भिन्न-भिन्न हैं, बल्कि पूरा इंसानी समाज ही अपने सोच-विचार, जीवन के उद्देश्य, वातावरण और कर्म के ऐतबार से टुकड़ों में बटा हुआ है। ऐसे में उसे ज़रूरत है एक ऐसे मार्गदर्शक की जो उसकी रहनुमाई कर सके, एक ऐसे सिस्टम की जो उसे एकजुट कर सके और एक ऐसे शासक की जो उसे पूर्ण सुरक्षा दे सके। नबी और रसूलगण -अलैहिमुस्सलाम- इस दायित्व को अल्लाह तआला की वह्य के आलोक में अदा करते थे। वे, लोगों को भलाई और हिदायत का रास्ता दिखाते, अल्लाह के धर्म-विधान पर सबको एकत्र करते और उनके बीच हक़ के साथ फैसला करते थे, जिससे उनके रसूलों के मार्गदर्शन पर चलने और ईश्वरीय संदेशों से उनके युग के करीब होने के मुताबिक, उनके मामलात सही डगर पर हुआ करते थे। अब अल्लाह के रसूल मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के नबूवत के द्वारा नबियों और रसूलों का सिलसिला समाप्त कर दिया गया है और अल्लाह तआला ने आप -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के लाए हुए धर्म को ही क़यामत तक बाक़ी रखने की घोषणा कर दी है, उसी को लोगों के लिए हिदायत, रहमत, रोशनी और उस संमार्ग का रहनुमा बना दिया है, जो अल्लाह तक पहुँचा सकता है।
- 45- इसलिए ऐ मानव! मैं तुमसे विनम्रतापूर्वक आह्वान करता हूँ कि अंधभक्ति और अंधविश्वास को त्याग कर, सच्चे मन और आत्मा के साथ अल्लाह के पथ का पथिक बन जाओ। जान लो कि तुम मरने के बाद, अपने रब ही के पास लौटकर जाने वाले हो। तुम अपनी आत्मा और अपने आस-पास फैले हुए असीम क्षितिजों पर सोच-विचार करने के बाद, इस्लाम क़बूल कर लो। इससे तुम निश्चय ही दुनिया एवं आख़िरत दोनों में सफल हो जाओगे। यदि तुम इस्लाम में दाखिल होना चाहते हो तो तुम्हें बस इस बात की गवाही देनी है कि अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं और मुहम्मद अल्लाह के अंतिम संदेष्टा हैं, फिर अल्लाह के सिवा जिन चीज़ों को तुम पूजा करते थे, उन सबका इनकार कर दो, इस बात पर ईमान लाओ कि अल्लाह तआला सबको क़ब्रों से ज़िंदा करके उठाएगा और इस बात पर भी ईमान ले आओ कि कर्मों का हिसाब-किताब और उनके अनुरूप श्रेय और बदला दिया जाना, हक और सच है। जब तुम इन बातों की गवाही दे दोगे तो मुसलमान बन जाओगे। उसके बाद तुम्हारे लिए ज़रूरी हो जाएगा कि तुम अल्लाह के निर्धारित किए हुए विधि-विधान के मुताबिक नमाज़ पढ़ो, ज़कात दो, रोज़ा रखो और यदि सफर-खर्च जुटा सको तो हज करो।
इस्लाम
पवित्र क़ुरआन तथा अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सुन्नत के आलोक में इस्लाम का संक्षिप्त परिचय
(क़ुरआन एवं सुन्नत के तर्कों से सुसज्जित संस्करण)
यह इस्लाम के संक्षिप्त परिचय पर आधारित, एक अति महत्वपूर्ण पुस्तिका है, जिसमें इस धर्म के अहम उसूलों, शिक्षाओं तथा विशेषताओं का, इस्लाम के दो असली संदर्भों अर्थात क़ुरआन एवं हदीस की रोशनी में, वर्णन किया गया है। यह पुस्तिका परिस्थितियों और हालात से इतर, हर समय और हर स्थान के मुस्लिमों तथा गैर-मुस्लिमों को उनकी ज़ुबानों में संबोधित करती है।
1- इस्लाम, दुनिया के समस्त लोगों की तरफ अल्लाह का अंतिम एवं अजर अमर पैगाम है, जिसके द्वारा ईश्वरीय धर्मों और संदेशों का समापन कर दिया गया है।
इस्लाम, अल्लाह की तरफ से दुनिया के तमाम लोगों की तरफ भेजा जाने वाला संदेश है। अल्लाह तआला का फ़रमान है :{तथा नहीं भेजा है हमने आप को, परन्तु सब मनुष्यों के लिए शुभ सूचना देने तथा सचेत करने वाला बनाकर। किन्तु, अधिकतर लोग ज्ञान नहीं रखते।}[सूरा सबा : 28]तथा अल्लाह तआला का फ़रमान है :{ऐ नबी! आप लोगों से कह दें कि ऐ मानव जाति के लोगो! मैं तुम सभी की ओर अल्लाह का रसूल हूँ।}[सूरा अल-आराफ़: 158]तथा अल्लाह तआला का फ़रमान है :{ऐ लोगो! तुम्हारे पास तुम्हारे पालनहार की ओर से रसूल सत्य लेकर आ गए हैं। अतः, उनपर ईमान लाओ, यही तुम्हारे लिए अच्छा है। तथा यदि कुफ़्र करोगे, तो (याद रखो कि) अल्लाह ही का है, जो आकाशों तथा धरती में है और अल्लाह बड़ा ज्ञानी एवं गुणी है।}[सूरा अन-निसा :170]इस्लाम, अल्लाह का अजर-अमर संदेश है, जिसके द्वारा ईश्वरीय धर्मों और संदेशों के सिलसिले का समापन कर दिया गया है। अल्लाह तआला की वाणी है :{मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- तुम्हारे पुरुषों में से किसी के पिता नहीं, बल्कि अल्लाह के संदेशवाहक और समस्त नबियों की अंतिम कड़ी हैं। और अल्लाह हर चीज़ को जानने वाला है।}[सूरा अल-अहज़ाब :40]
2- इस्लाम, किसी लिंग विशेष या जाति विशेष का नहीं, अपितु समस्त लोगों के लिए अल्लाह तआला का धर्म है।
इस्लाम, किसी लिंग विशेष या जाति विशेष का नहीं, अपितु समस्त लोगों के लिए अल्लाह तआला का धर्म है, और पवित्र क़ुरआन का पहला आदेश, अल्लाह तआला की यह वाणी है :{ऐ लोगो! केवल अपने उस पालनहार की इबादत करो, जिसने तुम्हें तथा तुमसे पहले वाले लोगों को पैदा किया, इसी में तुम्हारा बचाव है।}[सूरा अल-बक़रा : 21]तथा अल्लाह तआला का फ़रमान है :{ऐ लोगो! अपने उस पालनहार से डरो जिसने तुम सबको एक ही प्राण से उत्पन्न किया और उसी से उसका जोड़ा बनाया, फिर उन्हीं दोनों से बहुत-से नर-नारियों को फैला दिया।}[सूरा अन-निसा :1]तथा अब्दुल्लाह बिन उमर -रज़ियल्लाहु अनहुमा- का वर्णन है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने मक्का विजय के दिन लोगों को संबोधित किया। अपने संबोधन में आपने फ़रमाया :"ऐ लोगो! अल्लाह तआला ने तुम्हारे अंदर से अज्ञान युग के अहंकार और बाप-दादाओं पर अनुचित गर्व जतलाने की कुरीति को खत्म कर दिया है। अब केवल दो ही प्रकार के लोग रह गए हैं : एक, नेक, पुणयकारी और अल्लाह तआला के नज़दीक सम्मानित और दूसरा, पापी, बदबख्त और अल्लाह की नज़र में तुच्छ। सारे इंसान आदम की संतान हैं और आदम को अल्लाह ने मिट्टी से पैदा किया था। अल्लाह तआला का फ़रमान है : {ऐ लोगो! बेशक हमने तुम सभों को एक नर और एक नारी से पैदा किया है, और गोत्रों एवं क़बीलों में बाँट दिया है, ताकि एक-दूसरे को पहचान सको। वास्तव में अल्लाह की नज़र में सबसे अधिक सम्मानित वही है, जो तुममें सबसे अधिक अल्लाह से डरने वाला है। बेशक अल्लाह सबसे अधिक जानने वाला, सबसे अधिक बाख़बर है।} [सूरा अल-हुजुरात :13]।"इसे तिरमिज़ी (3270) ने रिवायत किया है।आपको पवित्र क़ुरआन की पवित्र वाणियों और अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के मधुर उपदेशों या आदेशों में एक भी ऐसा विधान नहीं मिलेगा, जो किसी विशेष क़ौम या गिरोह के मूल, राष्ट्रीयता या लिंग की विशेष रियायत पर आधारित हो।
3- इस्लाम वह ईश्वरीय संदेश है, जो पहले के नबियों और रसूलों के उन संदेशों को संपूर्णता प्रदान करने आया, जो वे अपनी क़ौमों की तरफ लेकर प्रेषित हुए थे।
इस्लाम वह ईश्वरीय संदेश है, जो पहले के नबियों और रसूलों के उन संदेशों को संपूर्णता प्रदान करने आया है, जो वे अपनी क़ौमों की तरफ लेकर प्रेषित हुए थे। अल्लाह तआला का फ़रमान है :{निःसंदेह हमने आपकी ओर उसी प्रकार वह्य (प्रकाशना) की है, जैसे कि नूह और उनके बाद के नबियों की ओर वह्य की, और इब्राहीम, इस्माईल, इसहाक़, याक़ूब और उनकी औलादों पर, तथा ईसा, अय्यूब, यूनुस, हारून और सुलैमान पर भी वह्य उतारी और दाऊद -अलैहिमुस्सलाम- को ज़बूर दिया।}[सूरा अन-निसा :163]यह धर्म जिसे अल्लाह तआला ने पैग़म्बर मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- पर वह्य के ज़रिए उतारा, वही धर्म है, जिसे अल्लाह तआला ने पहले के नबियों और रसूलों को देकर भेजा था, और जिसकी उन्हें वसीयत की थी। अल्लाह तआला का फ़रमान है :{उसने नियत किया है तुम्हारे लिए वही धर्म, जिसका आदेश दिया था नूह़ को और जिसे वह़्य किया है आपकी ओर, तथा जिसका आदेश दिया था इब्राहीम तथा मूसा और ईसा को कि इस धर्म की स्थापना करो और इसमें भेद-भाव ना करो। यही बात अप्रिय लगी है मुश्रिकों को, जिसकी ओर आप बुला रहे हैं। अल्लाह ही चुनता है इसके लिए जिसे चाहे और सीधी राह उसी को दिखाता है, जो उसी की ओर ध्यानमग्न हो।}[सूरा अश-शूरा : 13]यह किताब जिसे अल्लाह तआला ने पैग़म्बर मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- पर वह्य के ज़रिए उतारा है, अपने से पहले के ईश्वरीय ग्रंथों जैसे परिवर्तन एवं छेड़-छाड़ कर बिगाड़े जाने से पहले की तौरात एवं इंजील, की पुष्टि करने वाली किताब है। अल्लाह तआला ने फ़रमाया है :{तथा जो हमने प्रकाशना की है आपकी ओर ये पुस्तक, वही सर्वथा सच है, और सच बताती है अपने पूर्व की पुस्तकों को। वास्तव में, अल्लाह अपने भक्तों से सूचित है, भली-भाँति देखने वाला है।}[सूरा फ़ातिर : 31]
4- समस्त नबियों का धर्म एक, लेकिन शरीयतें (धर्म-विधान) भिन्न थीं।
समस्त नबियों का धर्म एक, लेकिन शरीयतें (धर्म-विधान) भिन्न थीं। अल्लाह तआला ने फ़रमाया है :{और (ऐ नबी!) हमने आपकी ओर सत्य पर आधारित पुस्तक (क़ुरआन) उतार दी, जो अपने पूर्व की पुस्तकों को सच बताने वाली तथा संरक्षक है। अतः आप लोगों के बीच निर्णय उसी से करें, जो अल्लाह ने उतारा है, तथा उनकी मनमानी पर उस सत्य से विमुख होकर ना चलें, जो आपके पास आया है। हमने तुममें से प्रत्येक के लिए एक धर्म विधान तथा एक कार्य प्रणाली बना दिया था। और यदि अल्लाह चाहता, तो तुम्हें एक ही समुदाय बना देता, परन्तु उसने जो कुछ दिया है, उसमें तुम्हारी परीक्षा लेना चाहता है। अतः, भलाइयों में एक-दूसरे से आगे बढ़ जाने का प्रयास करो, अल्लाह ही की ओर तुम सबको लौटकर जाना है। फिर वह तुम्हें बता देगा, जिन बातों में तुम मतभेद करते रहे थे।}[सूरा अल-माइदा : 48]और अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- का कथन है :"मैं ही दुनिया एवं आख़िरत दोनों जहानों में ईसा बिन मरयम -अलैहिमस्सलाम- का ज़्यादा हक़दार हूँ, क्योंकि सारे नबी-गण पिताजाई भाई हैं। उनकी माताएँ तो अलग-अलग हैं, पर धर्म सबका एक है।"इसे बुख़ारी (3443) ने रिवायत किया है।
5- तमाम नबियों और रसूलों, जैसे नूह, इबराहीम, मूसा, सुलैमान, दाऊद और ईसा -अलैहिमुस सलाम- आदि ने जिस बात की ओर बुलाया, उसी की ओर इस्लाम भी बुलाता है, और वह है इस बात पर ईमान कि सबका पालनहार, रचयिता, रोज़ी-दाता, जिलाने वाला, मारने वाला और पूरे ब्राह्मांड का स्वामी केवल अल्लाह है। वही है जो सारे मामलात का व्यस्थापक है, और वह बेहद दयावान और कृपालु है।
तमाम नबियों और रसूलों, जैसे नूह, इबराहीम, मूसा, सुलैमान, दाऊद और ईसा -अलैहिमुस सलाम- आदि ने जिस बात की ओर बुलाया, उसी की ओर इस्लाम भी बुलाता है और वह है इस बात पर ईमान कि सबका पालनहार, रचयिता, रोज़ी-दाता, जिलाने वाला, मारने वाला और पूरे ब्राह्मांड का स्वामी केवल अल्लाह है। वही है जो सारे मामलात का व्यस्थापक है और वह बेहद दयावान और कृपालु है। अल्लाह तआला का फ़रमान है :{ऐ मनुष्यो! याद करो अपने ऊपर अल्लाह के परोपकार को, क्या कोई अल्लाह के सिवा रचयिता है, जो तुम्हें जीविका प्रदान करता हो आकाश तथा धरती से? नहीं है कोई वंदनीय, परन्तु वही। फिर तुम कहाँ फिरे जा रहे हो?}[सूरा फ़ातिर : 3]तथा अल्लाह तआला का फ़रमान है :{(ऐ नबी!) उनसे पूछें कि तुम्हें कौन आकाश तथा धरती से जीविका प्रदान करता है? सुनने तथा देखने की शक्तियाँ किसके अधिकार में हैं? कौन निर्जीव से जीव को तथा जीव से निर्जीव को निकालता है? वह कौन है, जो विश्व की व्यवस्था कर रहा है? वे कह देंगे कि अल्लाह! फिर कहो कि क्या तुम (सत्य के विरोध से) डरते नहीं हो?}[सूरा यूनुस : 31]तथा अल्लाह तआला का फ़रमान है :{या वो है, जो आरंभ करता है उत्पत्ति का, फिर उसे दोहराएगा, तथा कौन तुम्हें जीविका देता है आकाश तथा धरती से? क्या कोई पूज्य है अल्लाह के साथ? आप कह दें कि अपना प्रमाण लाओ, यदि तुम सच्चे हो।}[सूरा अन-नम्ल : 64]सारे नबी और रसूल-गण -अलैहिमुस्सलाम- दुनिया वालों को केवल एक अल्लाह की इबादत की ओर बुलाने के लिए भेजे गए। अल्लाह तआला कहता है :{और हमने प्रत्येक समुदाय में एक रसूल भेजा कि अल्लाह की इबादत (वंदना) करो, और ताग़ूत (हर वह वस्तु जिसकी अल्लाह के अलावा पूजा की जाए) से बचो। तो उनमें से कुछ को, अल्लाह ने सच्चा रास्ता दिखा दिया और कुछ से गुमराही चिमट गई। तो धरती में चलो-फिरो, फिर देखो कि झुठलाने वालों का परिणाम कैसा रहा?}[सूरा अन-नह्लन : 36]तथा अल्लाह तआला का फ़रमान है :{आपसे पहले जो भी सन्देशवाहक हमने भेजा, उसपर यही वह्य की कि मेरे अतिरिक्त कोई वास्तविक पूज्य नहीं है। इसलिए, तुम मेरी ही उपासना करो।}[सूरा अल-अंबिया : 25]अल्लाह तआला ने नूह -अलैहिस्सलाम- की बात करते हुए फ़रमाया कि उन्होंने अपनी क़ौम से कहा :{ऐ मेरी क़ौम के लोगो! (केवल) अल्लाह की इबादत (वंदना) करो, उसके सिवा तुम्हारा कोई पूज्य नहीं। मैं तुम्हारे बारे में एक बड़े दिन की यातना से डरता हूँ।}[सूरा अल-आराफ़ : 59]अल्लाह के ख़लील (परम मित्र) इबराहीम -अलैहिस्सलाम- ने, जैसा कि अल्लाह तआला ने ख़बर दी है, अपनी क़ौम से कहा :{तथा इबराहीम को, जब उसने अपनी क़ौम से कहा : इबादत (वंदना) करो अल्लाह की तथा उससे डरो। यही तुम्हारे लिए उत्तम है, यदि तुम जानो।}[सूरा अल-अनकबूत :16]उसी तरह सालेह -अलैहिस्सलाम- ने भी, जैसा कि अल्लाह तआला ने सूचना दी है, कहा था :{उसने कहा : ऐ मेरी क़ौम! अल्लाह की इबादत (वंदना) करो, उसके सिवा तुम्हारा कोई पूज्य नहीं। तुम्हारे पास तुम्हारे पालनहार की ओर से खुला प्रमाण (चमत्कार) आ गया है। यह अल्लाह की ऊँटनी तुम्हारे लिए एक चमत्कार है। अतः इसे अल्लाह की धरती में चरने के लिए आज़ाद छोड़ दो, और इसे बुरे विचार से हाथ ना लगाना, अन्यथा तुम्हें दुःखदायी यातना घेर लेगी।}[सूरा अल-आराफ़ : 73]उसी तरह शुऐब -अलैहिस्सलाम- ने भी, जैसा कि अल्लाह तआला ने सूचना दी है, कहा था :{ऐ मेरी क़ौम के लोगो! अल्लाह की इबादत (वंदना) करो, उसके सिवा तुम्हारा कोई पूज्य नहीं है। तुम्हारे पास तुम्हारे पालनहार का खुला तर्क (प्रमाण) आ गया है। अतः नाप-तोल पूरा-पूरा करो और लोगों की चीज़ों में कमी ना करो, तथा धरती में उसके सुधार के पश्चात उपद्रव न करो। यही तुम्हारे लिए उत्त्म है, यदि तुम ईमान वाले हो।}[सूरा अल-आराफ़ : 85]तथा पहली बात, जो अल्लाह तआला ने मूसा -अलैहिस्सलाम- से कही, यह थी :{और मैंने तुझे चुन लिया है। अतः जो वह़्य की जा रही है उसे ध्यान से सुन।निस्संदेह मैं ही अल्लाह हूँ, मेरे सिवा कोई पूज्य नहीं, तो मेरी ही इबादत (वंदना) कर, तथा मेरे स्मरण (याद) के लिए नमाज़ स्थापित कर।}[सूरा ताहा :13-14]अल्लाह तआला ने मूसा -अलैहिस्सलाम- के बारे में सूचना देते हुए कहा कि उन्होंने अल्लाह की शरण इन शब्दों में माँगी :{मैंने शरण ली है अपने पालनहार तथा तुम्हारे पालनहार की प्रत्येक अहंकारी से, जो ईमान नहीं रखता ह़िसाब के दिन पर।}[सूरा ग़ाफ़िर : 27]अल्लाह तआला ने ईसा मसीह -अलैहिस्सलाम- की बात करते हुए फ़रमाया कि उन्होंने अपनी क़ौम से कहा था:{वास्तव में, अल्लाह ही मेरा और तुम सबका पालनहार है। अतः उसी की इबादत (वंदना) करो। यही सीधी डगर है।}[सूरह आल-ए-इमरान : 51]अल्लाह तआला ने ईसा मसीह -अलैहिस्सलाम- ही की बात करते हुए फ़रमाया कि उन्होंने अपनी क़ौम से कहा था:{ऐ इसराईल की संतानो! उसी अल्लाह की इबादत व बंदगी करो जो मेरा भी रब है और तुम्हारा भी। नि:संदेह जो अल्लाह के साथ शिर्क करता है, अल्लाह ने उसपर स्वर्ग ( जन्नत) को हराम कर दिया है, उसका ठिकाना जहन्नम है, और याद रखो कि अत्याचारियों का कोई सहायक नहीं है।}[सूरा अल-माइदा : 72]बल्कि परम सत्य तो यह है कि तौरात और इंजील दोनों में, केवल एक अल्लाह की बंदगी करने की ताकीद की गई है। तौरात की विधिविवरण किताब में मूसा -अलैहिस्सलाम- का कथन इस प्रकार आया है :“ऐ इसराईल, ध्यान से सुनो! हमारा पूज्य पालनहार, बस एक है।"इंजील-ए- मुरक़्क़स में भी आया है कि ईसा मसीह -अलैहिस्सलाम- ने ऐकेश्वरवाद पर ज़ोर एवं बल देते हुए कहा :(पहली वसीयत यह है कि ऐ इसराईल, ध्यानपूर्वक सुनो! हमारा पूज्य बस एक ही पालनहार है।)अल्लाह तआला ने यह बात बिल्कुल स्पष्ट कर दी है कि सारे पैग़म्बरों को जो अहम मिशन देकर भेजा गया था, वह ऐकेश्वरवाद का आह्वान ही था, जैसा कि उसने फ़रमाया :{और हमने प्रत्येक समुदाय में एक रसूल भेजा कि अल्लाह की इबादत (वंदना) करो और ताग़ूत (अल्लाह के अलावा पूजी जाने वाली हर वस्तु) से बचो, तो उनमें से कुछ को अल्लाह ने हिदायत का रास्ता दिखा दिया और कुछ लोगों से गुमराही चिपक गई।}[सूरा अन-नह्ल : 36]एक और स्थान में उसका फ़रमान है :{आप कहें कि भला देखो तो कि जिसे तुम पुकारते हो अल्लाह के सिवा, तनिक मुझे भी दिखा दो कि उन्होंने क्या उत्पन्न किया है धरती में से? अथवा उनका कोई साझी है आकाशों में? मेरे पास कोई पुस्तक ले आओ इससे पहले की, अथवा बचा हुआ कुछ ज्ञान, यदि तुम सच्चे हो।}[सूरा अल-अहक़ाफ़ : 4]शैख़ सादी -अल्लाह उनपर दया करे- कहते हैं :"मालूम हुआ कि बहुदेववादियों के पास, अपने शिर्क पर कोई तर्क और दलील नहीं थी। उन्होंने झूठी धारणाओं, कमज़ोर रायों और अपने बिगड़े हुए दिमागों को आधार बना लिया था। आपको उनके दिमागों के बिगाड़ का पता, उनकी अवस्था का अध्ययन करने, उनके ज्ञान और कर्म की खोज लगाने और उन लोगों की हालत पर नज़र करने से ही चल जाएगा, जिन्होंने अपनी पूरी आयु अल्लाह को छोड़कर झूठे भगवानों की पूजा-अर्चना में गुज़ार दी कि क्या उन झूठे भगवानों ने उनको दुनिया या आख़िरत में ज़रा भी लाभ पहुँचाया?"तैसीरुल करीमिर रहमान, पृष्ठ संख्या : 779
6- अल्लाह तआला ही एक मात्र रचयिता है, और बस वही पूजे जाने का ह़क़दार है। उसके साथ किसी और की पूजा-वंदना करना पूर्णतया अनुचित है।
बस अल्लाह ही इस बात का ह़क़दार है कि उसकी बंदगी की जाए और उसके साथ किसी को भी बंदगी में शरीक और शामिल न किया जाए। अल्लाह तआला कहता है :{ऐ लोगो! अपने उस रब (प्रभु) की उपासना करो, जिसने तुम्हें और तुमसे पूर्व के लोगों को पैदा किया, ताकि तुम अल्लाह से डरने वाले (मुत्तक़ी) बन जाओ।जिसने धरती को तुम्हारे लिए बिछावन तथा गगन को छत बनाया और आकाश से जल बरसाया, फिर उससे तुम्हारे लिए नाना प्रकार के खाद्य पदार्थ उपजाए। अतः, जानते हुए भी उसके साझी न बनाओ।}[सूरा अल-बक़रा : 21-22]तो सिद्ध हुआ कि जिसने हमें और हमसे पहले की पीढ़ियों को भी पैदा किया, धरती को हमारे लिए बिछावन बनाया और आकाश से जल बरसाकर, हमारे लिए नाना प्रकार की जीविकाएँ एवं खाद्दान्न पैदा किए, वही और बस वही हमारी बंदगी और उपासना का ह़क़दार भी ठहरता है!! अल्लाह तआला कहता है :{ऐ मनुष्यो! याद करो अपने ऊपर अल्लाह के परोपकार को, क्या कोई अल्लाह कि सिवा रचयिता है, जो तुम्हें जीविका प्रदान करता हो आकाश तथा धरती से? नहीं है कोई वंदनीय, परन्तु वही। फिर तुम कहाँ फिरे जा रहे हो?}[सूरा फ़ातिर : 3]तो जो पैदा करता और जीविका प्रदान करता है, बस वही इबादत और बंदगी का ह़क़दार भी ठहरता है। अल्लाह तआला कहता है :{वही अल्लाह तुम्हारा पालनहार है, उसके अतिरिक्त कोई सच्चा पूज्य नहीं। वह प्रत्येक वस्तु का उत्पत्तिकार है। अतः, उसी की इबादत करो तथा वही प्रत्येक चीज़ का अभिरक्षक है।}[सूरा अल-अनआम :102]इसके विपरीत जो कुछ भी अल्लाह के अलावा पूजा जाता है, सच्चाई यह है कि इबादत और बंदगी का ज़रा भी ह़क़दार नहीं है, क्योंकि वह आसमानों और धरती के एक कण-मात्र का भी मालिक नहीं है, और ना ही किसी वस्तु में अल्लाह का साझी, मददगार या सहायक है। तो भला उसे क्यों और किस तरह अल्लाह के साथ पुकारा जाए या अल्लाह का शरीक क़रार दिया जाए? अल्लाह तआला कहता है :{आप कह दें : उन्हें पुकारो जिन्हें तुम (पूज्य) समझते हो अल्लाह के सिवा। वह नहीं अधिकार रखते कण बराबर भी, न आकाशों में, न धरती में तथा नहीं है उनका उन दोनों में कोई भाग और नहीं है उस अल्लाह का उनमें से कोई सहायक।}[सूरा सबा : 22]बस अल्लाह तआला ही है जिसने इन तमाम सृष्टियों को रचा और अस्तित्वहीनता से अस्तित्व प्रदान किया है और यही एक बहुत बड़ी दलील है उसके अस्तित्व की, उसके पालनहार होने और पूज्य होने की। अल्लाह तआला कहता है :{और उसकी (शक्ति) के लक्षणों में से एक यह भी है कि तुम्हें उत्पन्न किया मिट्टी से, फिर अब तुम मनुष्य हो (कि धरती में) फैलते जा रहे हो।तथा उसकी निशानियों में से यह (भी) है कि उत्पन्न किए तुम्हारे लिए, तुम्हीं में से जोड़े, ताकि तुम शान्ति प्राप्त करो उनके पास, तथा उत्पन्न कर दिया तुम्हारे बीच प्रेम तथा दया। वास्तव में, इसमें कई निशाननियाँ हैं उन लोगों के लिए, जो सोच-विचार करते हैं।और उस की निशानियों में से आसमानों और ज़मीन को पैदा करना भी है, और तुम्हारी भाषाओं और रंगों का अलग-अलग होना भी है। नि:संदेह इसमें जानने वालों के लिए निशानियाँ मौजूद हैं।तथा उसकी निशानियों में से है, तुम्हारा सोना रात्रि में तथा दिन में और तुम्हारा खोज करना उसकी अनुग्रह (जीविका) का। वास्तव में, इसमें कई निशानियाँ हैं, उन लोगों के लिए, जो सुनते हैं।और उसकी निशानियों में से (ये भी) है कि वह दिखाता है तुम्हें बिजली को, भय तथा आशा बनाकर और उतारता है आकाश से जल, फिर जीवित करता है उसके द्वारा धरती को, उसके मरण के पश्चात्। वस्तुतः इसमें कई निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए, जो सोचते-समझते हैं।और उसकी निशानियों में से यह भी एक है कि स्थापित हैं आकाश तथा धरती उसके आदेश से। फिर जब तुम्हें पुकारेगा एक बार धरती से, तो सहसा तुम निकल पड़ोगे।और उसी का है, जो आकाशों तथा धरती में है। सब उसी के अधीन हैं।और वही अल्लाह है जो पहली बार पैदा करता है, फिर उसे वह दोबारा (पैदा) करेगा, और यह उसपर अधिक आसान है।}[सूरा अर-रूम : 20 - 27]जब नमरूद ने अल्लाह के अस्तित्व का इनकार किया तो इबराहीम -अलैहिस्सलाम- ने, जैसा कि अल्लाह तआला ने क़ुरआन में खबर दी है, उससे कहा :{इबराहीम ने कहा कि अल्लाह, सूरज को पूरब से उगाता है। अब तुम ज़रा उसे पश्चिम से उगाकर दिखा दो। काफ़िर यह सुनकर सन्न रह गया। सच है कि अल्लाह तआला ज़ालिम लोगों को हिदायत नहीं देता है।}[सूरा अल-बक़रा : 258]इस प्रकार से भी इबराहीम -अलैहिस्सलाम- ने अपनी क़ौम पर तर्क सिद्ध किया कि अल्लाह ही है जिसने मुझे हिदायत दी है, वही खिलाता-पिलाता है और जब बीमार होता हूँ तो वही शिफ़ा देता है। वही मारता है और जिलाता भी वही है। उन्होंने, जैसा कि अल्लाह तआला ने सूचना दी है, कहा :{जिसने मुझे पैदा किया, फिर वही मुझे मार्ग भी दर्शा रहा है।और जो मुझे खिलाता और पिलाता है।और जब रोगी होता हूँ, तो वही मुझे स्वस्थ करता है।तथा वही मुझे मारेगा, फिर मुझे जीवित करेगा।}[सूरा अश-शुअरा : 78 -81]अल्लाह तआला ने मूसा -अलैहिस्सलाम- के बारे में सूचना देते हुए कहा है कि उन्होंने फ़िरऔन से तर्क-वितर्क करते हुए कहा कि उनका रब वही है :{जिसने हर एक को उसका विशेष रूप दिया, फिर मार्गदर्शन किया।}[सूरा ताहा : 50 ]आसमानों और ज़मीन में जो कुछ है, सबको अल्लाह तआला ने इंसान के वश में कर दिया है, और उसे अपनी अनगिनत नेमतें प्रदान की हैं, ताकि वह अल्लाह की बंदगी करे और उसके साथ कुफ़्र ना करे। अल्लाह का फ़रमान है :{क्या तुमने नहीं देखा कि अल्लाह ने वश में कर दिया है तुम्हारे लिए, जो कुछ आकाशों तथा धरती में है, तथा पूर्ण कर दिया है तुमपर अपना पुरस्कार खुला तथा छिपा? और कुछ लोग विवाद करते हैं अल्लाह के विषय में बिना किसी ज्ञान, बिना किसी मार्गदर्शन और बिना किसी दिव्य (रौशन) पुस्तक के।}[सूरा लुक़मान : 20]अल्लाह तआला ने आकाशों और धरती की तमाम चीज़ों को इंसान के वश में तो किया ही है, साथ ही साथ उसे उसकी ज़रूरत की हर वस्तु जैसे कान, आँख और दिल भी प्रदान किया है, ताकि वह ऐसा ज्ञान प्राप्त कर सके जो लाभकारी हो, और उसे अपने स्वामी और रचयिता की पहचान करा सके। अल्लाह तआला कहता है :{और अल्लाह ही ने तुम्हें तुम्हारी माताओं के गर्भों से निकाला, इस दशा में कि तुम कुछ नहीं जानते थे, और तुम्हारे कान और आँख तथा दिल बनाए, ताकि तुम (उसका) उपकार मानो।}[सूरा अन-नह्ल : 78]
ज्ञात हुआ कि अल्लाह ने तमाम जहानों और मानव को पैदा किया और मानव को वह सभी अंग तथा इंद्रियाँ प्रदान कीं जिनकी उसे आवश्यकता थी। उसपर यह उपकार भी किया कि उसे वह सभी वस्तुएँ भी उपलब्ध कराईं, जिनकी सहायता से वह अल्लाह की बंदगी और धरती को आबाद कर सके। फिर आकाशों और धरती पर जो कुछ भी है, सबको उसके वश में कर दिया।
फिर अल्लाह तआला ने अपनी तमाम महान सृष्टियों की रचना को अपने पूज्य होने को शामिल अपनी पालनहार होने पर तर्क बनाते हुए कहा :{(ऐ नबी!) उनसे पूछें कि तुम्हें कौन आकाश तथा धरती से जीविका प्रदान करता है? सुनने तथा देखने की शक्तियाँ किसके अधिकार में हैं? कौन निर्जीव से जीव को तथा जीव से निर्जीव को निकालता है? वह कौन है, जो विश्व की व्यवस्था कर रहा है? वे कह देंगे कि अल्लाह! फिर कहो कि क्या तुम (सत्य का विरोध करने से) डरते नहीं हो?}[सूरा यूनुस : 31]अल्लाह तआला ने एक और स्थान पर कहा है:{आप कहें कि भला देखो तो सही कि जिसे तुम पुकारते हो अल्लाह के सिवा, तनिक मुझे दिखा दो कि उन्होंने क्या उत्पन्न किया है धरती में से? अथवा उनका कोई साझा है आकाशों में? मेरे पास कोई पुस्तक ले आओ इससे पहले की अथवा बचा हुआ कुछ ज्ञान, यदि तुम सच्चे हो।}[सूरा अल-अहक़ाफ़ : 4]तथा अल्लाह तआला का फ़रमान है :{(अल्लाह ने) जैसा कि तुम देख रहे हो, समस्त आसमानों को बिना स्तंभों के पैदा किया, और धरती के अंदर कीलें (पहाड़) गाड़ दीं ताकि वह तुम्हें लेकर ढलक न जाए, और उसमें नाना प्रकार के चौपाए पैदा करके फैला दिए, फिर आसमान से बारिश बरसाकर हर चीज़ का बढ़िया जोड़ा बनाया। यह है अल्लाह की रचना का उदाहरण, अब तुम मुझे तनिक दिखाओ कि अल्लाह के अतिरिक्त जिन चीज़ों की तुम पूजा करते हो, उन्होंने क्या कुछ पैदा किया है? बल्कि सत्य तो यह है कि अत्याचारी, खुली गुमराही में पड़े हैं।}[सूरा लुक़मान :10-11]अल्लाह तआला ने एक और स्थान पर कहा है:{क्या यह लोग बिना किसी पैदा करने वाले के स्वयं पैदा हो गये हैं या यह स्वयं उत्पत्तिकर्ता (पैदा करने वाले) हैं?या उन्होंने ही पैदा किया है आकाशों तथा धरती को? वास्तव में, वे विश्वास ही नहीं रखते हैं।या फिर उनके पास आपके पालनहार के ख़ज़ाने हैं या वही (उसके) अधिकारी हैं?}[सूरा अत- तूर : 35-37]शैख़ सादी कहते हैं :"यह उनके विरुद्ध ऐसे मामले पर ऐसी तर्कयुक्ति है कि उनके लिए सत्य के सामने नतमस्तक हो जाने या विवेक और धर्म की पराकाष्ठा से बाहर चले जाने के अतिरिक्त कोई दूसरा रास्ता नहीं बचता।"तफ़सीर इब्ने सादी, पृष्ठ संख्या : 816
7- दुनिया की हर वस्तु, चाहे हम उसे देख सकें या नहीं देख सकें, का रचयिता बस अल्लाह है। उसके अतिरिक्त जो कुछ भी है, उसी की सृष्टि है। अल्लाह तआला ने आसमानों और धरती को छह दिनों में पैदा किया है।
दुनिया की हर वस्तु, चाहे हम उसे देख सकें या नहीं देख सकें, का रचयिता बस अल्लाह है। उसके अतिरिक्त जो कुछ भी है, उसी की सृष्टि है। अल्लाह तआला ने फ़रमाया है :{उनसे पूछो : आकाशों तथा धरती का पालनहार कौन है? कह दो : अल्लाह है। कहो कि क्या तुमने अल्लाह के सिवा उन्हें सहायक बना लिया है, जो अपने लिए किसी लाभ का अधिकार नहीं रखते हैं, और न किसी हानि का? उनसे कहो : क्या अंधा और देखने वाला बराबर होता है या अंधकार और प्रकाश बराबर होते हैं? अथवा उन्होंने अल्लाह के अनेक ऐसे साझी बना लिए हैं, जिन्होंने अल्लाह के उत्पत्ति करने के समान उत्पत्ति की है, अतः उत्पत्ति का विषय उनपर उलझ गया है? आप कह दें कि अल्लाह ही प्रत्येक चीज़ की उत्पत्ति करने वाला है और वही अकेला प्रभुत्वशाली है।}[सूरा अर-रअ्द :16] एक और स्थान में अल्लाह तआला फ़रमाता है :{और वह ऐसी चीज़ें भी पैदा करता है, जिनको तुम लोग जानते भी नहीं हो।}[सूरा अन-नह्ल :8]अल्लाह तआला ने आकाशों और धरती को छह दिनों में पैदा किया है, जैसा कि उसी ने कहा है :{उसी ने उत्पन्न किया है आकाशों तथा धरती को छह दिनों में, फिर स्थित हो गया अर्श (सिंहासन) पर। वह जानता है उसे, जो प्रवेश करता है धरती में, जो निकलता है उससे, जो उतरता है आकाश से तथा चढ़ता है उसमें और वह तुम्हारे साथ है जहाँ भी तुम रहो और अल्लाह जो कुछ तुम कर रहे हो, उसे देख रहा है।}[सूरा अल-हदीद : 4]एक अन्य स्थान में अल्लाह तआला का फ़रमान है :{तथा निश्चय ही हमने पैदा किया है आकाशों तथा धरती को और जो कुछ दोनों के बीच है छह दिनों में और हमें कोई थकान नहीं हुई।}[सूरा क़ाफ़ : 38]
8- स्वामित्व, सृजन, व्यवस्थापन और इबादत में अल्लाह तआला का कोई साझी एवं शरीक नहीं है।
अल्लाह तआला ही पूरे ब्राह्मांड का अकेला स्वामी है। रचना, आधिपत्य और और व्यवस्था करने में उसका कोई शरीक और साझी नहीं है। अल्लाह का फ़रमान है :{आप कहें कि भला देखो तो कि जिसे तुम पुकारते हो अल्लाह के सिवा, तनिक मुझे भी दिखा दो कि उन्होंने क्या उत्पन्न किया है धरती में से? अथवा उनका कोई साझी है आकाशों में? मेरे पास कोई पुस्तक ले आओ इससे पहले की, अथवा बचा हुआ कुछ ज्ञान, यदि तुम सच्चे हो।}[सूरा अल-अहक़ाफ़ : 4]शैख़ सादी -अल्लाह उनपर दया करे- कहते हैं :"अर्थात, आप उन लोगों से कह दीजिए जिन्होंने अल्लाह के साथ ढेर सारे बुत और समतुल्य बना लिए हैं कि वे लाभ पहुँचा सकते हैं न हानि, न मौत दे सकते हैं और न जीवन और ना ही किसी मृतक को ज़िंदा करने में सक्षम हैं। आप उनके बुतों की लाचारी को उनके सामने बिल्कुल स्पष्ट कर दीजिए और बता दीजिए कि वे इस बात के कण बराबर भी ह़क़दार नहीं हैं कि उनकी इबादत की जाए। उनसे कहिए कि यदि उन्होंने धरती की किसी चीज़ को पैदा किया है या आकाशों के सृजन में उनकी कोई साझेदारी है तो ज़रा मुझे भी दिखा दो। उनसे पूछिए कि क्या उन्होंने किसी खगोलीय पिंड का सृजन किया है, पहाड़ों को पैदा किया है, नहरें जारी की हैं, किसी मृत पशु को ज़िंदा किया है तथा पेड़ उगाए हैं? क्या उन्होंने इनमें से किसी चीज़ के सृजन में हाथ बटाया है? दूसरों को तो रहने दीजिए, स्वयं यह लोग इनमें से किसी भी प्रश्न का हाँ में उत्तर नहीं दे सकेंगे और यही इस बात की कतई तार्किक दलील है कि अल्लाह के सिवा किसी भी सृष्टि की बंदगी बहरहाल असत्य और बातिल है।फिर पूर्वजों से होकर आने वाली दलील का खंडन करते हुए कहा गया कि इससे पहले की कोई ऐसी किताब ही ढूँढ़कर ले आओ, जो शिर्क की तरफ़ बुलाती हो या रसूलों -अलैहिमुस्सलाम- से नकल होकर चले आ रहे बचे- खुचे ज्ञान का कोई टुकड़ा ही दिखा दो, जो शिर्क करने का हुक्म देता हो। सर्वविदित है कि उनके अंदर किसी रसूल के हवाले से ऐसी कोई दलील लाने की क्षमता नहीं है, जो शिर्क की पुष्टि करे, बल्कि हम पूरे यक़ीन से और डंके की चोट पर कह रहे हैं कि समस्त रसूलों ने ऐकेश्वरवाद की दावत दी और शिर्क करने से रोका और यही वह सबसे बड़ा और सबसे महत्वपूर्ण ज्ञान है, जो उनसे नक़ल किया गया है।"तफ़सीर इब्ने सादी : 779पवित्र एवं महान अल्लाह ही पूरे ब्राह्मांड का स्वामी है और इस स्वामित्व एवं प्रभुत्व में उसका कोई शरीक नहीं। अल्लाह तआला का फ़रमान है :{(ऐ नबी!) कहो : ऐ अल्लाह, ऐ पूरे ब्राह्मांड के स्वामी! तू जिसे चाहे, राज्य दे और जिससे चाहे, राज्य छीन ले, तथा जिसे चाहे, सम्मान दे और जिसे चाहे, अपमान दे। तेरे ही हाथ में भलाई है। निस्संदेह तू जो चाहे, कर सकता है।}[सूरा आल-इमरान : 26]अल्लाह तआला ने इस बात को पूर्णतया स्पष्ट करते हुए कि क़यामत के दिन सम्पूर्ण स्वामितव एवं प्रभुत्व उसी के पास होगा, फ़रमाया :{जिस दिन सब लोग (जीवित होकर) निकल पड़ेंगे। नहीं छुपी होगी अल्लाह पर उनकी कोई चीज़। (ऐसे में वह पूछेगा) किसका राज्य है आज? अकेले प्रभुत्वशाली अल्लाह का।}[सूरा ग़ाफ़िर :16]स्वामित्व, सृजन, व्यवस्था और इबादत में अल्लाह तआला का कोई साझी एवं शरीक नहीं है। अल्लाह तआला का फ़रमान है :{तथा कह दो कि सब प्रशंसा उस अल्लाह के लिए है, जिसके कोई संतान नहीं और ना राज्य में उसका कोई साझी है और ना अपमान से बचाने के लिए उसका कोई समर्थक है और आप उसकी महिमा का खूब वर्णन करें।}[सूरा अल-इसरा :111]तथा अल्लाह तआला का फ़रमान है :{जिसके लिए आकाशों तथा धरती का राज्य है तथा उसने अपने लिए कोई संतान नहीं बनाई और ना उसका कोई साझी है राज्य में, तथा उसने प्रत्येक वस्तु की उत्पत्ति की, फिर उसे एक निर्धारित रूप दिया।}[सूरा अल-फ़ुरक़ान : 2]तो वही स्वामी है और उसके सिवा जो भी है, उसका गुलाम है। वही रचयिता है और उसके सिवा जो भी है, उसकी रचना है। वही है जो विश्व की सारी व्यवस्था करता है। और जिसकी यह शान हो तो ज़ाहिर है कि उसी की बंदगी वाजिब होगी और उसके सिवा किसी और की बंदगी निश्चय ही विवेकहीनता, शिर्क और दुनिया एवं आख़िरत दोनों को बिगाड़ देने वाली वस्तु शुमार होगी। अल्लाह तआला कहता है :{और वे कहते हैं कि यहूदी हो जाओ अथवा ईसाई हो जाओ, तुम्हें मार्गदर्शन मिल जाएगा। आप कह दें कि नहीं! हम तो एकेश्वरवादी इबराहीम के धर्म पर हैं और वह बहुदेववादियों में से नहीं था।}[सूरा अल-बक़रा :135]एक अन्य स्थान में वह कहता है :{तथा उस व्यक्ति से अच्छा किसका धर्म हो सकता है, जिसने स्वयं को अल्लाह के लिए झुका दिया, वह एकेश्वरवादी भी हो और एकेश्वरवादी इबराहीम के धर्म का अनुसरण भी कर रहा हो? और अल्लाह ने इबराहीम को अपना विशुद्ध मित्र बना लिया है।}[सूरा अन-निसा :125]अल्लाह तआला ने स्पष्ट कर दिया है कि जिसने भी उसके दोस्त इबराहीम -अलैहिस्सलाम- के धर्म के अलावा किसी और धर्म का अनुसरण किया, उसने अपने आपको मूर्ख बनाया, जैसा कि उसने कहा है :{तथा कौन होगा, जो इबराहीम के धर्म से विमुख हो जाए, परन्तु वही जो स्वयं को मूर्ख बना ले? जबकि हमने उसे संसार में चुन लिया तथा आख़िरत में उसकी गणना सदाचारियों में होगी।}[सूरा अल-बक़रा :130]
9- अल्लाह तआला ने ना किसी को जना और ना ही वह स्वयं किसी के द्वारा जना गया, ना उसका समतुल्य कोई है और ना ही कोई समकक्ष।
अल्लाह तआला ने ना किसी को जना और ना ही वह स्वयं किसी के द्वारा जना गया, ना उसका समतुल्य कोई है और ना ही कोई समकक्ष, जैसा कि उसी ने फ़रमाया है :{आप कह दीजिए कि वह अल्लाह एक है।अल्लाह निरपेक्ष (और सर्वाधार) है।ना उसने (किसी को) जना, और ना (किसी ने) उसको जना।और ना उसके बराबर कोई है।}[सूरा अल-इख़लास :1-4]तथा अल्लाह तआला का फ़रमान है :{आकाशों तथा धरती का पालनहार तथा जो उन दोनों के बीच है, सबका पालनहार वही अल्लाह है। अतः उसी की इबादत (वंदना) करें तथा उसकी इबादत पर अडिग रहें। क्या आप उसका समकक्ष किसी को जानते हैं?}[सूरा मरयम : 65]अल्लाह तआला दूसरी जगह फ़रमाता है:{वह आकाशों तथा धरती का रचयिता है। उसने बनाए हैं तुम्हारी जाति में से तुम्हारे जोड़े तथा पशुओं के जोड़े। वह फैला रहा है तुम्हें उसमें। उसके जैसा कोई भी नहीं है, और वह सब कुछ सुनने-जानने वाला है।}[सूरा अश-शूरा : 11]
10- अल्लाह तआला किसी चीज़ में प्रविष्ट नहीं होता, और ना ही अपनी सृष्टि में से किसी चीज़ में रूपांत्रित होता है।
अल्लाह तआला किसी चीज़ में प्रविष्ट नहीं होता, ना ही अपनी सृष्टि में से किसी चीज़ में रूपांत्रित होता है, और ना ही किसी वस्तु में मिश्रित होता है, क्योंकि अल्लाह ही रचयिता है और उसके सिवा जो भी है, उसकी सृष्टि है, वही अनश्वर है और उसके सिवा सब कुछ नश्वर है, हर चीज़ उसके स्वामित्व में है और हर चीज़ का स्वामी बस वही है। इसलिए, अल्लाह ना किसी चीज़ में समाता है और ना ही कोई चीज़ उसमें समा सकती है। अल्लाह हर चीज़ से बड़ा है और हर चीज़ से अधिक विशालकाय है। जिन बुद्धिहीनों की धारणा यह है कि अल्लाह तआला, ईसा मसीह के अंदर समाया हुआ था, उनको नकारते हुए स्वयं अल्लाह ने फ़रमाया है :{निश्चय ही वे काफ़िर हो गए, जिन्होंने कहा कि मरयम का पुत्र मसीह ही अल्लाह है। (ऐ नबी!) उनसे कह दो कि यदि अल्लाह मरयम के पुत्र और उसकी माता तथा जो भी धरती में है, सबका विनाश कर देना चाहे, तो किसमें शक्ति है कि वह उसे रोक दे? तथा आकाश और धरती और जो भी इनके बीच में है, सब अल्लाह ही का राज्य है। वह जो चाहे, उतपन्न करता है तथा वह जो चाहे, कर सकता है।}[सूरा अल-माइदा : 17]एक अन्य स्थान में उसका फ़रमान है :{तथा पूर्व और पश्चिम अल्लाह ही के हैं; तुम जिधर भी मुख करो, उधर ही अल्लाह का मुख है और अल्लाह अति विशाल, अति ज्ञानी है।तथा उन्होंने कहा कि अल्लाह ने कोई संतान बना ली। वह इससे पवित्र है। आकाशों तथा धरती में जो भी है, वह उसी का है और सब उसी के आज्ञाकारी हैं।वह आकाशों तथा धरती का आविष्कारक है। जब वह किसी बात का निर्णय कर लेता है, तो उसके लिए बस यह आदेश देता है कि "हो जा" और वह हो जाती है।}[सूरा अल-बक़रा : 115-117]एक और जहन वह कहता है :{और उनका कहना तो यह है कि अति कृपावान अल्लाह ने संतान बना रखी है।नि:संदेह तुम बहुत (बुरी और) भारी चीज़ लाए हो।करीब है कि इस कथन से आकाश फट जाए और धरती में दराड़ हो जाए और पहाड़ कण-कण हो जाएँ।कि वे रहमान की संतान साबित करने बैठे हैं।और रहमान के अनुकूल नहीं कि वह संतान रखे।आकाशों और धरती में जो भी वस्तु है, अल्लाह का गुलाम बनकर ही आने वाली है।उसने उन्हें नियंत्रण में ले रखा है तथा उन्हें पूर्णतः गिन रखा है।और प्रत्येक उसके समक्ष आने वाला है, प्रलय के दिन अकेला।}[सूरा मरयम : 88-95]एक और स्थान में उसका फ़रमान है :{अल्लाह के सिवा कोई इबादत के लायक़ नहीं। वह सदा जीवित है, स्वयं बाकी रहने वाला तथा सम्पूर्ण जगत को संभालने वाला है, ना उसे ऊँघ आती है ना नींद। आकाश और धरती की सारी चीज़ें उसी की हैं। कौन है, जो उसके पास उसकी अनुमति के बिना अनुशंसा (सिफ़ारिश) कर सके? वह बंदों के सामने की और उनसे ओझल सारी वस्तुओं को जानता है। उसके ज्ञान में से कोई चीज़ इंसान के ज्ञान के दायरे में नहीं आ सकती, यह और बात है कि वह खुद ही कुछ बता दे। उसकी कुर्सी के फैलाव ने आसमान एवं ज़मीन को घेर रखा है। और उन दोनों की रक्षा उसे नहीं थकाती। और वह सबसे ऊँचा, महान है।}[सूरा अल-बक़रा : 255]जिसकी शान यह है और जिसके मुक़ाबले में सृष्टियों की शान इतनी तुच्छ है तो ज़रा सोचिए कि उनमें से किसी के अंदर उसको कैसे समाहित किया जा सकेगा? वह किसको अपनी संतान बनाएगा भला या उसके साथ भला किसको पूज्य बनाया जा सकेगा?
11- अल्लाह तआला अपने बंदों पर बड़ा ही दयावान और कृपाशील है। इसी लिए उसने बहुत सारे रसूल भेजे और बहुत सारी किताबें उतारीं।
अल्लाह तआला अपने बंदों पर बड़ा ही दयावान और कृपाशील है। उसकी कृपा एवं करूणा की एक निशानी यह है कि उसने उनकी ओर बहुत सारे रसूल भेजे और बहुत सारी किताबें उतारीं, ताकि उन्हें कुफ्र और शिर्क के अंधकारों से निकाल कर एकेश्वरवाद और हिदायत के प्रकाश की ओर ले जाए। अल्लाह तआला का फ़रमान है :{वही है, जो उतार रहा है अपने बंदे पर खुली आयतें, ताकि वह तुम्हें निकाले अंधेरों से प्रकाश की ओर तथा वास्तव में, अल्लाह तुम्हारे लिए बेहद करुणामय, दयावान् है।}[सूरा अल-हदीद : 9]एक अन्य स्थान में उसका फ़रमान है :{और (ऐ नबी!) हमने आपको नहीं भेजा है, किन्तु समस्त संसार के लिए दया बना कर।}[सूरा अल-अंबिया : 107]अल्लाह तआला ने अपने नबी को आदेश दिया है कि वे बंदों को यह सूचना दे दें कि अल्लाह बेहद माफ़ करने वाला और अत्यंत दयावान है। अल्लाह तआला का फ़रमान है :{(ऐ नबी!) आप मेरे बंदों को सूचित कर दें कि वास्तव में, मैं बड़ा क्षमाशील दयावान् हूँ।}[सूरा अल-हिज्र : 49]उसकी दया और करूणा ही का नतीजा है कि वह अपने बंदों का कष्ट एवं दु:ख हरता और उनसे भलाई का मामला करता है। कहता है :{और यदि अल्लाह आपको कोई दुःख पहुँचाना चाहे, तो उसके सिवा कोई उसे दूर करने वाला नहीं और यदि आपको कोई भलाई पहुँचाना चाहे, तो कोई उसकी भलाई को रोकने वाला नहीं। वह अपनी दया अपने भक्तों में से जिसपर चाहे, करता है तथा वह क्षमाशील दयावान् है।}[सूरा यूनुस : 107]
12- अल्लाह तआला ही वह अकेला दयावान रब है, जो क़यामत के दिन समस्त इंसानों का, उन्हें उनकी क़ब्रों से दोबारा जीवित करके उठाने के बाद, हिसाब-किताब लेगा और हर व्यक्ति को उसके अच्छे-बुरे कर्मों के अनुसार प्रतिफल देगा। जिसने मोमिन रहते हुए अचछे कर्म किए होंगे, उसे हमेशा रहने वाली नेमतें प्रदान करेगा और जो दुनिया में काफ़िर रहा होगा और बुरे कर्म किए होंगे, उसे प्रलय में भयंकर यातना से ग्रस्त करेगा।
अल्लाह तआला ही वह अकेला दयावान रब है, जो क़यामत के दिन समस्त इंसानों का, उन्हें उनकी क़ब्रों से दोबारा जीवित करके उठाने के बाद, हिसाब-किताब लेगा और हर व्यक्ति को उसके अच्छे-बुरे कर्मों के अनुसार अच्छा या बुरा प्रतिफल देगा। जिसने मोमिन रहते हुए अचछे कर्म किए होंगे, उसे हमेशा रहने वाली नीमतें प्रदान करेगा और जो दुनिया में काफ़िर रहा होगा और बुरे कर्म किए होंगे, उसे क़यामत के दिन भयंकर यातना से ग्रस्त करेगा। यह अल्लाह तआला का अपने बंदों के साथ सम्पूर्ण न्याय, हिकमत और करूणा ही है कि उसने इस दुनिया को कर्मभूमि और दूसरे घर अर्थात आख़िरत को श्रेय, हिसाब-किताब और बदला पाने का स्थान बनाया है, ताकि पुण्यकारी अपने पुण्य का श्रेय प्राप्त करे और बुराई करने वाला ज़ालिम एवं उपद्रवी मानव अपने ज़ुल्म एवं उपद्रव की सज़ा भुगते। चूँकि कुछ लोग इन बातों को दूर की कौड़ी समझते हैं, इसलिए अल्लाह तआला ने ऐसी बहुत सारी दलीलें क़ायम कर दी हैं जिनसे साबित होता है कि मरने के बाद दोबारा ज़िंदा करके उठाए जाने का मामला बिल्कुल हक और सच है और उसमें किसी संदेह एवं शक की कोई गुंजाइश नहीं है। अल्लाह का फ़रमान है :{और उस (अल्लाह) की निशानियों में से (यह भी) है कि तू धरती को दबी-दबाई और शुष्क देखता है, फिर जब हम उसपर वर्षा करते हैं तो वह ताज़ा एवं निर्मल होकर उभरने लगती है। जिसने उसे ज़िन्दा कर दिया, वही निश्चित रूप से मुर्दा को भी ज़िन्दा करने वाला है। बेशक वह हर चीज़ में सक्षम है।}[सूरा फ़ुस्सिलत : 39]तथा अल्लाह तआला ने कहा है :{ऐ लोगो! यदि तुम किसी संदेह में हो पुनः जीवित होने के विषय में, तो (सोचो कि) हमने तुम्हें मिट्टी से पैदा किया, फिर वीर्य से, फिर रक्त के थक्के से, फिर माँस के खंड से, जो चित्रित तथा चित्र विहीन होता है, ताकि हम उजागर कर दें तुम्हारे लिए और स्थिर रखते हैं गर्भाशयों में जब तक चाहें; एक निर्धारित अवधि तक, फिर तुम्हें निकालते हैं शिशु बनाकर, फिर ताकि तुम पहुँचो अपने यौवन को और तुममें से कुछ पहले ही मर जाते हैं और तुममें से कुछ जीर्ण आयु की ओर फेर दिए जाते हैं, ताकि उसे कुछ ज्ञान न रह जाए ज्ञान के पश्चात् तथा तुम देखते हो धरती को सूखी, फिर जब हम उसपर जल-वर्षा करते हैं, तो सहसा लहलहाने और उभरने लगी तथा उगा देती है प्रत्येक प्रकार की सुदृश्य वनस्पतियाँ।}[सूरा अल-हज्ज : 5]इस प्रकार, अल्लाह तआला ने इस आयत में तीन ऐसी तार्किक दलीलें दी हैं जो मरने के बाद दोबारा ज़िंदा किए जाने का अटल प्रमाण देती हैं, जो कुछ इस तरह हैं :
1- अल्लाह तआला ने मानव को पहली बार मिट्टी से पैदा किया है और जो उसे मिट्टी से पैदा करने में सक्षम है, वह उसे मिट्टी में मिल जाने के बाद दोबारा जीवन देने में भी सक्षम हो सकता है।
2- जो वीर्य से मानव पैदा करने में सक्षम है, वह इंसान को मृत्यु के बाद दोबारा जीवन भी लौटा सकता है।
3- जो मृत भूमि को बारिश के ज़रिए ज़िंदा कर सकता है, वह मृत इंसान को भी ज़िंदा कर सकता है। इस आयत में क़ुरआन के करिश्मे पर भी एक महान दलील निहित है। वह यह है कि कैसे उसने एक बेहद पेचीदा मसले पर तीन बहुत ही महान एवं तार्किक प्रमाणों को बस एक ही आयत में, जो बहुत लंबी भी नहीं है, बहुत ही सुंदर शैली के साथ समेट दिया।
एक और जहन वह कहता है :{जिस दिन हम लपेट देंगे आकाश को, पंजिका के पन्नों को लपेट देने के समान, जैसे हमने आरंभ किया था प्रथम उत्पत्ति का, उसी प्रकार उसे दुहराएँगे। इस (वचन) को पूरा करना हमपर है और हम पूरा करके रहेंगे।}[सूरा अल-अंबिया :104]एक और जगह वह कहता है :{और उस ने हमारे लिए मिसाल बयान की और अपनी (मूल) पैदाईश को भूल गया। कहने लगा कि इन सड़ी-गली हड्डियों को कौन ज़िन्दा कर सकता है? कह दीजिए कि उन्हें वह ज़िन्दा करेगा जिसने उन्हें पहली बार पैदा किया, जो सब प्रकार की पैदाईश को अच्छी तरह जानने वाला है।आप कह दें : वही, जिसने पैदा किया है प्रथम बार और वह प्रत्येक उत्पत्ति को भली-भाँति जानने वाला है।}[सूरा या-सीन : 78]एक अन्य स्थान में वह कहता है :{क्या तुम्हें पैदा करना कठिन है अथवा आकाश को, जिसे उसने बनाया? (27)।उसकी छत ऊँची की और उसे चौरस किया।और उसकी रात को अंधेरी तथा दिन को उजाला किया।और उसके बाद धरती को बिछाया।और उससे उसका पानी और चारा निकाला।और पहाड़ों को अच्छी तरह से गाड़ा।}[सूरा अन-नाज़िआत : 27-32]इस प्रकार, अल्लाह तआला ने यह स्पष्ट कर दिया कि मनुष्य को पैदा करना आकाश, धरती और उन दोनों के बीच में जो कुछ भी है, को पैदा करने से ज़्यादा कठिन नहीं है। इससे साबित हो जाता है कि जो हस्ती आकाशों और धरती को पैदा कर सकती है, वह मानव को दोबारा जीवन भी दे सकती है।
13- अल्लाह तआला ने आदम को मिट्टी से पैदा किया और उनके बाद उनकी संतति को धीरे-धीरे पूरी धरती पर फैला दिया। इस ऐतबार से तमाम इंसान वंशज के लिहाज़ से पूर्णतया एक समान हैं। किसी लिंग विशेष को किसी अन्य लिंग पर और किसी क़ौम को किसी दूसरी क़ौम पर, धर्मपरायणता अर्थात परहेज़गारी के अलावा, कोई वरीयता प्राप्त नहीं है।
अल्लाह तआला ने आदम को मिट्टी से पैदा किया और उनके बाद उनकी संतति को धीरे-धीरे पूरी धरती पर फैला दिया। इस ऐतबार से तमाम इंसान वंशज के लिहाज़ से पूर्णतया एक समान हैं। किसी लिंग विशेष को किसी अन्य लिंग पर और किसी क़ौम को किसी दूसरी क़ौम पर, धर्मपरायणता यानी परहेज़गारी के अलावा, कोई वरीयता प्राप्त नहीं है। अल्लाह तआला ने फ़रमाया है :{ऐ मनुष्यो! हमने तुम्हें पैदा किया एक नर तथा एक नारी से तथा बना दी हैं तुम्हारी जातियाँ तथा प्रजातियाँ, ताकि एक-दूसरे को पहचानो। वास्तव में, तुममें अल्लाह के समीप सबसे अधिक आदरणीय वही है, जो तुममें अल्लाह से सबसे अधिक डरता हो। वास्तव में अल्लाह सब जानने वाला है, सबसे सूचित है।}[सूरा अल-हुजुरात : 13]एक अन्य स्थान में उसका फ़रमान है :{अल्लाह ने उत्पन्न किया तुम्हें मिट्टी से, फिर वीर्य से, फिर बनाए तुम्हें जोड़े और नहीं गर्भ धारण करती है कोई नारी और न जन्म देती है, परन्तु उसके ज्ञान से और नहीं आयु दिया जाता कोई अधिक और न कम की जाती है उसकी आयु, परन्तु वह एक लेख में है। वास्तव में, यह अल्लाह के लिए अति सरल है।}[सूरा फ़ातिर : 11]एक और जगह वह कहता है :{वही है, जिसने तुम्हें पैदा किया मिट्टी से, फिर वीर्य से, फिर बंधे रक्त से, फिर तुम्हें निकालता है (गर्भाशयों से) शिशु बनाकर। फिर बड़ा करता है, ताकि तुम अपनी पूरी शक्ति को पहुँचो, फिर बूढ़े हो जाओ तथा तुममें कुछ इससे पहले ही मर जाते हैं और यह इसलिए होता है, ताकि तुम अपनी निश्चित आयु को पहुँच जाओ और ताकि तुम समझो।}[सूरा ग़ाफ़र : 67]अल्लाह तआला ने स्पष्ट रूप से कह दिया है कि उसने ईश्वरीय आदेश के ज़रिए मसीह -अलैहिस्सलाम- को उसी तरह पैदा किया है, जिस तरह आदम -अलैहिस्सलाम- को ईश्वरीय आदेश के ज़रिए पैदा किया है। उसने फ़रमाया :{वस्तुतः अल्लाह के पास ईसा की मिसाल ऐसी ही है, जैसे आदम की। उसे (अर्थात आदम को) मिट्टी से उत्पन्न किया, फिर उससे कहाः "हो जा" तो वह हो गया।}[सूरा आल-ए-इमरान : 59]पैरा संख्या : 2 के तहत मैं बयान कर आया हूँ कि अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने स्पष्ट कर दिया है कि सारे इंसान बरारब हैं, किसी को किसी पर तक़वा के सिवा किसी और वस्तु में वरीयता प्राप्त नहीं है।
14- हर बच्चा, फ़ितरत (प्रकृति) पर पैदा होता है।
हर बच्चा, फ़ितरत (प्रकृति) पर पैदा होता है। अल्लाह तआला का फ़रमान है :{आप बेलाग होकर अपना मुँह धर्म की और कर लें। यही अल्लाह तआला की वह प्रकृति है जिसपर उसने लोगों को पैदा किया है। अल्लाह की सृष्टि को बदलना नहीं है। यही सीधा धर्म-मार्ग है, किन्तु अधिकांश लोग नहीं जानते।}[सूरा अर-रूम : 30] इस आयत में आए हुए शब्द हनीफ़ीयत से तात्पर्य, इबराहीम -अलैहिस्सलाम- का धर्म-मार्ग है।{फिर हमने (ऐ नबी!) आपकी और वह़्य की कि एकेश्वरवादी इबराहीम के धर्म का अनुसरण करो और वह बहुदेववादियों में से नहीं था।}[सूरा अन-नह्ल : 123]अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया :"प्रत्येक पैदा होने वाला बच्चा (इस्लाम) की प्रकृति पर जन्म लेता है, फिर उस के माता-पिता उसे यहूदी बना देते हैं या ईसाई बना देते हैं या मजूसी (आग की पूजा करने वाला) बना देते हैं। जिस प्रकार कि जानवर पूरे जानवर को जन्म देते हैं। क्या तुम उनमें कोई नक्कटा जानवर पाते हो?"इस हदीस का वर्णन करने के बाद, अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अनहु- कहते हैं :{यह अल्लाह का अटल प्राकृतिक नियम है, जिसपर उसने तमाम इंसानों को पैदा किया है। अल्लाह के इस प्राकृतिक नियम में कोई बदलाव नहीं है। यही स्वभाविक नियम है, किन्तु अधिकांश लोग नहीं जानते।}[सूरा अर-रूम : 30]सहीह अल-बुख़ारी, हदीस संख्या : 4775अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया :"सुनो! निस्संदेह मेरे पालनहार ने मुझे यह आदेश दिया है कि मैं तुम्हें उन बातों की शिक्षा दूँ, जिनसे तुम अनभिज्ञ हो, जिनकी उसने मुझे आज के दिन शिक्षा दी है। (अल्लाह तआला कहता है) हर वह माल जो मैंने किसी बन्दे को प्रदान किया है, हलाल है और मैंने अपने सभी बन्दों को सच्चे धर्म का पालन करने वाला बनाकर पैदा किया, परंतु उनके पास शैतान आया और उनको उनके धर्म से फेर दिया और उनपर उन चीजों को हराम कर दिया, जो मैंने उनके लिए हलाल किया था और उन्हें हुक्म दिया कि वे मेरे साथ उस चीज़ को साझी ठहराएँ जिसके बारे में मैंने कोई दलील नहीं उतारी।"सहीह मुस्लिम, हदीस संख्या : 2865
15- कोई भी इंसान, जन्म-सिद्ध पापी नहीं होता और ना ही किसी और के गुनाह का उत्तराधिकारी होकर पैदा होता है।
कोई भी इंसान, जन्मजात पापी नहीं होता और ना ही किसी दूसरे के गुनाह का अत्तराधिकारी होकर पैदा होता है। अल्लाह तआला ने हमें यह बता रखा है कि जब आदम -अलैहिस्सलाम- और उनकी बीवी ने ईश्वरीय आदेश का उल्लंघन करते हुए निषेधित पेड़ का फल खा लिया तो वे लज्जित हुए, तौबा की और अल्लाह से क्षमा याचना की, तो अल्लाह ने उनके दिल में डाला कि वे कुछ पवित्र शब्दों का उच्चारण करें। आगे बयान हुआ है कि उन्होंने उन शब्दों का उच्चारण किया, तो अल्लाह ने उनकी तौबा क़बूल कर ली। अल्लाह तआला कहता है :{और हमने कहा : ऐ आदम! तुम और तुम्हारी पत्नी स्वर्ग में रहो तथा इसमें से जिस स्थान से चाहो, मन के मुताबिक खाओ और इस वृक्ष के समीप न जाना, अन्यथा अत्याचारियों में से हो जाओगे।तो शैतान ने दोनों को उससे भटका दिया और जिस (सुख) में थे, उससे उन्हें निकाल दिया और हमने कहा : तुम सब उससे उतरो, तुम एक-दूसरे के शत्रु हो और तुम्हारे लिए धरती में रहना तथा एक निश्चित अवधि तक उपभोग का सामान है।फिर आदम ने अपने पालनहार से कुछ शब्द सीखे, तो उसने उसे क्षमा कर दिया। वह बड़ा क्षमाशील दयावान् है।हमने कहा : इससे सब उतरो, फिर यदि तुम्हारे पास मेरा मार्गदर्शन आए तो जो मेरे मार्गदर्शन का अनुसरण करेंगे, उनके लिए कोई डर नहीं होगा और न वे उदासीन होंगे।}[सूरा अल-बक़रा : 35-38]चूँकि अल्लाह तआला ने आदम -अलैहिस्सलाम- की तौबा क़बूल कर ली, इसलिए उनपर कोई गुनाह रहा ही नहीं, तो उनकी संतति पर विरासत के रूप में वही गुनाह कैसे लादा जा सकता है, जो तौबा के ज़रिए धुल चुका है, जबकि वास्तविकता यह है कि कोई किसी दूसरे के गुनाह का बोझ उठाने का ज़िम्मेवार नहीं है, जैसा कि अल्लाह का फ़रमान है :{हर शख्स के लिए वही कुछ है, जो उसने कमाया और कोई किसी के गुनाह का बोझ उठाने का ज़िम्मेदार नहीं है। फिर जब तुम सब अपने रब की ओर पलटकर आओगे तो वह तुम्हारी उन तमाम बातों का निर्णय कर देगा, जिनमें तुम मतभेद किया करते थे।}[सूरा अल-अनआम : 164]एक और जगह वह कहता है :{जिसने सीधी राह अपनाई, उसने अपने ही लिए सीधी राह अपनाई और जो सीधी राह से भटक गया, उसका (दुष्परिणाम) उसी पर है और कोई दूसरे का बोझ (अपने ऊपर) नहीं लादेगा और हम यातना देने वाले नहीं हैं, जब तक कि कोई रसूल न भेजें।}[सूरा अल-इसरा : 15]एक अन्य स्थान में उसका फ़रमान है :{तथा नहीं लादेगा कोई लादने वाला दूसरे का बोझ अपने ऊपर, और यदि पुकारेगा कोई बोझल, उसे लादने के लिए तो वह नहीं लादेगा उसमें से कुछ, चाहे वह उसका समीपवर्ती ही क्यों न हो। आप तो बस उन्हीं को सचेत कर रहे हैं जो डरते हों अपने पालनहार से बिन देखे तथा जो स्थापना करते हैं नमाज़ की। तथा जो पवित्र हुआ तो वह पवित्र होगा अपने ही लाभ के लिए और अल्लाह ही की ओर (सबको) जाना है।}[सूरा फ़ातिर : 18]
16- मानव-रचना का मुख्यतम उद्देश्य, केवल एक अल्लाह की पूजा-उपासना करना है।
मानव-रचना का मुख्यतम उद्देश्य, केवल एक अल्लाह की पूजा-उपासना करना है, जैसा कि अल्लाह का फ़रमान है :{और नहीं उत्पन्न किया है मैंने जिन्न तथा मनुष्य को, परन्तु इसलिए कि मेरी ही इबादत करें।}[सूरा अज़-ज़ारियात : 56]
17- इस्लाम ने समस्त इंसानों, नर हों कि नारी, को सम्मान प्रदान किया है, उन्हें उनके समस्त अधिकारों की ज़मानत दी है, हर इंसान को उसके समस्त अधिकारों और क्रियाकलापों के परिणाम का ज़िम्मेदार बनाया है, और उसके किसी भी ऐसे कर्म का भुक्तभोगी भी उसे ही ठहराया है जो स्वयं उसके लिए अथवा किसी दूसरे इंसान के लिए हानिकारक हो।
इस्लाम ने समस्त इंसानों, नर हों कि नारी, को सम्मान प्रदान किया है, इसलिए कि उसने मानवजाति को धरती का उत्तराधिकारी बनाकर पैदा किया है। अल्लाह का फ़रमान है :{और जब तेरे पालनहार ने फ़रिश्तों से कहा कि मैं धरती का एक उत्तराधिकारी पैदा करने वाला हूँ।}[सूरा अल-बक़रा : 30]यह सम्मान, आदम की तमाम संतानों के लिए है। अल्लाह तआला का फ़रमान है :{और हमने बनी आदम (मानव) को प्रधानता दी और उन्हें थल और जल में सवार किया और उन्हें स्वच्छ चीज़ों से जीविका प्रदान की और हमने उन्हें बहुत-सी उन चीज़ों पर प्रधानता दी, जिनकी हमने उत्पत्ति की है।}[सूरा अल-इसरा : 70]एक अन्य स्थान में उसका फ़रमान है :{हमने इंसान को सबसे मनोहर रूप में पैदा किया है।}[सूरा अत-तीन : 4]इसलिए अल्लाह ने मानव को अल्लाह के अतिरिक्त, किसी असत्य पूज्य या देवी-देवता या पीर-फ़क़ीर के सामने अपने आपको झुकाकर अपमानित करने से मना किया है। वह कहता है :{कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो अल्लाह के सिवा दूसरों को उसका साझी बनाते हैं और उनसे अल्लाह से प्रेम करने जैसा प्रेम करते हैं तथा जो ईमान लाए, वे अल्लाह से सर्वाधिक प्रेम करते हैं और क्या ही अच्छा होता यदि यह अत्याचारी यातना देखने के समय जो बात जानेंगे, इसी समय जान लेते कि सब शक्ति तथा अधिकार अल्लाह ही को है और अल्लाह का दंड भी बहुत कड़ा है। जब अनुसरण करने वालों से वह लोग पल्ला झाड़ लेंगे जिनका अनुसरण किया जाता था, और यातना को अपनी नज़र से देख लेंगे और उससे बच निकलने के सारे साधन समाप्त हो जाएँगे (तब उनको अच्छी तरह समझ में आ जाएगा)।}[सूरा अल-बक़रा : 165-166]अल्लाह तआला ने क़यामत के दिन असत्य के अनुसरणकर्ताओं और उन लोगों की, जिनका अनुसरण किया जाता है, विवशता को बयान करते हुए फ़रमाया :{वे कहेंगे जो बड़े बने हुए थे, उनसे जो निर्बल समझे जा रहे थे : क्या हमने तुम्हें रोका सुपथ पर चलने से, जब वह तुम्हारे पास आया था? बल्कि तुम ही अपराधी थे।तथा कहेंगे जो निर्बल थे, उनसे जो बड़े (अहंकारी) होंगे : बल्कि रात-दिन के षड्यंत्र ने (ऐसा किया), जब तुम हमें आदेश दे रहे थे कि हम कुफ़्र करें अल्लाह के साथ तथा बनाएँ उसके साझी तथा वे अपने मन में पछताएँगे, जब यातना देखेंगे और हम बेड़ियाँ डाल देंगे उनके गलों में जो काफ़िर हो गए, वे नहीं बदला दिए जाएँगे, परन्तु उसी का जो वे कर रहे थे।}[सूरा सबा : 32-33]अल्लाह तआला के पूर्ण न्याय का ए उदाहरण यह है कि वह क़यामत के दिन गुमराह सरदारों और गुमराही की तरफ बुलाने वालों पर उन लोगों के गुनाहों का भी बोझ डाल देगा, जो उन्हें बिना ज्ञान के गुमराह करते थे। अल्लाह का फ़रमान है :{ताकि वे अपने (पापों का) पूरा बोझ प्रलय के दिन उठाएँ तथा कुछ उन लोगों का बोझ (भी), जिन्हें बिना ज्ञान के गुमराह कर रहे थे। सावधान! वे कितना बुरा बोझ उठाएँगे!}[सूरा अन-नह्ल : 25]अल्लाह तआला ने मानव के दुनिया एवं आख़िरत दोनों के तमाम अधिकारों की ज़मानत ली है और सबसे बड़ा अधिकार, जिसकी ज़मानत इस्लाम ने ली है और जिसे लोगों के सामने स्पष्ट कर दिया है, वह है : अल्लाह का लोगों पर अधिकार और लोगों का अल्लाह पर हक।मुआज़ -रज़ियल्लाहु अनहु- कहते हैं कि एक दिन मैं सवारी पर अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के पीछे बैठा कहीं जा रहा था कि आपने फ़रमाया : ऐ मुआज़! मैंने कहा : मैं उपस्थित हूँ और आपकी बात ध्यान से सुन रहा हूँ। आपने यही वाक्य तीन बार दोहराया, फिर कहा : क्या तुम जानते हो कि बंदों पर अल्लाह का क्या हक़ है? मैंने कहा : नहीं। आपने कहा : अल्लाह का बंदों पर हक़ यह है कि वे केवल उसी की इबादत व बंदगी करें और उसके साथ किसी को शरीक ना करें। कुछ देर तक सफर जारी रखने के बाद आपने फ़रमाया : ऐ मुआज़! मैंने कहा : मैं हाज़िर हूँ और आपकी बात ध्यानपूर्वक सुन रहा हूँ। आपने फ़रमाया : क्या तुमको मालूम है कि जब बंदे ऐसा कर दिखाएँ तो अल्लाह पर उनका क्या हक़ बनता है? उनका अल्लाह पर, हक़ और अधिकार यह बनता है कि वह उनको यातना न दे।सहीह अल-बुख़ारी, हदीस संख्या : 6840इस्लाम ने इंसान के धर्म, उसकी संतान, माल और सम्मान की सुरक्षा की ज़मानत ली है।अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया :"बेशक अल्लाह तआला ने तुम्हारे ख़ून, माल और स्वाभिमान को उसी तरह हमेशा के लिए हराम कर दिया है जैसा कि तुम्हारा आज का यह दिन, तुम्हारा यह महीना में और तुम्हारा यह शहर हराम है।"सहीह अल-बुख़ारी, हदीस संख्या : 6501अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने इस महान चार्टर (राजलेख) की घोषणा, विदाई हज के शुभावसर पर किया, जिसमें एक लाख से अधिक माननीय सहाबा -रज़ियल्लाहु अनहुम- ने भाग लिया था और उसके मायने एवं आशय को विदाई हज के क़ुरबानी वाले दिन भी आपने दोहराया था।इस्लाम ने इंसान को ही अपनी सभी शक्ति-सामर्थों , कर्मों और क्रियाकलापों का ज़िम्मेदार घोषित किया है। अल्लाह पाक कहता है :{तथा हमने प्रत्येक मनुष्य के भाग्य को उसके गले में डाल दिया है तथा महाप्रलय के दिन हम उसके कर्मपत्र को निकालेंगे, जिसे वह अपने ऊपर खुला हुआ देखेगा। (कहा जाएगा कि) लो, स्वयं ही अपना कर्मपत्र पढ़ लो। आज तो तुम स्वयं ही अपना निर्णय करने को काफ़ी हो।}[सूराअल-इसरा : 13]हर इंसान के हर अच्छे या बुरे कर्म का उत्तरदायी अल्लाह तआला उसी को बनाएगा, किसी दूसरे को नहीं। अर्थात किसी को किसी दूसरे व्यक्ति के कर्म का हिसाब-किताब नहीं देना पड़ेगा। अल्लाह कहता है :{ऐ मानव! वस्तुतः, तू अपने पालनहार से मिलने के लिए परिश्रम कर रहा है और तू उससे अवश्य मिलेगा।}[सूरा अल-इन्शिक़ाक़ : 6]एक और स्थान में उसका फ़रमान है :{जो सत्कर्म करेगा, वह अपने ही लाभ के लिए करेगा और जो दुष्कर्म करेगा, तो उसका दुष्परिणाम उसी पर होगा और आपका पालनहार अपने बंदों पर तनिक भी अत्याचार करने वाला नहीं है।}[सूरा फ़ुस्सिलत : 46]इस्लाम, इंसान को स्वयं उसको या दूसरे को हानि पहुँचाने वाले उसके किसी भी कर्म का ज़िम्मेदार उसे ही मानता है। अल्लाह कहता है :{और जो व्यक्ति कोई पाप करता है, तो अपने ऊपर करता है तथा अल्लाह अति ज्ञानी हिकमत वाला है।}[सूरा अन-निसा : 111]एक और जगह वह कहता है :{इसी कारण, हमने इसराईल की संतानों के लिए यह राजादेश लिख दिया कि जो भी किसी इंसान की हत्या, बिना किसी जान के बदले में या धरती पर फसाद मचाने के लिए, करेगा तो माना जाएगा कि उसने पूरी मानवता की हत्या कर दी और जिसने एक भी मनुष्य को बचाया, माना जाएगा कि उसने पूरी मानवता को बचा लिया।}[सूरा अल-माइदा : 32]तथा अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"जो भी प्राणी अत्याचारपूर्ण तरीक़े से मारा जाता है, उसके क़त्ल के गुनाह का एक भाग आदम के पहले बेटे के हिस्से में जाता है। क्योंकि उसी ने सबसे पहले नाहक़ कत्ल का तरीक़ा जारी किया।"सहीह मुस्लिम, हदीस संख्या : 5150
18- इस्लाम धर्म ने नर-नारी दोनों को, दायित्व, श्रेय और पुण्य के ऐतबार से बराबरी का दर्जा दिया है।
इस्लाम धर्म ने नर-नारी दोनों को, दायित्व, श्रेय और पुण्य के ऐतबार से बराबरी का दर्जा दिया है, जैसा कि अल्लाह तआला का फ़रमान है :{और जो भी नेक काम करे, पुरुष हो या महिला, जबकि वह मोमिन हो, तो ऐसे लोग स्वर्ग में दाखिल होंगे और उनपर रत्ती भर ज़ुल्म नहीं किया जाएगा।}[सूरा अन-निसा : 124]एक अन्य स्थान में उसका फ़रमान है :{जिस पुरुष अथवा स्त्री ने भी पुण्यकार्य किया और वह मोमिन हो, तो हम उसे शुभ जीवन प्रदान करेंगे और जो कुछ वह करते थे, हम उन्हें उसका उत्तम प्रतिफल देंगे।}सूरा अन-नह्ल : 97]एक और जगह वह कहता है :{जिसने दुष्कर्म किया तो उसे उसी के समान प्रतिकार दिया जाएगा, तथा जो सत्कर्म करेगा; नर अथवा नारी में से और वह ईमान वाला (एकेश्वरवादी) हो, तो ऐसे ही लोग प्रवेश करेंगे स्वर्ग में, जिसमें उन्हें बेहिसाब रोज़ी दी जाएगी।}[सूरा ग़ाफ़िर : 40]एक अन्य स्थान पर वह कहता है :{निस्संदेह, मुसलमान पुरुष और मुसलमान स्त्रियाँ, ईमान वाले पुरुष और ईमान वाली स्त्रियाँ, आज्ञाकारी पुरुष और आज्ञाकारिणी स्त्रियाँ, सच्चे पुरुष तथा सच्ची स्त्रियाँ, सहनशील पुरुष और सहनशील स्त्रियाँ, विनीत पुरुष और विनीत स्त्रियाँ, दानशील पुरुष और दानशील स्त्रियाँ, रोज़ा रखने वाले पुरुष और रोज़ा रखने वाली स्त्रियाँ, अपने गुप्तांगों की रक्षा करने वाले पुरुष तथा रक्षा करने वाली स्त्रियाँ तथा अल्लाह को अत्यधिक याद करने वाले पुरुष और याद करने वाली स्त्रियाँ, अल्लाह ने इन्हीं के लिए क्षमा तथा महान प्रतिफल तैयार कर रखा है।}[सूरा अल-अहज़ाब : 35]
19- इस्लाम धर्म ने नारी को सम्मान दिया है और उसे पुरुष के बराबर माना है। यदि पुरुष सक्षम हो, तो उसी को नारी के हर प्रकार का खर्च उठाने का दायित्व दिया है। इसलिए, बेटी का खर्च बाप पर, यदि बेटा जवान और सक्षम हो तो उसी पर माँ का खर्च और पत्नी का खर्च पति पर वाजिब किया है।
इस्लाम धर्म ने औरतों को मर्दों के बराबर दर्जा दिया है।अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया :"बेशक औरतें, मर्दों की तरह ही मानव समाज का आधा भाग हैं।"सुनन तिरमिज़ी, हदीस संख्या : 113औरत को इस्लाम धर्म का दिया हुआ एक सम्मान यह भी है कि यदि बेटा सक्षम हो, तो वही अपनी माँ का ख़र्च उठाएगा।अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया :"देने वाले का हाथ ऊपर होता है। आरंभ उससे करो, जिसके ऊपर खर्च करना तुम्हारे ऊपर वाजिब है : तुम्हारी माता, तुम्हारे पिता, तुम्हारी बहन, तुम्हारे भाई, फिर सबसे निकट का संबंधी और उसके बाद सबसे निकट का संबंधी।"इसे इमाम अह़मद ने रिवायत किया है।माता-पिता के महत्व का बयान, अल्लाह ने चाहा तो, पैरा संख्या : 29 के अंतर्गत आएगा।औरत को इस्लाम का प्रदान किया हुआ एक सम्मान यह भी है कि यदि पति सक्षम हो, तो अपनी पत्नी का सारा ख़र्च वही उठाएगा, जैसा कि अल्लाह तआला ने फ़रमाया है :{चाहिए कि सुख-सम्पन्न, ख़र्च दे अपनी कमाई के अनुसार, और तंग हो जिसपर उसकी जीविका, उसे चाहिए कि ख़र्च दे उसमें से, जो दिया है उसे अल्लाह ने। अल्लाह भार नहीं रखता किसी प्राणी पर, परन्तु उतना ही जितना उसे दिया है। शीघ्र ही कर देगा अल्लाह तंगी के पश्चात् सुविधा।[सूरा अत-तलाक़ : 7]अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- से एक आदमी ने पूछा कि पति पर पत्नी का हक क्या है? आपने उत्तर दिया : "जब तुम खाओ तो उसे भी खिलाओ, जब तुम पहनो तो उसे भी पहनाओ, उसके चेहरे पर मत मारो और उसके साथ दुर्व्यवहार ना करो।"इसे इमाम अह़मद ने रिवायत किया है।अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने पति पर पत्नी के कुछ अधिकारों को स्पष्ट करते हुए फ़रमाया :"तुमपर तुम्हारी बीवियों का, नियमानुसार खान-पान और पहनावे का अधिकार है।"सह़ीह़ मुस्लिमऔर अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने यह भी फ़रमाया है :"मनुष्य के गुनाहगार होने के लिए बस इतना ही काफ़ी है कि जिसके खान-पान का दायित्व उसपर है, वह उसे बर्बाद कर दे अर्थात उसे खाना-पानी न दे।"इसे इमाम अह़मद ने रिवायत किया है।ख़त्ताबी कहते हैं :"आप -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के "من يقوت" कहने का तात्पर्य वह आदमी है, जिसपर उसके खान-पान का प्रबंध करने का दायित्व है। मतलब यह है कि मानो उसने सदक़ा करने वाले से कहा कि जो माल तुम्हारे परिवार की जीविका से अधिक नहीं है, उसमें से पुण्य कमाने के लिए सदक़ा मत करो तो यह भी पाप में बदल जाएगा, यदि तुमने उनको हलाकत में डाल दिया।"इस्लाम धर्म का औरत को प्रदान किया हुआ एक सम्मान यह भी है कि उसने बेटी की जीविका की ज़िम्मेदारी, बाप पर डाली है। अल्लाह तआला कहता है :{माएँ अपनी संतानों को पूरे दो साल स्तनपान कराएँगी, उसके लिए जो स्तनपान की मुद्दत को पूरा कराना चाहे। इस अवधि में बच्चे / बच्ची का बाप ही उनको खान-पान और परिधान सुलभ कराने का ज़िम्मेदार होगा।}[सूरा अल-बक़रा : 233]इस प्रकार, अल्लाह ने यह स्पष्ट कर दिया कि जिस बाप की संतान है, उसे ही अपनी संतान को नियमानुसार, खान-पान और परिधान सुलभ कराना होगा। अल्लाह ने यह भी फ़रमाया है :{यदि वे तुम्हारी संतान को स्तनपान कराएँ, तो उन्हें उनकी मज़दूरी दे दो।}[सूरा अत-तलाक़ : 6]इस प्रकार, अल्लाह तआला ने बच्चे / बच्ची को स्तनपान कराने का पारिश्रमिक अदा करने की ज़िम्मेदारी बाप पर डाली है। इससे यह बात भी पता चल गई कि संतान चाहे बेटा हो या बेटी, उसका ख़र्च बाप पर है। आगे जो हदीस आ रही है, वह भी बताती है कि बीवी और बच्चों के सभी ख़र्चों की ज़िम्मेदारी बाप पर है।आइशा -रज़ियल्लाहु अनहा- बयान करती हैं कि हिन्द -रज़ियल्लाहु अनहा- ने अल्लाह के नबी -सललल्लाहु अलैहि व सल्लम- से कहा कि अबू सुफ़यान -रज़ियल्लाहु अनहु- ज़रा कंजूस आदमी हैं, इसलिए मुझे उनके माल से (उनको बताए बगैर) कुछ-कुछ लेना पड़ता है (क्या ऐसा करना मेरे लिए जायज़ है?)। आप -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया :"तुम अपनी ज़रूरत के मुताबिक, भलमनसाहत के साथ, ले लिया करो।"इसे बुख़ारी ने रिवायत किया है।अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने बेटियों और बहनों पर ख़र्च करने की फ़ज़ीलत बयान करते हुए फ़रमाया है :"जिसने दो या तीन बेटियों अथवा दो या तीन बहनों को उनके जुदा हो जाने तक (बियाह कर ससुराल चले जाने तक) या मरते दम तक पाला-पोसा, वह और मैं क़यामत के दिन इस तरह होंगे। यह कहते हुए आपने शहादत और बीच वाली उंगलियों से इशारा किया।"अस-सिलसिला अस-सहीहा, हदीस संख्या : 296
20- मृत्यु का मतलब कतई यह नहीं है कि इंसान सदा के लिए नष्ट हो गया, अपितु वास्तव में इंसान मृत्यु की सवारी पर सवार होकर, कर्म-भूमि से श्रेयालय की ओर प्रस्थान करता है। मृत्यु, शरीर एवं आत्मा दोनों को अपनी जकड़ में लेकर मार डालती है। आत्मा की मृत्यु का मतलब, उसका शरीर को त्याग देना है, फिर वह क़यामत के दिन दोबारा जीवित किए जाने के बाद, वही शरीर धारण कर लेगी। आत्मा, मृत्यु के बाद ना दूसरे किसी शरीर में स्थानांतरित होती है और ना ही वह किसी अन्य शरीर में प्रविष्ट होती है।
मौत का मतलब, हमेशा के लिए मिट जाना कतई नहीं है। अल्लाह तआला कहता है :{आप कह दें कि तुम्हारे प्राण निकाल लेगा मौत का फ़रिश्ता, जो तुमपर नियुक्त किया गया है, फिर तुम अपने पालनहार की ओर फेर दिए जाओगे।}[सूरा अस-सजदा : 11]मृत्यु, शरीर एवं आत्मा दोनों को अपनी जकड़ में लेकर मार डालती है। आत्मा की मृत्यु का मतलब, उसका शरीर को त्याग देना है, फिर वह क़यामत के दिन दोबारा जीवित किए जाने के बाद, वही शरीर धारण कर लेगी। अल्लाह तआला का फ़रमान है :{अल्लाह ही खींचता है प्राणों को उनके मरण के समय तथा जिसके मरण का समय नहीं आया, उसकी निद्रा में। फिर रोक लेता है जिसपर निर्णय कर दिया हो मरण का तथा भेज देता है अन्य को एक निर्धारित समय तक के लिए। वास्तव में, इसमें कई निशानियाँ हैं उनके लिए जो मनन-चिन्तन करते हों।}[सूरा अज़-ज़ुमर : 42]अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"जब आत्मा (शरीर से) से निकाली और ले जाई जाती है तो आँखें उसका पीछा करती हैं (उसे देखती रहती हैं)।"सहीह मुस्लिम, हदीस संख्या : 920मरने के बाद इंसान, कर्मभूमि से श्रेयालय में स्थानांतरित हो जाता है। अल्लाह कहता है:{उसी की ओर तुम सब को लौटना है। यह अल्लाह का सत्य वचन है। वही उत्पत्ति का आरंभ करता है। फिर वही पुनः उत्पन्न करेगा, ताकि उन्हें न्याय के साथ प्रतिफल प्रदान करे, जो ईमान लाए और सत्कर्म किए। और जो काफ़िर हो गए, उनके लिए खौलता पेय तथा दुःखदायी यातना है, उस अविश्वास के बदले, जो कर रहे थे।}[सूरा यूनुस : 4]
आत्मा, मृत्यु के बाद ना किसी अन्य शरीर में प्रविष्ट होती है और ना ही आवागमन करती है। आवागमन के दावे पर ना अक़्ल विश्वास करती है और ना ही बोध। नबियों और रसूलों -अलैहिमुस्सलाम- से भी कोई ऐसी दलील नक़ल होकर नहीं आई है, जो इस आस्था की पुष्टि करे।
21- इस्लाम, ईमान के सभी बड़े और बुनियादी उसूलों पर अटूट विश्वास रखने की माँग करता है जो इस प्रकार हैं : अल्लाह और उसके फ़रिश्तों पर ईमान लाना, ईश्वरीय ग्रंथों जैसे परिवर्तन से पहले की तौरात, इंजील और ज़बूर पर और क़ुरआन पर ईमान लाना, समस्त नबियों और रसूलों -अलैहिमुस्सलाम- पर और उन सबकी अंतिम कड़ी मुह़म्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- पर ईमान लाना तथा आख़िरत के दिन पर ईमान लाना। यहाँ पर हमें यह बात अच्छी तरह जान लेनी चाहिए कि यदि दुनिया का यही जीवन, अंतिम जीवन होता तो ज़िंदगी और अस्तित्व का खेल बिल्कुल बेकार होता। ईमान के उसूलों की अंतिम कड़ी, लिखित एवं सुनिश्चित भाग्य पर ईमान रखना है।
इस्लाम, ईमान के उन सभी बड़े और बुनियादी उसूलों पर अटूट विश्वास रखने की माँग करता है जिनकी तरफ़ तमाम नबियों और रसूलों -अलैहिमुस्सलाम- ने बुलाया। ईमान के बुनियादी उसूल इस प्रकार हैं :
ईमान का पहला रुक्न : इस बात पर ईमान लाना कि अल्लाह तआला ही, पूरे ब्राह्मांड का पालनहार, रचयिता, रोज़ी-दाता और व्यवस्थापक है। बस वही हर प्रकार की बंदगी का ह़क़दार है, उसके सिवा किसी भी चीज़ की बंदगी करना बिल्कुल गलत है और उसके अलावा जिसको भी पूज्य मान लिया गया है, असत्य और बातिल है। इसलिए बंदगी बस उसी के लिए बनती है और बस उसी की बंदगी करना सही है। पारा संख्या : 8 में इस मसले पर दलीलें दी जा चुकी हैं।
अल्लाह तआला ने कायनात के इस सबसे महत्वपूर्ण नियम एवं उसूल को पवित्र क़ुरआन की बहुत सारी और विभिन्न आयतों में बयान किया है, जिनमें से एक अल्लाह का यह फ़रमान है :{रसूल उस चीज़ पर ईमान लाया, जो उसके लिए अल्लाह की ओर से उतारी गई तथा सब ईमान वाले उसपर ईमान ले आए। वे सब अल्लाह तथा उसके फ़रिश्तों और उसकी सब पुस्तकों एवं रसूलों पर ईमान ले आए। (वे कहते है :) हम उसके रसूलों में से किसी के बीच अंतर नहीं करते। हमने सुना और हम आज्ञाकारी हो गए। ऐ हमारे पालनहार! हमें क्षमा कर दे और हमें तेरे ही पास आना है।}[सूरा अल-बक़रा : 285]एक अन्य स्थान पर वह कहता है :{भलाई यह नहीं है कि तुम अपना मुख पूर्व अथवा पश्चिम की ओर फेर लो! भला कर्म तो उसका है जो अल्लाह और अंतिम दिन (प्रलय) पर ईमान लाया तथा फ़रिश्तों, सब पुस्तकों, नबियों पर (भी ईमान लाया), धन का मोह रखते हुए भी समीपवर्तियों, अनाथों, निर्धनों, यात्रियों तथा माँगने वालों को और गर्दन आज़ाद करने के लिए दिया, नमाज़ की स्थापना की, ज़कात दी, अपने वचन को, जब भी वचन दिया, पूरा करते रहे एवं निर्धनता और रोग तथा युद्ध की स्थिति में धैर्यवान रहे। यही लोग सच्चे हैं तथा यही (अल्लाह से) डरते हैं।}[सूरा अल-बकरा : 177]अल्लाह तआला ने इन उसूलों पर ईमान लाने का आदेश दिया और स्पष्ट कर दिया है कि जो उनका इंकार करेगा, वह सरासर गुमराह (पथभ्रष्ट) हो जाएगा। उसने फ़रमाया :{ऐ ईमान वालो! अल्लाह, उसके रसूल और उस पुस्तक (क़ुरआन) पर, जो उसने अपने रसूल पर उतारी है तथा उन पुस्तकों पर, जो इससे पहले उतारी हैं, ईमान लाओ। जो अल्लाह, उसके फ़रिश्तों, उसकी पुस्तकों और अंतिम दिन (प्रलय) को अस्वीकार करेगा, वह पथभ्रष्टता में बहुत दूर जा पड़ेगा।}[सूरा अन-निसा : 136]उमर बिन ख़त्ताब -रज़ियल्लाहु अनहु- से वर्णित हदीस में आया है कि उन्होंने कहा :एक दिन हम अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के पास बैठे हुए थे कि एक आदमी हमारे सामने ज़ाहिर हुआ जो बहुत ही उजले कपड़े पहने हुए था, उसके बाल बहुत काले थे, उसपर सफ़र का ज़रा भी प्रभाव नहीं दिख रहा था, और ना ही उसे हममें से कोई पहचानता था। वह आया और अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के घुटनों से घुटने मिलाकर और अपनी रानों पर अपनी हथेलियाँ रखकर बैठ गया। फिर पूछा : ऐ मुहम्मद! मुझे इस्लाम के बारे में बताइए। अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने उत्तर दिया : इस्लाम यह है कि तुम इस बात की गवाही दो कि अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं और मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- अल्लाह के रसूल हैं, नमाज़ स्थापित करो, ज़कात दो, रमज़ान महीने के रोज़े रखो और यदि तुम्हारे पास सफ़र-खर्च हो तो काबे का हज करो। उस शख्स ने कहा : आप सच बोल रहे हैं। उमर -रज़ियल्लाहु अनहु- कहते हैं कि हमें उसके इस अंदाज़ पर बड़ा आश्चर्य हुआ कि प्रश्न भी वही करता है और उत्तर के सही होने की पुष्टि भी वही करता है। बहरहाल, उसने कहा : मुझे ईमान के बारे में बताइए। आप -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया : ईमान यह है कि तुम अल्लाह पर, उसके फ़रिश्तों पर, उसकी किताबों पर, उसके रसूलों पर, आख़िरत के दिन पर और अच्छी-बुरी तक़दीर पर विश्वास करो। उसने कहा : आप सच कहते हैं। फिर उस आदमी ने कहा : अब मुझे बताइए कि एहसान क्या है? आप -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने उत्तर दिया : एहसान यह है कि तुम अल्लाह की इबादत ऐसे मन से करो कि जैसे तुम उसे देख रहे हो और यदि इतना न हो सके, तो कम-से-कम यह सोचते हुए करो कि वह तम्हें देख रहा है।सहीह मुस्लिम, हदीस संख्या : 8इस हदीस से मालूम हुआ कि जिबरील -अलैहिस्सलाम- अल्लाह के रसूल मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के पास आए और आपसे धर्म की तीन श्रेणियों अर्थात इस्लाम, ईमान और एहसान के बारे में पूछा, तो आप -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने उनके प्रश्नों का उत्तर दिया। फिर अल्लाह के रसूल मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने अपने सहाबियों -रज़ियल्लाहु अनहुम- को बताया कि प्रश्नकर्ता जिबरील -अलैहिस्सलाम- थे, जो तुम्हें तुम्हारे धर्म का ज्ञान देने आए थे। तो यही है ईश्वरीय संदेश जिसे जिबरील -अलैहिस्सलाम- अल्लाह तआला से ले आए और अल्लाह के रसूल मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने उसे लोगों तक पहुँचाया, माननीय सहाबा ने अमानत समझकर उसकी सुरक्षा की और फिर आप -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के बाद, दुनिया भर के लोगों तक पहुँचाया।ईमान का दूसरा रुक्न : फ़रिश्तों पर ईमान। फ़रिश्तों की दुनिया, एक परोक्ष दुनिया है। अल्लाह तआला ने उन्हें विशेष रूप में पैदा किया है और बड़े-बड़े काम एवं दायित्व सौंपे हैं, जिनमें सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण दायित्व, रसूलों और नबियों -अलैहिमुस्सलाम- तक अल्लाह के संदेशों को पहुँचाना है। फ़रिश्तों में सबसे श्रेष्ठ और महान, जिबरील -अलैहिस्सलाम- हैं, जिनका दायित्व, अल्लाह के रसूलों -अलैहिमुस्सलाम- के पास अल्लाह की वह्य (प्रकाशना) लेकर आना और पहुँचाना था। इस बात का प्रमाण, अल्लाह तआला का यह फ़रमान है :{वह फ़रिश्तों को वह़्य के साथ, अपने आदेश से अपने जिस बंदे पर चाहता है, उतारता है कि (लोगों को) सावधान करो कि मेरे सिवा कोई पूज्य नहीं है, अतः मुझसे ही डरो।}[सूरा अन-नह्ल : 2]एक अन्य स्थान पर अल्लाह तआला का फ़रमान है :{तथा निस्संदेह, यह (क़ुरआन) पूरे विश्व के पालनहार का उतारा हुआ है।इसे लेकर रूह़ुल-अमीन उतरा।आपके दिल पर, ताकि आप हो जाएँ सावधान करने वालों में।स्पष्ट अरबी भाषा में।तथा इसकी चर्चा अगले रसूलों की पुस्तकों तथा पुस्तिकाओं में (भी) है।}[सूरा अश-शुअरा : 192-196]ईमान का तीसरा रुक्न : ईश्वरीय ग्रंथों अर्थात विकृत कर दिए जाने से पहले की तौरात, इंजील, ज़बूर आदि और क़ुरआन पर विश्वास करना। अल्लाह तआला का फ़रमान है :{ऐ ईमान वालो! अल्लाह, उसके रसूल और उस पुस्तक (क़ुरआन) पर, जो उसने अपने रसूल पर उतारी है तथा उन पुस्तकों पर, जो इससे पहले उतारी हैं, ईमान लाओ। जो अल्लाह, उसके फ़रिश्तों, उसकी पुस्तकों और अंतिम दिन (प्रलय) को अस्वीकार करेगा, वह पथभ्रष्टता में बहुत दूर जा पड़ेगा।}[सूरा अन-निसा : 136]एक अन्य स्थान पर वह कहता है :{उसी ने आपपर सत्य के साथ पुस्तक (क़ुरआन) उतारी है, जो इससे पहले की पुस्तकों के लिए प्रमाणकारी है और उसी ने तौरात तथा इंजील उतारी है।इससे (क़ुरआन से) पूर्व, लोगों के मार्गदर्शन के लिए। और फ़ुरक़ान उतारा है, तथा जिन्होंने अल्लाह की आयतों को अस्वीकार किया, उन्हीं के लिए कड़ी यातना है और अल्लाह प्रभुत्वशाली, बदला लेने वाला है।}[सूरा आल-इमरान : 3-4]एक और जगह वह कहता है :{रसूल उस चीज़ पर ईमान लाया जो उसके लिए अल्लाह की ओर से उतारी गई तथा सब ईमान वाले उसपर ईमान ले आए। वे सब अल्लाह तथा उसके फ़रिश्तों और उसकी सब पुस्तकों एवं रसूलों पर ईमान ले आए। (वे कहते हैं :) हम उसके रसूलों में से किसी के बीच अन्तर नहीं करते। हमने सुना और हम आज्ञाकारी हो गए। ऐ हमारे पालनहार! हमें क्षमा कर दे और हमें तेरे ही पास आना है।}[सूरा अल-बक़रा : 285]एक और स्थान में उसका फ़रमान है :{(ऐ रसूल!) कह दो : हम ईमान लाए अल्लाह पर और उसपर जो हमारी ओर उतारा गया है और उसपर जो इबराहीम, इसमाईल, इसह़ाक़, याक़ूब तथा उन की संतानों की ओर उतारा गया था, और जो मूसा तथा ईसा को दिया गया था, तथा जो दूसरे नबियों को उनके पालनहार की ओर से दिया गया था। हम इनमें से किसी के बीच अंतर नहीं करते और हम उसी (अल्लाह) के आज्ञाकारी हैं।}[सूरा आल-इमरान : 84]ईमान का चौथा रुक्न : तमाम नबियों और रसूलों -अलैहिमुस्सलाम- पर इस दृढ़ आस्था के साथ ईमान एवं विश्वास रखना कि वे सभी निस्संदेह अल्लाह के भेजे हुए रसूल थे, जिन्होंने अपनी-अपनी उम्मत एवं क़ौम तक अल्लाह के संदेश, धर्म और ईश्वरीय विधान को पहुँचा दिया। अल्लाह तआला का फ़रमान है :{(ऐ मुसलमानो!) तुम सब कहो कि हम अल्लाह पर ईमान लाए तथा उस (क़ुरआन) पर जो हमारी ओर उतारा गया और उसपर जो इबराहीम, इसमाईल, इसहाक़, याक़ूब तथा उनकी संतानों की ओर उतारा गया और जो मूसा तथा ईसा को दिया गया तथा जो दूसरे नबियों को उनके पालनहार की ओर से दिया गया। हम इनमें से किसी के बीच अंतर नहीं करते और हम उसी के आज्ञाकारी हैं।}[सूरा अल-बक़रा : 136]तथा अल्लाह तआला का फ़रमान है :{रसूल उस चीज़ पर ईमान लाया जो उसके लिए अल्लाह की ओर से उतारी गई तथा सब ईमान वाले उसपर ईमान ले आए। वे सब अल्लाह तथा उसके फ़रिश्तों और उसकी सब पुस्तकों एवं रसूलों पर ईमान ले आए। (वे कहते हैं :) हम उसके रसूलों में से किसी के बीच अन्तर नहीं करते। हमने सुना और हम आज्ञाकारी हो गए। ऐ हमारे पालनहार! हमें क्षमा कर दे और हमें तेरे ही पास आना है।}[सूरा अल-बक़रा : 285]एक और जगह वह कहता है :{(ऐ रसूल!) कह दो : हम ईमान लाए अल्लाह पर और उसपर जो हमारी ओर उतारा गया है और उसपर जो इबराहीम, इसमाईल, इसह़ाक़, याक़ूब तथा उन की संतानों की ओर उतारा गया था, और जो मूसा तथा ईसा को दिया गया था, तथा जो दूसरे नबियों को उनके पालनहार की ओर से दिया गया था। हम इनमें से किसी के बीच अंतर नहीं करते और हम उसी (अल्लाह) के आज्ञाकारी हैं।}[सूरा आल-ए-इमरान : 84]और उन सभी नबियों और रसूलों की अंतिम कड़ी, अल्लाह के अंतिम संदेष्टा मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- पर ईमान लाया जाए। अल्लाह तआला कहता है :{तथा (ऐ रसूल! याद करें) जब अल्लाह ने (तमाम) नबियों से वचन लिया कि जो भी मैं तुम्हें पुस्तक और हिकमत दूँ, फिर कोई रसूल तुम्हारे पास (मौजूद पुस्तक तथा हिकमत) की पुष्टि करने वाला बनकर आए तो तुम अवश्य उसपर ईमान लाना और उसका समर्थन करना। (वचन लेने के क्रम में अल्लाह ने) कहा : क्या तुमने स्वीकार किया और इसपर मेरी वसीयत ग्रहण की? तो सबने कहा : हमने स्वीकार कर लिया। अल्लाह ने कहा : तुम गवाह रहो और मैं भी तुम्हारे साथ गवाहों में से हूँ।}[सूरा आल-ए-इमरान : 81]इस प्रकार, इस्लाम सारे नबियों और रसूलों पर साधारणतया ईमान लाने को अनिवार्य क़रार देता है और उन सब की अंतिम कड़ी, मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- पर विशेषतया, ईमान लाना अपरिहार्य ठहराता है। अल्लाह तआला कहता है :{आप कह दीजिए कि ऐ किताब वालो! (यहूदियो और ईसाइयो!) जब तक तुम तौरात, इंजील तथा तुम्हारे पालनहार की तरफ़ से तुम्हारी ओर जो (क़ुरआन) उतारा गया है, के विधानों को स्थापित नहीं करोगे, किसी भी गिनती में नहीं रहोगे।}[सूरा अल-माइदा : 68]एक अन्य स्थान पर वह कहता है :{(ऐ नबी!) कह दीजिए कि ऐ किताब वालो! एक ऐसी बात की ओर आ जाओ जो हमारे एवं तुम्हारे बीच समान रूप से मान्य है कि हम अल्लाह के अतिरिक्त किसी अन्य की इबादत ना करें तथा किसी को उसका साझी ना बनाएँ तथा हममें से कोई एक-दूजे को अल्लाह के अतिरिक्त रब ना बनाए। फिर यदि वे विमुख हों तो आप कह दें कि तुम साक्षी रहो कि हम अल्लाह के आज्ञाकारी हैं।}[सूरा आल-ए-इमरान : 64]याद रहे कि जिसने एक भी नबी का इनकार किया, उसने मानो तमाम नबियों और रसूलों -अलैहिमुस्सलाम- का इनकार कर दिया। अल्लाह तआला ने नूह -अलैहिस्सलाम- की क़ौम के बारे में अपना निर्णय सुनाया है :{नूह़ की क़ौम ने भी रसूलों को झुठलाया।}[सूरा अश-शुअरा : 105]जबकि यह बात सबको मालूम है कि नूह -अलैहिस्सलाम- से पहले कोई रसूल नहीं आया, लेकिन जब उनकी क़ौम ने उनको झुटला दिया तो उसके इस कृत को तमाम रसूलों को झुटलाने के बराबर क़रार दिया गया, क्योंकि सबका आह्वान और सबका मक़सद एक ही था।ईमान का पाँचवाँ रुक्न : आख़िरत के दिन जिसे क़यामत का दिन भी कहा जाता है, पर विश्वास करना। अल्लाह तआला जब इस दुनिया का अंत करना चाहेगा तो फ़रिश्ते इसराफ़ील -अलैहिस्सलाम- को सूर फूँकने का आदेश देगा, और वे निश्चेतना का सूर फूँक देंगे, जिससे हर वह शख्स जिसे अल्लाह तआला चाहेगा, निश्चेत होकर मर जाएगा। अल्लाह तआला ने फ़रमाया है :{तथा सूर (नरसिंघा) फूँका जाएगा तो निश्चेत होकर गिर जाएँगे, जो आकाशों तथा धरती में हैं। परन्तु जिसे अल्लाह चाहे, फिर उसे पुनः फूँका जाएगा, तो सहसा सब खड़े देख रहे होंगे।}[सूरा अज़-ज़ुमर : 68]फिर जब आकाशों और धरती में जो कुछ भी है, मर जाएगा मगर अल्लाह जिसे चाहे, तो अल्लाह तआला आकाशों और धरती को लपेट देगा, जैसा कि अल्लाह तआला के इस कथन से पता चलता है :{जिस दिन हम लपेट देंगे आकाश को, पंजिका के पन्नों को लपेट देने के समान, जैसे हमने आरंभ किया था प्रथम उत्पत्ति का, उसी प्रकार, उसे दोहराएंगे, इस (वचन) को पूरा करना हमपर है, और हम पूरा करके ही रहेंगे।}[सूरा अल-अंबिया : 104]तथा अल्लाह तआला का फ़रमान है :{तथा उन्होंने अल्लाह का सम्मान नहीं किया, जैसे उसका सम्मान करना चाहिए था, और धरती पूरी उसकी एक मुट्ठी में होगी प्रलय के दिन, तथा आकाश लपेटे हुए होंगे उसके दाहिने हाथ में। वह पवित्र तथा उच्च है उस शिर्क से जो वे कर रहे हैं।}[सूरा अज़-ज़ुमर : 67]अल्लाह के रसूल -सल्ल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया :"महान एवं प्रभुत्वशाली अल्लाह, क़यामत के दिन आकाशों को लपेटकर अपने दाएँ हाथ में कर लेगा और कहेगा : मैं ही बादशाह हूँ। कहाँ हैं उपद्रव मचाने वाले लोग? कहाँ हैं अहंकार करने वाले लोग? फिर सातों धरतियों को लपेटकर अपने बाएँ हाथ में कर लेगा और कहेगा : मैं ही बादशाह हूँ। कहाँ हैं उपद्रव मचाने वाले लोग? कहाँ हैं अहंकार दिखाने वाले लोग?"इसे मुस्लिम ने रिवायत किया है।फिर अल्लाह तआला के आदेश पर दूसरा सूर फूँका जाएगा, तो सारे लोग (जीवित होकर) खड़े देख रहे होंगे। अल्लाह तआला का फ़रमान है :{फिर जब सूर (नरसिंघा) में दूसरी फूँक मारी जाएगी, तो सब खड़े देख रहे होंगे।}[सूरा अज़-ज़ुमर : 68]जब अल्लाह तआला तमाम इंसानों, जिन्नात और दूसरी सारी सृष्टियों को दोबारा जीवित कर देगा, तो सबको हिसाब-किताब के लिए एक जगह जमा करेगा, जैसा कि अल्लाह का फ़रमान है :{जिस दिन फट जाएगी धरती उनसे तो वे दौड़ते हुए (निकलेंगे), यह एकत्र करना हमपर बहुत सरल है।}[सूरा क़ाफ़ : 44]एक अन्य स्थान पर अल्लाह तआला का फ़रमान है :{जिस दिन सब लोग (जीवित होकर) निकल पड़ेंगे। नहीं छुपी होगी अल्लाह पर उनकी कोई चीज़। (ऐसे में वह पूछेगा) किसका राज्य है आज? अकेले प्रभुत्वशाली अल्लाह का।}[सूरा ग़ाफ़िर : 16]यही वह दिन होगा जब अल्लाह तआला तमाम लोगों का हिसाब-किताब करेगा, हर ज़ालिम से पीड़ित का बदला लेगा और इंसान को उसके कर्म का श्रेय देगा। अल्लाह कहता है :{आज प्रतिकार दिया जाएगा प्रत्येक प्राणी को, उसके कृत्यों का। कोई अत्याचार नहीं होगा आज। वास्तव में, अल्लाह अति शीघ्र ह़िसाब लेने वाला है।}[सूरा ग़ाफ़िर : 17]एक और जगह वह कहता है :{अल्लाह कण भर भी किसी पर अत्याचार नहीं करता, यदि कुछ भलाई (किसी ने) की हो तो (अल्लाह) उसे अधिक कर देता है तथा अपने पास से बड़ा प्रतिफल प्रदान करता है।}[सूरा अन-निसा : 40]एक और जगह कहता है : {तो जिसने कण-भर भी पुण्य किया होगा तो वह उसे देख लेगा।और जिसने एक कण के बराबर भी बुरा कर्म किया होगा, उसे देख लेगा।}[सूरा अज़-ज़लज़ला : 7- 8]एक और जगह कहता है :{और हम रख देंगे न्याय का तराज़ू प्रलय के दिन, फिर नहीं अत्याचार किया जाएगा किसी पर कुछ भी, तथा यदि होगा राई के दाने के बराबर (किसी का कर्म) तो हम उसे सामने ले आएँगे, और हम बस (काफ़ी) हैं ह़िसाब लेने वाले।}[सूरा अल-अंबिया : 47]दोबारा ज़िंदा किए जाने और हिसाब-किताब चुकता कर दिए जाने के बाद, प्रतिकार और श्रेय दिया जाएगा। जिसने पुण्य कार्य किए होंगे, वह हमेशा बाक़ी रहने वाली नेमतों में होगा और जिसने बुरे कर्म एवं कुफ़्र किया होगा, उसके लिए यातना ही यातना होगी। अल्लाह का फ़रमान है :{राज्य उस दिन अल्लाह ही का होगा, वही उनके बीच निर्णय करेगा, तो जो ईमान लाए और सत्कर्म किए तो वे सुख के स्वर्गों में होंगे।और जो काफ़िर हो गए और हमारी आयतों को झुठला दिया, उन्हीं के लिए अपमानजनक यातना है।}[सूरा अल-हज : 56-57]हमें यह बात अच्छी तरह पता है कि यदि दुनिया का जीवन ही अंतिम जीवन होता, तो जीवन और अस्तित्व सर्वथा व्यर्थ होते, जैसा कि अल्लाह ने कहा है :{क्या तुमने समझ रखा है कि हमने तुम्हें व्यर्थ ही पैदा किया है और तुम हमारी ओर फिर नहीं लाए जाओगे?}[सूरा अल-मोमिनून : 115]ईमान का छठा रुक्न : भाग्य एवं मुक़द्दर पर अटल विश्वास रखना। मतलब, इस बात पर ईमान रखना अपरिहार्य है कि इस कायनात में जो हो चुका, हो रहा है और होगा, सब कुछ अल्लाह जानता है, बल्कि आसमानों और ज़मीन की उत्पत्ति से पहले ही उसने सब कुछ लिख दिया है। अल्लाह कहता है :{और उसी (अल्लाह) के पास ग़ैब (परोक्ष) की कुंजियाँ हैं। उन्हें केवल वही जानता है तथा जो कुछ थल और जल में है, वह सब का ज्ञान रखता है और कोई पत्ता नहीं गिरता परन्तु उसे वह जानता है और न कोई अन्न का दाना जो धरती के अंधेरों में हो और न कोई आर्द्र (भीगा) और न कोई शुष्क (सूखा) है, परन्तु वह एक खुली पुस्तक में अंकित है।}[सूरा अल-अनआम : 59]और हर चीज़ अल्लाह के ज्ञान के घेरे में है। वह कहता है :{अल्लाह वह है जिसने उत्पन्न किए सात आकाश तथा धरती में से उन्हीं के समान। वह उतारता है आदेश उनके बीच ताकि तुम विश्वास करो कि अल्लाह जो कुछ चाहे, कर सकता है और यह कि अल्लाह ने घेर रखा है प्रत्येक वस्तु को अपने ज्ञान की परिधि में।}[सूरा अत-तलाक़ : 12]इस कायनात में जो कुछ भी घटित होता है, अल्लाह के चाहने पर ही होता है, बल्कि वही उसे पैदा करता और उसके कारणों का जनक भी वही होता है। अल्लाह कहता है :{जिसके लिए आकाशों तथा धरती का राज्य है, तथा उसने अपने लिए कोई संतान नहीं बनाई और न उसका कोई साझी है राज्य में तथा उसने प्रत्येक वस्तु की उत्पत्ति की, फिर उसे एक निर्धारित रूप दिया।}[सूरा अल-फ़ुरक़ान : 2]हर चीज़ में उसका सम्पूर्ण तत्वदर्शन (हिकमत) होता है, जहाँ तक मानव की पहुँच नहीं हो सकती। अल्लाह कहता है :{यह (क़ुरआन) पूर्णतः तत्वदर्शन (अंतर्ज्ञान) है, फिर भी चेतावनियाँ उनके काम नहीं आईं।}[सूरा अल-क़मर : 5]एक अन्य स्थान पर वह कहता है :{तथा वही है जो आरंभ करता है उत्पत्ति का, फिर वह उसे दोहराएगा, और यह अति सरल है उसपर, और उसी का सर्वोच्च गुण है आकाशों तथा धरती में, और वही प्रभुत्वशाली तत्वज्ञ है।}[सूरा अर-रूम : 27]अल्लाह तआला ने अपने आपको तत्वदर्शन (हिकमत) के विशेषण से विशेषित करते हुए, अपना नाम तत्वज्ञ (हकीम) रखा। वह कहता है :अल्लाह गवाही देता है कि उसके अतिरिक्त कोई अन्य पूज्य नहीं है, इसी प्रकार फ़रिश्ते एवं ज्ञानी लोग भी (साक्षी हैं) कि उसके अतिरिक्त कोई अन्य पूज्य नहीं है। वह प्रभुत्वशाली हिकमत वाला है।[सूरा आल-इमरान : 18]अल्लाह तआला ने ईसा -अलैहिस्सलाम- के बारे में सूचना देते हुए कहा कि वे क़यामत के दिन अल्लाह को संबोधित करते हुए कहेंगे :{यदि तू उन्हें दण्ड दे तो वे तेरे बंदे हैं, और यदि तू उन्हें क्षमा कर दे तो वास्तव में तू ही प्रभावशाली गुणी है।}[सूरा अल-माइदा : 118]अल्लाह तआला ने मूसा -अलैहिस्सलाम- को जब तूर पर्वत के किनारे पुकारा, तो उनसे कहा :{ऐ मूसा! यह मैं हूँ, अल्लाह, अति प्रभुत्वशाली, तत्वज्ञ।}[सूरा अन-नम्ल : 9]अल्लाह तआला ने क़ुरआन को भी हिकमत (अंतर्ज्ञान) का नाम दिया है। वह कहता है :{अलिफ़-लाम-रा। यह ऐसी पुस्तक है जिसकी आयतें सुदृढ़ की गईं फिर सविस्तार वर्णित की गई हैं, उसकी ओर से, जो तत्वज्ञ, सर्वसूचित है।}[सूरा हूद : 1]एक अन्य स्थान पर वह कहता है :{ये तत्वदर्शिता एवं अंतर्ज्ञान की वो बातें हैं, जिनकी वह़्य (प्रकाशना) आपकी ओर आपके पालनहार ने की है और अल्लाह के साथ कोई दूसरा पूज्य न बना लेना, अन्यथा नरक में निन्दित एवं तिरस्कृत करके फेंक दिए जाओगे।}[सूरा अल-इसरा : 39]
22- नबी एवं रसूलगण, अल्लाह का संदेश पहुँचाने के मामले में मासूम हैं तथा हर उस वस्तु से पाक हैं जो बुद्धि तथा विवेक के विरुद्ध हो एवं सुव्यवहार से मेल न खाती हो। उनका दायित्व केवल इतना है कि वे अल्लाह तआला के आदेशों एवं निषेधों को पूरी ईमानदारी के साथ बंदों तक पहुँचा दें। याद रहे कि नबियों और रसूलों में ईश्वरीय गुण, कण-मात्र भी नहीं था। वे दूसरे मनुष्यों की तरह ही मानव मात्र थे। उनके अंदर, केवल इतनी विशेषता होती थी कि वे अल्लाह की वह़्य (प्रकाशना) के वाहक हुआ करते थे।
सारे नबी -अलैहिमुस्सलाम- अल्लाह का संदेश पहुँचाने के मामले में बिल्कुल मासूम थे, क्योंकि अल्लाह तआला अपना संदेश पहुँचाने के लिए अपने सबसे नेक और श्रेष्ठतम बंदों को चुनता है। अल्लाह का फ़रमान है :{अल्लाह ही निर्वाचित करता है फ़रिश्तों में से तथा मनुष्यों में से रसूलों को। वास्तव में, वह सुनने तथा देखने वाला है।}[सूरा अल-हज : 75]एक और स्थान में उसका फ़रमान है :{वस्तुतः, अल्लाह ने आदम, नूह़, इबराहीम की संतान तथा इमरान की संतान को समस्त संसार वासियों में चुन लिया था।}[सूरा आल-ए-इमरान : 33]एक अन्य स्थान में उसका फ़रमान है :{अल्लाह ने कहा : ऐ मूसा! मैंने तुझे लोगों पर प्रधानता देकर अपने संदेशों तथा अपने वार्तालाप द्वारा निर्वाचित कर लिया है। अतः जो कुछ तुझे प्रदान किया है, उसे ग्रहण कर ले और कृतज्ञों में हो जा।}[सूरा अल-आराफ़ : 144]सारे रसूल -अलैहिमुस्सलाम- इस बात से भली-भाँति अवगत थे कि उनपर जो कुछ उतरता है, वह ईश्वरीय प्रकाशना है। वे अपनी आँखों से फ़रिश्तों को वह्य लाते हुए देखते भी थे, जैसा कि अल्लाह तआला ने फ़रमाया है :{वह ग़ैब (परोक्ष) का ज्ञानी है, अतः, वह अवगत नहीं कराता है अपने परोक्ष पर किसी को।सिवाए उस रसूल के जिसे उसने प्रिय बना लिया है, फिर वह लगा देता है उस वह़्य के आगे तथा उसके पीछे रक्षक।ताकि वह देख ले कि उन्होंने पहुँचा दिए हैं अपने पालनहार के उपदेश और उसने घेर रखा है, जो कुछ उनके पास है, और प्रत्येक वस्तु को गिन रखा है।}[सूरा अल-जिन्न : 26-28]अल्लाह तआला ने उनको अपने संदेशों को लोगों तक पहुँचा देने का आदेश दिया था। अल्लाह कहता है :{ऐ रसूल! जो कुछ आपपर आपके पालनहार की ओर से उतारा गया है, उसे (सबको) पहुँचा दें, और यदि ऐसा नहीं किया, तो आपने उसका उपदेश नहीं पहुँचाया, और अल्लाह (विरोधियों से) आपकी रक्षा करेगा। निश्चय ही अल्लाह काफ़िरों को मार्गदर्शन नहीं देता।}[सूरा अल-माइदा : 67]एक और स्थान में उसने कहा है :{यह सभी रसूल शुभ सूचना सुनाने वाले और डराने वाले थे, ताकि इन रसूलों के (आगमन के) पश्चात् लोगों के लिए अल्लाह पर कोई तर्क ना रह जाए, और अल्लाह प्रभुत्वशाली तत्वज्ञ है।}[सूरा अन-निसा : 165]रसूलगण -अलैहिमुस्सलाम- तमाम लोगों में अल्लाह का सबसे ज़्यादा भय रखते और उससे सबसे ज़्यादा डरते थे, इसलिए वे अल्लाह के संदेशों एवं उपदेशों में तनिक भी कमी-बेशी करने की सोच भी नहीं सकते थे। अल्लाह तआला ने स्वयं इस बात की पुष्टि करते हुए फ़रमाया है :{और यदि इसने (नबी ने) हमपर कोई बात बनाई होती।तो अवश्य हम पकड़ लेते उसका सीधा हाथ।फिर अवश्य काट देते उसके गले की रग।फिर तुममें से कोई (मुझे) उससे रोकने वाला न होता।}[सूरा अल-ह़ाक़्क़ा : 44-47]इब्ने कसीर -अल्लाह उनपर दया करे- ने कहा है :अल्लाह तआला के फ़रमान {وَلَوْ تَقَوَّلَ عَلَيْنَا} का मतलब यह है कि यदि मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम-, बहुदेववादियों की धारणा के अनुसार, हमपर आरोप जड़ते हुए हमारे संदेशों में ज़रा भी कमी-बेशी करते या अपनी तरफ से कोई बात गढ़कर हमसे जोड़ देते -जबकि ऐसा कदाचित नहीं है- तो हम उन्हें त्वरित सज़ा देते। इसी लिए {لَأَخَذْنَا مِنْهُ بِالْيَمِينِ} फ़रमाया, जिसका एक अर्थ यह है कि हम उनको दाहिनी तरफ से पकड़कर सज़ा देते, क्योंकि वही पकड़ ज़्यादा कठोर होती है। इसका दूसरा अर्थ यह है कि हम उनके शरीर की दाहिनी ओर का कोई अंग पकड़ते।एक और स्थान में उसका फ़रमान है :{और जब अल्लाह (क़यामत के दिन) कहेगा : ऐ मरयम के बेटे ईसा! क्या तुमने लोगों से कहा था कि अल्लाह के अतिरिक्त मुझे और मेरी माँ को पूज्य एवं अराध्य बना लो? वह कहेगा : तू पवित्र है, मैं कोई ऐसी बात कैसे कह सकता था, जिसको कहने का मुझे कोई अधिकार प्राप्त नहीं था। यदि मैंने ऐसी बात कही होती तो तुझे उसका ज्ञान अवश्य ही हो जाता, क्योंकि मेरे दिल की बातों को तू अवश्य जानता है, मगर मैं तेरे दिल की बात नहीं जानता, बेशक तू सभी अदृश्य एवं परोक्ष की बातें जानने वाला है। मैंने उनसे बस वही बात कही थी, जिसे कहने का तूने मुझे आदेश दिया था। मैंने उनसे कहा था कि तुम सब उस अल्लाह की बंदगी करो जो मेरा भी पालनहार है और तुम सभों का भी। मैं जब तक उनमें था, उनकी मनोदशा जानता था और जब तूने मेरा समय पूरा कर दिया तो तू ही उनका संरक्षक था और तू हर वस्तु से सूचित है।}[सूरा अल-माइदा : 116-117]अपने नबियों और रसूलों -अलैहिमुस्सलाम- पर, अल्लाह तआला की एक खास कृपा यह बनी रहती थी कि उसने अपने उपदेशों एवं संदेशों को लोगों तक पहुँचाने के क्रम में, उनके कदमों को जमाए रखता था। अल्लाह कहता है :{उसने कहा कि मैं अल्लाह को गवाह बनाता हूँ और तुम सब भी गवाह रहो कि अल्लाह के अतिरिक्त, जिस चीज़ की भी तुम लोग पूजा करते हो, मैं ऐसी हर चीज़ से बिल्कुल विरक्त हूँ। अब तुम सब मिलकर मुझे तनिक भी अवसर दिए बिना, मेरे विरुद्ध जो साज़िश रचना चाहो, रच लो।वास्तव में, मैंने अल्लाह पर, जो मेरा पालनहार और तुम्हारा भी पालनहार है, भरोसा किया है। कोई चलने वाला जीव ऐसा नहीं, जो उसके अधिकार में न हो, वास्तव में, मेरा पालनहार सीधी राह पर है।}[सूरा हूद : 54-56]तथा अल्लाह तआला का फ़रमान है :{और (ऐ नबी!) वह (काफ़िर) करीब था कि आपको उस वह़्य से फेर दें, जो हमने आपकी ओर भेजी है, ताकि आप हमारे ऊपर अपनी ओर से कोई दूसरी बात गढ़ लें और उस समय वे आपको अवश्य ही अपना मित्र बना लेते।और यदि हम आपको सुदृढ़ न रखते तो आप उनकी ओर कुछ न कुछ झुक जाते।तब हम आपको जीवन की दोहरी तथा मरण की दोहरी यातना चखाते। फिर आप अपने लिए हमारे ऊपर कोई सहायक न पाते।}[सूरा अल-इसरा : 73-75]यह और इनसे पहले गुज़रने वाली आयतें गवाह तथा तर्क हैं इस बात पर कि क़ुरआन, सारे जहानों के पालनहार का उतारा हुआ ग्रंथ है, क्योंकि यदि वह मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- का रचा हुा ग्रंथ होता, तो इसमें उनसे इस प्रकार के कठोर अंदाज़ में संबोधित करने वाली बातें शामिल नहीं रह सकती थीं।महान अल्लाह अपने रसूलों को लोगों के उत्पीड़न से बचाता है। अल्लाह कहता है :{ऐ रसूल! जो कुछ आपपर आपके पालनहार की ओर से उतारा गया है, उसे (सबको) पहुँचा दें और यदि ऐसा नहीं किया तो आपने उसका उपदेश नहीं पहुँचाया और अल्लाह (विरोधियों से) आपकी रक्षा करेगा। निश्चय ही अल्लाह काफ़िरों को मार्गदर्शन नहीं देता।}[सूरा अल-माइदा : 67]एक अन्य स्थान पर वह कहता है :{आप उन्हें नूह़ की कथा सुनाएँ, जब उसने अपनी क़ौम से कहा : ऐ मेरी क़ौम! यदि मेरा तुम्हारे बीच रहना और तुम्हें अल्लाह की आयतों (निशानियों) द्वारा मेरा शिक्षा देना, तुमपर भारी हो तो अल्लाह ही पर मैंने भरोसा किया है। तुम मेरे विरुद्ध जो करना चाहो, उसे निश्चित रूप से कर लो और अपने साझियों (देवी-देवताओं) को भी बुला लो। फिर तुम्हारी योजना तुमपर तनिक भी छुपी न रह जाए, फिर जो करना हो, उसे कर जाओ और मुझे कोई अवसर न दो।}[सूरा यूनुस : 71]मूसा -अलैहिस्सलाम- के कथन की सूचना देते हुए, अल्लाह ताला फ़रमाता है :{दोनों ने कहा : ऐ हमारे पालनहार! हमें डर है कि वह हमपर अत्याचार या अतिक्रमण कर देगा। अल्लाह तआला ने कहा : तुम दोनों डरो मत, मैं तुम दोनों के साथ हूँ, देखता-सुनता हूँ।}[सूरा ता-हा : 45-46]इस प्रकार, अल्लाह तआला ने स्पष्ट कर दिया कि वह अपने रसूलों -अलैहिमुस्सलाम- की, उनके दुश्मनों से रक्षा करता है, और उनके दुश्मनों का उनको घातक चोट पहुँचाना, असंभव है। अल्लाह तआला ने इस बात की भी सूचना दी है कि वह अपनी प्रकाशना (वह्य) की रक्षा करता है, इसलिए उसमें कमी-बेशी करना भी असंभव है। अल्लाह कहता है :{बेशक हमने ही यह शिक्षा (क़ुरआन) उतारी है और हम ही इसके रक्षक हैं।}[सूरा अल-हिज्र : 9]सारे नबीगण -अलैहिमुस्सलाम- हर उस वस्तु से सुरक्षित हैं, जो विवेक और आचरण के विरुद्ध है। अल्लाह तआला ने अपने नबी मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के उच्च आचरण का बखान करते हुए कहा है :{तथा निश्चय ही आप उच्च शिष्टता एवं आचरण वाले हैं।}[सूरा अल-क़लम : 4]आप ही के बारे में एक और स्थान में कहा है :{और तुम्हारा साथी दीवाना नहीं है।}[सूरा अत-तकवीर : 22]ऐसा इसलिए है, ताकि वे बेहतरीन अंदाज़ में अल्लाह का पैग़ाम लोगों तक पहुँचाने का दायित्व निभा सकें। याद रहे कि नबीगण बस अल्लाह के आदेशों को उसके बंदों तक पहुँचा देने के ज़िम्मेवार भर थे। उनके अंदर पालनहार या पूज्य होने की कोई विशेषता नहीं थी। वे साधारण मनुष्यों की तरह ही मनुष्य मात्र थे, जिनकी ओर अल्लाह तआला अपने संदेशों की वह्य करता था। अल्लाह कहता है :{उनसे उनके रसूलों ने कहा : हम तुम्हारे जैसे मानव पुरुष ही हैं, परन्तु अल्लाह अपने बंदों में से जिसपर चाहे, उपकार करता है, और हमारे बस में नहीं कि अल्लाह की अनुमति के बिना कोई प्रमाण ले आएँ और अल्लाह ही पर ईमान वालों को भरोसा करना चाहिए।}[सूरा इबराहीम : 11]अल्लाह तआला ने अपने रसूल मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- को आदेश दिया कि वह लोगों से कह दें :{आप कह दीजिए कि मैं तुम्हारी तरह मनुष्य हूँ (अंतर यह है कि) मेरे पास अल्लाह की ओर से वह्य आती है कि तुम्हारा अल्लाह वही एक सच्चा पूज्य है, इसलिए जिसे अपने रब से मिलने की अभिलाषा हो, उसको चाहिए कि वह अच्छा कर्म करे और अपने रब की उपासना में किसी को भागीदार न बनाए।}[सूरा अल-कहफ़ : 110]
23. इस्लाम, बड़ी और महत्वपूर्ण इबादतों के नियम-क़ानून की पूर्णतया पाबंदी करते हुए, केवल एक अल्लाह की इबादत करने का आदेश देता है, जिनमें से एक नमाज़ है। नमाज़ क़ियाम (खड़ा होना), रुकू (झुकना), सजदा, अल्लाह को याद करने, उसकी स्तुति एवं गुणगान करने और उससे दुआ एवं प्रार्थना करने का संग्रह है। हर व्यक्ति पर दिन- रात में पाँच वक़्त की नमाज़ें अनिवार्य हैं। नमाज़ में जब सभी लोग एक ही पंक्ति में खड़े होते हैं तो अमीर-गरीब और आक़ा व गुलाम का सारा अंतर मिट जाता है। दूसरी इबादत ज़कात है। ज़कात माल के उस छोटे से भाग को कहते हैं जो अल्लाह तआला के निर्धारित किए हुए नियम-क़ानून के अनुसार साल में एक बार, मालदारों से लेकर गरीबों आदि में बाँट दिया जाता है। तीसरी इबादत रोज़ा है जो रमज़ान महीने के दिनों में खान-पान और दूसरी रोज़ा तोड़ने वाली वस्तुओं से रुक जाने का नाम है। रोज़ा, आत्मा को आत्मविश्वास और धैर्य एवं संयम सिखाता है। चौथी इबादत हज है, जो केवल उन मालदारों पर जीवन भर में सिर्फ एक बार फ़र्ज़ है, जो पवित्र मक्का में स्थित पवित्र काबे तक पहुँचने की क्षमता रखते हों। हज एक ऐसी इबादत है जिसमें दुनिया भर से आए हुए तमाम लोग, अल्लाह तआला पर ध्यान लगाने के मामले में बराबर हो जाते हैं और सारे भेद-भाव तथा संबद्धताएँ धराशायी हो जाती हैं।
इस्लाम, बड़ी और अन्य इबादतों के ज़रिए अल्लाह की आराधना करने की ओर बुलाता है, जिनको उसने तमाम नबियों और रसूलों -अलैहिमुस्सलाम- पर भी वाजिब किया था। इस्लाम में सबसे बड़ी इबादतें निम्नलिखित हैं:
1- नमाज़ : इसे अल्लाह ने मुसलमानों पर उसी तरह वाजिब किया है, जिस तरह सारे नबियों और रसूलों -अलैहिमुस्सलाम- पर वाजिब किया था। अल्लाह ने अपने नबी इबराहीम -अलैहिस्सलाम- को आदेश दिया था कि वे अल्लाह के घर को परिक्रमा करने, नमाज़ पढ़ने, रुकू करने और सजदा करने वालों के लिए पाक करें। अल्लाह ने कहा है :{और (याद करो) जब हमने इस घर (अर्थात काबा) को लोगों के लिए बार-बार आने का केंद्र तथा शांति स्थल निर्धारित कर दिया, तथा आदेश दे दिया कि 'मक़ामे इबराहीम' को नमाज़ का स्थान बना लो, तथा इबराहीम और इसमाईल को आदेश दिया कि मेरे घर को तवाफ़ (परिक्रमा) तथा एतेकाफ़ (एकांतवास) करने वालों और सजदा तथा रुकू करने वालों के लिए पवित्र रखो।}[सूरा अल-बक़रा : 125]अल्लाह तआला ने मूसा -अलैहिस्सलाम- पर इसे उसी वक्त वाजिब कर दिया था, जब उनको पहली बार पुकारा था। अल्लाह कहता है :{वास्तव में, मैं ही तेरा पालनहार हूँ, तू उतार दे अपने दोनों जूते, क्योंकि तू पवित्र घाटी "तुवा" में है।और मैंने तुझे चुन लिया है। अतः ध्यान से सुन, जो वह़्य की जा रही है।निस्संदेह मैं ही अल्लाह हूँ, मेरे सिवा कोई पूज्य नहीं, तो मेरी ही इबादत (वंदना) कर, तथा मेरे स्मरण (याद) के लिए नमाज़ स्थापित कर।}[सूरा ता-हा : 12-14]ईसा मसीह -अलैहिस्सलाम- ने स्वयं बताया है कि अल्लाह ने उन्हें नमाज़ स्थापित करने और ज़कात अदा करने का हुक्म दिया है। अल्लाह ने इसकी सूचना देते हुए कहा है :{तथा मुझे शुभ बनाया है जहाँ रहूँ और मुझे आदेश दिया है नमाज़ तथा ज़कात का जब तक जीवित रहूँ।}[सूरा मरयम : 31]इस्लाम में नमाज़, खड़े होने, रुकू करने, सजदा करने, अल्लाह को याद करने, उसकी प्रशंसा करने और उससे दुआ माँगने के संग्रहित कृत्य का नाम है, जिसे मुसलमान दिन-रात में पाँच बार अदा करता है। अल्लाह का फ़रमान है :{नमाज़ों की सुरक्षा करो विशेषकर मध्य वाली नमाज़ की और अल्लाह के लिए नम्रतापूर्वक खड़े रहा करो।}[सूरा अल-बक़रा : 238]एक अन्य स्थान पर वह कहता है :{आप नमाज़ की स्थापना करें सूर्यास्त से रात का अन्धेरा फैल जाने तक तथा प्रातः (फ़ज्र के समय) क़ुरआन पढ़ें। वास्तव में, प्रातःकाल में क़ुरआन पढ़ना उपस्थिति का समय है।}[सूरा अल-इसरा : 78]और अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है :(रही बात रुकू की तो उसमें प्रभुत्वशाली और महान अल्लाह की बड़ाई बयान करो और सजदों में खूब दुआएँ माँगो, क्योंकि सजदों में की जाने वाली दुआओं के क़बूल होने की बड़ी संभावना होती है।)सहीह मुस्लिम2- ज़कात : इसे अल्लाह तआला ने मुसलमानों पर उसी तरह वाजिब किया है, जिस तरह पहले के नबियों और रसूलों -अलैहिमुस्सलाम- पर किया था। ज़कात, अल्लाह तआला की निर्धारित की हुई शर्तों और अंदाज़ों के मुताबिक, साल भर में एक बार ली जाने वाली पूरे माल की वह थोड़ी सी मात्रा है, जो अमीरों से लेकर गरीबों आदि को दे दी जाती है। अल्लाह का फ़रमान है :{(ऐ नबी!) आप उनके धनों से दान लें और उसके द्वारा उन (के धनों) को पवित्र और उन (के मनों) को शुद्ध करें, और उन्हें आशीर्वाद दें। वास्तव में, आपका आशीर्वाद उनके लिए संतोष का कारण है, और अल्लाह सब सुनने-जानने वाला है।}[सूरा अत-तौबा : 103]और जब अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने मुआज़ -रज़ियल्लाहु अनहु- को यमन भेजा, तो उनसे कहा :"तुम अहले किताब (यहूदी और ईसाई) के एक समुदाय के पास जा रहे हो। अतः, सबसे पहले उन्हें "ला इलाहा इल्लल्लाह" की गवाही देने की ओर बुलाना। तथा एक रिवायत में है : सबसे पहले उन्हें केवल एक अल्लाह की इबादत की ओर बुलाना। अगर वे तुम्हारी बात मान लें तो उन्हें बताना कि अल्लाह ने उनपर दिन एवं रात में पाँच वक़्त की नमाजें फ़र्ज़ की हैं। अगर वे तुम्हारी यह बात मान लें तो उन्हें सूचित करना कि अल्लाह ने उनपर ज़कात फ़र्ज़ की है, जो उनके धनी लोगों से ली जाएगी और उनके निर्धनों को लौटा दी जाएगी। अगर वे तुम्हारी इस बात को भी मान लें, तो उनके उत्कृष्ट धनों से बचे रहना, तथा पीड़ितों के अभिशाप एवं बद-दुआ से बचना, क्योंकि उसके तथा अल्लाह के बीच कोई आड़ नहीं होती।"तिरमिज़ी, हदीस संख्या : 6253- रोज़ा : इसे अल्लाह ने मुसलमानों पर उसी तरह से फ़र्ज़ किया है, जिस तरह से पहले के नबियों और रसूलों पर फ़र्ज़ किया था। अल्लाह कहता है :{ऐ ईमान वालो! तुमपर रोज़े उसी प्रकार अनिवार्य कर दिए गए हैं, जैसे तुमसे पूर्व के लोगों पर अनिवार्य किए गए थे, ताकि तुम अल्लाह से डरो।}[सूरा अल-बक़रा : 183]रोज़ा, रमज़ान महीने के दिनों में हर उस चीज़ को प्रयोग करने से रुक जाने को कहते हैं, जिसका प्रयोग करने से रोज़ा टूट जाता है। रोज़ा दिल को दृढ़ संकल्प और धैर्य एवं संयम सिखाता है।अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया :"अल्लाह तआला कहता है : रोज़ा मेरे लिए है और मैं ही उसका श्रेय दूँगा, क्योंकि मेरा बंदा केवल मेरी वजह से अपनी कामवासना और खान-पान छोड़ देता है। रोज़ा ढाल है और रोज़ेदार के लिए दो ख़ुशियाँ हैं : एक, जब वह (सूरज डूबने पर) रोज़ा तोड़ता है, और दूसरी ख़ुशी उसको उस वक्त मिलेगी, जब वह अपने रब के दर्शन करेगा।"सहीह अल-बुख़ारी, हदीस संख्या : 74924- हज : इसे अल्लाह तआला ने मुसलमानों पर उसी तरह फ़र्ज़ किया है, जिस तरह पहले के नबियों और रसूलों -अलैहिमुस्सलाम- पर फ़र्ज़ किया था। सबसे पहले अल्लाह तआला ने इबराहीम -अलैहिस्सलाम- को हज की घोषणा करने का आदेश दिया था, जैसा कि इस आयत से पता चलता है :{और घोषणा कर दो लोगों में ह़ज की, वे आएँगे तेरे पास पैदल तथा प्रत्येक दुबली-पतली सवारियों पर जो प्रत्येक दूरस्थ मार्ग से आएँगी।}[सूरा अल-हज्ज : 27]अल्लाह ने उनको हाजियों के लिए काबे को पाक-साफ़ रखने का आदेश देते हुए कहा है :{तथा वह समय याद करो, जब हमने निश्चित कर दिया इबराहीम के लिए इस घर (काबा) का स्थान (इस प्रतिबंध के साथ) कि साझी न बनाना मेरा किसी चीज़ को तथा पवित्र रखना मेरे घर को परिक्रमा करने, खड़े होने, रुकू करने (झुकने) और सजदा करने वालों के लिए।}[सूरा अल-हज्ज : 26]हज, कुछ खास कार्य अंजाम देने हेतु पवित्र मक्का में स्थित काबे की यात्रा करने को कहते हैं। यह जीवन-भर में केवल एक बार उस मुसलमान पर फ़र्ज़ है, जो मक्का के सफर का ख़र्च निर्वहण कर सकता हो। अल्लाह तआला कहता है :{तथा अल्लाह के लिए लोगों पर इस घर का हज अनिवार्य है, जो उस तक राह पा सकता हो, और जो कुफ्र करेगा तो सुन ले कि अल्लाह समस्त संसार वासियों से निसपृह (बेनियाज़) है।}[सूरा आल-ए-इमरान : 97]हज में दुनिया के कोने-कोने से आए हुए तमाम हाजीगण अपने वास्तविक रचयिता के लिए अपनी हर प्रकार की इबादत को विशुद्ध करते हुए, एक ही स्थान पर एकत्र होते और हज के तमाम कर्मों को ऐसे उदाहरणात्मक तरीके से अदा करते हैं जिससे वातावरण, सभ्यता और आर्थिक मानकों के सारे अंतर मिट जाते हैं।
24- इस्लामी इबादतों की शीर्ष विशेषता जो उन्हें अन्य धर्मों की इबादतों के मुक़ाबले में विशिष्टता प्रदान करती है, यह है कि उनको अदा करने का तरीक़ा, उनका समय और उनकी शर्तें, सब कुछ अल्लाह तआला ने निर्धारित कर दिया है, और उसके रसूल मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने उन्हें अपनी उम्मत तक पहुँचा दिया है। आज तक उनके अंदर कमी-बेशी करने के मकसद से कोई भी इंसान दबिश नहीं दे सका है, और सबसे बड़ी बात यह है कि यही वह इबादतें हैं जिनके क्रियान्वयन की ओर समस्त नबियों और रसूलों ने अपनी-अपनी उम्मत को बुलाया था।
इस्लामी इबादतों की शीर्ष विशेषता, जो उन्हें अन्य धर्मों की इबादतों के मुक़ाबले में विशिष्टता प्रदान करती है, यह है कि उनको अदा करने का तरीक़ा, उनका समय और उनकी शर्तें, सब कुछ अल्लाह तआला ने निर्धारित कर दिया है और उसके रसूल मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने उन्हें अपनी उम्मत तक पहुँचा दिया है। आज तक उनके अंदर कमी-बेशी करने के मकसद से कोई भी इंसान दबिश नहीं दे सका है। अल्लाह का फ़रमान है :{आज मैंने तुम्हारे लिए तुम्हारे धर्म को सम्पूर्ण कर दिया, तुमपर अपना उपकार पूरा कर दिया और तुम्हारे लिए इस्लाम को धर्म के तौर पर चुन लिया।}[सूरा अल-माइदा : 3]एक अन्य स्थान पर अल्लाह तआला का फ़रमान है :{तो (ऐ नबी!) आप दृढ़ता से पकड़े रहें उसे, जो हम आपकी ओर वह़्य कर रहे हैं। वास्तव में, आप ही सीधी राह पर हैं।}[सूरा अज़-ज़ुख़रुफ़ : 43]अल्लाह तआला ने नमाज़ के बारे में फ़रमाया :{फिर जब तुम नमाज़ पूरी कर लो तो खड़े, बैठे, लेटे प्रत्येक स्थिति में अल्लाह का स्मरण करो और जब तुम शान्त हो जाओ तो पूरी नमाज़ पढ़ो। निस्संदेह, नमाज़ ईमान वालों पर निर्धारित समय पर अनिवार्य की गई है।}[सूरा अन-निसा : 103]ज़कात का माल ख़र्च करने की जगहों के बारे में फ़रमाया :{ज़कात, केवल फ़क़ीरों, मिस्कीनों, ज़कात के कार्य-कर्ताओं तथा उनके लिए जिनके दिलों को जोड़ा जा रहा है और दास मुक्त कराने, ऋणियों (की सहायता), अल्लाह की राह में तथा यात्रियों के लिए है। अल्लाह की ओर से अनिवार्य है, और अल्लाह सर्वज्ञ, तत्वज्ञ है।}[सूरा अत-तौबा : 60]रोज़े के बारे में फ़रमाया :{रमज़ान का महीना वह है, जिसमें क़ुरआन उतारा गया, जो सब मानव के लिए मार्गदर्शन है, तथा मार्गदर्शन और सत्य एवं असत्य के बीच अंतर करने के खुले प्रमाण रखता है। अतः जो व्यक्ति इस महीने में उपस्थित हो, वह उसका रोज़ा रखे। फिर यदि तुममें से कोई रोग ग्रस्त हो अथवा यात्रा पर हो, तो उसे दूसरे दिनों में गिनती पुरी करनी चाहिए। अल्लाह तुम्हारे लिए सुविधा चाहता है, तंगी (असुविधा) नहीं चाहता, और चाहता है कि तुम गिनती पूरी करो तथा इस बात पर अल्लाह की महिमा का वर्णन करो कि उसने तुम्हें मार्गदर्शन दिया और (इस प्रकार) तुम उसके कृतज्ञ बन सको।}[सूरा अल-बक़रा : 185]तथा हज के बारे में फ़रमाया :{ह़ज के महीने प्रसिद्ध हैं, जो व्यक्ति इनमें ह़ज करने का निश्चय कर ले, तो (ह़ज के बीच) काम-वासना तथा अवज्ञा और झगड़े की बातें न करे, तथा तुम जो भी अच्छे कर्म करोगे, उसका ज्ञान अल्लाह को हो जाएगा, और अपने लिए पाथेय (यात्रा का सामान) बना लो, और जान लो कि उत्तम पाथेय अल्लाह की आज्ञाकारिता है, तथा ऐ समझ वालो! मुझी से डरो।}सूरा अल-बक़रा : 197]इन तमाम महत्वपूर्ण और महान इबादतों को अंजाम देने का आह्वान, सारे नबियों -अलैहिमुस्सलाम- ने किया है।
25- इस्लाम के संदेष्टा मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम-, इसमाईल बिन इबराहीम -अलैहिमस्सलाम- के वंश से ताल्लुक रखते हैं, जिनका जन्म मक्का में 571 ईसवी में हुआ और वहीं उनको नबूवत मिली। फिर वे हिजरत करके मदीना चले गए। उन्होंने मूर्तिपूजा के मामले में तो अपनी क़ौम का साथ नहीं दिया, किन्तु अच्छे कामों में उसका भरपूर साथ दिया। संदेष्टा बनाए जाने से पहले से ही वे सद्गुण-सम्पन्न थे, और उनकी क़ौम उन्हें अमीन (विश्वसनीय) कहकर पुकारा करती थी। जब चालीस साल के हुए तो अल्लाह तआला ने उनको अपने संदेशवाहक के रूप में चुन लिया, और बड़े-बड़े चमत्कारों से आपका समर्थन किया, जिनमें सबसे बड़ा चमत्कार पवित्र क़ुरआन है। यह क़ुरआन सारे नबियों और रसूलों का रहती दुनिया तक बाकी रहने वाला चमत्कार है, जिसका प्रकाश कभी धूमिल नहीं होने वाला है। फिर जब अल्लाह तआला ने अपने धर्म को पूर्ण और स्थापित कर दिया और उसके रसूल मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने उसे पूरी तरह से दुनिया वालों तक पहुँचा दिया, तो 63 वर्ष की आयु में उनका देहान्त हो गया, और मदीने में दफ़नाए गए। पैग़म्बर मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- अल्लाह के अंतिम संदेष्टा थे। अल्लाह तआला ने उनको हिदायत और सच्चा धर्म देकर इसलिए भेजा था कि वे लोगों को मूर्तिपूजा, कुफ्र और मूर्खता के अंधकार से निकालकर एकेश्वरवाद और ईमान के प्रकाश में ले आएँ। स्वयं अल्लाह तआला ने गवाही दी है कि उसने उनको अपने आदेश से एक आह्वानकर्ता बनाकर भेजा था।
इस्लाम के संदेष्टा मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम-, इसमाईल बिन इबराहीम -अलैहिमस्सलाम- के वंश से ताल्लुक रखते हैं, जिनका जन्म मक्का में 571 ईसवी में हुआ, और वहीं उनको नबूवत मिली। फिर वे हिजरत करके मदीना चले गए। उनकी क़ौम उन्हें अमीन (विश्वसनीय) कहकर पुकारा करती थी। उन्होंने मूर्तिपूजा के मामले में तो अपनी क़ौम का साथ नहीं दिया, किन्तु अच्छे कामों में उसका भरपूर साथ दिया। संदेष्टा बनाए जाने से पहले से ही वे सद्गुण-सम्पन्न थे। वे सदाचरण एवं सद्गुण के शीर्ष स्थान पर विराजमान थे। अल्लाह तआला ने उनको सदाचरण के शीर्ष स्थान पर विराजमान करते हुए फ़रमाया है :{तथा निश्चय ही आप उच्च शिष्टता एवं आचरण वाले हैं।}[सूरा अल-क़लम : 4]जब वे चालीस वर्ष के हुए तो अल्लाह तआला ने उनको अपना संदेष्टा बना लिया और उनका अनगिनत करिश्मों एवं चमत्कारों से समर्थन किया, जिनमें सबसे बड़ा चमत्कार और करिश्मा पवित्र क़ुरआन है।अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया :"पहले के हर नबी को जो-जो चमत्कार दिया गया था, वह उसके ज़माने तक ही सीमित रहा और उसपर उसी ज़माने के लोग ही ईमान ले आए। परन्तु क़ुरआन की सूरत में मुझे जो चमत्कार दिया गया है, वह क़यामत तक के लिए है और इसीलिए मेरे अनुसरणकर्ता सबसे अधिक होंगे।"सहीह बुख़ारीमहान क़ुरआन, अल्लाह की अपने रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- पर उतारी गई वह्य है। अल्लाह ने इस बाबत कहा है :{यह ऐसी पुस्तक है, जिसके अल्लाह की तरफ़ से होने में कोई संशय तथा संदेह नहीं, उन्हें सीधी डगर दिखाने के लिए है, जो (अल्लाह से) डरते हैं।}[सूरा अल-बक़रा : 2]तथा अल्लाह तआला का इसके बारे में एक और फ़रमान है :{तो क्या वे क़ुरआन के अर्थों पर सोच-विचार नहीं करते? यदि वह अल्लाह के सिवा दूसरे की ओर से होता, तो उसमें बहुत-सी विसंगतियाँ पाते।}[सूरा अन-निसा : 82]अल्लाह तआला ने तमाम इंसानों तथा तमाम जिन्नात को उस जैसी एक किताब लिखकर ले आने की खुली चुनौती देते हुए कहा है :{(ऐ पैगम्बर!) आप कह दीजिए कि यदि सारे इंसान एवं जिन्नात मिलकर भी इस प्रकार का क़ुरआन लाना चाहें, तो इस जैसा क़ुरआन कदापि नहीं ला सकेंगे, चाहे वे एक-दूसरे के सहयोगी ही क्यों न बन जाएँ।}[सूरा अल-इसरा : 88]फिर अल्लाह तआला ने उन्हें क़ुरआन की सूरतों जैसी दस सूरतें बनाकर लाने की चुनौती देते हुए कहा है :{क्या वह कहते हैं कि उसने इस (क़ुरआन) को स्वयं बना लिया है? आप कह दें कि इसी के समान दस सूरतें बना लाओ, और अल्लाह के सिवा, जिसे हो सके, बुला लो, यदि तुम लोग सच्चे हो।}[सूरा हूद :13]फिर अल्लाह उन्हें क़ुरआन की किसी सूरत जैसी बस एक सूरत बनाकर लाने की चुनौती देते हुए कहा :{और यदि तुम्हें उसमें कुछ संदेह हो, जो (क़ुरआन) हमने अपने बंदे पर उतारा है, तो उसके समान कोई सूरा बनाकर ले आओ और अपने समर्थकों को भी, जो अल्लाह के सिवा हों, बुला लो, यदि तुम सच्चे हो।}[सूरा अल-बक़रा : 23]
महान क़ुरआन, अल्लाह की अपने रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- पर उतारी गई वह्य है। अल्लाह ने इस बाबत कहा है :
{यह ऐसी पुस्तक है, जिसके अल्लाह की तरफ़ से होने में कोई संशय तथा संदेह नहीं, उन्हें सीधी डगर दिखाने के लिए है, जो (अल्लाह से) डरते हैं।}
[सूरा अल-बक़रा : 2]
तथा अल्लाह तआला का इसके बारे में एक और फ़रमान है :
{तो क्या वे क़ुरआन के अर्थों पर सोच-विचार नहीं करते? यदि वह अल्लाह के सिवा दूसरे की ओर से होता, तो उसमें बहुत-सी विसंगतियाँ पाते।}
[सूरा अन-निसा : 82]
अल्लाह तआला ने तमाम इंसानों तथा तमाम जिन्नात को उस जैसी एक किताब लिखकर ले आने की खुली चुनौती देते हुए कहा है :
{(ऐ पैगम्बर!) आप कह दीजिए कि यदि सारे इंसान एवं जिन्नात मिलकर भी इस प्रकार का क़ुरआन लाना चाहें, तो इस जैसा क़ुरआन कदापि नहीं ला सकेंगे, चाहे वे एक-दूसरे के सहयोगी ही क्यों न बन जाएँ।}
[सूरा अल-इसरा : 88]
फिर अल्लाह तआला ने उन्हें क़ुरआन की सूरतों जैसी दस सूरतें बनाकर लाने की चुनौती देते हुए कहा है :
{क्या वह कहते हैं कि उसने इस (क़ुरआन) को स्वयं बना लिया है? आप कह दें कि इसी के समान दस सूरतें बना लाओ, और अल्लाह के सिवा, जिसे हो सके, बुला लो, यदि तुम लोग सच्चे हो।}
[सूरा हूद :13]
फिर अल्लाह उन्हें क़ुरआन की किसी सूरत जैसी बस एक सूरत बनाकर लाने की चुनौती देते हुए कहा :
{और यदि तुम्हें उसमें कुछ संदेह हो, जो (क़ुरआन) हमने अपने बंदे पर उतारा है, तो उसके समान कोई सूरा बनाकर ले आओ और अपने समर्थकों को भी, जो अल्लाह के सिवा हों, बुला लो, यदि तुम सच्चे हो।}
[सूरा अल-बक़रा : 23]
नबियों के चमत्कारों में से केवल क़ुरआन ही एक मात्र ऐसा चमत्कार है, जो आज तक बाक़ी है। फिर जब अल्लाह ने रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- पर धर्म को सम्पूर्ण कर दिया और आपने उसे पूर्ण रूप से दुनिया वालों तक पहुँचा दिया, तो 63 साल की आयु में आपका देहान्त हो गया, और मदीने में आपको दफ़नाया गया।
अल्लाह के रसूल मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- नबियों और रसूलों के सिलसिले की अंतिम कड़ी थे, जैसा कि स्वयं अल्लाह ने इस आयत में घोषणा की है :{मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- तुम्हारे पुरुषों में से किसी के पिता नहीं, बल्कि अल्लाह के संदेशवाहक और समस्त नबियों के सिलसिले की अंतिम कड़ी हैं।}[सूरा अल-अहज़ाब : 40]अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अनहु- से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया :"बेशक मेरी मिसाल और मुझसे पहले के नबियों की मिसाल उस मनुष्य की तरह है, जिसने एक अच्छा और बहुत सुंदर घर बनाया, मगर एक कोने में एक ईंट की जगह खाली छोड़ दी। तो लोग उसके चारों ओर चक्कर लगाने लगे और उसपर आश्चर्य करने लगे और कहने लगे : तुमने यह ईंट क्यों नहीं लगाई? आपने फ़रमाया : तो मैं ही वह ईँट हूँ और मैं नबियों के सिलसिले की अंतिम कड़ी हूँ।"सह़ीह़ बुख़ारीइंजील में ईसा मसीह -अलैहिस्सलाम- ने अल्लाह के रसूल मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के आगमन का शुभ समाचार सुनाते हुए कहा है :"वह पत्थर जिसे निर्माताओं ने रखने से मना कर दिया था, वही कोने का पत्थर होगा। क्या तुम लोगों ने किताबों में नहीं पढ़ा है कि यीशु ने उनसे कहा : रब की ओर से ऐसा होकर रहेगा जो हमारे लिए अत्यंत आश्चर्य की बात है।" वर्तमान में जो तौरात मौजूद है, उसमें मूसा -अलैहिस्सलाम- से अल्लाह ने जो बात कही थी, वह इस प्रकार आज भी मौजूद है : "मैं उन्हीं के भाइयों के मध्य से एक नबी बनाऊँगा। मैं उसके मुँह में अपनी वाणी डालूँगा और वह वही कुछ बोलेगा, जो मैं उसे बोलने का आदेश दूँगा।"पैगम्बर मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- को अल्लाह तआला ने हिदायत और सच्चा धर्म देकर भेजा था। अल्लाह ने आपके बारे में गवाही दी है कि आप हक पर हैं और आपको उसी ने अपने आदेश पर हक की ओर बुलाने वाला बनाकर भेजा है। अल्लाह ने कहा है :{(ऐ नबी!) (आपको यहूदी आदि नबी न मानें) परन्तु अल्लाह उस (क़ुरआन) के द्वारा, जिसे आपपर उतारा है, गवाही देता है (कि आप नबी हैं)। उसने इसे अपने ज्ञान के साथ उतारा है तथा फ़रिश्ते भी गवाही देते हैं और अल्लाह की गवाही ही बहुत है।}[सूरा अन-निसा : 166]एक अन्य स्थान पर उसने कहा है :{वही है, जिसने भेजा अपने रसूल को मार्गदर्शन एवं सत्य धर्म के साथ, ताकि उसे प्रभुत्व प्रदान कर दे प्रत्येक धर्म पर, तथा पर्याप्त है (इसपर) अल्लाह का गवाह होना।}[सूरा अल-फ़त्ह : 28]अल्लाह तआला ने आप -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- को हिदायत के साथ भेजा था, ताकि आप, लोगों को मूर्तिपूजा, कुफ़्र और अज्ञानता के अंधकार से निकालकर एकेश्वरवाद एवं ईमान के प्रकाश में ले आएँ। अल्लाह का फ़रमान है :{इसके द्वारा अल्लाह उन्हें शान्ति के मार्ग दिखा रहा है, जो उसकी प्रसन्नता की प्राप्ति की राह पर चलते हों, और उन्हें अपनी अनुमति से अंधेरों से निकालकर प्रकाश की ओर ले जाता है और उन्हें सीधा मार्ग दिखाता है।}[सूरा अल-माइदा : 16]एक अन्य स्थान पर अल्लाह तआला का फ़रमान है :{अलिफ़-लाम-रा। यह (क़ुरआन) एक पुस्तक है, जिसे हमने आपकी ओर अवतरित किया है, ताकि आप लोगों को अंधेरों से निकालकर प्रकाश की ओर लाएँ, उनके पालनहार की अनुमति से, उसकी राह की ओर, जो बड़ा प्रबल सराहा हुआ है।}[सूरा इबराहीम : 1]
{मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- तुम्हारे पुरुषों में से किसी के पिता नहीं, बल्कि अल्लाह के संदेशवाहक और समस्त नबियों के सिलसिले की अंतिम कड़ी हैं।} [सूरा अल-अहज़ाब : 40]
अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अनहु- से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया :
"बेशक मेरी मिसाल और मुझसे पहले के नबियों की मिसाल उस मनुष्य की तरह है, जिसने एक अच्छा और बहुत सुंदर घर बनाया, मगर एक कोने में एक ईंट की जगह खाली छोड़ दी। तो लोग उसके चारों ओर चक्कर लगाने लगे और उसपर आश्चर्य करने लगे और कहने लगे : तुमने यह ईंट क्यों नहीं लगाई? आपने फ़रमाया : तो मैं ही वह ईँट हूँ और मैं नबियों के सिलसिले की अंतिम कड़ी हूँ।"
सह़ीह़ बुख़ारी
इंजील में ईसा मसीह -अलैहिस्सलाम- ने अल्लाह के रसूल मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के आगमन का शुभ समाचार सुनाते हुए कहा है :
"वह पत्थर जिसे निर्माताओं ने रखने से मना कर दिया था, वही कोने का पत्थर होगा। क्या तुम लोगों ने किताबों में नहीं पढ़ा है कि यीशु ने उनसे कहा : रब की ओर से ऐसा होकर रहेगा जो हमारे लिए अत्यंत आश्चर्य की बात है।" वर्तमान में जो तौरात मौजूद है, उसमें मूसा -अलैहिस्सलाम- से अल्लाह ने जो बात कही थी, वह इस प्रकार आज भी मौजूद है : "मैं उन्हीं के भाइयों के मध्य से एक नबी बनाऊँगा। मैं उसके मुँह में अपनी वाणी डालूँगा और वह वही कुछ बोलेगा, जो मैं उसे बोलने का आदेश दूँगा।"
पैगम्बर मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- को अल्लाह तआला ने हिदायत और सच्चा धर्म देकर भेजा था। अल्लाह ने आपके बारे में गवाही दी है कि आप हक पर हैं और आपको उसी ने अपने आदेश पर हक की ओर बुलाने वाला बनाकर भेजा है। अल्लाह ने कहा है :
{(ऐ नबी!) (आपको यहूदी आदि नबी न मानें) परन्तु अल्लाह उस (क़ुरआन) के द्वारा, जिसे आपपर उतारा है, गवाही देता है (कि आप नबी हैं)। उसने इसे अपने ज्ञान के साथ उतारा है तथा फ़रिश्ते भी गवाही देते हैं और अल्लाह की गवाही ही बहुत है।}
[सूरा अन-निसा : 166]
एक अन्य स्थान पर उसने कहा है :
{वही है, जिसने भेजा अपने रसूल को मार्गदर्शन एवं सत्य धर्म के साथ, ताकि उसे प्रभुत्व प्रदान कर दे प्रत्येक धर्म पर, तथा पर्याप्त है (इसपर) अल्लाह का गवाह होना।}
[सूरा अल-फ़त्ह : 28]
अल्लाह तआला ने आप -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- को हिदायत के साथ भेजा था, ताकि आप, लोगों को मूर्तिपूजा, कुफ़्र और अज्ञानता के अंधकार से निकालकर एकेश्वरवाद एवं ईमान के प्रकाश में ले आएँ। अल्लाह का फ़रमान है :
{इसके द्वारा अल्लाह उन्हें शान्ति के मार्ग दिखा रहा है, जो उसकी प्रसन्नता की प्राप्ति की राह पर चलते हों, और उन्हें अपनी अनुमति से अंधेरों से निकालकर प्रकाश की ओर ले जाता है और उन्हें सीधा मार्ग दिखाता है।}
[सूरा अल-माइदा : 16]
एक अन्य स्थान पर अल्लाह तआला का फ़रमान है :
{अलिफ़-लाम-रा। यह (क़ुरआन) एक पुस्तक है, जिसे हमने आपकी ओर अवतरित किया है, ताकि आप लोगों को अंधेरों से निकालकर प्रकाश की ओर लाएँ, उनके पालनहार की अनुमति से, उसकी राह की ओर, जो बड़ा प्रबल सराहा हुआ है।}
[सूरा इबराहीम : 1]
26- इस्लामी शरीयत (धर्म-विधान) जिसे अल्लाह के रसूल मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- लेकर आए थे, तमाम ईश्वरीय शरीयतों के सिलसिले की अंतिम कड़ी है। यह एक सम्पूर्ण शरीयत है और इसी में लोगों की धर्म और दुनिया, दोनों की भलाई निहित है। यह इंसानों के धर्म, खून, माल, विवेक और वंश की सुरक्षा को सबसे अधिक प्राथमिकता देती है। इसके आने के बाद, पहले की सारी शरीयतें निरस्त हो गई हैं, जैसा कि पहले आने वाली शरीयत को उसके बाद आने वाली शरीयत निरस्त कर देती थी।
इस्लामी शरीयत (धर्म-विधान) जिसे अल्लाह के रसूल मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- लेकर आए थे, तमाम ईश्वरीय शरीयतों के सिलसिले की अंतिम कड़ी है। अल्लाह ने इसी संदेश के ज़रिए, धर्म को पूरा किया और पैगम्बर मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- को नबी के रूप में भेजकर लोगों पर अपनी नेमत सम्पूर्ण कर दी। अल्लाह का फ़रमान है :{मैंने आज तुम्हारे लिए तुम्हारे धर्म को संपूर्ण कर दिया तथा तुमपर अपना पुरस्कार पूरा कर दिया है और तुम्हारे लिए इस्लाम को धर्म स्वरूप चुन लिया है।}[सूरा अल-माइदा : 3]इस्लामी शरीयत, एक सम्पूर्ण और सम्पन्न शरीयत है, और उसी में दुनिया के तमाम लोगों के धर्म और दुनिया दोनों की भलाई निहित है, क्योंकि वह पिछली सभी शरीयतों की सभी अच्छाइयों को समेटे हुई है, साथ ही उन सभों को सम्पूर्ण और सम्पन्न भी कर दिया है। अल्लाह का फ़रमान है :{नि:संदेह, यह क़ुरआन सबसे सही मार्ग का अनुदेश देता है तथा नेक काम करने वाले मोमिनों को शुभ सूचना देता है कि उन्हें महान प्रतिकार मिलेगा।}[सूरा अल-इसरा : 9]इस्लामी शरीयत ने लोगों को उन सभी बंधनों से मुक्त कर दिया है, जिनमें अगली उम्मतें जकड़ी हुई थीं। अल्लाह कहता है :{जो उस रसूल का अनुसरण करेंगे, जो उम्मी (अनपढ़) नबी हैं, जिन (के आगमन) का उल्लेख वे अपने पास तौरात तथा इंजील में पाते हैं; जो उन्हें सदाचार का आदेश देंगे और दुराचार से रोकेंगे, उनके लिए स्वच्छ चीज़ों को ह़लाल (वैध) तथा मलिन चीज़ों को ह़राम (अवैध) करेंगे, उनसे उनके बोझ उतार देंगे तथा उन बंधनों को खोल देंगे, जिनमें वे जकड़े हुए होंगे। अतः, जो लोग आप पर ईमान लाए, आपका समर्थन किया, आपकी सहायता की तथा उस प्रकाश (क़ुरआन) का अनुसरण किया, जो आपके साथ उतारा गया है, तो वही सफल होंगे।}[सूरा अल-आराफ़ : 157]इस्लामी शरीयत के आने के बाद, पहले की तमाम शरीयतें निरस्त हो गई हैं। अल्लाह तआला कहता है :{और (ऐ नबी!) हमने आपकी ओर सत्य पर आधारित पुस्तक (क़ुरआन) उतार दी, जो अपने पूर्व की पुस्तकों को सच बताने वाली तथा उनका संरक्षक है, अतः आप लोगों के मध्य निर्णय उसी से करें, जो अल्लाह ने उतारा है, तथा उनकी मनमानी पर उस सत्य से विमुख होकर न चलें, जो आपके पास आया है। हमने तुममें से प्रत्येक के लिए एक धर्म-विधान तथा एक कार्य प्रणाली बना दिया था और यदि अल्लाह चाहता, तो तुम्हें एक ही समुदाय बना देता, परन्तु उसने जो कुछ दिया है, उसमें तुम्हारी परीक्षा लेना चाहता है। अतः, भलाइयों में एक-दूसरे से आगे बढ़ जाने का प्रयास करो, अल्लाह ही की ओर तुम सबको लौटकर जाना है। फिर वह तुम्हें बता देगा, जिन बातों में तुम मतभेद करते रहे थे।}[सूरा अल-माइदा : 48]तो क़ुरआन जो अपने अंदर एक सम्पूर्ण धर्म-विधान रखता है, अपने से पहले के तमाम ईश्वरीय ग्रंथों की पुष्टि करने वाली, उनको संरक्षण देने वाली और उनको निरस्त करने वाली किताब है।
{मैंने आज तुम्हारे लिए तुम्हारे धर्म को संपूर्ण कर दिया तथा तुमपर अपना पुरस्कार पूरा कर दिया है और तुम्हारे लिए इस्लाम को धर्म स्वरूप चुन लिया है।}
[सूरा अल-माइदा : 3]
इस्लामी शरीयत, एक सम्पूर्ण और सम्पन्न शरीयत है, और उसी में दुनिया के तमाम लोगों के धर्म और दुनिया दोनों की भलाई निहित है, क्योंकि वह पिछली सभी शरीयतों की सभी अच्छाइयों को समेटे हुई है, साथ ही उन सभों को सम्पूर्ण और सम्पन्न भी कर दिया है। अल्लाह का फ़रमान है :
{नि:संदेह, यह क़ुरआन सबसे सही मार्ग का अनुदेश देता है तथा नेक काम करने वाले मोमिनों को शुभ सूचना देता है कि उन्हें महान प्रतिकार मिलेगा।}
[सूरा अल-इसरा : 9]
इस्लामी शरीयत ने लोगों को उन सभी बंधनों से मुक्त कर दिया है, जिनमें अगली उम्मतें जकड़ी हुई थीं। अल्लाह कहता है :
{जो उस रसूल का अनुसरण करेंगे, जो उम्मी (अनपढ़) नबी हैं, जिन (के आगमन) का उल्लेख वे अपने पास तौरात तथा इंजील में पाते हैं; जो उन्हें सदाचार का आदेश देंगे और दुराचार से रोकेंगे, उनके लिए स्वच्छ चीज़ों को ह़लाल (वैध) तथा मलिन चीज़ों को ह़राम (अवैध) करेंगे, उनसे उनके बोझ उतार देंगे तथा उन बंधनों को खोल देंगे, जिनमें वे जकड़े हुए होंगे। अतः, जो लोग आप पर ईमान लाए, आपका समर्थन किया, आपकी सहायता की तथा उस प्रकाश (क़ुरआन) का अनुसरण किया, जो आपके साथ उतारा गया है, तो वही सफल होंगे।}
[सूरा अल-आराफ़ : 157]
इस्लामी शरीयत के आने के बाद, पहले की तमाम शरीयतें निरस्त हो गई हैं। अल्लाह तआला कहता है :
{और (ऐ नबी!) हमने आपकी ओर सत्य पर आधारित पुस्तक (क़ुरआन) उतार दी, जो अपने पूर्व की पुस्तकों को सच बताने वाली तथा उनका संरक्षक है, अतः आप लोगों के मध्य निर्णय उसी से करें, जो अल्लाह ने उतारा है, तथा उनकी मनमानी पर उस सत्य से विमुख होकर न चलें, जो आपके पास आया है। हमने तुममें से प्रत्येक के लिए एक धर्म-विधान तथा एक कार्य प्रणाली बना दिया था और यदि अल्लाह चाहता, तो तुम्हें एक ही समुदाय बना देता, परन्तु उसने जो कुछ दिया है, उसमें तुम्हारी परीक्षा लेना चाहता है। अतः, भलाइयों में एक-दूसरे से आगे बढ़ जाने का प्रयास करो, अल्लाह ही की ओर तुम सबको लौटकर जाना है। फिर वह तुम्हें बता देगा, जिन बातों में तुम मतभेद करते रहे थे।}
[सूरा अल-माइदा : 48]
तो क़ुरआन जो अपने अंदर एक सम्पूर्ण धर्म-विधान रखता है, अपने से पहले के तमाम ईश्वरीय ग्रंथों की पुष्टि करने वाली, उनको संरक्षण देने वाली और उनको निरस्त करने वाली किताब है।
27- अल्लाह के रसूल मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के लाए हुए धर्म इस्लाम के सिवा कोई अन्य धर्म अल्लाह की नज़र में स्वीकार्य नहीं है। इसलिए, जो भी इस्लाम के अलावा कोई अन्य धर्म अपनाएगा तो वह उसकी तरफ़ से अल्लाह के यहाँ अस्वीकार्य हो जाएगा।
मतलब साफ़ है कि अल्लाह के रसूल मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के पैगम्बर बनने के बाद, उनके द्वारा लाए हुए धर्म इस्लाम के सिवा कोई अन्य धर्म अल्लाह की नज़र में स्वीकार्य नहीं है। इसलिए, जो भी इस्लाम के अलावा कोई अन्य धर्म अपनाएगा, तो वह उसकी तरफ़ से अल्लाह के यहाँ अस्वीकार्य हो जाएगा।अल्लाह तआला ने कहा है :{और जो भी इस्लाम के सिवा (किसी और धर्म) को अपनाएगा, उसे उसकी तरफ़ से कदापि स्वीकार नहीं किया जाएगा और वह परलोक में घाटा उठाने वालों में से होगा।}[सूरह आल-ए-इमरान : 85]एक अन्य स्थान पर उसने कहा है :{निस्संदेह, (वास्तविक) धर्म अल्लाह के पास इस्लाम ही है और अह्ले किताब ने जो विभेद किया, तो अपने पास ज्ञान आने के पश्चात् आपसी ईर्ष्या के कारण किया, तथा जो अल्लाह की आयतों के साथ कुफ़्र करेगा तो निश्चय ही अल्लाह, शीघ्र ह़िसाब लेने वाला है।}[सूरा आल-ए-इमरान : 19]इस्लाम, वास्तव में वही धर्म है जो इबराहीम -अलैहिस्सलाम- लेकर आए थे, जैसा कि अल्लाह तआला का फ़रमान है :{तथा कौन होगा जो इबराहीम के धर्म से विमुख हो जाए, परन्तु वही जो स्वयं को मूर्ख बना ले। जबकि हमने उसे संसार में चुन लिया तथा, आख़िरत में उसकी (इबराहीम की) गणना सदाचारियों में होगी।}[सूरा अल-बक़रा : 130]एक अन्य स्थान पर उसने कहा है :{तथा उस व्यक्ति से अच्छा किसका धर्म हो सकता है, जिसने स्वयं को अल्लाह के लिए झुका दिया, वह एकेश्वरवादी भी हो और एकेश्वरवादी इबराहीम के धर्म का अनुसरण भी कर रहा हो? और अल्लाह ने इबराहीम को अपना विशुद्ध मित्र बना लिया है।}[सूरा अन-निसा :125]अल्लाह तआला ने अपने रसूल मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- को आदेश दिया कि वे लोगों से कह दें :{(ए नबी!) आप कह दें कि मेरे पालनहार ने निश्चय ही मुझे सीधी राह दिखा दी है। वही सीधा धर्म, जो एकेश्वरवादी इबराहीम का धर्म था और वह मुश्रिकों में से नहीं था।}[सूरा अल-अनआम : 161]
अल्लाह तआला ने कहा है :
{और जो भी इस्लाम के सिवा (किसी और धर्म) को अपनाएगा, उसे उसकी तरफ़ से कदापि स्वीकार नहीं किया जाएगा और वह परलोक में घाटा उठाने वालों में से होगा।}
[सूरह आल-ए-इमरान : 85]
एक अन्य स्थान पर उसने कहा है :
{निस्संदेह, (वास्तविक) धर्म अल्लाह के पास इस्लाम ही है और अह्ले किताब ने जो विभेद किया, तो अपने पास ज्ञान आने के पश्चात् आपसी ईर्ष्या के कारण किया, तथा जो अल्लाह की आयतों के साथ कुफ़्र करेगा तो निश्चय ही अल्लाह, शीघ्र ह़िसाब लेने वाला है।}
[सूरा आल-ए-इमरान : 19]
इस्लाम, वास्तव में वही धर्म है जो इबराहीम -अलैहिस्सलाम- लेकर आए थे, जैसा कि अल्लाह तआला का फ़रमान है :
{तथा कौन होगा जो इबराहीम के धर्म से विमुख हो जाए, परन्तु वही जो स्वयं को मूर्ख बना ले। जबकि हमने उसे संसार में चुन लिया तथा, आख़िरत में उसकी (इबराहीम की) गणना सदाचारियों में होगी।}
[सूरा अल-बक़रा : 130]
एक अन्य स्थान पर उसने कहा है :
{तथा उस व्यक्ति से अच्छा किसका धर्म हो सकता है, जिसने स्वयं को अल्लाह के लिए झुका दिया, वह एकेश्वरवादी भी हो और एकेश्वरवादी इबराहीम के धर्म का अनुसरण भी कर रहा हो? और अल्लाह ने इबराहीम को अपना विशुद्ध मित्र बना लिया है।}
[सूरा अन-निसा :125]
अल्लाह तआला ने अपने रसूल मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- को आदेश दिया कि वे लोगों से कह दें :
{(ए नबी!) आप कह दें कि मेरे पालनहार ने निश्चय ही मुझे सीधी राह दिखा दी है। वही सीधा धर्म, जो एकेश्वरवादी इबराहीम का धर्म था और वह मुश्रिकों में से नहीं था।}
[सूरा अल-अनआम : 161]
28-पवित्र क़ुरआन वह किताब है, जिसे अल्लाह तआला ने पैग़म्बर मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- पर वह्य के द्वारा उतारा है। वह निस्संदेह, अल्लाह की अमर वाणी है। अल्लाह तआला ने तमाम इनसानों और जिन्नात को चुनौती दी थी कि वे उस जैसी एक किताब या उसकी किसी सूरा जैसी एक ही सूरा लाकर दिखाएँ। यह चुनौती आज भी अपनी जगह क़ायम है। पवित्र क़ुरआन, ऐसे बहुत सारे महत्वपूर्ण प्रश्नों का उत्तर देता है, जो लाखों लोगों को आश्चर्यचकित कर देते हैं। महान क़ुरआन आज भी उसी अरबी भाषा में सुरक्षित है, जिसमें वह अवतरित हुआ था। उसमें आज तक एक अक्षर की भी कमी-बेशी नहीं हुई है और ना क़यामत तक होगी। वह प्रकाशित होकर पूरी दुनिया में फैला हुआ है। वह एक महान किताब है, जो इस योग्य है कि उसे पढ़ा जाए या उसके अर्थों के अनुवाद को पढ़ा जाए। उसी तरह, अल्लाह के रसूल मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- की सुन्नत, शिक्षाएँ और जीवन-वृतांत भी विश्वसनीय वर्णनकर्ताओं के द्वारा नक़ल होकर सुरक्षित और उसी अरबी भाषा में प्रकाशित हैं, जो अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- बोलते थे और दुनिया की बहुत सारी भाषाओं में अनुवादित भी हैं। यही क़ुरआन एवं सुन्नत, इस्लाम धर्म के आदेश-निर्देशों और विधानों का एक मात्र संदर्भ हैं। इसलिए, इस्लाम धर्म को मुसलमान कहलाने वालों के कर्मों के आलोक में नहीं, अपितु ईश्वरीय प्रकाशना अर्थात क़ुरआन एवं सुन्नत के आधार पर परखकर लिया जाना चाहिए।
पवित्र क़ुरआन वह किताब है, जिसे अल्लाह तआला ने अरबी भाषा में अरबी संदेष्टा मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- पर वह्य के द्वारा उतारा है। क़ुरआन, सारे जहानों के पालनहार की अमर वाणी है। अल्लाह का फ़रमान है :{तथा निस्संदेह, यह (क़ुरआन) पूरे विश्व के पालनहार का उतारा हुआ है।इसे लेकर रूह़ुल अमीन उतरा।आपके दिल पर, ताकि आप हो जाएँ सावधान करने वालों में।स्पष्ट अरबी भाषा में।}[सूरा अश-शुअरा : 192-195]एक अन्य स्थान पर उसने कहा है :{और (ऐ नबी!) वास्तव में, आपको दिया जा रहा है क़ुरआन एक तत्वज्ञ, सर्वज्ञ की ओर से।}[सूरा अन-नम्ल : 6]यह क़ुरआन, अल्लाह तआला का उतारा हुआ ग्रंथ और पहले के ईश्वरीय ग्रंथों की सच्चाई का प्रमाणपत्र है। अल्लाह तआला का फ़रमान है :{और यह क़ुरआन ऐसा नहीं है कि अल्लाह के सिवा अपने मन से गढ़ लिया जाए, परन्तु उन (पुस्तकों) की पुष्टि है, जो इससे पहले उतरी हैं और यह पुस्तक (क़ुरआन) ऐसी विवरणी है, जिसमें कोई संदेह नहीं कि यह सम्पूर्ण विश्व के पालनहार की ओर से है।}[सूरा यूनुस : 37]महान क़ुरआन, ऐसे बहुत सारे मसलों का निर्णायक है जिनमें यहूदी और ईसाई आपस में मतभेद करते हैं। अल्लाह तआला का फ़रमान है :{निस्संदेह, यह क़ुरआन वर्णन कर रहा है इसराईल की संतान के समक्ष, उन अधिकांश बातों को जिनमें वे विभेद कर रहे हैं।}[सूरा अन-नम्ल : 76]महान क़ुरआन, अपने अंदर ऐसे तर्क एवं प्रमाण रखता है जिनसे अल्लाह और उसके धर्म-विधान एवं प्रतिकार से संबंधित वास्तविकताओं से परिचित होने के मामले में, दुनिया के तमाम लोगों पर तर्क सिद्ध हो जाता है। अल्लाह का फ़रमान है :{और हमने मनुष्य के लिए इस क़ुरआन में प्रत्येक प्रकार के उदाहरण दिए हैं, ताकि वे शिक्षा ग्रहण करें।}[सूरा अज़-ज़ुमर : 27]एक और स्थान में उसका फ़रमान है :{और हमने आप पर यह किताब हर चीज़ के लिए स्पष्टिकरण, मार्गदर्शन, करूणा तथा तमाम मुसलमानों के लिए शुभ संदेश बनाकर उतारी है।}[सूरा अन-नहल : 89]पवित्र क़ुरआन, ऐसे बहुत सारे बेहद महत्वपूर्ण प्रश्नों का उत्तर देता है जो करोड़ों लोगों को आश्चर्यचकित कर देते हैं, जैसे पवित्र क़ुरआन यह भी बयान करता है कि अल्लाह तआला ने आसमानों और धरती को कैसे बनाया। अल्लाह कहता है :{और क्या उन्होंने विचार नहीं किया जो काफ़िर हो गए कि आकाश तथा धरती दोनों मिले हुए थे, तो हमने दोनों को अलग-अलग किया तथा हमने बनाया पानी से प्रत्येक जीवित चीज़ को? फिर क्या वे (इस बात पर) विश्वास नहीं करते?}[सूरा अल-अंबिया : 30]अल्लाह तआला ने इंसान को कैसे पैदा किया, इसका उत्तर देते हुए कहता है :{ऐ लोगो! यदि तुम किसी संदेह में हो पुनः जीवित होने के विषय में, तो (सोचो कि) हमने तुम्हें मिट्टी से पैदा किया, फिर वीर्य से, फिर रक्त के थक्के से, फिर माँस के खण्ड से, जो चित्रित तथा चित्रविहीन होता है, ताकि हम उजागर कर दें तुम्हारे लिए, और स्थिर रखते हैं गर्भाशयों में जब तक चाहें; एक निर्धारित अवधि तक, फिर तुम्हें निकालते हैं शिशु बनाकर, फिर ताकि तुम पहुँचो अपने योवन को और तुम में से कुछ, पहले ही मर जाते हैं और तुममें से कुछ, जीर्ण आयु की ओर फेर दिए जाते हैं ताकि उसे कुछ ज्ञान न रह जाए ज्ञान के पश्चात्, तथा तुम देखते हो धरती को सूखी, फिर जब हम उसपर जल-वर्षा करते हैं तो सहसा लहलहाने और उभरने लगी तथा उगा देती है प्रत्येक प्रकार की सुदृश्य वनस्पतियाँ।}[सूरा अल-हज : 5] पारा संख्या : 20 में इस विषय पर कई दलीलों का उल्लेख किया जा चुका है कि इस जीवन के बाद इंसान का अंजाम क्या होना है, और अच्छे और बुरे इंसान को क्या-क्या प्रतिकार मिलने वाला है? इस बात पर भी बहस की जा चुकी है कि इंसान का अस्तित्व आकस्मिक है या उसे किसी बड़े उद्देश्य के तहत पैदा किया गया है?अल्लाह तआला ने कहा है :{क्या उन्होंने आकाशों तथा धरती के राज्य को और जो कुछ अल्लाह ने पैदा किया है, उसे नहीं देखा? और (यह भी नहीं सोचा कि) हो सकता है कि उनका (निर्धारित) समय समीप आ गया हो? तो फिर इस (क़ुरआन) के बाद वे किस बात पर ईमान लाएँगे?}[सूरा अल-आराफ़ : 185]एक और स्थान में उसका फ़रमान है :{क्या तुमने समझ रखा है कि हमने तुम्हें व्यर्थ ही पैदा किया है और तुम हमारी ओर फिर नहीं लाए जाओगे?}[सूरा अल-मोमिनून : 115]महान क़ुरआन आज भी उसी भाषा में सुरक्षित है, जिसमें अवतरित हुआ था। अल्लाह का फ़रमान है :{वास्तव में, हमने ही यह क़ुरआन उतारा है और हम ही इसके रक्षक हैं।}[सूरा अल-हिज्र : 9]इसमें एक अक्षर की भी कमी नहीं हुई है और यह असंभव भी है कि उसमें कोई विसंगति या कमी या परिवर्तन किया जा सके। अल्लाह का फ़रमान है :{तो क्या वे क़ुरआन के अर्थों पर सोच-विचार नहीं करते? यदि वह अल्लाह के सिवा दूसरे की ओर से होता तो उसमें बहुत सी विसंगतियाँ पाते।}[सूरा अन-निसा : 82]वह प्रकाशित होकर पूरी दुनिया में फैला हुआ है। वह एक महान किताब है, जो इस योग्य है कि उसे पढ़ा जाए या उसके अर्थों के अनुवाद को पढ़ा जाए। उसी तरह, अल्लाह के रसूल मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- की सुन्नत, शिक्षाएँ और जीवन-वृतांत भी विश्वसनीय वर्णनकर्ताओं के द्वारा नक़ल होकर सुरक्षित और उसी अरबी भाषा में प्रकाशित हैं, जो अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- बोलते थे और दुनिया की बहुत सारी भाषाओं में अनुवादित भी हैं। यही क़ुरआन एवं सुन्नत, इस्लाम धर्म के आदेश-निर्देशों और विधानों का एक मात्र संदर्भ हैं। इसलिए, इस्लाम धर्म को मुसलमान कहलाने वालों के कर्मों के आलोक में नहीं, अपितु ईश्वरीय प्रकाशना अर्थात क़ुरआन एवं सुन्नत के आधार पर परखकर लिया जाना चाहिए। अल्लाह तआला ने क़ुरआन के संंबंध में कहा है :{बेशक जिन लोगों ने इस क़ुरआन के साथ, उनके पास आने के बाद, कुफ़्र किया जबकि निस्संदेह वह एक अनहद सम्मानित किताब है, जिसमें असत्य का न आगे से और ना ही पीछे से गुज़र है, बल्कि वह तो तत्वज्ञ एवं प्रशंसित (अल्लाह) की उतारी हुई किताब है।}[सूरा फ़ुस्सिलत : 41-42]इसी तरह अल्लाह तआला ने सुन्नत की शान में फ़रमाया है कि वह भी अल्लाह तआला ही की वह्य है :{रसूल जो कुछ तुम्हें दें, ले लो और जिससे रोकें, रुक जाओ और अल्लाह तआला से डरो, बेशक वह बहुत ही कठोर यातना वाला है।}[सूरा अल-हश्र : 7]
{तथा निस्संदेह, यह (क़ुरआन) पूरे विश्व के पालनहार का उतारा हुआ है।
इसे लेकर रूह़ुल अमीन उतरा।
आपके दिल पर, ताकि आप हो जाएँ सावधान करने वालों में।
स्पष्ट अरबी भाषा में।}
[सूरा अश-शुअरा : 192-195]
एक अन्य स्थान पर उसने कहा है :
{और (ऐ नबी!) वास्तव में, आपको दिया जा रहा है क़ुरआन एक तत्वज्ञ, सर्वज्ञ की ओर से।}
[सूरा अन-नम्ल : 6]
यह क़ुरआन, अल्लाह तआला का उतारा हुआ ग्रंथ और पहले के ईश्वरीय ग्रंथों की सच्चाई का प्रमाणपत्र है। अल्लाह तआला का फ़रमान है :
{और यह क़ुरआन ऐसा नहीं है कि अल्लाह के सिवा अपने मन से गढ़ लिया जाए, परन्तु उन (पुस्तकों) की पुष्टि है, जो इससे पहले उतरी हैं और यह पुस्तक (क़ुरआन) ऐसी विवरणी है, जिसमें कोई संदेह नहीं कि यह सम्पूर्ण विश्व के पालनहार की ओर से है।}
[सूरा यूनुस : 37]
महान क़ुरआन, ऐसे बहुत सारे मसलों का निर्णायक है जिनमें यहूदी और ईसाई आपस में मतभेद करते हैं। अल्लाह तआला का फ़रमान है :
{निस्संदेह, यह क़ुरआन वर्णन कर रहा है इसराईल की संतान के समक्ष, उन अधिकांश बातों को जिनमें वे विभेद कर रहे हैं।}
[सूरा अन-नम्ल : 76]
महान क़ुरआन, अपने अंदर ऐसे तर्क एवं प्रमाण रखता है जिनसे अल्लाह और उसके धर्म-विधान एवं प्रतिकार से संबंधित वास्तविकताओं से परिचित होने के मामले में, दुनिया के तमाम लोगों पर तर्क सिद्ध हो जाता है। अल्लाह का फ़रमान है :
{और हमने मनुष्य के लिए इस क़ुरआन में प्रत्येक प्रकार के उदाहरण दिए हैं, ताकि वे शिक्षा ग्रहण करें।}
[सूरा अज़-ज़ुमर : 27]
एक और स्थान में उसका फ़रमान है :
{और हमने आप पर यह किताब हर चीज़ के लिए स्पष्टिकरण, मार्गदर्शन, करूणा तथा तमाम मुसलमानों के लिए शुभ संदेश बनाकर उतारी है।}
[सूरा अन-नहल : 89]
पवित्र क़ुरआन, ऐसे बहुत सारे बेहद महत्वपूर्ण प्रश्नों का उत्तर देता है जो करोड़ों लोगों को आश्चर्यचकित कर देते हैं, जैसे पवित्र क़ुरआन यह भी बयान करता है कि अल्लाह तआला ने आसमानों और धरती को कैसे बनाया। अल्लाह कहता है :
{और क्या उन्होंने विचार नहीं किया जो काफ़िर हो गए कि आकाश तथा धरती दोनों मिले हुए थे, तो हमने दोनों को अलग-अलग किया तथा हमने बनाया पानी से प्रत्येक जीवित चीज़ को? फिर क्या वे (इस बात पर) विश्वास नहीं करते?}
[सूरा अल-अंबिया : 30]
अल्लाह तआला ने इंसान को कैसे पैदा किया, इसका उत्तर देते हुए कहता है :
{ऐ लोगो! यदि तुम किसी संदेह में हो पुनः जीवित होने के विषय में, तो (सोचो कि) हमने तुम्हें मिट्टी से पैदा किया, फिर वीर्य से, फिर रक्त के थक्के से, फिर माँस के खण्ड से, जो चित्रित तथा चित्रविहीन होता है, ताकि हम उजागर कर दें तुम्हारे लिए, और स्थिर रखते हैं गर्भाशयों में जब तक चाहें; एक निर्धारित अवधि तक, फिर तुम्हें निकालते हैं शिशु बनाकर, फिर ताकि तुम पहुँचो अपने योवन को और तुम में से कुछ, पहले ही मर जाते हैं और तुममें से कुछ, जीर्ण आयु की ओर फेर दिए जाते हैं ताकि उसे कुछ ज्ञान न रह जाए ज्ञान के पश्चात्, तथा तुम देखते हो धरती को सूखी, फिर जब हम उसपर जल-वर्षा करते हैं तो सहसा लहलहाने और उभरने लगी तथा उगा देती है प्रत्येक प्रकार की सुदृश्य वनस्पतियाँ।}
[सूरा अल-हज : 5] पारा संख्या : 20 में इस विषय पर कई दलीलों का उल्लेख किया जा चुका है कि इस जीवन के बाद इंसान का अंजाम क्या होना है, और अच्छे और बुरे इंसान को क्या-क्या प्रतिकार मिलने वाला है? इस बात पर भी बहस की जा चुकी है कि इंसान का अस्तित्व आकस्मिक है या उसे किसी बड़े उद्देश्य के तहत पैदा किया गया है?
अल्लाह तआला ने कहा है :
{क्या उन्होंने आकाशों तथा धरती के राज्य को और जो कुछ अल्लाह ने पैदा किया है, उसे नहीं देखा? और (यह भी नहीं सोचा कि) हो सकता है कि उनका (निर्धारित) समय समीप आ गया हो? तो फिर इस (क़ुरआन) के बाद वे किस बात पर ईमान लाएँगे?}
[सूरा अल-आराफ़ : 185]
एक और स्थान में उसका फ़रमान है :
{क्या तुमने समझ रखा है कि हमने तुम्हें व्यर्थ ही पैदा किया है और तुम हमारी ओर फिर नहीं लाए जाओगे?}
[सूरा अल-मोमिनून : 115]
महान क़ुरआन आज भी उसी भाषा में सुरक्षित है, जिसमें अवतरित हुआ था। अल्लाह का फ़रमान है :
{वास्तव में, हमने ही यह क़ुरआन उतारा है और हम ही इसके रक्षक हैं।}
[सूरा अल-हिज्र : 9]
इसमें एक अक्षर की भी कमी नहीं हुई है और यह असंभव भी है कि उसमें कोई विसंगति या कमी या परिवर्तन किया जा सके। अल्लाह का फ़रमान है :
{तो क्या वे क़ुरआन के अर्थों पर सोच-विचार नहीं करते? यदि वह अल्लाह के सिवा दूसरे की ओर से होता तो उसमें बहुत सी विसंगतियाँ पाते।}
[सूरा अन-निसा : 82]
वह प्रकाशित होकर पूरी दुनिया में फैला हुआ है। वह एक महान किताब है, जो इस योग्य है कि उसे पढ़ा जाए या उसके अर्थों के अनुवाद को पढ़ा जाए। उसी तरह, अल्लाह के रसूल मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- की सुन्नत, शिक्षाएँ और जीवन-वृतांत भी विश्वसनीय वर्णनकर्ताओं के द्वारा नक़ल होकर सुरक्षित और उसी अरबी भाषा में प्रकाशित हैं, जो अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- बोलते थे और दुनिया की बहुत सारी भाषाओं में अनुवादित भी हैं। यही क़ुरआन एवं सुन्नत, इस्लाम धर्म के आदेश-निर्देशों और विधानों का एक मात्र संदर्भ हैं। इसलिए, इस्लाम धर्म को मुसलमान कहलाने वालों के कर्मों के आलोक में नहीं, अपितु ईश्वरीय प्रकाशना अर्थात क़ुरआन एवं सुन्नत के आधार पर परखकर लिया जाना चाहिए। अल्लाह तआला ने क़ुरआन के संंबंध में कहा है :
{बेशक जिन लोगों ने इस क़ुरआन के साथ, उनके पास आने के बाद, कुफ़्र किया जबकि निस्संदेह वह एक अनहद सम्मानित किताब है, जिसमें असत्य का न आगे से और ना ही पीछे से गुज़र है, बल्कि वह तो तत्वज्ञ एवं प्रशंसित (अल्लाह) की उतारी हुई किताब है।}
[सूरा फ़ुस्सिलत : 41-42]
इसी तरह अल्लाह तआला ने सुन्नत की शान में फ़रमाया है कि वह भी अल्लाह तआला ही की वह्य है :
{रसूल जो कुछ तुम्हें दें, ले लो और जिससे रोकें, रुक जाओ और अल्लाह तआला से डरो, बेशक वह बहुत ही कठोर यातना वाला है।}
[सूरा अल-हश्र : 7]
29- इस्लाम धर्म, माता-पिता के साथ शिष्टाचार के साथ पेश आने का आदेश देता है, चाहे वे ग़ैर-मुस्लिम ही क्यों ना हों, और संतानों के साथ सद्व्यवहार करने की प्रेरणा देता है।
इस्लाम, माता-पिता के साथ सद्व्यवहार का आदेश देता है। अल्लाह का फ़रमान है :{और (ऐ मनुष्य!) तेरे पालनहार ने आदेश दिया है कि उसके सिवा किसी की इबादत न करो तथा माता-पिता के साथ उपकार करो, यदि तेरे पास दोनों में से एक वृध्दावस्था को पहुँच जाए अथवा दोनों, तो उन्हें उफ़ तक न कहो और न झिड़को और उनसे नरमी से बात करो।}[सूरा अल-इसरा : 23]एक अन्य स्थान पर उसने कहा है :{और हमने आदेश दिया है मनुष्यों को अपने माता-पिता के संबन्ध में, अपने गर्भ में रखा उसे उसकी माता ने दुःख पर दुःख झेल कर, और उसका दूध छुड़ाया दो वर्ष में, कि तुम कृतज्ञ रहो मेरे और अपने माता-पिता के, और मेरी ओर (तुम्हें) फिर आना है।}[सूरा लुक़मान : 14]एक अन्य स्थान पर उसने कहा है :{और हमने निर्देश दिया है मनुष्य को, अपने माता-पिता के साथ उपकार करने का। उसे गर्भ में रखा है उसकी माँ ने दुःख झेल कर तथा जन्म दिया उसे दुःख झेल कर तथा उसके गर्भ में रखने तथा दूध छुड़ाने की अवधि तीस महीने रही, यहाँ तक कि जब वह अपनी पूरी शक्ति को पहुँचा और चालीस वर्ष का हुआ तो कहने लागाः ऐ मेरे पालनहार! मुझे क्षमता दे कि कृतज्ञ रहूँ तेरे उस पुरस्कार का, जो तूने प्रदान किया है मुझे तथा मेरे माता-पिता को, तथा ऐसा सत्कर्म करूँ जिस से तू प्रसन्न हो जाए तथा सुधार दे मेरे लिए मेरी संतान को, मैं ध्यानमग्न हो गया तेरी ओर तथा मैं निश्चय ही मुस्लिमों में से हूँ।}[सूरा अल-अहक़ाफ़ : 15]अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अनहु- से रिवायत है, उन्होंने बयान किया कि एक आदमी अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के पास आया और कहने लगा : ऐ अल्लाह के रसूल! मेरे अच्छे व्यवहार का सबसे ज़्यादा ह़क़दार कौन है? आपने फ़रमाया: "तेरी माँ।" उसने कहा : फिर कौन? फ़रमाया : "तेरी माँ।" उसने फिर कहा : उसके बाद कौन? फ़रमाया: "तेरी माँ।" फिर उसने पूछा : उसके बाद? तब फ़रमाया : "तेरा बाप।"सहीह मुस्लिममाता-पिता चाहे मुस्लिम हों या ग़ैर-मुस्लिम, उनसे शिष्ट एवं सभ्य व्यवहार करने का यह आदेश दोनों तरह के माता-पिता के बारे में बराबर है।असमा बिन्त अबू बक्र -रज़ियल्लाहु अनहा- बयान करती हैं कि मेरी ग़ैर-मुस्लिम माँ अपने बेटे के साथ, उस वक्त मुझसे मिलने आईं, जब क़ुरैश ने अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- से संधि कर रखा था, और संधि की अवधि अभी बाक़ी थी। मैंने अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- से पूछा कि मेरी माँ आई हुई हैं और वे इस्लाम की तरफ झुकाव रखती हैं तो क्या मैं उनके साथ शिष्ट एवं सभ्य व्यवहार करूँ? आपने फ़रमाया: हाँ, अपनी माँ के साथ सद्व्यवहार करो।सहीह अल-बुख़ारीलेकिन यदि माता-पिता अपनी संतान को इस्लाम से फेरकर कुफ़्र में दोबारा ले आने का जतन और प्रयास करें, तो इस्लाम उसे आदेश देता है कि वह ऐसी सूरत में अपने माता-पिता की आज्ञा का पालन न करे, बल्कि अल्लाह पर ईमान स्थापित रखते हुए, उनसे अच्छा व्यवहार और सभ्य संस्कार करे। अल्लाह तआला कहता है :{और यदि वे दोनों दबाव डालें तुमपर कि तुम साझी बनाओ मेरा उसको, जिसका तुम्हें कोई ज्ञान नहीं, तो न मानो उन दोनों की बात, और उनके साथ रहो संसार में सुचारु रूप से तथा राह चलो उसकी, जो ध्यानमग्न हो मेरी ओर, याद रखो कि फिर मेरी ही ओर तुम्हें फिरकर आना है, और मैं तुम्हें सूचित कर दूँगा उससे, जो तुम कर रहे थे।}[सूरा लुक़मान : 15]इस्लाम, मुसलमान को इस बात से नहीं रोकता कि वह ऐसे मुश्रिकों के साथ सद्व्यवहार करे, जो उनके साथ युद्ध ना करते हों, चाहे वे उसके क़रीबी रिश्तेदार हों या ना हों। अल्लाह तआला का फ़रमान है :{अल्लाह तुम्हें नहीं रोकता उनसे, जिन्होंने तुमसे युद्ध न किया हो धर्म के विषय में और न बहिष्कार किया हो तुम्हारा, तम्हारे देश से, इससे कि तुम उनसे अच्छा व्यवहार करो और न्याय करो उनसे। वास्तव में, अल्लाह प्रेम करता है न्यायकारियों से।}[सूरा अल-मुमतहिना : 8]इस्लाम माता-पिता को अपनी संतान की सही पर्वरिश करने का आदेश देता है। और इस्लाम पिता को सबसे महत्वपूर्ण आदेश यह देता है कि वह अपनी संतानों को उनपर अल्लाह के जो अधिकार हैं, उनकी शिक्षा दे, जैसा कि अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने अपने चचेरे भाई अब्दुल्लाह बिन अब्बास -रज़ियल्लाहु अनहुमा- से फ़रमाया :"ऐ बच्चे या कहा कि ऐ नन्हे! क्या मैं तुझे ऐसी कुछ बातें न बता दूँ, जिनसे तुझे अल्लाह तआला लाभ पहुँचाए?" मैंने कहा : क्यों नहीं? फ़रमाया : "तू अल्लाह तआला को याद रख, वह तुझे याद रखेगा, तू अल्लाह को याद रख, तू उसे अपने सामने पाएगा, तू उसे खुशहाली में याद रख, वह तुझे तंगी में याद रखेगा, जब भी कुछ माँगना हो तो बस अल्लाह ही से माँग और जब तुझे कोई सहायता माँगनी हो तो वह भी केवल अल्लाह ही से माँग।"इसे अहमद ने (4/287) में रिवायत किया है।अल्लाह तआला ने माता-पिता को आदेश दिया है कि वे अपनी संतानों को धर्म एवं दुनिया संबंधी वह सभी शिक्षाएँ दें, जो उनको लाभ पहुँचाएँ। अल्लाह कहता है :{ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! बचाओ अपने आपको तथा अपने परिजनों को उस अग्नि से, जिसका ईंधन मनुष्य तथा पत्थर होंगे, जिसपर फ़रिश्ते नियुक्त हैं कड़े दिल, कड़े स्वभाव वाले। वे अवज्ञा नहीं करते अल्लाह के आदेश की तथा वही करते हैं, जिसका आदेश उन्हें दिया जाए।}[सूरा अत-तहरीम : 6]तथा अली -रज़ियल्लाहु अनहु- अल्लाह की वाणी :{अपने आपको और अपने परिजनों को जहन्नम की आग से बचाओ}के बारे में कहते हैं : इसका मतलब यह है कि उनको सभ्य बनाओ और शिक्षा दो।तथा अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने पिता को आदेश दिया है कि वह अपने बच्चों को नमाज़ पढ़ना सिखाए, ताकि उनको नमाज़ पढ़ने की आदत हो जाए। आपने फ़रमाया :"जब तुम्हारे बच्चे सात साल के हो जाएँ, तो उनको नमाज़ पढ़ने का आदेश दो।"इसे अबू दाऊद ने रिवायत किया है।अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने यह भी फ़रमाया है :"तुममें से हर व्यक्ति ज़िम्मेदार है, और हर व्यक्ति से उसकी ज़िम्मेदारी के बारे में पूछा जाएगा। इमाम ज़िम्मेदार है और उससे उसकी रैयत के बारे में पूछा जाएगा। आदमी अपने परिवार का ज़िम्मेदार है और उससे उसके परिवार के सदस्यों के बारे में पूछा जाएगा। औरत अपने पति के घर की ज़िम्मेदार है और उससे उसके पति के घर की देख-रेख के बारे में पूछा जाएगा। सेवक अपने स्वामी के माल की सुरक्षा का ज़िम्मेदार है और उससे उसके बारे में पूछा जाएगा। तात्पर्य यह है कि तुममें से हर एक ज़िम्मेदार है और उससे उसकी ज़िम्मेदारी के बारे में पूछा जाएगा।"सहीह इब्ने हिब्बान, हदीस संख्या : 4490इस्लाम ने पिता को अपनी संतानों और पत्नी का खर्च उठाने का आदेश दिया है। पारा संख्या : 18 में इसका थोड़ा सा बयान आ चुका है। अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने संतानों का खर्च उठाने की महत्ता स्पष्ट करते हुए फ़रमाया है :"सबसे उत्तम दीनार जिसे इंसान ख़र्च करता है, वह दीनार है जिसे वह अपने परिवार पर ख़र्च करता है, फिर वह दीनार है जो वह अल्लाह की राह में जिहाद करने के लिए खास किए हुए जानवर पर ख़र्च करता है, और फिर वह दीनार है जिसे वह अल्लाह के रास्ते में अपने साथियों पर ख़र्च करता है।" अबू क़िलाबा कहते हैं कि शुरूआत परिवार से की। फिर अबू क़िलाबा ने कहा कि भला कौन व्यक्ति, उस आदमी से पुण्य में बढ़ सकता है, जो अपने छोटे-छोटे बच्चों पर खर्च करता है, ताकि वे दूसरों के सामने हाथ फैलाने पर मजबूर न हों या अल्लाह तआला उन्हें उसके द्वारा लाभ पहुँचाए या फिर उनको निस्पृह कर दे।सहीह मुस्लिम, हदीस संख्या : 994
{और (ऐ मनुष्य!) तेरे पालनहार ने आदेश दिया है कि उसके सिवा किसी की इबादत न करो तथा माता-पिता के साथ उपकार करो, यदि तेरे पास दोनों में से एक वृध्दावस्था को पहुँच जाए अथवा दोनों, तो उन्हें उफ़ तक न कहो और न झिड़को और उनसे नरमी से बात करो।}
[सूरा अल-इसरा : 23]
एक अन्य स्थान पर उसने कहा है :
{और हमने आदेश दिया है मनुष्यों को अपने माता-पिता के संबन्ध में, अपने गर्भ में रखा उसे उसकी माता ने दुःख पर दुःख झेल कर, और उसका दूध छुड़ाया दो वर्ष में, कि तुम कृतज्ञ रहो मेरे और अपने माता-पिता के, और मेरी ओर (तुम्हें) फिर आना है।}
[सूरा लुक़मान : 14]
एक अन्य स्थान पर उसने कहा है :
{और हमने निर्देश दिया है मनुष्य को, अपने माता-पिता के साथ उपकार करने का। उसे गर्भ में रखा है उसकी माँ ने दुःख झेल कर तथा जन्म दिया उसे दुःख झेल कर तथा उसके गर्भ में रखने तथा दूध छुड़ाने की अवधि तीस महीने रही, यहाँ तक कि जब वह अपनी पूरी शक्ति को पहुँचा और चालीस वर्ष का हुआ तो कहने लागाः ऐ मेरे पालनहार! मुझे क्षमता दे कि कृतज्ञ रहूँ तेरे उस पुरस्कार का, जो तूने प्रदान किया है मुझे तथा मेरे माता-पिता को, तथा ऐसा सत्कर्म करूँ जिस से तू प्रसन्न हो जाए तथा सुधार दे मेरे लिए मेरी संतान को, मैं ध्यानमग्न हो गया तेरी ओर तथा मैं निश्चय ही मुस्लिमों में से हूँ।}
[सूरा अल-अहक़ाफ़ : 15]
अबू हुरैरा -रज़ियल्लाहु अनहु- से रिवायत है, उन्होंने बयान किया कि एक आदमी अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के पास आया और कहने लगा : ऐ अल्लाह के रसूल! मेरे अच्छे व्यवहार का सबसे ज़्यादा ह़क़दार कौन है? आपने फ़रमाया: "तेरी माँ।" उसने कहा : फिर कौन? फ़रमाया : "तेरी माँ।" उसने फिर कहा : उसके बाद कौन? फ़रमाया: "तेरी माँ।" फिर उसने पूछा : उसके बाद? तब फ़रमाया : "तेरा बाप।"
सहीह मुस्लिम
माता-पिता चाहे मुस्लिम हों या ग़ैर-मुस्लिम, उनसे शिष्ट एवं सभ्य व्यवहार करने का यह आदेश दोनों तरह के माता-पिता के बारे में बराबर है।
असमा बिन्त अबू बक्र -रज़ियल्लाहु अनहा- बयान करती हैं कि मेरी ग़ैर-मुस्लिम माँ अपने बेटे के साथ, उस वक्त मुझसे मिलने आईं, जब क़ुरैश ने अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- से संधि कर रखा था, और संधि की अवधि अभी बाक़ी थी। मैंने अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- से पूछा कि मेरी माँ आई हुई हैं और वे इस्लाम की तरफ झुकाव रखती हैं तो क्या मैं उनके साथ शिष्ट एवं सभ्य व्यवहार करूँ? आपने फ़रमाया: हाँ, अपनी माँ के साथ सद्व्यवहार करो।
सहीह अल-बुख़ारी
लेकिन यदि माता-पिता अपनी संतान को इस्लाम से फेरकर कुफ़्र में दोबारा ले आने का जतन और प्रयास करें, तो इस्लाम उसे आदेश देता है कि वह ऐसी सूरत में अपने माता-पिता की आज्ञा का पालन न करे, बल्कि अल्लाह पर ईमान स्थापित रखते हुए, उनसे अच्छा व्यवहार और सभ्य संस्कार करे। अल्लाह तआला कहता है :
{और यदि वे दोनों दबाव डालें तुमपर कि तुम साझी बनाओ मेरा उसको, जिसका तुम्हें कोई ज्ञान नहीं, तो न मानो उन दोनों की बात, और उनके साथ रहो संसार में सुचारु रूप से तथा राह चलो उसकी, जो ध्यानमग्न हो मेरी ओर, याद रखो कि फिर मेरी ही ओर तुम्हें फिरकर आना है, और मैं तुम्हें सूचित कर दूँगा उससे, जो तुम कर रहे थे।}
[सूरा लुक़मान : 15]
इस्लाम, मुसलमान को इस बात से नहीं रोकता कि वह ऐसे मुश्रिकों के साथ सद्व्यवहार करे, जो उनके साथ युद्ध ना करते हों, चाहे वे उसके क़रीबी रिश्तेदार हों या ना हों। अल्लाह तआला का फ़रमान है :
{अल्लाह तुम्हें नहीं रोकता उनसे, जिन्होंने तुमसे युद्ध न किया हो धर्म के विषय में और न बहिष्कार किया हो तुम्हारा, तम्हारे देश से, इससे कि तुम उनसे अच्छा व्यवहार करो और न्याय करो उनसे। वास्तव में, अल्लाह प्रेम करता है न्यायकारियों से।}
[सूरा अल-मुमतहिना : 8]
इस्लाम माता-पिता को अपनी संतान की सही पर्वरिश करने का आदेश देता है। और इस्लाम पिता को सबसे महत्वपूर्ण आदेश यह देता है कि वह अपनी संतानों को उनपर अल्लाह के जो अधिकार हैं, उनकी शिक्षा दे, जैसा कि अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने अपने चचेरे भाई अब्दुल्लाह बिन अब्बास -रज़ियल्लाहु अनहुमा- से फ़रमाया :
"ऐ बच्चे या कहा कि ऐ नन्हे! क्या मैं तुझे ऐसी कुछ बातें न बता दूँ, जिनसे तुझे अल्लाह तआला लाभ पहुँचाए?" मैंने कहा : क्यों नहीं? फ़रमाया : "तू अल्लाह तआला को याद रख, वह तुझे याद रखेगा, तू अल्लाह को याद रख, तू उसे अपने सामने पाएगा, तू उसे खुशहाली में याद रख, वह तुझे तंगी में याद रखेगा, जब भी कुछ माँगना हो तो बस अल्लाह ही से माँग और जब तुझे कोई सहायता माँगनी हो तो वह भी केवल अल्लाह ही से माँग।"
इसे अहमद ने (4/287) में रिवायत किया है।
अल्लाह तआला ने माता-पिता को आदेश दिया है कि वे अपनी संतानों को धर्म एवं दुनिया संबंधी वह सभी शिक्षाएँ दें, जो उनको लाभ पहुँचाएँ। अल्लाह कहता है :
{ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! बचाओ अपने आपको तथा अपने परिजनों को उस अग्नि से, जिसका ईंधन मनुष्य तथा पत्थर होंगे, जिसपर फ़रिश्ते नियुक्त हैं कड़े दिल, कड़े स्वभाव वाले। वे अवज्ञा नहीं करते अल्लाह के आदेश की तथा वही करते हैं, जिसका आदेश उन्हें दिया जाए।}
[सूरा अत-तहरीम : 6]
तथा अली -रज़ियल्लाहु अनहु- अल्लाह की वाणी :
{अपने आपको और अपने परिजनों को जहन्नम की आग से बचाओ}
के बारे में कहते हैं : इसका मतलब यह है कि उनको सभ्य बनाओ और शिक्षा दो।
तथा अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने पिता को आदेश दिया है कि वह अपने बच्चों को नमाज़ पढ़ना सिखाए, ताकि उनको नमाज़ पढ़ने की आदत हो जाए। आपने फ़रमाया :
"जब तुम्हारे बच्चे सात साल के हो जाएँ, तो उनको नमाज़ पढ़ने का आदेश दो।"
इसे अबू दाऊद ने रिवायत किया है।
अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने यह भी फ़रमाया है :
"तुममें से हर व्यक्ति ज़िम्मेदार है, और हर व्यक्ति से उसकी ज़िम्मेदारी के बारे में पूछा जाएगा। इमाम ज़िम्मेदार है और उससे उसकी रैयत के बारे में पूछा जाएगा। आदमी अपने परिवार का ज़िम्मेदार है और उससे उसके परिवार के सदस्यों के बारे में पूछा जाएगा। औरत अपने पति के घर की ज़िम्मेदार है और उससे उसके पति के घर की देख-रेख के बारे में पूछा जाएगा। सेवक अपने स्वामी के माल की सुरक्षा का ज़िम्मेदार है और उससे उसके बारे में पूछा जाएगा। तात्पर्य यह है कि तुममें से हर एक ज़िम्मेदार है और उससे उसकी ज़िम्मेदारी के बारे में पूछा जाएगा।"
सहीह इब्ने हिब्बान, हदीस संख्या : 4490
इस्लाम ने पिता को अपनी संतानों और पत्नी का खर्च उठाने का आदेश दिया है। पारा संख्या : 18 में इसका थोड़ा सा बयान आ चुका है। अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने संतानों का खर्च उठाने की महत्ता स्पष्ट करते हुए फ़रमाया है :
"सबसे उत्तम दीनार जिसे इंसान ख़र्च करता है, वह दीनार है जिसे वह अपने परिवार पर ख़र्च करता है, फिर वह दीनार है जो वह अल्लाह की राह में जिहाद करने के लिए खास किए हुए जानवर पर ख़र्च करता है, और फिर वह दीनार है जिसे वह अल्लाह के रास्ते में अपने साथियों पर ख़र्च करता है।" अबू क़िलाबा कहते हैं कि शुरूआत परिवार से की। फिर अबू क़िलाबा ने कहा कि भला कौन व्यक्ति, उस आदमी से पुण्य में बढ़ सकता है, जो अपने छोटे-छोटे बच्चों पर खर्च करता है, ताकि वे दूसरों के सामने हाथ फैलाने पर मजबूर न हों या अल्लाह तआला उन्हें उसके द्वारा लाभ पहुँचाए या फिर उनको निस्पृह कर दे।
सहीह मुस्लिम, हदीस संख्या : 994
30- इस्लाम धर्म कथनी और करनी दोनों में, न्याय करने का आदेश देता है। यहाँ तक दुश्मनों के साथ भी इसी आचरण का आदेश है।
अल्लाह तआला अपने तमाम कार्यों और अपने बंदों के दरमियान व्यवस्था करने में, न्याय एवं इंसाफ के विशेषण से पूरी तरह विशेषित है। उसने जिस भी बात का हुक्म दिया और जिस बात से भी मना किया है तथा जो कुछ पैदा किया और उसके बारे में जो भी अंदाज़ा लगाया है, वह प्रत्येक काम में बिल्कुल सीधे मार्ग पर है। अल्लाह का फ़रमान है :{अल्लाह गवाही देता है कि उसके अतिरिक्त कोई अन्य पूज्य नहीं है, इसी प्रकार फ़रिश्ते एवं ज्ञानी लोग भी (साक्षी हैं) कि उसके अतिरिक्त कोई अन्य पूज्य नहीं है। वह प्रभुत्वशाली हिकमत वाला है।}[सूरा आल-इमरान : 18]अल्लाह तआला न्याय करने का आदेश देता है। वह कहता है :{(ऐ नबी!) आप कह दें कि मेरे पालनहार ने मुझे न्याय करने का आदेश दिया है।}[सूरा अल-आराफ़ : 29]तमाम नबी और रसूल -अलैहिमुस्सलाम- भी न्याय स्थापित करने के लिए आए थे। अल्लाह तआला कहता है :{(निस्संदेह, हमने अपने संदेष्टाओं को खुली दलीलें देकर भेजा और उनके साथ किताबें और मीज़ान( तराज़ू) उतारा, ताकि लोग न्याय पर जमे रहें।}[सूरा अल-हदीद : 25]कथनी और करनी में न्याय करने को मीज़ान कहते हैं।इस्लाम धर्म, दुश्मनों के साथ भी कथनी और करनी में न्याय करने का आदेश देता है। अल्लाह तआला कहता है :{ऐ ईमान वालो! न्याय के साथ खड़े रहकर अल्लाह के लिए साक्षी (गवाह) बन जाओ। यद्यपि साक्ष्य (गवाही) तुम्हारे अपने अथवा माता-पिता और समीपवर्तियों के विरुद्ध हो, यदि कोई धनी अथवा निर्धन हो तो अल्लाह तुमसे अधिक उन दोनों का हितैषी है। अतः, अपनी मनोकांक्षा की तृप्ति के लिए न्याय से न फिरो। यदि तुम बात घुमा-फिराकर करोगे अथवा साक्ष्य देने से कतराओगे तो निस्संदेह, अल्लाह उससे सूचित है, जो तुम करते हो।}[सूरा अन-निसा : 135]एक अन्य स्थान पर उसने कहा है :{किसी क़ौम की यह दुश्मनी कि उसने तुम्हें काबे में प्रवेश करने से रोक दिया था, तुम्हें इस बात पर न उभार दे कि तुम उसपर अन्याय करो। तुम लोग नेकी और धर्मपरायणता के मामलों में सहायक बनो, गुनाह और अन्याय के मामलों में नहीं, और अल्लाह से डरो, बेशक अल्लाह बहुत कठोर यातना देने वाला है।}[सूरा अल-माइदा : 2]एक अन्य स्थान पर उसने कहा है :{ऐ ईमान वालो! अल्लाह के लिए खड़े रहने वाले, न्याय के साथ साक्ष्य देने वाले बने रहो, तथा किसी गिरोह की शत्रुता तुम्हें इस बात पर न उभार दे कि न्याय न करो। वह (अर्थात सबके साथ न्याय) अल्लाह से डरने के अधिक समीप है। निस्संदेह, तुम जो कुछ करते हो, अल्लाह उससे भली-भाँति सूचित है।}[सूरा अल-माइदा : 8]क्या आपको आज की उम्मतों के संविधानों और लोगों के धर्मों में इस प्रकार का, अपने आपके, माता-पिता के और करीबी रिश्तेदारों के विरुद्ध हक के साथ गवाही देने और सच बोलने तथा दोस्त-दुश्मन सबके साथ न्याय करने के आदेश पर आधारित कोई उदाहरण मिलेगा?अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने संतानों के दरमियान भी न्याय करने का आदेश दिया है।आमिर बयान करते हैं कि मैंने नोमान बिन बशीर -रज़ियल्लाहु अनहुमा- को मिंबर पर खड़े होकर कहते हुए सुना, वे कह रहे थे कि मेरे पिताजी ने मुझे कुछ दान किया, तो मेरी माँ अमरा बिन्ते रवाहा -रज़ियल्लाहु अनहा- ने कहा : मैं उस वक़्त तक राज़ी नहीं होऊँगी, जब तक तुम अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- को गवाह न बनाओ। इसलिए वह अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के पास आए और कहा कि मैंने अपने बेटे को जो अमरा बिन्ते रवाहा के पेट से है, कुछ दान स्वरूप दिया है। ऐ अल्लाह के रसूल! अब अमरा कहती है कि इसपर मैं आपको गवाह बना लूँ। आपने पूछा : क्या तुमने अपनी तमाम औलादों को इतना ही दिया है? उन्होंने कहा : नहीं। अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया : अल्लाह से डरो और अपनी औलादों के बीच न्याय करो। नोमान -रज़ियल्लाहु अनहु- का बयान है कि यह सुनकर मेरे पिताजी लौट आए और उन्होंने दी हुई वह चीज़ वापस ले ली।सहीह अल-बुख़ारी, हदीस संख्या : 2587
{अल्लाह गवाही देता है कि उसके अतिरिक्त कोई अन्य पूज्य नहीं है, इसी प्रकार फ़रिश्ते एवं ज्ञानी लोग भी (साक्षी हैं) कि उसके अतिरिक्त कोई अन्य पूज्य नहीं है। वह प्रभुत्वशाली हिकमत वाला है।}
[सूरा आल-इमरान : 18]
अल्लाह तआला न्याय करने का आदेश देता है। वह कहता है :
{(ऐ नबी!) आप कह दें कि मेरे पालनहार ने मुझे न्याय करने का आदेश दिया है।}
[सूरा अल-आराफ़ : 29]
तमाम नबी और रसूल -अलैहिमुस्सलाम- भी न्याय स्थापित करने के लिए आए थे। अल्लाह तआला कहता है :
{(निस्संदेह, हमने अपने संदेष्टाओं को खुली दलीलें देकर भेजा और उनके साथ किताबें और मीज़ान( तराज़ू) उतारा, ताकि लोग न्याय पर जमे रहें।}
[सूरा अल-हदीद : 25]
कथनी और करनी में न्याय करने को मीज़ान कहते हैं।
इस्लाम धर्म, दुश्मनों के साथ भी कथनी और करनी में न्याय करने का आदेश देता है। अल्लाह तआला कहता है :
{ऐ ईमान वालो! न्याय के साथ खड़े रहकर अल्लाह के लिए साक्षी (गवाह) बन जाओ। यद्यपि साक्ष्य (गवाही) तुम्हारे अपने अथवा माता-पिता और समीपवर्तियों के विरुद्ध हो, यदि कोई धनी अथवा निर्धन हो तो अल्लाह तुमसे अधिक उन दोनों का हितैषी है। अतः, अपनी मनोकांक्षा की तृप्ति के लिए न्याय से न फिरो। यदि तुम बात घुमा-फिराकर करोगे अथवा साक्ष्य देने से कतराओगे तो निस्संदेह, अल्लाह उससे सूचित है, जो तुम करते हो।}
[सूरा अन-निसा : 135]
एक अन्य स्थान पर उसने कहा है :
{किसी क़ौम की यह दुश्मनी कि उसने तुम्हें काबे में प्रवेश करने से रोक दिया था, तुम्हें इस बात पर न उभार दे कि तुम उसपर अन्याय करो। तुम लोग नेकी और धर्मपरायणता के मामलों में सहायक बनो, गुनाह और अन्याय के मामलों में नहीं, और अल्लाह से डरो, बेशक अल्लाह बहुत कठोर यातना देने वाला है।}
[सूरा अल-माइदा : 2]
एक अन्य स्थान पर उसने कहा है :
{ऐ ईमान वालो! अल्लाह के लिए खड़े रहने वाले, न्याय के साथ साक्ष्य देने वाले बने रहो, तथा किसी गिरोह की शत्रुता तुम्हें इस बात पर न उभार दे कि न्याय न करो। वह (अर्थात सबके साथ न्याय) अल्लाह से डरने के अधिक समीप है। निस्संदेह, तुम जो कुछ करते हो, अल्लाह उससे भली-भाँति सूचित है।}
[सूरा अल-माइदा : 8]
क्या आपको आज की उम्मतों के संविधानों और लोगों के धर्मों में इस प्रकार का, अपने आपके, माता-पिता के और करीबी रिश्तेदारों के विरुद्ध हक के साथ गवाही देने और सच बोलने तथा दोस्त-दुश्मन सबके साथ न्याय करने के आदेश पर आधारित कोई उदाहरण मिलेगा?
अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने संतानों के दरमियान भी न्याय करने का आदेश दिया है।
आमिर बयान करते हैं कि मैंने नोमान बिन बशीर -रज़ियल्लाहु अनहुमा- को मिंबर पर खड़े होकर कहते हुए सुना, वे कह रहे थे कि मेरे पिताजी ने मुझे कुछ दान किया, तो मेरी माँ अमरा बिन्ते रवाहा -रज़ियल्लाहु अनहा- ने कहा : मैं उस वक़्त तक राज़ी नहीं होऊँगी, जब तक तुम अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- को गवाह न बनाओ। इसलिए वह अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के पास आए और कहा कि मैंने अपने बेटे को जो अमरा बिन्ते रवाहा के पेट से है, कुछ दान स्वरूप दिया है। ऐ अल्लाह के रसूल! अब अमरा कहती है कि इसपर मैं आपको गवाह बना लूँ। आपने पूछा : क्या तुमने अपनी तमाम औलादों को इतना ही दिया है? उन्होंने कहा : नहीं। अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया : अल्लाह से डरो और अपनी औलादों के बीच न्याय करो। नोमान -रज़ियल्लाहु अनहु- का बयान है कि यह सुनकर मेरे पिताजी लौट आए और उन्होंने दी हुई वह चीज़ वापस ले ली।
सहीह अल-बुख़ारी, हदीस संख्या : 2587
चूँकि जनता और राष्ट्रों के मामलों का आधार केवल न्याय पर स्थापित होता है, और लोगों का धर्म, ख़ून, संतान, स्वाभिमान, माल और वतन आदि भी केवल न्याय ही से सुरक्षित रह सकते हैं, अतः हम देखते हैं कि जब काफ़िरों ने मक्का में मुसलमानों का जीना कठिन कर दिया, तो आपने उनको देश त्याग कर हबशा चले जाने का आदेश दिया, और इसका कारण यह बताया कि वहाँ का राजा न्याय-प्रिय है और उसके यहाँ किसी पर अत्याचार नहीं होता।
31- इस्लाम धर्म, सारी सृष्टियों का भला चाहने का आदेश देता और सदाचरण एवं सत्कर्मों को अपनाने का आह्वान करता है।
इस्लाम, तमाम लोगों के साथ सद्व्यवहार करने का आदेश देता है। अल्लाह का फ़रमान है :{बेशक अल्लाह तआला, न्याय एवं उपकार करने का और करीबी रिश्तेदारों को (दान) देने का आदेश देता है।}[सूरा अन-नह्ल : 90]एक अन्य स्थान पर उसने कहा है :{जो सुविधा तथा असुविधा की दशा में दान करते रहते हैं, क्रोध पी जाते और लोगों के दोष को क्षमा कर दिया करते हैं, और अल्लाह सदाचारियों से प्रेम करता है।}[सूरा आल-इमरान : 134]तथा अल्लाह के रसूल मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है :"अल्लाह तआला ने हर चीज़ के मामले में अच्छा व्यवहार करने को अनिवार्य किया है। अतः, जब तुम क़त्ल करो तो अच्छे अंदाज़ में क़त्ल करो, और जब ज़बह करो तो अच्छे अंदाज़ में ज़बह करो। तुम अपनी छुरी को तेज़ कर लो और अपने ज़बह किए जाने वाले जानवर को आराम पहुँचाओ।"सहीह मुस्लिम, हदीस संख्या : 1955इस्लाम, अच्छे व्यवहार को अपनाने और अच्छे कर्म करने का आह्वान करता है। अल्लाह तआला ने पहले के धर्म-ग्रंथों में अपने रसूल मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- की एक विशेषता यह भी गिनाई है :{जो उस रसूल का अनुसरण करेंगे, जो उम्मी (अनपढ़) नबी हैं, जिन (के आगमन) का उल्लेख वे अपने पास तौरात तथा इंजील में पाते हैं; जो उन्हें सदाचार का आदेश देंगे और दुराचार से रोकेंगे, उनके लिए स्वच्छ चीज़ों को ह़लाल (वैध) तथा मलिन चीज़ों को ह़राम (अवैध) करेंगे, उनसे उनके बोझ उतार देंगे तथा उन बंधनों को खोल देंगे, जिनमें वे जकड़े हुए होंगे। अतः, जो लोग आपपर ईमान लाए, आपका समर्थन किया, आपकी सहायता की तथा उस प्रकाश (क़ुरआन) का अनुसरण किया, जो आपके साथ उतारा गया है, तो वही सफल होंगे।}[सूरा अल-आराफ़ : 157]तथा अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया है :"ऐ आइशा! बेशक अल्लाह तआला मृदुल है, और मृदुलता के बदले में वह कुछ देता है जो कठोरता और उसके सिवा किसी और बात पर नहीं देता।"सहीह मुस्लिम, हदीस संख्या : 2593इसी तरह आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया है :"बेशक अल्लाह तआला ने तुमपर, माताओं की अवज्ञा और उनके साथ दुर्व्यवहार करने, बेटियों को ज़िंदा गाड़ देने और रोकने-लेने को हराम किया है। इसी तरह, तुमहारे बारे में नापसंद किया है अनावश्यक बातें करने, बहुत अधिक प्रश्न करने और माल को व्यर्थ में बर्बाद करने को।"सहीह अल-बुख़ारी : 2408एक अन्य हदीस में है :"तुम जन्नत मेें उस समय तक प्रवेश नहीं कर सकते, जब तक ईमान न लाओ, और तुम उस समय तक मोमिन नहीं हो सकते, जब तक एक-दूसरे से प्रेम न करने लगो। क्या मैं तुम्हारा मार्गदर्शन ऐसे कार्य की ओर न कर दूँ, जिसे यदि तुम करोगे तो एक-दूसरे से प्रेम करने लगोगे? अपने बीच में सलाम को आम करो।"सहीह मुस्लिम, हदीस संख्या : 54
{बेशक अल्लाह तआला, न्याय एवं उपकार करने का और करीबी रिश्तेदारों को (दान) देने का आदेश देता है।}
[सूरा अन-नह्ल : 90]
एक अन्य स्थान पर उसने कहा है :
{जो सुविधा तथा असुविधा की दशा में दान करते रहते हैं, क्रोध पी जाते और लोगों के दोष को क्षमा कर दिया करते हैं, और अल्लाह सदाचारियों से प्रेम करता है।}
[सूरा आल-इमरान : 134]
तथा अल्लाह के रसूल मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है :
"अल्लाह तआला ने हर चीज़ के मामले में अच्छा व्यवहार करने को अनिवार्य किया है। अतः, जब तुम क़त्ल करो तो अच्छे अंदाज़ में क़त्ल करो, और जब ज़बह करो तो अच्छे अंदाज़ में ज़बह करो। तुम अपनी छुरी को तेज़ कर लो और अपने ज़बह किए जाने वाले जानवर को आराम पहुँचाओ।"
सहीह मुस्लिम, हदीस संख्या : 1955
इस्लाम, अच्छे व्यवहार को अपनाने और अच्छे कर्म करने का आह्वान करता है। अल्लाह तआला ने पहले के धर्म-ग्रंथों में अपने रसूल मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- की एक विशेषता यह भी गिनाई है :
{जो उस रसूल का अनुसरण करेंगे, जो उम्मी (अनपढ़) नबी हैं, जिन (के आगमन) का उल्लेख वे अपने पास तौरात तथा इंजील में पाते हैं; जो उन्हें सदाचार का आदेश देंगे और दुराचार से रोकेंगे, उनके लिए स्वच्छ चीज़ों को ह़लाल (वैध) तथा मलिन चीज़ों को ह़राम (अवैध) करेंगे, उनसे उनके बोझ उतार देंगे तथा उन बंधनों को खोल देंगे, जिनमें वे जकड़े हुए होंगे। अतः, जो लोग आपपर ईमान लाए, आपका समर्थन किया, आपकी सहायता की तथा उस प्रकाश (क़ुरआन) का अनुसरण किया, जो आपके साथ उतारा गया है, तो वही सफल होंगे।}
[सूरा अल-आराफ़ : 157]
तथा अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया है :
"ऐ आइशा! बेशक अल्लाह तआला मृदुल है, और मृदुलता के बदले में वह कुछ देता है जो कठोरता और उसके सिवा किसी और बात पर नहीं देता।"
सहीह मुस्लिम, हदीस संख्या : 2593
इसी तरह आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया है :
"बेशक अल्लाह तआला ने तुमपर, माताओं की अवज्ञा और उनके साथ दुर्व्यवहार करने, बेटियों को ज़िंदा गाड़ देने और रोकने-लेने को हराम किया है। इसी तरह, तुमहारे बारे में नापसंद किया है अनावश्यक बातें करने, बहुत अधिक प्रश्न करने और माल को व्यर्थ में बर्बाद करने को।"
सहीह अल-बुख़ारी : 2408
एक अन्य हदीस में है :
"तुम जन्नत मेें उस समय तक प्रवेश नहीं कर सकते, जब तक ईमान न लाओ, और तुम उस समय तक मोमिन नहीं हो सकते, जब तक एक-दूसरे से प्रेम न करने लगो। क्या मैं तुम्हारा मार्गदर्शन ऐसे कार्य की ओर न कर दूँ, जिसे यदि तुम करोगे तो एक-दूसरे से प्रेम करने लगोगे? अपने बीच में सलाम को आम करो।"
सहीह मुस्लिम, हदीस संख्या : 54
32- इस्लाम धर्म, उत्तम आचरणों और सद्गुणों जैसे सच्चाई, अमानत की अदायगी, पाकबाज़ी, लज्जा एवं शर्म, वीरता, भले कामों में खर्च करना, ज़रूरतमंदों की मदद करना, पीड़ितों की सहायता करना, भूखों को खाना खिलाना, पड़ोसी के साथ अच्छा व्यवहार करना, रिश्तों को जोड़ना और जानवरों पर दया करना आदि, को अपनाने का आदेश देता है।
इस्लाम, सदाचरणों को अपनाने का आदेश देता है, जैसा कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है :"बेशक मुझे सदाचरणों को पूर्ण रूप देने हेतु प्रेषित किया गया है।"सहीह अल-अदब अल-मुफ़रद, हदीस संख्या : 207एक अन्य हदीस में है कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"तुममें से मेरी नज़र में सबसे प्यारा और क़यामत के दिन मेरे सबसे अधिक करीब बैठने का सौभाग्य प्राप्त करने वाला वह व्यक्ति होगा, जो आचरण के ऐतबार से तुममें सबसे अच्छा है, और मेरी नज़र में सबसे अधिक घृणित और क़यामत के दिन मुझसे सबसे अधिक दूर बैठने वाले, बहुत अधिक बकबकाने वाले, अपनी बातों से अहंकार दर्शाने वाले और 'मुतफ़ैहिक़ून' होंगे।" सहाबियों ने पूछा : हम बकबकाने वालों और अपनी बातों से अहंकार दर्शाने वालों को तो समझ गए, परन्तु 'मुतफ़ैहिक़ून' का शब्द समझ में नहीं आया, तो फ़रमाया : "घमंडी एवं अहंकारी।"अस-सिलसिला अस-सहीहा, हदीस संख्या : 791तथा अब्दुल्लाह बिन अम्र बिन आस -रज़ियल्लाहु अनहुमा- से मरफ़ूअन वर्णित है, वह कहते हैं कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- न तो अश्लील थे और न गंदी बातें और गंदे कार्य किया करते थे। आप फ़रमाया करते थे : "तुम्हारे अंदर सबसे अच्छा व्यक्ति वह है, जिसका आचरण सबसे अच्छा है।"सहीह अल-बुख़ारी, हदीस संख्या : 3559इनके अतिरिक्त और भी बहुत सारी आयतें और हदीसें हैं, जो इस बात को प्रमाणित करती हैं कि इस्लाम, सबको सदाचरण और सत्कर्म पर उभारता है।इस्लाम, जिन सद्गुणों को अपनाने का आदेश देता है, उनमें से एक सच्चाई भी है, जैसा कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है :"देखो, सच्चाई को दाँतों से मज़बूती के साथ पकड़ लो, क्योंकि सच्चाई नेकी का और नेकी जन्नत का मार्गदर्शन करती है। एक इंसान, सच बोलता रहता है और सच्चाई को ढूँढता रहता है, यहाँ तक कि अल्लाह के पास उसे सच्चा लिख लिया जाता है।"सहीह मुस्लिम, हदीस संख्या : 2607इस्लाम, जिन सद्गुणों को अपनाने का आदेश देता है, उनमें से एक अमानत को अदा करना है। अल्लाह का फ़रमान है :{अल्लाह तआला तुम्हें हुक्म देता है कि अमानत उनके मालिकों को पहुँचा दो।}[सूरा अन-निसा : 58]इस्लाम, जिन सद्गुणों को अपनाने का आदेश देता है, उनमें से एक पाकबाज़ी भी है, जैसा कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है :"तीन प्रकार के लोग ऐसे हैं, जिनका अल्लाह पर हक बनता है कि वह उनकी मदद करे। फिर आपने उनको गिनाते हुए, उनमें उस आदमी को भी गिनाया, जो अपनी पाकदामनी एवं पाकबाज़ी की सुरक्षा करने के लिए, शादी करता है।"सुनन अत-तिरमिज़ी, हदीस संख्या :1655आप -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- एक दुआ यह भी पढ़ा करते थे :"ऐ अल्लाह! मैं तुझसे मार्गदर्शन, धर्मनिष्ठा, पवित्राचार और बेनियाज़ी (निस्पृहता) माँगता हूँ।"सहीह मुस्लिम, हदीस संख्या : 2721इस्लाम, जिन सद्गुणों को अपनाने का आदेश देता है, उनमें से एक शर्म एवं लज्जा भी है, जैसा कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है :"हया अर्थात लज्जा केवल भलाई ही लाती है।"सहीह अल-बुख़ारी, हदीस संख्या : 6117एक अन्य हदीस में है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया :"हर धर्म का एक सदाचार है, और इस्लाम धर्म का सदाचार, शर्म एवं लज्जा है।"इसे बैहक़ी ने इसका शुअब अल-ईमान (6/2619) में रिवायत किया है।इस्लाम, जिन बातों का आदेश देता है, उनमें से एक वीरता भी है। अनस -रज़ियल्लाहु अनहु- से वर्णित है, वे कहते हैं :"अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- तमाम लोगों से अधिक सुंदर, सबसे बड़े वीर पुरुष और सबसे अधिक दानी इंसान थे। एक बार जब मदीना-वासियों को भय का सामना था, तो अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ही उसका घोड़े पर सवार होकर सबसे पहले और सबसे आगे निकले थे।"सहीह अल-बुख़ारी, हदीस संख्या : 2820अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- कायरता से अल्लाह की शरण माँगा करते और यह दुआ करते थे :"ऐ अल्लाह! मैं कायरता से तेरी शरण माँगता हूँ।"सहीह अल-बुख़ारी, हदीस संख्या : 6374इस्लाम, जिन बातों का उपदेश एवं आदेश देता है, उनमें से एक दानशीलता और खर्च करना भी है। अल्लाह का फ़रमान है :{जो अल्लाह की राह में अपना धन दान करते हैं, उस (दान) की दशा उस एक दाने जैसी है, जिसने सात बालियाँ उगाई हों। (उसकी) प्रत्येक बाली में सौ दाने हों और अल्लाह जिसे चाहे और भी अधिक देता है तथा अल्लाह विशाल एवं ज्ञानी है।}[सूरा अल-बक़रा : 261]अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- का एक सद्गुण, दानशील होना भी है। अब्दुल्लाह बिन अब्बास -रज़ियल्लाहु अनहुमा- से वर्णित है, वे कहते हैं :"अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- सबसे बड़े दानी थे। आप विशेषकर रमज़ान में उस समय और अधिक दानी बन जाते थे, जब जिबरील -अलैहिस्सलाम- आपसे मिलते थे। जिबरील -अलैहिस्सलाम- रमज़ान खत्म होने तक हर रात आकर आपसे मिलते और आप -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- उन्हें क़ुरआन पढ़कर सुनाते थे। जब आपसे जिबरील -अलैहिस्सलाम- मिला करते, तो आप तेज़ हवा से भी अधिक दान-खैरात करने में तेज़ हो जाया करते थे।"सहीह अल-बुख़ारी, हदीस संख्या : 1902इस्लाम धर्म, ज़रूरतमंदों की ज़रूरत पूरी करने, पीड़ितों की फ़रयाद सुनने, भूखों को खाना खिलाने, पड़ोसी के साथ अच्छा व्यवहार करने, रिश्तों को जोड़ने और जानवरों पर कृपा करने का भी आदेश देता है।अब्दुल्लाह बिन अम्र -रज़ियल्लाहु अनहुमा- से रिवायत है कि एक आदमी ने अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- से पूछा कि इस्लाम का कौन-सा कार्य सबसे अच्छा है ? आपने फ़रमाया : "तुम भूखों को खाना खिलाओ और परिचित और अपरिचित हर एक को सलाम करो।"सहीह अल-बुख़ारी, हदीस संख्या : 12एक अन्य हदीस में है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया :"एक आदमी कहीं जा रहा था। रास्ते में उसे ज़ोरों की प्यास लगी। तलाशने पर उसे एक कुँआ मिला, तो उसमें उतरकर उसने पानी पिया। कुएँ से बाहर निकला, तो देखा कि एक कुत्ता प्यास के मारे माटी चाट रहा है। उस आदमी ने (दिल ही दिल में) कहा कि इस कुत्ते को भी उतनी ही प्यास लगी है, जितनी मुझे लगी थी। यह सोचकर वह दोबारा कुएँ में उतरा, अपने मोज़े में पानी भरा और उसे अपने मुँह से पकड़कर कुएँ से बाहर आया और कुत्ते को पानी पिला दिया। अल्लाह तआला को उसका यह काम इतना पसंद आया कि उसे क्षमा प्रदान कर दी।" सहाबा -रज़ियल्लाहु अनहुम- ने पूछा : "ऐ अल्लाह के रसूल! क्या जानवरों पर कृपा करने का भी पुण्य मिलता है? आपने फ़रमाया : "हर जीव पर दया करने का पुण्य मिलता है।"सहीह इब्ने हिब्बान, हदीस संख्या : 544एक अन्य हदीस में है कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"विधवाओं और मिस्कीन (अति दरिद्र) की सहायता करने के उद्देश्य से दौड़-भाग करने वाला, अल्लाह के रास्ते में जिहाद करने वाले की तरह या फ़रमाया कि रात भर जाग कर इबादत करने और हर दिन रोज़ा रखने वाले की तरह है।"सहीह अल-बुख़ारी, हदीस संख्या : 5353इस्लाम धर्म, रिश्तेदारों के अधिकारों को अदा करने की ताकीद करता है और उनके साथ अच्छा व्यवहार करने को अनिवार्य क़रार देता है। अल्लाह का फ़रमान है :{नबी ईमान वालों से, उनके प्राणों से भी अधिक समीप हैं, और आपकी पत्नियाँ उनकी माताएँ हैं, और समीपवर्ती संबंधी एक-दूसरे से अधिक समीप हैं, अल्लाह के लेख में ईमान वालों और मुहाजिरों से। परन्तु, यह कि अपने मित्रों के साथ भलाई करते रहो और यह पुस्तक में लिखा हूआ है।}[सूरा अल-अहज़ाब : 6]इस्लाम ने रिश्तों-नातों को तोड़ने से सावधान किया और इस कृत्य को धरती पर फ़साद फैलाना क़रार दिया है। अल्लाह कहता है :{फिर यदि तुम विमुख हो गए तो दूर नहीं कि तुम उपद्रव करोगे धरती में तथा तोड़ोगे अपने रिश्तों (संबंधों) को।यही हैं जिन्हें अपनी दया से दूर कर दिया है अल्लाह ने और उन्हें बहरा तथा उनकी आँखें अंधी कर दी हैं।}[सूरा मुहम्मद : 22-23]और अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है : "रिश्तों को तोड़ने वाला, जन्नत में प्रवेश नहीं करेगा।"सहीह मुस्लिम, हदीस संख्या : 2556वह रिश्ते-नाते जिनको बनाए रखना और जिनका सम्मान करना अनिवार्य है, वह हैं, माता-पिता, भाई-बहन, चचा-गण, फूफियाँ, मामा-गण और मासियाँ आदि के रिश्ते।पड़ोसी, चाहे कोई काफ़िर ही क्यों न हो, इस्लाम उसका भी हक अदा करने की ताकीद करता है। अल्लाह का फ़रमान है :{और अल्लाह तआला की इबादत करो और उसके साथ किसी को शरीक न करो, और माँ-बाप के साथ अच्छा व्यवहार और एहसान करो, और रिश्तेदारों से, और यतीमों से, और मिसकीनों से, और क़रीब के पड़ोसी से, और दूर-दूर के पड़ोसी से, और पहलू के साथी से, और राह के मुसाफ़िर से, और उनसे जिनके मालिक तुम्हारे हाथ हैं। निस्संदेह अल्लाह तआला अहंकार करने वालों को तथा घमंड करने वालों को पसंद नहीं करता है।}[सूरा अन-निसा : 36]अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया है :"जिबरील -अलैहिस्सलाम- मुझे बराबर पड़ोसी के बारे में ताकीद करते रहे, यहाँ तक कि मुझे लगने लगा कि वह उसे वारिस बना देंगे।"सहीह अबू दाऊद, हदीस संख्या : 5152
"बेशक मुझे सदाचरणों को पूर्ण रूप देने हेतु प्रेषित किया गया है।"
सहीह अल-अदब अल-मुफ़रद, हदीस संख्या : 207
एक अन्य हदीस में है कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :
"तुममें से मेरी नज़र में सबसे प्यारा और क़यामत के दिन मेरे सबसे अधिक करीब बैठने का सौभाग्य प्राप्त करने वाला वह व्यक्ति होगा, जो आचरण के ऐतबार से तुममें सबसे अच्छा है, और मेरी नज़र में सबसे अधिक घृणित और क़यामत के दिन मुझसे सबसे अधिक दूर बैठने वाले, बहुत अधिक बकबकाने वाले, अपनी बातों से अहंकार दर्शाने वाले और 'मुतफ़ैहिक़ून' होंगे।" सहाबियों ने पूछा : हम बकबकाने वालों और अपनी बातों से अहंकार दर्शाने वालों को तो समझ गए, परन्तु 'मुतफ़ैहिक़ून' का शब्द समझ में नहीं आया, तो फ़रमाया : "घमंडी एवं अहंकारी।"
अस-सिलसिला अस-सहीहा, हदीस संख्या : 791
तथा अब्दुल्लाह बिन अम्र बिन आस -रज़ियल्लाहु अनहुमा- से मरफ़ूअन वर्णित है, वह कहते हैं कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- न तो अश्लील थे और न गंदी बातें और गंदे कार्य किया करते थे। आप फ़रमाया करते थे : "तुम्हारे अंदर सबसे अच्छा व्यक्ति वह है, जिसका आचरण सबसे अच्छा है।"
सहीह अल-बुख़ारी, हदीस संख्या : 3559
इनके अतिरिक्त और भी बहुत सारी आयतें और हदीसें हैं, जो इस बात को प्रमाणित करती हैं कि इस्लाम, सबको सदाचरण और सत्कर्म पर उभारता है।
इस्लाम, जिन सद्गुणों को अपनाने का आदेश देता है, उनमें से एक सच्चाई भी है, जैसा कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है :
"देखो, सच्चाई को दाँतों से मज़बूती के साथ पकड़ लो, क्योंकि सच्चाई नेकी का और नेकी जन्नत का मार्गदर्शन करती है। एक इंसान, सच बोलता रहता है और सच्चाई को ढूँढता रहता है, यहाँ तक कि अल्लाह के पास उसे सच्चा लिख लिया जाता है।"
सहीह मुस्लिम, हदीस संख्या : 2607
इस्लाम, जिन सद्गुणों को अपनाने का आदेश देता है, उनमें से एक अमानत को अदा करना है। अल्लाह का फ़रमान है :
{अल्लाह तआला तुम्हें हुक्म देता है कि अमानत उनके मालिकों को पहुँचा दो।}
[सूरा अन-निसा : 58]
इस्लाम, जिन सद्गुणों को अपनाने का आदेश देता है, उनमें से एक पाकबाज़ी भी है, जैसा कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है :
"तीन प्रकार के लोग ऐसे हैं, जिनका अल्लाह पर हक बनता है कि वह उनकी मदद करे। फिर आपने उनको गिनाते हुए, उनमें उस आदमी को भी गिनाया, जो अपनी पाकदामनी एवं पाकबाज़ी की सुरक्षा करने के लिए, शादी करता है।"
सुनन अत-तिरमिज़ी, हदीस संख्या :1655
आप -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- एक दुआ यह भी पढ़ा करते थे :
"ऐ अल्लाह! मैं तुझसे मार्गदर्शन, धर्मनिष्ठा, पवित्राचार और बेनियाज़ी (निस्पृहता) माँगता हूँ।"
सहीह मुस्लिम, हदीस संख्या : 2721
इस्लाम, जिन सद्गुणों को अपनाने का आदेश देता है, उनमें से एक शर्म एवं लज्जा भी है, जैसा कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है :
"हया अर्थात लज्जा केवल भलाई ही लाती है।"
सहीह अल-बुख़ारी, हदीस संख्या : 6117
एक अन्य हदीस में है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया :
"हर धर्म का एक सदाचार है, और इस्लाम धर्म का सदाचार, शर्म एवं लज्जा है।"
इसे बैहक़ी ने इसका शुअब अल-ईमान (6/2619) में रिवायत किया है।
इस्लाम, जिन बातों का आदेश देता है, उनमें से एक वीरता भी है। अनस -रज़ियल्लाहु अनहु- से वर्णित है, वे कहते हैं :
"अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- तमाम लोगों से अधिक सुंदर, सबसे बड़े वीर पुरुष और सबसे अधिक दानी इंसान थे। एक बार जब मदीना-वासियों को भय का सामना था, तो अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ही उसका घोड़े पर सवार होकर सबसे पहले और सबसे आगे निकले थे।"
सहीह अल-बुख़ारी, हदीस संख्या : 2820
अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- कायरता से अल्लाह की शरण माँगा करते और यह दुआ करते थे :
"ऐ अल्लाह! मैं कायरता से तेरी शरण माँगता हूँ।"
सहीह अल-बुख़ारी, हदीस संख्या : 6374
इस्लाम, जिन बातों का उपदेश एवं आदेश देता है, उनमें से एक दानशीलता और खर्च करना भी है। अल्लाह का फ़रमान है :
{जो अल्लाह की राह में अपना धन दान करते हैं, उस (दान) की दशा उस एक दाने जैसी है, जिसने सात बालियाँ उगाई हों। (उसकी) प्रत्येक बाली में सौ दाने हों और अल्लाह जिसे चाहे और भी अधिक देता है तथा अल्लाह विशाल एवं ज्ञानी है।}
[सूरा अल-बक़रा : 261]
अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- का एक सद्गुण, दानशील होना भी है। अब्दुल्लाह बिन अब्बास -रज़ियल्लाहु अनहुमा- से वर्णित है, वे कहते हैं :
"अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- सबसे बड़े दानी थे। आप विशेषकर रमज़ान में उस समय और अधिक दानी बन जाते थे, जब जिबरील -अलैहिस्सलाम- आपसे मिलते थे। जिबरील -अलैहिस्सलाम- रमज़ान खत्म होने तक हर रात आकर आपसे मिलते और आप -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- उन्हें क़ुरआन पढ़कर सुनाते थे। जब आपसे जिबरील -अलैहिस्सलाम- मिला करते, तो आप तेज़ हवा से भी अधिक दान-खैरात करने में तेज़ हो जाया करते थे।"
सहीह अल-बुख़ारी, हदीस संख्या : 1902
इस्लाम धर्म, ज़रूरतमंदों की ज़रूरत पूरी करने, पीड़ितों की फ़रयाद सुनने, भूखों को खाना खिलाने, पड़ोसी के साथ अच्छा व्यवहार करने, रिश्तों को जोड़ने और जानवरों पर कृपा करने का भी आदेश देता है।
अब्दुल्लाह बिन अम्र -रज़ियल्लाहु अनहुमा- से रिवायत है कि एक आदमी ने अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- से पूछा कि इस्लाम का कौन-सा कार्य सबसे अच्छा है ? आपने फ़रमाया : "तुम भूखों को खाना खिलाओ और परिचित और अपरिचित हर एक को सलाम करो।"
सहीह अल-बुख़ारी, हदीस संख्या : 12
एक अन्य हदीस में है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया :
"एक आदमी कहीं जा रहा था। रास्ते में उसे ज़ोरों की प्यास लगी। तलाशने पर उसे एक कुँआ मिला, तो उसमें उतरकर उसने पानी पिया। कुएँ से बाहर निकला, तो देखा कि एक कुत्ता प्यास के मारे माटी चाट रहा है। उस आदमी ने (दिल ही दिल में) कहा कि इस कुत्ते को भी उतनी ही प्यास लगी है, जितनी मुझे लगी थी। यह सोचकर वह दोबारा कुएँ में उतरा, अपने मोज़े में पानी भरा और उसे अपने मुँह से पकड़कर कुएँ से बाहर आया और कुत्ते को पानी पिला दिया। अल्लाह तआला को उसका यह काम इतना पसंद आया कि उसे क्षमा प्रदान कर दी।" सहाबा -रज़ियल्लाहु अनहुम- ने पूछा : "ऐ अल्लाह के रसूल! क्या जानवरों पर कृपा करने का भी पुण्य मिलता है? आपने फ़रमाया : "हर जीव पर दया करने का पुण्य मिलता है।"
सहीह इब्ने हिब्बान, हदीस संख्या : 544
एक अन्य हदीस में है कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :
"विधवाओं और मिस्कीन (अति दरिद्र) की सहायता करने के उद्देश्य से दौड़-भाग करने वाला, अल्लाह के रास्ते में जिहाद करने वाले की तरह या फ़रमाया कि रात भर जाग कर इबादत करने और हर दिन रोज़ा रखने वाले की तरह है।"
सहीह अल-बुख़ारी, हदीस संख्या : 5353
इस्लाम धर्म, रिश्तेदारों के अधिकारों को अदा करने की ताकीद करता है और उनके साथ अच्छा व्यवहार करने को अनिवार्य क़रार देता है। अल्लाह का फ़रमान है :
{नबी ईमान वालों से, उनके प्राणों से भी अधिक समीप हैं, और आपकी पत्नियाँ उनकी माताएँ हैं, और समीपवर्ती संबंधी एक-दूसरे से अधिक समीप हैं, अल्लाह के लेख में ईमान वालों और मुहाजिरों से। परन्तु, यह कि अपने मित्रों के साथ भलाई करते रहो और यह पुस्तक में लिखा हूआ है।}
[सूरा अल-अहज़ाब : 6]
इस्लाम ने रिश्तों-नातों को तोड़ने से सावधान किया और इस कृत्य को धरती पर फ़साद फैलाना क़रार दिया है। अल्लाह कहता है :
{फिर यदि तुम विमुख हो गए तो दूर नहीं कि तुम उपद्रव करोगे धरती में तथा तोड़ोगे अपने रिश्तों (संबंधों) को।
यही हैं जिन्हें अपनी दया से दूर कर दिया है अल्लाह ने और उन्हें बहरा तथा उनकी आँखें अंधी कर दी हैं।}
[सूरा मुहम्मद : 22-23]
और अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है : "रिश्तों को तोड़ने वाला, जन्नत में प्रवेश नहीं करेगा।"
सहीह मुस्लिम, हदीस संख्या : 2556
वह रिश्ते-नाते जिनको बनाए रखना और जिनका सम्मान करना अनिवार्य है, वह हैं, माता-पिता, भाई-बहन, चचा-गण, फूफियाँ, मामा-गण और मासियाँ आदि के रिश्ते।
पड़ोसी, चाहे कोई काफ़िर ही क्यों न हो, इस्लाम उसका भी हक अदा करने की ताकीद करता है। अल्लाह का फ़रमान है :
{और अल्लाह तआला की इबादत करो और उसके साथ किसी को शरीक न करो, और माँ-बाप के साथ अच्छा व्यवहार और एहसान करो, और रिश्तेदारों से, और यतीमों से, और मिसकीनों से, और क़रीब के पड़ोसी से, और दूर-दूर के पड़ोसी से, और पहलू के साथी से, और राह के मुसाफ़िर से, और उनसे जिनके मालिक तुम्हारे हाथ हैं। निस्संदेह अल्लाह तआला अहंकार करने वालों को तथा घमंड करने वालों को पसंद नहीं करता है।}
[सूरा अन-निसा : 36]
अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया है :
"जिबरील -अलैहिस्सलाम- मुझे बराबर पड़ोसी के बारे में ताकीद करते रहे, यहाँ तक कि मुझे लगने लगा कि वह उसे वारिस बना देंगे।"
सहीह अबू दाऊद, हदीस संख्या : 5152
33- इस्लाम धर्म ने खान-पान की पवित्र वस्तुओं को हलाल ठहराया और दिल, शरीर तथा घर-बार को पवित्र रखने का हुक्म दिया है। यही कारण है कि शादी को हलाल क़रार दिया है। उसी प्रकार, रसूलों -अलैहिमुस्सलाम- ने भी इसी का आदेश दिया है, क्योंकि वे हर पाक और अच्छी चीज़ का हुक्म दिया करते थे।
इस्लाम धर्म ने खान-पान की पाक चीजों को हलाल करार दिया है, जैसा कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है :"ऐ लोगो! निश्चय ही, अल्लाह पवित्र है और केवल पवित्र चीज़ों ही को ग्रहण करता है। उसने ईमान वालों को वही आदेश दिया है, जो रसूलों को दिया है। अतएव फ़रमाया : {يَا أَيُّهَا الرُّسُلُ كُلُوا مِنَ الطَّيِّبَاتِ وَاعْمَلُوا صَالِحًا إِنِّي بِمَا تَعْمَلُونَ عَلِيمٌ} (अर्थात, ऐ रसूलो! स्वच्छ चीज़ें खाओ और अच्छे कार्य करो। निश्चय ही, तुम जो कुछ करते हो, मैं सब जानता हूँ।) [सूरा अल-मोमिनून : 51] तथा फ़रमाया : {يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا كُلُوا مِنْ طِيِّبَاتِ مَا رَزَقْنَاكُمْ واشكروا لله إن كنتم إياه تعبدون} (अर्थात, ऐ ईमान वालो! उन स्वच्छ चीज़ों में से खाओ, जो हमने तुम्हें दी हैं तथा अल्लाह की कृतज्ञता का वर्णन करो, यदि तुम केवल उसी की इबादत (वंदना) करते हो।) [सूरा अल-बक़रा: 172]। फिर अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने एक व्यक्ति का ज़िक्र किया, जो लंबी यात्रा में है, उसके बाल बिखरे हुए हैं और शरीर धूल से अटा हुआ है। वह आकाश की ओर अपने दोनों हाथों को फैलाकर कहता है : ऐ मेरे प्रभु, ऐ मेरे प्रभु! लेकिन उसका खाना हराम, उसका पीना हराम, उसका वस्त्र हराम और उसकी परवरिश हराम से हुई है। ऐसे में भला उसकी दुआ कैसी क़बूल की जा सकती है?"सहीह मुस्लिम, हदीस संख्या : 1015तथा अल्लाह तआला का फ़रमान है :{(ऐ नबी!) इन (बहुदेववादियों) से कहिए कि किसने अल्लाह की उस शोभा को ह़राम (वर्जित) किया है, जिसे उसने अपने सेवकों के लिए निकाला है? तथा स्वच्छ जीविकाओं को? आप कह दें : यह सांसारिक जीवन में उनके लिए (उचित) है, जो ईमान लाए तथा प्रलय के दिन उन्हीं के लिए विशेष है। इसी प्रकार, हम अपनी आयतों का सविस्तार वर्णन उनके लिए करते हैं, जो ज्ञान रखते हों।}[सूरा अल-आराफ़ : 32]इस्लाम धर्म ने दिल, शरीर और घरबार को भी पाक रखने का आदेश दिया है। यही कारण है कि उसने विवाह को जायज़ और हलाल किया है। नबियों और रसूलों -अलैहिमुस्सलाम- ने भी इन बातों का आदेश दिया है, बल्कि वे तो हर पाक-पवित्र काम और चीज़ का ही हुक्म दिया करते थे। अल्लाह तआला कहता है :{और अल्लाह ने तुम्हारे लिए तुम्हीं में से पत्नियाँ बनाईं और तुम्हारे लिए तुम्हारी पत्नियों से पुत्र तथा पौत्र बनाए, और तुम्हें स्वच्छ चीज़ों से जीविका प्रदान की। तो क्या वे असत्य पर विश्वास रखते हैं और अल्लाह के पुरस्कारों के प्रति अविश्वास रखते हैं?।}[सूरा अन-नह्ल : 72]तथा अल्लाह तआला का फ़रमान है :{अपने कपड़े (और दिल) साफ़ रखो।और बुतों को छोड़ दो।}[सूरा अल-मुद्दस्सिर : 4-5]जबकि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया है :"जिसके दिल में कण बराबर भी अहंकार होगा, वह स्वर्ग में प्रवेश नहीं करेगा।" एक आदमी ने कहा : एक आदमी पसंद करता है कि वह अच्छे कपड़े और अच्छे जूते पहने (तो क्या यह भी अहंकार और घमंड माना जाएगा?)। आपने फ़रमाया : "बेशक अल्लाह सुंदर है और सुंदरता को पसंद करता है। घमंड तो हक़ से मुँह मोड़ने और लोगों को तुच्छ समझने को कहते हैं।"सहीह मुस्लिम, हदीस संख्या : 91
"ऐ लोगो! निश्चय ही, अल्लाह पवित्र है और केवल पवित्र चीज़ों ही को ग्रहण करता है। उसने ईमान वालों को वही आदेश दिया है, जो रसूलों को दिया है। अतएव फ़रमाया : {يَا أَيُّهَا الرُّسُلُ كُلُوا مِنَ الطَّيِّبَاتِ وَاعْمَلُوا صَالِحًا إِنِّي بِمَا تَعْمَلُونَ عَلِيمٌ} (अर्थात, ऐ रसूलो! स्वच्छ चीज़ें खाओ और अच्छे कार्य करो। निश्चय ही, तुम जो कुछ करते हो, मैं सब जानता हूँ।) [सूरा अल-मोमिनून : 51] तथा फ़रमाया : {يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا كُلُوا مِنْ طِيِّبَاتِ مَا رَزَقْنَاكُمْ واشكروا لله إن كنتم إياه تعبدون} (अर्थात, ऐ ईमान वालो! उन स्वच्छ चीज़ों में से खाओ, जो हमने तुम्हें दी हैं तथा अल्लाह की कृतज्ञता का वर्णन करो, यदि तुम केवल उसी की इबादत (वंदना) करते हो।) [सूरा अल-बक़रा: 172]। फिर अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने एक व्यक्ति का ज़िक्र किया, जो लंबी यात्रा में है, उसके बाल बिखरे हुए हैं और शरीर धूल से अटा हुआ है। वह आकाश की ओर अपने दोनों हाथों को फैलाकर कहता है : ऐ मेरे प्रभु, ऐ मेरे प्रभु! लेकिन उसका खाना हराम, उसका पीना हराम, उसका वस्त्र हराम और उसकी परवरिश हराम से हुई है। ऐसे में भला उसकी दुआ कैसी क़बूल की जा सकती है?"
सहीह मुस्लिम, हदीस संख्या : 1015
तथा अल्लाह तआला का फ़रमान है :
{(ऐ नबी!) इन (बहुदेववादियों) से कहिए कि किसने अल्लाह की उस शोभा को ह़राम (वर्जित) किया है, जिसे उसने अपने सेवकों के लिए निकाला है? तथा स्वच्छ जीविकाओं को? आप कह दें : यह सांसारिक जीवन में उनके लिए (उचित) है, जो ईमान लाए तथा प्रलय के दिन उन्हीं के लिए विशेष है। इसी प्रकार, हम अपनी आयतों का सविस्तार वर्णन उनके लिए करते हैं, जो ज्ञान रखते हों।}
[सूरा अल-आराफ़ : 32]
इस्लाम धर्म ने दिल, शरीर और घरबार को भी पाक रखने का आदेश दिया है। यही कारण है कि उसने विवाह को जायज़ और हलाल किया है। नबियों और रसूलों -अलैहिमुस्सलाम- ने भी इन बातों का आदेश दिया है, बल्कि वे तो हर पाक-पवित्र काम और चीज़ का ही हुक्म दिया करते थे। अल्लाह तआला कहता है :
{और अल्लाह ने तुम्हारे लिए तुम्हीं में से पत्नियाँ बनाईं और तुम्हारे लिए तुम्हारी पत्नियों से पुत्र तथा पौत्र बनाए, और तुम्हें स्वच्छ चीज़ों से जीविका प्रदान की। तो क्या वे असत्य पर विश्वास रखते हैं और अल्लाह के पुरस्कारों के प्रति अविश्वास रखते हैं?।}
[सूरा अन-नह्ल : 72]
तथा अल्लाह तआला का फ़रमान है :
{अपने कपड़े (और दिल) साफ़ रखो।
और बुतों को छोड़ दो।}
[सूरा अल-मुद्दस्सिर : 4-5]
जबकि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया है :
"जिसके दिल में कण बराबर भी अहंकार होगा, वह स्वर्ग में प्रवेश नहीं करेगा।" एक आदमी ने कहा : एक आदमी पसंद करता है कि वह अच्छे कपड़े और अच्छे जूते पहने (तो क्या यह भी अहंकार और घमंड माना जाएगा?)। आपने फ़रमाया : "बेशक अल्लाह सुंदर है और सुंदरता को पसंद करता है। घमंड तो हक़ से मुँह मोड़ने और लोगों को तुच्छ समझने को कहते हैं।"
सहीह मुस्लिम, हदीस संख्या : 91
34- इस्लाम धर्म ने उन तमाम चीज़ों को हराम क़रार दिया है, जो अपनी बुनियाद से हराम हैं। जैसे अल्लाह के साथ शिर्क एवं कुफ़्र करना, बुतों की पूजा करना, बिना ज्ञान के अल्लाह के बारे में कुछ भी बोलना, अपनी संतानों की हत्या करना, किसी को जान से मार डालना, धरती पर फ़साद मचाना, जादू करना या कराना, छिप-छिपाकर या खुले-आम गुनाह करना, ज़िना (व्यभिचार) करना, समलैंगिकता आदि जैसे जघन्य पाप करना। इसी प्रकार, इस्लाम धर्म ने सूदी लेन-देन, मुर्दार खाने, जो जानवर बुतों के नाम पर और स्थानों पर बलि चढ़ाया जाए, उसका माँस खाने, सुअर के माँस, सारी गंदी चीज़ों का सेवन करने, अनाथ का माल हराम तरीक़े से खाने, नाप-तौल में कमी-बेशी करने और रिश्तों को तोड़ने को हराम ठहराया है, और तमाम नबियों और रसूलों का भी इन हराम चीज़ों के हराम होने पर मतैक्य है।
इस्लाम धर्म ने उन तमाम चीज़ों को हराम क़रार दिया है, जो अपनी बुनियाद से हराम हैं। जैसे अल्लाह के साथ शिर्क एवं कुफ्र करना, बुतों की पूजा करना, बिना ज्ञान के अल्लाह के बारे में कुछ भी बोलना और अपनी संतानों की हत्या करना आदि। अल्लाह का फ़रमान है :{आप उनसे कह दें कि आओ मैं तुम्हें (आयतें) पढ़कर सुना दूँ कि तुमपर, तुम्हारे पालनहार ने क्या हराम किया है? वह यह है कि किसी चीज़ को अल्लाह का साझी न बनाओ, और माता-पिता के साथ उपकार करो तथा निर्धनता के भय से अपनी संतानों की हत्या न करो। हम तुम्हें रोज़ी देते हैं और उन्हें भी देंगे। और निर्लज्जता की बातों के निकट भी न जाओ, बाह्य हों अथवा छिपी। और किसी प्राणी की हत्या न करो, जिस (की हत्या) को अल्लाह ने हराम ठहराया हो, यह और बात है कि हक़ के लिए ऐसा करना पड़े। यह वह बातें हैं, जिनकी अल्लाह ने तुम्हें ताकीद की है, ताकि तुम समझो।और अनाथ के धन के समीप न जाओ, परन्तु ऐसे ढंग से, जो उचित हो। यहाँ तक कि वह अपनी युवा अवस्था को पहुँच जाए, तथा नाप-तोल न्याय के साथ पूरा करो। हम किसी प्राण पर उसकी क्षमता से अधिक भार नहीं रखते। और जब बोलो तो न्याय करो, यद्यपि समीपवर्ती ही क्यों न हो और अल्लाह का वचन पूरा करो, उसने तुम्हें इसका आदेश दिया है, संभवतः तुम शिक्षा ग्रहण करो।}[सूरा अल-अनआम : 151-152]एक अन्य स्थान पर अल्लाह तआला का फ़रमान है :{(ऐ नबी!) आप कह दें कि मेरे पालनहार ने तो केवल खुले तथा छुपे कुकर्मों, पाप तथा अवैध विद्रोह को ही हराम (वर्जित) किया है, तथा इस बात को कि तुम उसे अल्लाह का साझी बनाओ, जिसका कोई तर्क उसने नहीं उतारा है तथा अल्लाह पर ऐसी बात बोलो, जिसे तुम नहीं जानते।}[सूरा अल-आराफ़ : 33]इस्लाम धर्म ने सम्मानित जानों की हत्या करना हराम किया है। अल्लाह का फ़रमान है :{और किसी प्राण का जिसे अल्लाह ने ह़राम (अवैध) किया है, वध न करो, परन्तु धर्म-विधान के अनुसार और जो अत्याचार से वध (निहत) किया गया, हमने उसके उत्तराधिकारी को अधिकार प्रदान किया है। अतः वह वध करने में अतिक्रमण न करे, वास्तव में, उसे सहायता दी गई है।}[सूरा अल-इसरा : 33]एक अन्य स्थान पर अल्लाह तआला का फ़रमान है :{और जो नहीं पुकारते हैं अल्लाह के साथ किसी दूसरे असत्य पूज्य को और न वध करते हैं, उस प्राण का, जिसे अल्लाह ने वर्जित किया है, परन्तु उचित कारण से, और न व्यभिचार करते हैं और जो ऐसा करेगा, वह पाप का सामना करेगा।}[सूरा अल-फ़ुरक़ान : 68]इस्लाम धर्म ने धरती पर फ़साद फैलाने को भी हराम किया है। अल्लाह का फ़रमान है :{और धरती पर उसके सुधार के बाद, फ़साद न फैलाओ।}[सूरा अल-आराफ़ : 56]इसी तरह अल्लाह तआला ने अपने नबी शुऐब -अलैहिस्सलाम- के बारे में सूचना दी है कि उन्होंने अपनी क़ौम से कहा था :{उसने कहा कि ऐ मेरी क़ौम के लोगो! अल्लाह की इबादत (वंदना) करो, उसके सिवा तुम्हारा कोई पूज्य नहीं है। तुम्हारे पास तुम्हारे पालनहार का खुला तर्क (प्रमाण) आ गया है। अतः नाप-तोल पूरा-पूरा करो और लोगों की चीज़ों में कमी न करो तथा धरती में उसके सुधार के पश्चात उपद्रव न करो। यही तुम्हारे लिए उत्त्म है, यदि तुम ईमान वाले हो।}[सूरा अल-आराफ़ : 85]इस्लाम ने जादू-टोना को भी हराम किया है। अल्लाह का फ़रमान है :{और फेंक दे जो तेरे दाएँ हाथ में है, वह निगल जाएगा जो कुछ उन्होंने बनाया है। वह केवल जादू का स्वाँग बनाकर लाए हैं, तथा जादूगर सफल नहीं होता, जहाँ से भी आए।}[सूरा ता-हा : 69]एक अन्य हदीस में है कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"तुम लोग सात विनाशकारी वस्तुओं से बचो।" लोगों ने कहा : ऐ अल्लाह के रसूल! वह क्या-क्या हैं? आपने फ़रमाया : "अल्लाह का साझी बनाना, जादू, अल्लाह के हराम किए हुए प्राणी को औचित्य ना होने के बावजूद क़त्ल करना, ब्याज खाना, यतीम का माल खाना, युद्ध के मैदान से पीठ दिखाकर भागना और निर्दोष भोली-भाली मोमिन स्त्रियों पर व्यभिचार का आरोप लगाना।"सहीह अल-बुख़ारी, हदीस संख्या : 6857इस्लाम धर्म ने तमाम ज़ाहिरी एवं छिपी हुई निर्लज्जताओं, व्यभिचार और समलैंगिकता को हराम करार दिया है। इस पारा के आरंभ में उन आयतों का उल्लेख किया जा चुका है, जो उन बुराइयों के हराम होने का स्पष्ट संकेत देती हैं। इस्लाम ने सूदी लेन-देन को भी हराम क़रार दिया है। अल्लाह तआला कहता है :{ऐ ईमान वालो! अल्लाह से डरो और जो ब्याज शेष रह गया है, उसे छोड़ दो, यदि तुम ईमान रखने वाले हो तो।और यदि तुमने ऐसा नहीं किया तो अल्लाह तथा उसके रसूल से युद्ध के लिए तैयार हो जाओ, और यदि तुम तौबा (क्षमा याचना) कर लो तो तुम्हारे लिए तुम्हारा मूल धन है। न तुम अत्याचार करो, न तुमपर अत्याचार किया जाए।}[सूरा अल-बक़रा : 278-279]यहाँ सोचने वाली बात यह है कि अल्लाह ने किसी भी अन्य पाप के करने पर इस प्रकार जंग की धमकी नहीं दी है, जिस प्रकार सूदी लेनदेन करने वाले को धमकी दी है, क्योंकि सूद धर्म, देश, माल और जान सबकी तबाही का कारण बनता है।इस्लाम ने मुर्दार का और बुतों के नाम पर तथा स्थानों में ज़बह किए जाने वाले जानवरों का माँस खाने को और सुअर के मांस को भी हराम ठहराया है। अल्लाह कहता है :{तुम्हारे लिए मरे हुए जानवर, ख़ून, सुअर का गोश्त, अल्लाह के अलावा किसी और के नाम पर उत्सर्गित पशु, कंठ मरोड़ कर मारा जाने वाला पशु, आघात लगने से मरने वाला पशु, गिरकर मरने वाला पशु, सींग के आघात से मरने वाला पशु, दरिंदों का मारा हुआ पशु, मगर जिसको तुमने ज़बह करके पाक कर लिया हो, स्थानों में बलि चढ़ाए जाने वाले पशु, तीर जिनसे शगुन लिया जाए, इन सबको हराम कर दिया गया है, क्योंकि यह सब महापाप हैं।}[सूरा अल-माइदा : 3]इस्लाम धर्म ने मदिरा-पान तथा तमाम गंदी और बुरी चीजों को हराम ठहरा दिया है। अल्लाह कहता है :{ऐ ईमान वालो! निस्संदेह मदिरा, जुआ, देवस्थान और पाँसे शैतानी मलिन कर्म हैं। अतः इनसे दूर रहो, ताकि तुम सफल हो जाओ।शैतान तो यही चाहता है कि शराब (मदिरा) तथा जूए द्वारा तुम्हारे बीच बैर तथा द्वेष डाल दे और तुम्हें अल्लाह की याद तथा नमाज़ से रोक दे, तो क्या तुम रुकोगे या नहीं?}[सूरा अल-माइदा : 90-91]पारा संख्या : 31 में अल्लाह तआला की दी हुई इस सूचना का उल्लेख किया जा चुका है, जिसमें अल्लाह ने बताया है कि तौरात में अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के बहुत सारे सद्गुणों में से एक गुण यह भी बयान किया गया है कि वे तमाम गंदी चीज़ों को हराम घोषित कर देंगे। अल्लाह का फ़रमान है :{जो उस रसूल का अनुसरण करेंगे, जो उम्मी (अनपढ़) नबी हैं, जिन (के आगमन) का उल्लेख वे अपने पास तौरात तथा इंजील में पाते हैं; जो उन्हें सदाचार का आदेश देंगे और दुराचार से रोकेंगे, उनके लिए स्वच्छ चीज़ों को ह़लाल (वैध) तथा मलिन चीज़ों को ह़राम (अवैध) करेंगे, उनसे उनके बोझ उतार देंगे तथा उन बंधनों को खोल देंगे, जिनमें वे जकड़े हुए होंगे।}[सूरा अल-आराफ़ : 157]इस्लाम धर्म ने अनाथ का माल खाना भी हराम किया है। अल्लाह का फ़रमान है :{तथा (ऐ अभिभावको!) अनाथों को उनके धन चुका दो और (उनकी) अच्छी चीज़ से (अपनी) बुरी चीज़ न बदलो और उनके धन, अपने धनों में मिलाकर न खाओ। निस्संदेह, यह बहुत बड़ा पाप है।}[सूरा अन-निसा : 2]एक अन्य स्थान पर अल्लाह तआला का फ़रमान है :{जो लोग अनाथों का धन अत्याचार से खाते हैं, वे अपने पेटों में आग भरते हैं, और शीघ्र ही नरक की अग्नि में प्रवेश करेंगे।}[सूरा अन-निसा : 10]इस्लाम धर्म ने नाप-तोल में कमी-बेशी करना भी हराम किया है। अल्लाह का फ़रमान है :{ख़राबी है नाप-तोल में कमी-बेशी करने वालों के लिए।जो लोगों से नापकर लेते समय तो पूरा लेते हैं।और जब उन्हें नाप या तोलकर देते हैं, तो कम देते हैं।क्या वे नहीं सोचते कि फिर जीवित किए जाएँगे?}[सूरा अल-मुतफ़्फ़िफ़ीन : 1-4]
{आप उनसे कह दें कि आओ मैं तुम्हें (आयतें) पढ़कर सुना दूँ कि तुमपर, तुम्हारे पालनहार ने क्या हराम किया है? वह यह है कि किसी चीज़ को अल्लाह का साझी न बनाओ, और माता-पिता के साथ उपकार करो तथा निर्धनता के भय से अपनी संतानों की हत्या न करो। हम तुम्हें रोज़ी देते हैं और उन्हें भी देंगे। और निर्लज्जता की बातों के निकट भी न जाओ, बाह्य हों अथवा छिपी। और किसी प्राणी की हत्या न करो, जिस (की हत्या) को अल्लाह ने हराम ठहराया हो, यह और बात है कि हक़ के लिए ऐसा करना पड़े। यह वह बातें हैं, जिनकी अल्लाह ने तुम्हें ताकीद की है, ताकि तुम समझो।
और अनाथ के धन के समीप न जाओ, परन्तु ऐसे ढंग से, जो उचित हो। यहाँ तक कि वह अपनी युवा अवस्था को पहुँच जाए, तथा नाप-तोल न्याय के साथ पूरा करो। हम किसी प्राण पर उसकी क्षमता से अधिक भार नहीं रखते। और जब बोलो तो न्याय करो, यद्यपि समीपवर्ती ही क्यों न हो और अल्लाह का वचन पूरा करो, उसने तुम्हें इसका आदेश दिया है, संभवतः तुम शिक्षा ग्रहण करो।}
[सूरा अल-अनआम : 151-152]
एक अन्य स्थान पर अल्लाह तआला का फ़रमान है :
{(ऐ नबी!) आप कह दें कि मेरे पालनहार ने तो केवल खुले तथा छुपे कुकर्मों, पाप तथा अवैध विद्रोह को ही हराम (वर्जित) किया है, तथा इस बात को कि तुम उसे अल्लाह का साझी बनाओ, जिसका कोई तर्क उसने नहीं उतारा है तथा अल्लाह पर ऐसी बात बोलो, जिसे तुम नहीं जानते।}
[सूरा अल-आराफ़ : 33]
इस्लाम धर्म ने सम्मानित जानों की हत्या करना हराम किया है। अल्लाह का फ़रमान है :
{और किसी प्राण का जिसे अल्लाह ने ह़राम (अवैध) किया है, वध न करो, परन्तु धर्म-विधान के अनुसार और जो अत्याचार से वध (निहत) किया गया, हमने उसके उत्तराधिकारी को अधिकार प्रदान किया है। अतः वह वध करने में अतिक्रमण न करे, वास्तव में, उसे सहायता दी गई है।}
[सूरा अल-इसरा : 33]
एक अन्य स्थान पर अल्लाह तआला का फ़रमान है :
{और जो नहीं पुकारते हैं अल्लाह के साथ किसी दूसरे असत्य पूज्य को और न वध करते हैं, उस प्राण का, जिसे अल्लाह ने वर्जित किया है, परन्तु उचित कारण से, और न व्यभिचार करते हैं और जो ऐसा करेगा, वह पाप का सामना करेगा।}
[सूरा अल-फ़ुरक़ान : 68]
इस्लाम धर्म ने धरती पर फ़साद फैलाने को भी हराम किया है। अल्लाह का फ़रमान है :
{और धरती पर उसके सुधार के बाद, फ़साद न फैलाओ।}
[सूरा अल-आराफ़ : 56]
इसी तरह अल्लाह तआला ने अपने नबी शुऐब -अलैहिस्सलाम- के बारे में सूचना दी है कि उन्होंने अपनी क़ौम से कहा था :
{उसने कहा कि ऐ मेरी क़ौम के लोगो! अल्लाह की इबादत (वंदना) करो, उसके सिवा तुम्हारा कोई पूज्य नहीं है। तुम्हारे पास तुम्हारे पालनहार का खुला तर्क (प्रमाण) आ गया है। अतः नाप-तोल पूरा-पूरा करो और लोगों की चीज़ों में कमी न करो तथा धरती में उसके सुधार के पश्चात उपद्रव न करो। यही तुम्हारे लिए उत्त्म है, यदि तुम ईमान वाले हो।}
[सूरा अल-आराफ़ : 85]
इस्लाम ने जादू-टोना को भी हराम किया है। अल्लाह का फ़रमान है :
{और फेंक दे जो तेरे दाएँ हाथ में है, वह निगल जाएगा जो कुछ उन्होंने बनाया है। वह केवल जादू का स्वाँग बनाकर लाए हैं, तथा जादूगर सफल नहीं होता, जहाँ से भी आए।}
[सूरा ता-हा : 69]
एक अन्य हदीस में है कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :
"तुम लोग सात विनाशकारी वस्तुओं से बचो।" लोगों ने कहा : ऐ अल्लाह के रसूल! वह क्या-क्या हैं? आपने फ़रमाया : "अल्लाह का साझी बनाना, जादू, अल्लाह के हराम किए हुए प्राणी को औचित्य ना होने के बावजूद क़त्ल करना, ब्याज खाना, यतीम का माल खाना, युद्ध के मैदान से पीठ दिखाकर भागना और निर्दोष भोली-भाली मोमिन स्त्रियों पर व्यभिचार का आरोप लगाना।"
सहीह अल-बुख़ारी, हदीस संख्या : 6857
इस्लाम धर्म ने तमाम ज़ाहिरी एवं छिपी हुई निर्लज्जताओं, व्यभिचार और समलैंगिकता को हराम करार दिया है। इस पारा के आरंभ में उन आयतों का उल्लेख किया जा चुका है, जो उन बुराइयों के हराम होने का स्पष्ट संकेत देती हैं। इस्लाम ने सूदी लेन-देन को भी हराम क़रार दिया है। अल्लाह तआला कहता है :
{ऐ ईमान वालो! अल्लाह से डरो और जो ब्याज शेष रह गया है, उसे छोड़ दो, यदि तुम ईमान रखने वाले हो तो।
और यदि तुमने ऐसा नहीं किया तो अल्लाह तथा उसके रसूल से युद्ध के लिए तैयार हो जाओ, और यदि तुम तौबा (क्षमा याचना) कर लो तो तुम्हारे लिए तुम्हारा मूल धन है। न तुम अत्याचार करो, न तुमपर अत्याचार किया जाए।}
[सूरा अल-बक़रा : 278-279]
यहाँ सोचने वाली बात यह है कि अल्लाह ने किसी भी अन्य पाप के करने पर इस प्रकार जंग की धमकी नहीं दी है, जिस प्रकार सूदी लेनदेन करने वाले को धमकी दी है, क्योंकि सूद धर्म, देश, माल और जान सबकी तबाही का कारण बनता है।
इस्लाम ने मुर्दार का और बुतों के नाम पर तथा स्थानों में ज़बह किए जाने वाले जानवरों का माँस खाने को और सुअर के मांस को भी हराम ठहराया है। अल्लाह कहता है :
{तुम्हारे लिए मरे हुए जानवर, ख़ून, सुअर का गोश्त, अल्लाह के अलावा किसी और के नाम पर उत्सर्गित पशु, कंठ मरोड़ कर मारा जाने वाला पशु, आघात लगने से मरने वाला पशु, गिरकर मरने वाला पशु, सींग के आघात से मरने वाला पशु, दरिंदों का मारा हुआ पशु, मगर जिसको तुमने ज़बह करके पाक कर लिया हो, स्थानों में बलि चढ़ाए जाने वाले पशु, तीर जिनसे शगुन लिया जाए, इन सबको हराम कर दिया गया है, क्योंकि यह सब महापाप हैं।}
[सूरा अल-माइदा : 3]
इस्लाम धर्म ने मदिरा-पान तथा तमाम गंदी और बुरी चीजों को हराम ठहरा दिया है। अल्लाह कहता है :
{ऐ ईमान वालो! निस्संदेह मदिरा, जुआ, देवस्थान और पाँसे शैतानी मलिन कर्म हैं। अतः इनसे दूर रहो, ताकि तुम सफल हो जाओ।
शैतान तो यही चाहता है कि शराब (मदिरा) तथा जूए द्वारा तुम्हारे बीच बैर तथा द्वेष डाल दे और तुम्हें अल्लाह की याद तथा नमाज़ से रोक दे, तो क्या तुम रुकोगे या नहीं?}
[सूरा अल-माइदा : 90-91]
पारा संख्या : 31 में अल्लाह तआला की दी हुई इस सूचना का उल्लेख किया जा चुका है, जिसमें अल्लाह ने बताया है कि तौरात में अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के बहुत सारे सद्गुणों में से एक गुण यह भी बयान किया गया है कि वे तमाम गंदी चीज़ों को हराम घोषित कर देंगे। अल्लाह का फ़रमान है :
{जो उस रसूल का अनुसरण करेंगे, जो उम्मी (अनपढ़) नबी हैं, जिन (के आगमन) का उल्लेख वे अपने पास तौरात तथा इंजील में पाते हैं; जो उन्हें सदाचार का आदेश देंगे और दुराचार से रोकेंगे, उनके लिए स्वच्छ चीज़ों को ह़लाल (वैध) तथा मलिन चीज़ों को ह़राम (अवैध) करेंगे, उनसे उनके बोझ उतार देंगे तथा उन बंधनों को खोल देंगे, जिनमें वे जकड़े हुए होंगे।}
[सूरा अल-आराफ़ : 157]
इस्लाम धर्म ने अनाथ का माल खाना भी हराम किया है। अल्लाह का फ़रमान है :
{तथा (ऐ अभिभावको!) अनाथों को उनके धन चुका दो और (उनकी) अच्छी चीज़ से (अपनी) बुरी चीज़ न बदलो और उनके धन, अपने धनों में मिलाकर न खाओ। निस्संदेह, यह बहुत बड़ा पाप है।}
[सूरा अन-निसा : 2]
एक अन्य स्थान पर अल्लाह तआला का फ़रमान है :
{जो लोग अनाथों का धन अत्याचार से खाते हैं, वे अपने पेटों में आग भरते हैं, और शीघ्र ही नरक की अग्नि में प्रवेश करेंगे।}
[सूरा अन-निसा : 10]
इस्लाम धर्म ने नाप-तोल में कमी-बेशी करना भी हराम किया है। अल्लाह का फ़रमान है :
{ख़राबी है नाप-तोल में कमी-बेशी करने वालों के लिए।
जो लोगों से नापकर लेते समय तो पूरा लेते हैं।
और जब उन्हें नाप या तोलकर देते हैं, तो कम देते हैं।
क्या वे नहीं सोचते कि फिर जीवित किए जाएँगे?}
[सूरा अल-मुतफ़्फ़िफ़ीन : 1-4]
इस्लाम धर्म ने रिश्तों-नातों को तोड़ना हराम किया है। पारा संख्या : 31 में उन आयतों तथा हदीसों का उल्लेख हो चुका है, जो उसके हराम होने को स्पष्ट करती हैं। साथ ही ज्ञात रहे कि सारे नबी एवं रसूल -अलैहिमुस्सलाम- का इन हराम चीजों के हराम होने पर मतैक्य है।
35- इस्लाम धर्म झूठ बोलना, धोखा देना, बेईमानी, फ़रेब, ईर्ष्या, चालबाज़ी, चोरी, अत्याचार और अन्याय आदि बुरे आचरणों ही नहीं, बल्कि हर अश्लील कार्य से मना करता है।
इस्लाम सामान्य रूप से सारे निंदनीय आचरणों से मना करता है। अल्लाह तआला कहता है :{और लोगों के सामने (घमंड से) अपना मुँह ना बिगाड़ो, तथा मत चलो धरती में अकड़ कर। निस्संदेह, अल्लाह प्रेम नहीं करता किसी अहंकारी, गर्व करने वाले से।}[सूरा लुक़मान : 18]अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है :"तुममें से मेरी नज़र में सबसे प्यारा और क़यामत के दिन मेरे सबसे अधिक करीब बैठने का सौभाग्य प्राप्त करने वाला वह व्यक्ति होगा, जो आचरण के ऐतबार से तुममें सबसे अच्छा है, और मेरी नज़र में सबसे अधिक घृणित और क़यामत के दिन मुझसे सबसे अधिक दूर बैठने वाले, बहुत अधिक बकबकाने वाले, अपनी बातों से अहंकार दर्शाने वाले और 'मुतफ़ैहिक़ून' होंगे।" सहाबियों ने कहा : "हम बकबकाने वालों और अपनी बातों से अहंकार दर्शाने वालों को तो समझ गए, परन्तु 'मुतफ़ैहिक़ून' का शब्द समझ में नहीं आया। तो फ़रमाया : "घमंडी एवं अहंकारी।"अस-सिलसिला अस-सहीहा हदीस संख्या : 791इस्लाम, झूठ बोलने से भी मना करता है। अल्लाह तआला कहता है :{बेशक, अल्लाह उस व्यक्ति को सही मार्ग नहीं दिखाता, जो हद से गुज़रने वाला, परले दर्जे का झूठा है।}[सूरा ग़ाफ़िर : 28]तथा अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है :"देखो, झूठ बोलने से बचो, क्योंकि झूठ पाप का और पाप जहन्नम का मार्गदर्शन करता है। एक इंसान, झूठ बोलता रहता है और झूठ ही ढूँढता रहता है, यहाँ तक कि अल्लाह के पास उसे झूठा लिख लिया जाता है।"सहीह मुस्लिम, हदीस संख्या : 2607एक अन्य हदीस में है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया :"मुनाफ़िक़ की तीन निशानियाँ हैं : जब बोलता है तो झूठ ही बोलता है, वादा करता है तो उसे पूरा नहीं करता और जब उसके पास अमानत रखी जाती है तो उसमें ख़यानत करता है।"सहीह अल-बुख़ारी, हदीस संख्या : 6095इस्लाम धोखाधड़ी से भी मना करता है।एक हदीस में आया है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने अनाज के एक ढेर के पास से गुज़रते हुए, उसमें अपना हाथ डालकर देखा, तो आपकी उँगलियों ने उसे भीगा हुआ पाया। अतः आपने फ़रमाया : "ऐ अनाज के मालिक! यह क्या है?" उसने कहा : ऐ अल्लाह के रसूल! उसपर बारिश का पानी पड़ गया था। तो आप -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया : "तुमने उसे ऊपर क्यों नहीं कर दिया, ताकि लोग देख लें। देखो, जो धोखा दे, वह हममें से नहीं है।"सहीह मुस्लिम, हदीस संख्या : 102इस्लाम, धोखेबाज़ी, छल और फ़रेब से मना करता है। अल्लाह का फ़रमान है :{ऐ ईमान वालो! अल्लाह तथा उसके रसूल के साथ विश्वासघात न करो और न अपनी अमानतों में विश्वासघात करो, जानते हुए।}[सूरा अल-अनफ़ाल : 27]एक और स्थान में उसका फ़रमान है :{जो अल्लाह से किया वचन पूरा करते हैं और वचन भंग नहीं करते।}[सूरा अर-रअद : 20]तथा अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- अपने सैन्य बलों को विदा करते समय कहा करते थे :"जंग करना और विश्वासघात मत करना, न धोखा देना, न शरीर का अंग काटना और ना किसी बच्चे की हत्या करना।"सहीह मुस्लिम, हदीस संख्या : 1731इसी तरह अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है :"चार बातें जिसके अंदर पाई जाएँ, वह पक्का मुनाफ़िक़ है, और यदि किसी में उनमें से एक आदत पाई गई, तो मानो, उसमें मुनाफ़िक़ होने की एक निशानी मौजूद है, यहाँ तक कि उसे छोड़ दे : जब उसके पास अमानत रखी जाए तो उसमें ख़यानत करे, बात करे तो झूठ बोले, वादा करके पूरा न करे और जब किसी से झगड़े तो गंदी गालियाँ बके।"सहीह अल-बुख़ारी, हदीस संख्या : 34इस्लाम, ईर्ष्या से भी मना करता है। अल्लाह तआला कहता है :{बल्कि वे लोगों से उस अनुग्रह पर विद्वेष कर रहे हैं, जो अल्लाह ने उन्हें प्रदान किया है। तो हमने (पहले भी) इबराहीम के घराने को पुस्तक तथा ह़िकमत (तत्वदर्शिता) दी है, और उन्हें विशाल राज्य प्रदान किया है।}[सूरा अन-निसा : 54]एक और जगह वह कहता है :{किताब वालों (यहूदियों एवं ईसाइयों) में से बहुत-से चाहते हैं कि तुम्हारे ईमान लाने के पश्चात् अपने द्वेष के कारण तुम्हें कुफ़्र की ओर फेर दें, जबकि सत्य उनके लिए उजागर हो गया है। फिर भी तुम क्षमा से काम लो और जाने दो, यहाँ तक कि अल्लाह अपना निर्णय कर दे। निश्चय ही, अल्लाह जो चाहे, कर सकता है।}[सूरा अल-बक़रा : 109]तथा अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है :"तुम्हारे अंदर पहले की उम्मतों की कई बीमारियाँ घुस आई हैं : ईर्ष्या तथा घृणा तो मूँडने वाली चीज़ है। मैं यह नहीं कहता कि बालों को मूँडने वाली चीज़ है, अपितु यह तो धर्म को मूँडने वाली चीज़ है। क़सम है उस ज़ात की जिसके हाथ में मेरे प्राण हैं! तुम लोग जन्नत में प्रवेश नहीं कर सकोगे, यहाँ तक कि मोमिन बन जाओ और मोमिन भी नहीं बन सकते, यहाँ तक कि एक-दूसरे से प्रेम करने लगो। और क्या मैं तुम्हें सूचित न कर दूँ कि यह सब तुम्हारे लिए संभव कैसे होगा? सुनो, तुम लोग आपस में सलाम फैलाओ।"सुनन अत-तिरमिज़ी, हदीस संख्या : 2510इस्लाम, षड्यंत्र रचने से भी मना करता है। अल्लाह तआला कहता है :{और इसी प्रकार, हमने प्रत्येक बस्ती में उसके कुख्यात अपराधियों को लगा दिया, ताकि उसमें षड्यंत्र रचें तथा वे अपने ही विरुद्ध षड्यंत्र रचते हैं, परन्तु समझते नहीं हैं।}[सूरा अल-अनआम : 123]अल्लाह तआला ने सूचना दी है कि यहूदियों ने ईसा मसीह -अलैहिस्सलाम- की हत्या करने का प्रयास किया और उनके खिलाफ़ षड्यंत्र रचा था, परन्तु अल्लाह तआला ने उनके विरुद्ध चाल चली और स्पष्ट कर दिया कि षड्यंत्र का दुष्परिणाम स्वयं षड्यंत्रकारियों को ही भुगतना पड़ता है। अल्लाह तआला का फ़रमान है :{तथा जब ईसा ने उनसे कुफ़्र का संवेदन किया तो कहा : अल्लाह के धर्म की सहायता में कौन मेरा साथ देगा? तो ह़वारियों (सहचरों) ने कहा : हम अल्लाह के सहायक हैं। हम अल्लाह पर ईमान लाए, तुम इसके साक्षी रहो कि हम मुस्लिम (आज्ञाकारी) हैं।ऐ हमारे पालनहार! जो कुछ तूने उतारा है, हम उसपर ईमान लाए तथा तेरे रसूल का अनुसरण किया। अतः, हमें भी साक्षियों में अंकित कर ले।तथा उन्होंने षड्यंत्र रचा और हमने भी षड्यंत्र रचा तथा अल्लाह षड्यंत्र रचने वालों में सबसे अच्छा है।जब अल्लाह ने कहा : ऐ ईसा! मैं तुझे पूर्णतः लेने वाला तथा अपनी ओर उठाने वाला हूँ तथा तुझे काफ़िरों से पवित्र (मुक्त) करने वाला हूँ तथा तेरे अनुयायियों को प्रलय के दिन तक काफ़िरों के ऊपर करने वाला हूँ। फिर तुम्हारा लौटना मेरी ही ओर है। तो मैं तुम्हारे बीच उस विषय में निर्णय कर दूँगा, जिसमें तुम विभेद कर रहे हो।}[सूरा आल-ए-इमरान : 52-55]अल्लाह तआला ने बताया है कि नबी सालिह -अलैहिस्सलाम- को उनकी क़ौम ने मार डालने की योजना बनाई और एक महाषड्यंत्र रचा, तो अल्लाह ने भी उनके विरुद्ध चाल चली और उनकी क़ौम के एक-एक जन को हलाक व बर्बाद कर दिया। अल्लाह कहता है :{उन्होंने कहा : आपस में शपथ लो, अल्लाह की कि हम अवश्य ही रात्रि में छापा मार देंगे सालिह़ तथा उसके परिवार पर, फिर कहेंगे उस (सालिह़) के उत्तराधिकारी से, हम उसके परिवार के विनाश के समय उपस्थित नहीं थे और निस्संदेह हम सत्यवादी (सच्चे) हैं।और उन्होंने एक षड्यंत्र रचा और हमने भी एक उपाय किया और वे समझ नहीं रहे थे।तो देखो, कैसा रहा उनके षड्यंत्र का परिणाम? हमने विनाश कर दिया उनका तथा उनकी पूरी क़ौम का।}[सूरा अन-नम्ल : 49-51]इस्लाम ने चोरी से भी मना किया है। जैसा कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है :"ज़िनाकार जब ज़िना करता है तो वह मोमिन नहीं होता और जब चोरी करता है तो उस समय भी वह मोमिन नहीं होता और जब शराब पीता है तो उस वक्त भी वह मोमिन नहीं होता। हाँ, उसके बाद केवल तौबा का विकल्प ही बचा रहता है।"सहीह अल-बुख़ारी, हदीस संख्या : 6810इस्लाम, फसाद फैलाने से भी मना करता है। अल्लाह तआला कहता है :{अल्लाह तआला न्याय का, भलाई का और रिश्तेदारों के साथ सद्व्यवहार का आदेश देता है तथा अश्लीलता के कार्यों, बुराइयों और अतिक्रमण से रोकता है, अल्लाह स्वंय तुम्हें नसीहत (सदुपदेश) कर रहा है, ताकि तुम नसीहत प्राप्त करो।}[सूरा अन-नह्ल : 90]तथा अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है :"अल्लाह तआला ने मेरी ओर वह़्य की है कि तुम लोग विनम्रता धारण करो, यहाँ तक कि कोई किसी पर अतिक्रमण न करे और न कोई किसी को घमंड दिखाए।"सहीह अबू दाऊद, हदीस संख्या : 4895इस्लाम, अत्याचार करने से भी मना करता है। अल्लाह तआला कहता है :{और अल्लाह, अत्याचार करने वालों को पसंद नहीं करता है।}[सूरा आल-ए-इमरान : 57]एक और स्थान में उसका फ़रमान है :{निस्संदेह, अत्याचार करने वाले कदापि सफल नहीं होते।}[सूरा अल-अनआम : 21]एक और स्थान में उसका फ़रमान है :{और अत्याचार करने वालों के लिए उसने पीड़ादायी यातना तैयार कर रखी है।}[सूरा अल-इंसान : 31]तथा अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है :"तीन प्रकार के लोगों की दुआ व्यर्थ नहीं जाती : न्यायकारी शासक की, रोज़ेदार की यहाँ तक कि रोज़ा तोड़ दे, और पीड़ित की। पीड़ित की दुआ को बादल पर सवार करके ले जाया जाता है, उसके लिए आकाश के द्वार खोले जाते हैं, और प्रभुत्वशाली एवं शान वाला अल्लाह कहता है : मुझे मेरी निष्ठा की सौगंध! मैं तेरी मदद अवश्य करूँगा, चाहे कुछ समय के बाद ही क्यों न करूँ।"इसे मुस्लिम (2749) ने संक्षिप्त रूप में थोड़ी-सी भिन्नता के साथ, तिरमिज़ी (2526) ने भी ज़रा-सी भिन्नता के साथ और अहमद (8043) ने इसी तरह रिवायत किया है। यहाँ पर शब्द, मुसनद अहमद से लिए गए हैं।अल्लाह के रसूल मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने मुआज़ -रज़ियल्लाहु अनहु- को यमन भेजते समय जो उपदेश दिए थे, उनमें से यह भी था :"और तुम पीड़ित की बददुआ से बचना, क्योंकि उसके और अल्लाह के बीच कोई आड़ नहीं है।"सहीह अल-बुख़ारी, हदीस संख्या :1496तथा एक अन्य हदीस में है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है :"सचेत हो जाओ! जिसने किसी मुआहिद (इस्लामी राष्ट्र में रहने वाला गैर- मुस्लिम) पर अत्याचार किया या उसका अपमान किया या उसकी क्षमता से अधिक उसपर भार डाला या उससे उसकी इच्छा के बगैर, उसकी कोई चीज़ ले ली, तो सुन लो कि मैं क़यामत के दिन उस मुआहिद का वकील बनूँगा।"सुनन अबू दाऊद, हदीस संख्या : 3052तो जैसा कि आप देख रहे हैं, इस्लाम हर बुरे आचरण और अत्याचार पर आधारित काम से मना करता है।
{और लोगों के सामने (घमंड से) अपना मुँह ना बिगाड़ो, तथा मत चलो धरती में अकड़ कर। निस्संदेह, अल्लाह प्रेम नहीं करता किसी अहंकारी, गर्व करने वाले से।}
[सूरा लुक़मान : 18]
अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है :
"तुममें से मेरी नज़र में सबसे प्यारा और क़यामत के दिन मेरे सबसे अधिक करीब बैठने का सौभाग्य प्राप्त करने वाला वह व्यक्ति होगा, जो आचरण के ऐतबार से तुममें सबसे अच्छा है, और मेरी नज़र में सबसे अधिक घृणित और क़यामत के दिन मुझसे सबसे अधिक दूर बैठने वाले, बहुत अधिक बकबकाने वाले, अपनी बातों से अहंकार दर्शाने वाले और 'मुतफ़ैहिक़ून' होंगे।" सहाबियों ने कहा : "हम बकबकाने वालों और अपनी बातों से अहंकार दर्शाने वालों को तो समझ गए, परन्तु 'मुतफ़ैहिक़ून' का शब्द समझ में नहीं आया। तो फ़रमाया : "घमंडी एवं अहंकारी।"
अस-सिलसिला अस-सहीहा हदीस संख्या : 791
इस्लाम, झूठ बोलने से भी मना करता है। अल्लाह तआला कहता है :
{बेशक, अल्लाह उस व्यक्ति को सही मार्ग नहीं दिखाता, जो हद से गुज़रने वाला, परले दर्जे का झूठा है।}
[सूरा ग़ाफ़िर : 28]
तथा अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है :
"देखो, झूठ बोलने से बचो, क्योंकि झूठ पाप का और पाप जहन्नम का मार्गदर्शन करता है। एक इंसान, झूठ बोलता रहता है और झूठ ही ढूँढता रहता है, यहाँ तक कि अल्लाह के पास उसे झूठा लिख लिया जाता है।"
सहीह मुस्लिम, हदीस संख्या : 2607
एक अन्य हदीस में है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया :
"मुनाफ़िक़ की तीन निशानियाँ हैं : जब बोलता है तो झूठ ही बोलता है, वादा करता है तो उसे पूरा नहीं करता और जब उसके पास अमानत रखी जाती है तो उसमें ख़यानत करता है।"
सहीह अल-बुख़ारी, हदीस संख्या : 6095
इस्लाम धोखाधड़ी से भी मना करता है।
एक हदीस में आया है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने अनाज के एक ढेर के पास से गुज़रते हुए, उसमें अपना हाथ डालकर देखा, तो आपकी उँगलियों ने उसे भीगा हुआ पाया। अतः आपने फ़रमाया : "ऐ अनाज के मालिक! यह क्या है?" उसने कहा : ऐ अल्लाह के रसूल! उसपर बारिश का पानी पड़ गया था। तो आप -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया : "तुमने उसे ऊपर क्यों नहीं कर दिया, ताकि लोग देख लें। देखो, जो धोखा दे, वह हममें से नहीं है।"
सहीह मुस्लिम, हदीस संख्या : 102
इस्लाम, धोखेबाज़ी, छल और फ़रेब से मना करता है। अल्लाह का फ़रमान है :
{ऐ ईमान वालो! अल्लाह तथा उसके रसूल के साथ विश्वासघात न करो और न अपनी अमानतों में विश्वासघात करो, जानते हुए।}
[सूरा अल-अनफ़ाल : 27]
एक और स्थान में उसका फ़रमान है :
{जो अल्लाह से किया वचन पूरा करते हैं और वचन भंग नहीं करते।}
[सूरा अर-रअद : 20]
तथा अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- अपने सैन्य बलों को विदा करते समय कहा करते थे :
"जंग करना और विश्वासघात मत करना, न धोखा देना, न शरीर का अंग काटना और ना किसी बच्चे की हत्या करना।"
सहीह मुस्लिम, हदीस संख्या : 1731
इसी तरह अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है :
"चार बातें जिसके अंदर पाई जाएँ, वह पक्का मुनाफ़िक़ है, और यदि किसी में उनमें से एक आदत पाई गई, तो मानो, उसमें मुनाफ़िक़ होने की एक निशानी मौजूद है, यहाँ तक कि उसे छोड़ दे : जब उसके पास अमानत रखी जाए तो उसमें ख़यानत करे, बात करे तो झूठ बोले, वादा करके पूरा न करे और जब किसी से झगड़े तो गंदी गालियाँ बके।"
सहीह अल-बुख़ारी, हदीस संख्या : 34
इस्लाम, ईर्ष्या से भी मना करता है। अल्लाह तआला कहता है :
{बल्कि वे लोगों से उस अनुग्रह पर विद्वेष कर रहे हैं, जो अल्लाह ने उन्हें प्रदान किया है। तो हमने (पहले भी) इबराहीम के घराने को पुस्तक तथा ह़िकमत (तत्वदर्शिता) दी है, और उन्हें विशाल राज्य प्रदान किया है।}
[सूरा अन-निसा : 54]
एक और जगह वह कहता है :
{किताब वालों (यहूदियों एवं ईसाइयों) में से बहुत-से चाहते हैं कि तुम्हारे ईमान लाने के पश्चात् अपने द्वेष के कारण तुम्हें कुफ़्र की ओर फेर दें, जबकि सत्य उनके लिए उजागर हो गया है। फिर भी तुम क्षमा से काम लो और जाने दो, यहाँ तक कि अल्लाह अपना निर्णय कर दे। निश्चय ही, अल्लाह जो चाहे, कर सकता है।}
[सूरा अल-बक़रा : 109]
तथा अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है :
"तुम्हारे अंदर पहले की उम्मतों की कई बीमारियाँ घुस आई हैं : ईर्ष्या तथा घृणा तो मूँडने वाली चीज़ है। मैं यह नहीं कहता कि बालों को मूँडने वाली चीज़ है, अपितु यह तो धर्म को मूँडने वाली चीज़ है। क़सम है उस ज़ात की जिसके हाथ में मेरे प्राण हैं! तुम लोग जन्नत में प्रवेश नहीं कर सकोगे, यहाँ तक कि मोमिन बन जाओ और मोमिन भी नहीं बन सकते, यहाँ तक कि एक-दूसरे से प्रेम करने लगो। और क्या मैं तुम्हें सूचित न कर दूँ कि यह सब तुम्हारे लिए संभव कैसे होगा? सुनो, तुम लोग आपस में सलाम फैलाओ।"
सुनन अत-तिरमिज़ी, हदीस संख्या : 2510
इस्लाम, षड्यंत्र रचने से भी मना करता है। अल्लाह तआला कहता है :
{और इसी प्रकार, हमने प्रत्येक बस्ती में उसके कुख्यात अपराधियों को लगा दिया, ताकि उसमें षड्यंत्र रचें तथा वे अपने ही विरुद्ध षड्यंत्र रचते हैं, परन्तु समझते नहीं हैं।}
[सूरा अल-अनआम : 123]
अल्लाह तआला ने सूचना दी है कि यहूदियों ने ईसा मसीह -अलैहिस्सलाम- की हत्या करने का प्रयास किया और उनके खिलाफ़ षड्यंत्र रचा था, परन्तु अल्लाह तआला ने उनके विरुद्ध चाल चली और स्पष्ट कर दिया कि षड्यंत्र का दुष्परिणाम स्वयं षड्यंत्रकारियों को ही भुगतना पड़ता है। अल्लाह तआला का फ़रमान है :
{तथा जब ईसा ने उनसे कुफ़्र का संवेदन किया तो कहा : अल्लाह के धर्म की सहायता में कौन मेरा साथ देगा? तो ह़वारियों (सहचरों) ने कहा : हम अल्लाह के सहायक हैं। हम अल्लाह पर ईमान लाए, तुम इसके साक्षी रहो कि हम मुस्लिम (आज्ञाकारी) हैं।
ऐ हमारे पालनहार! जो कुछ तूने उतारा है, हम उसपर ईमान लाए तथा तेरे रसूल का अनुसरण किया। अतः, हमें भी साक्षियों में अंकित कर ले।
तथा उन्होंने षड्यंत्र रचा और हमने भी षड्यंत्र रचा तथा अल्लाह षड्यंत्र रचने वालों में सबसे अच्छा है।
जब अल्लाह ने कहा : ऐ ईसा! मैं तुझे पूर्णतः लेने वाला तथा अपनी ओर उठाने वाला हूँ तथा तुझे काफ़िरों से पवित्र (मुक्त) करने वाला हूँ तथा तेरे अनुयायियों को प्रलय के दिन तक काफ़िरों के ऊपर करने वाला हूँ। फिर तुम्हारा लौटना मेरी ही ओर है। तो मैं तुम्हारे बीच उस विषय में निर्णय कर दूँगा, जिसमें तुम विभेद कर रहे हो।}
[सूरा आल-ए-इमरान : 52-55]
अल्लाह तआला ने बताया है कि नबी सालिह -अलैहिस्सलाम- को उनकी क़ौम ने मार डालने की योजना बनाई और एक महाषड्यंत्र रचा, तो अल्लाह ने भी उनके विरुद्ध चाल चली और उनकी क़ौम के एक-एक जन को हलाक व बर्बाद कर दिया। अल्लाह कहता है :
{उन्होंने कहा : आपस में शपथ लो, अल्लाह की कि हम अवश्य ही रात्रि में छापा मार देंगे सालिह़ तथा उसके परिवार पर, फिर कहेंगे उस (सालिह़) के उत्तराधिकारी से, हम उसके परिवार के विनाश के समय उपस्थित नहीं थे और निस्संदेह हम सत्यवादी (सच्चे) हैं।
और उन्होंने एक षड्यंत्र रचा और हमने भी एक उपाय किया और वे समझ नहीं रहे थे।
तो देखो, कैसा रहा उनके षड्यंत्र का परिणाम? हमने विनाश कर दिया उनका तथा उनकी पूरी क़ौम का।}
[सूरा अन-नम्ल : 49-51]
इस्लाम ने चोरी से भी मना किया है। जैसा कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है :
"ज़िनाकार जब ज़िना करता है तो वह मोमिन नहीं होता और जब चोरी करता है तो उस समय भी वह मोमिन नहीं होता और जब शराब पीता है तो उस वक्त भी वह मोमिन नहीं होता। हाँ, उसके बाद केवल तौबा का विकल्प ही बचा रहता है।"
सहीह अल-बुख़ारी, हदीस संख्या : 6810
इस्लाम, फसाद फैलाने से भी मना करता है। अल्लाह तआला कहता है :
{अल्लाह तआला न्याय का, भलाई का और रिश्तेदारों के साथ सद्व्यवहार का आदेश देता है तथा अश्लीलता के कार्यों, बुराइयों और अतिक्रमण से रोकता है, अल्लाह स्वंय तुम्हें नसीहत (सदुपदेश) कर रहा है, ताकि तुम नसीहत प्राप्त करो।}
[सूरा अन-नह्ल : 90]
तथा अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है :
"अल्लाह तआला ने मेरी ओर वह़्य की है कि तुम लोग विनम्रता धारण करो, यहाँ तक कि कोई किसी पर अतिक्रमण न करे और न कोई किसी को घमंड दिखाए।"
सहीह अबू दाऊद, हदीस संख्या : 4895
इस्लाम, अत्याचार करने से भी मना करता है। अल्लाह तआला कहता है :
{और अल्लाह, अत्याचार करने वालों को पसंद नहीं करता है।}
[सूरा आल-ए-इमरान : 57]
एक और स्थान में उसका फ़रमान है :
{निस्संदेह, अत्याचार करने वाले कदापि सफल नहीं होते।}
[सूरा अल-अनआम : 21]
एक और स्थान में उसका फ़रमान है :
{और अत्याचार करने वालों के लिए उसने पीड़ादायी यातना तैयार कर रखी है।}
[सूरा अल-इंसान : 31]
तथा अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है :
"तीन प्रकार के लोगों की दुआ व्यर्थ नहीं जाती : न्यायकारी शासक की, रोज़ेदार की यहाँ तक कि रोज़ा तोड़ दे, और पीड़ित की। पीड़ित की दुआ को बादल पर सवार करके ले जाया जाता है, उसके लिए आकाश के द्वार खोले जाते हैं, और प्रभुत्वशाली एवं शान वाला अल्लाह कहता है : मुझे मेरी निष्ठा की सौगंध! मैं तेरी मदद अवश्य करूँगा, चाहे कुछ समय के बाद ही क्यों न करूँ।"
इसे मुस्लिम (2749) ने संक्षिप्त रूप में थोड़ी-सी भिन्नता के साथ, तिरमिज़ी (2526) ने भी ज़रा-सी भिन्नता के साथ और अहमद (8043) ने इसी तरह रिवायत किया है। यहाँ पर शब्द, मुसनद अहमद से लिए गए हैं।
अल्लाह के रसूल मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने मुआज़ -रज़ियल्लाहु अनहु- को यमन भेजते समय जो उपदेश दिए थे, उनमें से यह भी था :
"और तुम पीड़ित की बददुआ से बचना, क्योंकि उसके और अल्लाह के बीच कोई आड़ नहीं है।"
सहीह अल-बुख़ारी, हदीस संख्या :1496
तथा एक अन्य हदीस में है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है :
"सचेत हो जाओ! जिसने किसी मुआहिद (इस्लामी राष्ट्र में रहने वाला गैर- मुस्लिम) पर अत्याचार किया या उसका अपमान किया या उसकी क्षमता से अधिक उसपर भार डाला या उससे उसकी इच्छा के बगैर, उसकी कोई चीज़ ले ली, तो सुन लो कि मैं क़यामत के दिन उस मुआहिद का वकील बनूँगा।"
सुनन अबू दाऊद, हदीस संख्या : 3052
तो जैसा कि आप देख रहे हैं, इस्लाम हर बुरे आचरण और अत्याचार पर आधारित काम से मना करता है।
36- इस्लाम धर्म, उन सभी माली मामलात से मना करता है जो सूद, हानिकारिता, धोखाधड़ी, अत्याचार और गबन पर आधारित हों या फिर सामाजों, खानदानों और लोगों को व्यक्तिगत रूप से तबाही और हानि की ओर ले जाते हों।
इस्लाम धर्म, उन सभी माली मामलात से मना करता है जो सूद, हानिकारिता, धोखाधड़ी, अत्याचार और गबन पर आधारित हों या फिर सामाजों, खानदानों और लोगों को व्यक्तिगत रूप से तबाही और हानि की ओर ले जाते हों।इस पारा के आरंभ में उन आयतों और हदीसों का उल्लेख किया जा चुका है जो सूद, अत्याचार, धोखाधड़ी या धरती पर फसाद फैलाने को हराम क़रार देती हैं। अल्लाह का फ़रमान है :{और जो ईमान वालों तथा ईमान वालियों को बिना किसी दोष के दुःख देते हैं, तो उन्होंने लाद लिया अपने आपपर आरोप तथा खुले पाप को।}[सूरा अल-अहज़ाब : 58]एक अन्य स्थान पर अल्लाह तआला का फ़रमान है :{जो सदाचार करेगा, तो वह अपने ही लाभ के लिए करेगा और जो दुराचार करेगा, तो उसका दुष्परिणाम उसीपर होगा और आपका पालनहार तनिक भी अत्याचार करने वाला नहीं है बंदों पर।}[सूरा फ़ुस्सिलत : 46]जबकि हदीस में आया है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने यह निर्णय कर दिया है कि न खुद नुकसान उठाना है और ना ही किसी को नुकसान पहुँचाना है।सुनन अबू दाऊद।तथा अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है :"जो अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखता है, वह अपने पड़ोसी को कष्ट न पहुँचाए, जो अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखता है, वह अपने अतिथि का आदर-सत्कार करे और जो अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखता है, वह भली बात कहे अन्यथा चुप रहे।" एक और रिवायत में है : "तो अपने पड़ोसी से अच्छा व्यवहार करे।"सहीह मुस्लिम, हदीस संख्या : 47इसी तरह अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है :"एक स्त्री को एक बिल्ली के कारण यातना दी गई, जिसे उसने बाँधकर रखा था, यहाँ तक कि वह मर गई। अतः वह उसके कारण जहन्नम में गई। जब उसने उसे बाँधकर रखा, तो न कुछ खाने को दिया, न पीने को दिया और न ही आज़ाद छोड़ा कि वह स्वयं धरती के कीड़े-मकोड़े खा लेती।"सहीह अल-बुख़ारी, हदीस संख्या : 3482यह तो उसकी बात है जिसने एक बिल्ली को कष्ट पहुँचाया था। अब ज़रा सोचिए कि जो इंसान को कष्ट देता है, उसके साथ क्या होगा?! अब्दुल्लाह बिन उमर -रज़ियल्लाहु अनहुमा- कहते हैं कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- मिंबर पर विराजे और बहुत ऊँची आवाज़ में पुकारकर फ़रमाया :"ऐ उन लोगों के समुदाय जिन्होंने केवल ज़ुबान से इस्लाम क़बूल किया और ईमान अब तक जिनके दिल में गहरी पैठ नहीं बना सका है! मुसलमानों को कष्ट न दो, उन्हें लज्जित मत करो और न उनके अवगुणों की टोह लो, क्योंकि जो भी उनके अवगुणों की टोह लेगा, अल्लाह उसके अवगुणों की टोह लेगा और जिसके अवगुणों की टोह अल्लाह लेने लगा तो यदि वह अपने सवारी के जानवर के पेट के भीतर ही क्यों न घुस जाए, उसे लज्जित करके छोड़ेगा।" वर्णनकर्ता कहते हैं कि एक दिन अब्दुल्लाह बिन उमर -रज़ियल्लाहु अनहुमा- ने अल्लाह के घर या कहा कि काबे की ओर देखा और कहने लगे : तेरे क्या कहने और तेरी शान और वैभव के भी क्या कहने! परन्तु सच्चाई यह है कि मोमिन की शान अल्लाह के नज़दीक तुझसे कहीं अधिक है।इसे तिरमिज़ी (2032) और इब्ने हिब्बान (5763) ने रिवायत किया है।एक और हदीस में है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया :"जो अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखता है, वह अपने पड़ोसी को कष्ट न पहुँचाए, जो अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखता है, वह अपने अतिथि का आदर-सत्कार करे और जो अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखता है, वह भली बात कहे अन्यथा चुप रहे। एक और रिवायत में है : तो अपने पड़ोसी से अच्छा व्यवहार करे।"सहीह अल-बुख़ारी, हदीस संख्या : 6018इसी तरह अबू हुरैरा -ज़ियल्लाहु अनहु- रिवायत करते हैं कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया : "क्या तुम जानते हो कि निर्धन कौन है?" सहाबा ने कहा : हमारे यहाँ निर्धन वह है, जिसके पास न दिरहम हो न कोई सामान। आपने कहा : "मेरी उम्मत का निर्धन व्यक्ति वह है, जो क़यामत के दिन नमाज़, रोज़ा और ज़कात के साथ आएगा, लेकिन इस अवस्था में उपस्थित होगा कि किसी को गाली दी होगी, किसी पर दुष्कर्म का आरोप लगाया होगा, किसी का रक्त बहाया होगा और किसी को मारा होगा। अतः, उसकी कुछ नेकियाँ इसे दे दी जाएँगी और कुछ नेकियाँ उसे दे दी जाएँगी। फिर यदि उसके ऊपर लोगों के अधिकार शेष रह गए, और उनके भुगतान से पहले ही उसकी नेकियाँ समाप्त हो गईं, तो हक़ वालों के गुनाह लेकर उसके ऊपर डाल दिए जाएँगे और फिर उसे आग में फेंक दिया जाएगा।"इसे मुस्लिम (2581), तिरमिज़ी (2418) और अहमद (8029) ने रिवायत किया है। यहाँ पर शब्द, मुसनद अहमद से लिए गए हैं।अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने एक और हदीस में कहा है :"एक रास्ते पर पेड़ की एक डाली पड़ी थी, जिससे लोगों को कष्ट हो रहा था। एक आदमी ने उसे रास्ते से हटा दिया, तो उसे जन्नत में दाखिल कर दिया गया।"इसे बुख़ारी (652) ने इसी मायने में, मुस्लिम (1914) ने इसी तरह से, तथा इब्ने माजा (3682) और अहमद (10432) ने रिवायत किया है। यहाँ पर शब्द इब्ने माजा और अहमद के हैं। इससे मालूम हुआ कि रास्ते से कष्टदायक वस्तु को हटा देना, जन्नत में प्रवेश करने का साधन बन सकता है। तो अब तनिक सोचिए कि जो लोगों को कष्ट देता और उनका जीवन बिगाड़ देता है, उसके साथ अल्लाह कैसा व्यवहार कर सकता है?
इस पारा के आरंभ में उन आयतों और हदीसों का उल्लेख किया जा चुका है जो सूद, अत्याचार, धोखाधड़ी या धरती पर फसाद फैलाने को हराम क़रार देती हैं। अल्लाह का फ़रमान है :
{और जो ईमान वालों तथा ईमान वालियों को बिना किसी दोष के दुःख देते हैं, तो उन्होंने लाद लिया अपने आपपर आरोप तथा खुले पाप को।}
[सूरा अल-अहज़ाब : 58]
एक अन्य स्थान पर अल्लाह तआला का फ़रमान है :
{जो सदाचार करेगा, तो वह अपने ही लाभ के लिए करेगा और जो दुराचार करेगा, तो उसका दुष्परिणाम उसीपर होगा और आपका पालनहार तनिक भी अत्याचार करने वाला नहीं है बंदों पर।}
[सूरा फ़ुस्सिलत : 46]
जबकि हदीस में आया है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने यह निर्णय कर दिया है कि न खुद नुकसान उठाना है और ना ही किसी को नुकसान पहुँचाना है।
सुनन अबू दाऊद।
तथा अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है :
"जो अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखता है, वह अपने पड़ोसी को कष्ट न पहुँचाए, जो अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखता है, वह अपने अतिथि का आदर-सत्कार करे और जो अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखता है, वह भली बात कहे अन्यथा चुप रहे।" एक और रिवायत में है : "तो अपने पड़ोसी से अच्छा व्यवहार करे।"
सहीह मुस्लिम, हदीस संख्या : 47
इसी तरह अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है :
"एक स्त्री को एक बिल्ली के कारण यातना दी गई, जिसे उसने बाँधकर रखा था, यहाँ तक कि वह मर गई। अतः वह उसके कारण जहन्नम में गई। जब उसने उसे बाँधकर रखा, तो न कुछ खाने को दिया, न पीने को दिया और न ही आज़ाद छोड़ा कि वह स्वयं धरती के कीड़े-मकोड़े खा लेती।"
सहीह अल-बुख़ारी, हदीस संख्या : 3482
यह तो उसकी बात है जिसने एक बिल्ली को कष्ट पहुँचाया था। अब ज़रा सोचिए कि जो इंसान को कष्ट देता है, उसके साथ क्या होगा?! अब्दुल्लाह बिन उमर -रज़ियल्लाहु अनहुमा- कहते हैं कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- मिंबर पर विराजे और बहुत ऊँची आवाज़ में पुकारकर फ़रमाया :
"ऐ उन लोगों के समुदाय जिन्होंने केवल ज़ुबान से इस्लाम क़बूल किया और ईमान अब तक जिनके दिल में गहरी पैठ नहीं बना सका है! मुसलमानों को कष्ट न दो, उन्हें लज्जित मत करो और न उनके अवगुणों की टोह लो, क्योंकि जो भी उनके अवगुणों की टोह लेगा, अल्लाह उसके अवगुणों की टोह लेगा और जिसके अवगुणों की टोह अल्लाह लेने लगा तो यदि वह अपने सवारी के जानवर के पेट के भीतर ही क्यों न घुस जाए, उसे लज्जित करके छोड़ेगा।" वर्णनकर्ता कहते हैं कि एक दिन अब्दुल्लाह बिन उमर -रज़ियल्लाहु अनहुमा- ने अल्लाह के घर या कहा कि काबे की ओर देखा और कहने लगे : तेरे क्या कहने और तेरी शान और वैभव के भी क्या कहने! परन्तु सच्चाई यह है कि मोमिन की शान अल्लाह के नज़दीक तुझसे कहीं अधिक है।
इसे तिरमिज़ी (2032) और इब्ने हिब्बान (5763) ने रिवायत किया है।
एक और हदीस में है कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया :
"जो अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखता है, वह अपने पड़ोसी को कष्ट न पहुँचाए, जो अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखता है, वह अपने अतिथि का आदर-सत्कार करे और जो अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखता है, वह भली बात कहे अन्यथा चुप रहे। एक और रिवायत में है : तो अपने पड़ोसी से अच्छा व्यवहार करे।"
सहीह अल-बुख़ारी, हदीस संख्या : 6018
इसी तरह अबू हुरैरा -ज़ियल्लाहु अनहु- रिवायत करते हैं कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया : "क्या तुम जानते हो कि निर्धन कौन है?" सहाबा ने कहा : हमारे यहाँ निर्धन वह है, जिसके पास न दिरहम हो न कोई सामान। आपने कहा : "मेरी उम्मत का निर्धन व्यक्ति वह है, जो क़यामत के दिन नमाज़, रोज़ा और ज़कात के साथ आएगा, लेकिन इस अवस्था में उपस्थित होगा कि किसी को गाली दी होगी, किसी पर दुष्कर्म का आरोप लगाया होगा, किसी का रक्त बहाया होगा और किसी को मारा होगा। अतः, उसकी कुछ नेकियाँ इसे दे दी जाएँगी और कुछ नेकियाँ उसे दे दी जाएँगी। फिर यदि उसके ऊपर लोगों के अधिकार शेष रह गए, और उनके भुगतान से पहले ही उसकी नेकियाँ समाप्त हो गईं, तो हक़ वालों के गुनाह लेकर उसके ऊपर डाल दिए जाएँगे और फिर उसे आग में फेंक दिया जाएगा।"
इसे मुस्लिम (2581), तिरमिज़ी (2418) और अहमद (8029) ने रिवायत किया है। यहाँ पर शब्द, मुसनद अहमद से लिए गए हैं।
अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने एक और हदीस में कहा है :
"एक रास्ते पर पेड़ की एक डाली पड़ी थी, जिससे लोगों को कष्ट हो रहा था। एक आदमी ने उसे रास्ते से हटा दिया, तो उसे जन्नत में दाखिल कर दिया गया।"
इसे बुख़ारी (652) ने इसी मायने में, मुस्लिम (1914) ने इसी तरह से, तथा इब्ने माजा (3682) और अहमद (10432) ने रिवायत किया है। यहाँ पर शब्द इब्ने माजा और अहमद के हैं। इससे मालूम हुआ कि रास्ते से कष्टदायक वस्तु को हटा देना, जन्नत में प्रवेश करने का साधन बन सकता है। तो अब तनिक सोचिए कि जो लोगों को कष्ट देता और उनका जीवन बिगाड़ देता है, उसके साथ अल्लाह कैसा व्यवहार कर सकता है?
37- इस्लाम धर्म, विवेक और सद्बुद्धि की सुरक्षा तथा मदिरा-पान आदि हर उस चीज़ पर मनाही की मुहर लगाने हेतु आया है, जो उसे बिगाड़ सकती है। इस्लाम धर्म ने विवेक की शान को ऊँचा उठाया है और उसे ही धार्मिक विधानों पर अमल करने की धुरी क़रार देते हुए, उसे ख़ुराफ़ात और अंधविश्वासों से आज़ाद किया है। इस्लाम में ऐसे रहस्य और विधि-विधान हैं ही नहीं, जो किसी खास तबके के साथ खास हों। उसके सारे विधि-विधान और नियम-क़ानून इंसानी विवेक से मेल खाते तथा न्याय एवं हिकमत के अनुसार हैं।
इस्लाम, इंसानी विवेक की सुरक्षा और उसकी शान को ऊँचा उठाने के लिए आया है। अल्लाह तआला कहता है :{बेशक कान, आँख और दिल, हर चीज़ के बारे में उनसे पूछा जाएगा।}[सूरा अल-इसरा : 36]इसलिए, इंसान पर अनिवार्य है कि वह अपने विवेक की रक्षा करे। यही कारण है कि मदिरा और दूसरी सभी ड्रग्स को इस्लाम धर्म ने हराम घोषित किया है। मैंने पारा संख्या 34 में मदिरा के हराम होने की चर्चा की है। और क़ुरआन की बहुत सारी आयतों का उल्लेख किया है, जो अल्लाह के इस कथन पर समाप्त होती हैं :{ताकि तुम समझ सको।}[सूरा अल-बक़रा : 242]तथा अल्लाह तआला का फ़रमान है :{तथा सांसारिक जीवन एक खेल और मनोरंजन भर है, तथा परलोक का घर ही उत्तम है, उनके लिए जो अल्लाह से डरते हों, तो क्या तुम समझते नहीं हो?}[सूरा अल-अनआम : 32]एक अन्य स्थान पर अल्लाह तआला का फ़रमान है :{हमने इस क़ुरआन को अरबी में उतारा है, ताकि तुम समझो।}[सूरा यूसुफ़ : 2]अल्लाह तआला ने स्पष्ट कर दिया है कि मार्गदर्शन और अंतर्ज्ञान से विवेक और समझ वाले ही लाभांवित हो सकते हैं। अल्लाह का फ़रमान है :{वह जिसे चाहे, प्रबोध (धर्म की समझ) प्रदान करता है और जिसे प्रबोध प्रदान कर दिया गया, उसे बहुत सारी भलाइयाँ मिल गईं और समझ वाले ही शिक्षा ग्रहण करते हैं।}[सूरा अल-बक़रा : 269]इसलिए, इस्लाम ने शरीयत पर अमल करने का मापदंड विवेक ही को निर्धारित किया है, जैसा कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है :"तीन प्रकार के लोगों से क़लम उठा ली गई है; सोए हुए व्यक्ति से, जब तक जाग न जाए, बच्चे से, जब तक वयस्क न हो जाए और पागल से, जब तक उसकी चेतना एवं विवेक लौट न आए।"बुख़ारी ने इसे हदीस संख्या (5269) से पहले तालीक़न इसी तरह रिवायत किया है, जबकि अबू दाऊद (4402) ने मौसूलन, तिरमिज़ी ने सुनन (1423) में, नसई ने सुनन अल- कुबरा (7346) में, अहमद (956) ने थोड़ी सी भिन्नता के साथ और इब्ने माजा (2042) ने संक्षिप्त रूप से रिवायत किया है। यहाँ पर शब्द अबू दाऊद के हैं।इस्लाम ने विवेक और समझ को अंधविश्वास और अंधभक्ति की बेड़ियों से आज़ाद किया है। अल्लाह तआला ने उन समुदायों के बारे में सूचना देते हुए जो अपनी अंधभक्ति को मज़बूती से पकड़े हुए थे और अल्लाह तआला की तरफ से आने वाले हक़ एवं सत्य को झटक दिया था, फ़रमाया है :{तथा (ऐ नबी!) इसी प्रकार, हमने नहीं भेजा आपसे पूर्व किसी बस्ती में कोई सावधान करने वाला, परन्तु कहा उसके सुखी लोगों ने : हमने पाया है अपने पूर्वजों को एक रीति पर और हम निश्चय ही उन्हीं के पद-चिह्नों पर चल रहे हैं।}[सूरा अज़-ज़ुख़रुफ़ : 23]अल्लाह तआला ने अपने नबी इबराहीम -अलैहिस्सलाम- के बारे में सूचना देते हुए फ़रमाया है कि उन्होंने अपनी क़ौम से कहा था :{यह छवियाँ कैसी हैं, जिनके आस-पास तुम धौनी रमाए बैठे रहते हो?उन्होंने कहा : हमने पाया है अपने पूर्वजों को इनकी पूजा करते हुए।}[सूरा अल-अंबिया : 52-53]फिर इस्लाम आया और उसने लोगों को बुतों की इबादत करने, बाप-दादाओं से चले आ रहे भ्रमपूर्ण रीति-रिवाजों से मुक्ति पाने और रसूलों -अलैहिमुस्सलाम- के मार्ग का अनुसरण करने का आदेश दिया।इस्लाम में ऐसे रहस्यों और विधि-विधानों का कोई अस्तित्व नहीं है, जो समुदाय के किसी विशेष वर्ग के साथ खास हों।अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के चचेरे भाई और दामाद, अली बिन अबू तालिब -रज़ियल्लाहु अनहु- से पूछा गया : क्या अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने किसी चीज़ के साथ आप लोगों को खास किया था? उन्होंने कहा : हमें अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने ऐसी किसी चीज़ के साथ खास नहीं किया जिसे तमाम लोगों के लिए आम न किया हो, सिवाए इस चीज़ के जो मेरी तलवार के इस कवच के अंदर है। वर्णनकर्ता कहते हैं कि फिर उन्होंने उसके अंदर से एक सह़ीफ़ा निकाला जिसमें लिखा था : "उसपर अल्लाह की लानत हो जिसने अल्लाह के अतिरिक्त किसी और के नाम पर जानवर ज़बह किया, उसपर अल्लाह की लानत हो जिसने ज़मीन की निशानी चुराई, उसपर अल्लाह की लानत हो जिसने अपने पिता पर लानत भेजी और उसपर भी अल्लाह की लानत हो जिसने किसी बिदअती (धर्म के नाम पर नई रीति-रिवाज पैदा करने वाले) को शरण दी।"सहीह मुस्लिम, हदीस संख्या : 1978इस्लाम के समस्त विधि-विधान सही विवेक और समझ के बिल्कुल अनुसार और न्याय तथा हिकमत के पूर्णतया मुताबिक हैं।
{बेशक कान, आँख और दिल, हर चीज़ के बारे में उनसे पूछा जाएगा।}
[सूरा अल-इसरा : 36]
इसलिए, इंसान पर अनिवार्य है कि वह अपने विवेक की रक्षा करे। यही कारण है कि मदिरा और दूसरी सभी ड्रग्स को इस्लाम धर्म ने हराम घोषित किया है। मैंने पारा संख्या 34 में मदिरा के हराम होने की चर्चा की है। और क़ुरआन की बहुत सारी आयतों का उल्लेख किया है, जो अल्लाह के इस कथन पर समाप्त होती हैं :
{ताकि तुम समझ सको।}
[सूरा अल-बक़रा : 242]
तथा अल्लाह तआला का फ़रमान है :
{तथा सांसारिक जीवन एक खेल और मनोरंजन भर है, तथा परलोक का घर ही उत्तम है, उनके लिए जो अल्लाह से डरते हों, तो क्या तुम समझते नहीं हो?}
[सूरा अल-अनआम : 32]
एक अन्य स्थान पर अल्लाह तआला का फ़रमान है :
{हमने इस क़ुरआन को अरबी में उतारा है, ताकि तुम समझो।}
[सूरा यूसुफ़ : 2]
अल्लाह तआला ने स्पष्ट कर दिया है कि मार्गदर्शन और अंतर्ज्ञान से विवेक और समझ वाले ही लाभांवित हो सकते हैं। अल्लाह का फ़रमान है :
{वह जिसे चाहे, प्रबोध (धर्म की समझ) प्रदान करता है और जिसे प्रबोध प्रदान कर दिया गया, उसे बहुत सारी भलाइयाँ मिल गईं और समझ वाले ही शिक्षा ग्रहण करते हैं।}
[सूरा अल-बक़रा : 269]
इसलिए, इस्लाम ने शरीयत पर अमल करने का मापदंड विवेक ही को निर्धारित किया है, जैसा कि अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है :
"तीन प्रकार के लोगों से क़लम उठा ली गई है; सोए हुए व्यक्ति से, जब तक जाग न जाए, बच्चे से, जब तक वयस्क न हो जाए और पागल से, जब तक उसकी चेतना एवं विवेक लौट न आए।"
बुख़ारी ने इसे हदीस संख्या (5269) से पहले तालीक़न इसी तरह रिवायत किया है, जबकि अबू दाऊद (4402) ने मौसूलन, तिरमिज़ी ने सुनन (1423) में, नसई ने सुनन अल- कुबरा (7346) में, अहमद (956) ने थोड़ी सी भिन्नता के साथ और इब्ने माजा (2042) ने संक्षिप्त रूप से रिवायत किया है। यहाँ पर शब्द अबू दाऊद के हैं।
इस्लाम ने विवेक और समझ को अंधविश्वास और अंधभक्ति की बेड़ियों से आज़ाद किया है। अल्लाह तआला ने उन समुदायों के बारे में सूचना देते हुए जो अपनी अंधभक्ति को मज़बूती से पकड़े हुए थे और अल्लाह तआला की तरफ से आने वाले हक़ एवं सत्य को झटक दिया था, फ़रमाया है :
{तथा (ऐ नबी!) इसी प्रकार, हमने नहीं भेजा आपसे पूर्व किसी बस्ती में कोई सावधान करने वाला, परन्तु कहा उसके सुखी लोगों ने : हमने पाया है अपने पूर्वजों को एक रीति पर और हम निश्चय ही उन्हीं के पद-चिह्नों पर चल रहे हैं।}
[सूरा अज़-ज़ुख़रुफ़ : 23]
अल्लाह तआला ने अपने नबी इबराहीम -अलैहिस्सलाम- के बारे में सूचना देते हुए फ़रमाया है कि उन्होंने अपनी क़ौम से कहा था :
{यह छवियाँ कैसी हैं, जिनके आस-पास तुम धौनी रमाए बैठे रहते हो?
उन्होंने कहा : हमने पाया है अपने पूर्वजों को इनकी पूजा करते हुए।}
[सूरा अल-अंबिया : 52-53]
फिर इस्लाम आया और उसने लोगों को बुतों की इबादत करने, बाप-दादाओं से चले आ रहे भ्रमपूर्ण रीति-रिवाजों से मुक्ति पाने और रसूलों -अलैहिमुस्सलाम- के मार्ग का अनुसरण करने का आदेश दिया।
इस्लाम में ऐसे रहस्यों और विधि-विधानों का कोई अस्तित्व नहीं है, जो समुदाय के किसी विशेष वर्ग के साथ खास हों।
अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के चचेरे भाई और दामाद, अली बिन अबू तालिब -रज़ियल्लाहु अनहु- से पूछा गया : क्या अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने किसी चीज़ के साथ आप लोगों को खास किया था? उन्होंने कहा : हमें अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने ऐसी किसी चीज़ के साथ खास नहीं किया जिसे तमाम लोगों के लिए आम न किया हो, सिवाए इस चीज़ के जो मेरी तलवार के इस कवच के अंदर है। वर्णनकर्ता कहते हैं कि फिर उन्होंने उसके अंदर से एक सह़ीफ़ा निकाला जिसमें लिखा था : "उसपर अल्लाह की लानत हो जिसने अल्लाह के अतिरिक्त किसी और के नाम पर जानवर ज़बह किया, उसपर अल्लाह की लानत हो जिसने ज़मीन की निशानी चुराई, उसपर अल्लाह की लानत हो जिसने अपने पिता पर लानत भेजी और उसपर भी अल्लाह की लानत हो जिसने किसी बिदअती (धर्म के नाम पर नई रीति-रिवाज पैदा करने वाले) को शरण दी।"
सहीह मुस्लिम, हदीस संख्या : 1978
इस्लाम के समस्त विधि-विधान सही विवेक और समझ के बिल्कुल अनुसार और न्याय तथा हिकमत के पूर्णतया मुताबिक हैं।
38- यदि असत्य धर्मों के अनुयायी अपने-अपने धर्म और धारणा में पाए जाने वाले अंतर्विरोध और उन चीज़ों की पूरी जानकारी प्राप्त नहीं करेंगे, जिनको इंसानी विवेक सिरे से नकारता है, तो उनके धर्म-गुरू उन्हें इस भ्रम में डाल देंगे कि धर्म, विवेक से परे है और विवेक के अंदर इतनी क्षमता नहीं है कि वह धर्म को पूरी तरह से समझ सके। दूसरी तरफ़, इस्लाम धर्म अपने विधानों को एक ऐसा प्रकाश मानता है, जो विवेक को उसका सटीक रास्ता दिखाता है। वास्तविकता यह है कि असत्य धर्मों के गुरूजन चाहते हैं कि इंसान अपनी बुद्धि-विवेक का प्रयोग करना छोड़ दे और उनका अंधा अनुसरण करता रहे, जबकि इस्लाम चाहता है कि वह इंसानी विवेक को जागृत करे, ताकि इंसान तमाम चीज़ों की वास्तविकता से उसके असली रूप में अवगत हो सके।
यदि असत्य धर्मों के अनुयायी अपने-अपने धर्म और धारणा में पाए जाने वाले अंतर्विरोध और उन चीज़ों की पूरी जानकारी प्राप्त नहीं करेंगे, जिनको इंसानी विवेक सिरे से नकारता है, तो उनके धर्म-गुरू उन्हें इस भ्रम में डाल देंगे कि धर्म, विवेक से परे है और विवेक के अंदर इतनी क्षमता नहीं है कि वह धर्म को पूरी तरह से समझ सके। दूसरी तरफ़, इस्लाम धर्म अपने विधानों को एक ऐसा प्रकाश मानता है, जो विवेक को उसका सटीक रास्ता दिखाता है। वास्तविकता यह है कि असत्य धर्मों के गुरूजन चाहते हैं कि इंसान अपनी बुद्धि-विवेक का प्रयोग करना छोड़ दे और उनका अंधा अनुसरण करता रहे, जबकि इस्लाम चाहता है कि वह इंसानी विवेक को जागृत करे, ताकि इंसान तमाम चीज़ों की वास्तविकता से उसके असली रूप में अवगत हो सके। अल्लाह तआला का फ़रमान है :{और इसी प्रकार, हमने वह़्य (प्रकाशना) की है आपकी ओर, अपने आदेश की आत्मा (क़ुरआन)। आप नहीं जानते थे कि पुस्तक क्या है और ईमान क्या है। परन्तु, हमने इसे बना दिया एक ज्योति। हम मार्ग दिखाते हैं इसके द्वारा, जिसे चाहते हैं अपने बंदों में से और वस्तुतः, आप सीधी राह दिखा रहे हैं।}[सूरा अश-शूरा : 52]ईश्वरीय वह्य में ऐसे तर्क और प्रमाण मौजूद हैं, जो सही विवेक तथा बुद्धि का उन वास्तविकताओं की ओर मार्गदर्शन करते हैं, जिनको आप जानने-पहचानने तथा जिनपर ईमान लाने के इच्छुक हैं। अल्लाह तआला कहता है :{ऐ लोगो! तुम्हारे पास तुम्हारे पालनहार की ओर से खुला प्रमाण आ गया है और हमने तुम्हारी ओर खुली वह़्य उतार दी है।}[सूरा अन-निसा : 174]अल्लाह तआला चाहता है कि इंसान हिदायत, ज्ञान और वास्तविकता के प्रकाश में जीवन यापन करे, जबकि शैतान और हर असत्य पूज्य की इच्छा होती है कि इंसान कुफ़्र, अज्ञानता और पथभ्रष्टता के अंधकारों में भटकता रहे। अल्लाह तआला कहता है :{अल्लाह उनका सहायक है जो ईमान लाए। वह उनको अंधेरों से निकालता है और प्रकाश में लाता है और जो काफ़िर (विश्वासहीन) हैं, उनके सहायक ताग़ूत (उनके मिथ्या पूज्य) हैं, जो उन्हें प्रकाश से अंधेरों की और ले जाते हैं।}[सूरा अल-बक़रा : 257]
{और इसी प्रकार, हमने वह़्य (प्रकाशना) की है आपकी ओर, अपने आदेश की आत्मा (क़ुरआन)। आप नहीं जानते थे कि पुस्तक क्या है और ईमान क्या है। परन्तु, हमने इसे बना दिया एक ज्योति। हम मार्ग दिखाते हैं इसके द्वारा, जिसे चाहते हैं अपने बंदों में से और वस्तुतः, आप सीधी राह दिखा रहे हैं।}
[सूरा अश-शूरा : 52]
ईश्वरीय वह्य में ऐसे तर्क और प्रमाण मौजूद हैं, जो सही विवेक तथा बुद्धि का उन वास्तविकताओं की ओर मार्गदर्शन करते हैं, जिनको आप जानने-पहचानने तथा जिनपर ईमान लाने के इच्छुक हैं। अल्लाह तआला कहता है :
{ऐ लोगो! तुम्हारे पास तुम्हारे पालनहार की ओर से खुला प्रमाण आ गया है और हमने तुम्हारी ओर खुली वह़्य उतार दी है।}
[सूरा अन-निसा : 174]
अल्लाह तआला चाहता है कि इंसान हिदायत, ज्ञान और वास्तविकता के प्रकाश में जीवन यापन करे, जबकि शैतान और हर असत्य पूज्य की इच्छा होती है कि इंसान कुफ़्र, अज्ञानता और पथभ्रष्टता के अंधकारों में भटकता रहे। अल्लाह तआला कहता है :
{अल्लाह उनका सहायक है जो ईमान लाए। वह उनको अंधेरों से निकालता है और प्रकाश में लाता है और जो काफ़िर (विश्वासहीन) हैं, उनके सहायक ताग़ूत (उनके मिथ्या पूज्य) हैं, जो उन्हें प्रकाश से अंधेरों की और ले जाते हैं।}
[सूरा अल-बक़रा : 257]
39- इस्लाम सही और लाभकारी ज्ञान को सम्मान देता है और हवस एवं विलासिता से खाली वैज्ञानिक अनुसंधानों को प्रोत्साहित करता है। वह हमारी अपनी काया और हमारे आस-पास फैली हुई असीम कायनात पर चिंतन-मंथन करने का आह्वान करता है। याद रहे कि सही वैज्ञानिक शोध और उनके परिणाम, इस्लामी सिद्धान्तों से कदाचित नहीं टकराते हैं।
इस्लाम, सही एवं लाभकारी ज्ञान को सम्मान देता है। अल्लाह तआला कहता है :{अल्लाह तआला तुममें ईमान वालों को तथा जिन्हें ज्ञान से सम्मानित किया गया, उनके पदों को ऊँचा करता है।}[सूरा अल-मुजादला : 11]अल्लाह तआला ने ज्ञानियों की गवाही को, अपनी और अपने फ़रिश्तों की गवाही के साथ, कायनात के सबसे महत्वपूर्ण मामले में मिला दिया है। अल्लाह कहता है :{अल्लाह गवाही देता है कि उसके अतिरिक्त कोई अन्य पूज्य नहीं है। इसी प्रकार फ़रिश्ते एवं ज्ञानी लोग भी (साक्षी हैं) कि उसके अतिरिक्त कोई अन्य पूज्य नहीं है। वह प्रभुत्वशाली हिकमत वाला है।}[सूरा आल-ए-इमरान : 18]यह आयत इस्लाम में ज्ञानियों की श्रेष्ठता एवं मुकाम का बखान करती है। आश्चर्य की बात यह है कि अल्लाह ने अपने नबी मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- को ज्ञान के अतिरिक्त किसी और चीज़ में बृद्धि की प्रार्थना करने का आदेश नहीं दिया। अल्लाह तआला ने कहा है :{(ऐ नबी) आप कहिए, ऐ मेरे पालनहार! मेरे ज्ञान में और वृद्धि कर दे।}[सूरा ता-हा : 114]तथा अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है :"जो व्यक्ति ज्ञान प्राप्त करने के पथ पर चलता है, अल्लाह उसके लिए जन्नत का रास्ता आसान कर देता है और फ़रिश्ते उसके कार्य से खुश होकर उसके लिए अपने पंख बिछा देते हैं। निश्चय ही, ज्ञानी के लिए आकाशों तथा धरती की सारी चीजें, यहाँ तक कि पानी की मछलियाँ भी क्षमा याचना करती हैं। ज्ञानी को तपस्वी पर वही श्रेष्ठता प्राप्त है, जो चाँद को सितारों पर। उलेमा नबियों के वारिस हैं और नबी दीनार तथा दिरहम विरासत में नहीं छोड़ते, बल्कि ज्ञान छोड़ जाते हैं। अत:, जिसने इसे प्राप्त कर लिया, उसने बड़ा भाग प्राप्त कर लिया।"इसे अबू दाऊद (3641), तिरमिज़ी (2682), इब्ने माजा (223) और अहमद (21715) ने रिवायत किया है। यहाँ पर शब्द, इब्ने माजा के हैं।इस्लाम, वासना और विलासिता रहित वैज्ञानिक अनुसंधानों पर उभारता है तथा हमें अपने-आपके अंदर और हमारे आस-पास फैली हुई असीम कायनात पर चिंतन-मनन करने का आह्वान करता है। अल्लाह तआला कहता है :{हम शीघ्र ही दिखा देंगे उन्हें अपनी निशानियाँ संसार के किनारों में तथा स्वयं उनके भीतर। यहाँ तक कि खुल जाएगी उनके लिए यह बात कि यही सच है और क्या यह बात पर्याप्त नहीं कि आपका पालनहार ही प्रत्येक वस्तु का साक्षी (गवाह) है?}[सूरा फ़ुस्सिलत : 53]एक अन्य स्थान पर अल्लाह तआला का फ़रमान है :{क्या उन्होंने आकाशों तथा धरती के राज्य को और जो कुछ अल्लाह ने पैदा किया है, उसे नहीं देखा? और (यह भी नहीं सोचा कि) हो सकता है कि उनका (निर्धारित) समय समीप आ गया हो? तो फिर इस (क़ुरआन) के बाद वे किस बात पर ईमान लाएँगे?}[सूरा अल-आराफ़ : 185]एक और जगह वह कहता है :{क्या वे चले-फिरे नहीं धरती में, फिर देखते कि कैसा रहा उनका परिणाम जो इनसे पहले थे? वे इनसे अधिक थे शक्ति में। उन्होंने जोता-बोया धरती को और उसे आबाद किया, उससे अधिक, जितना इन्होंने आबाद किया और आए उनके पास उनके रसूल खुली निशानियाँ (प्रमाण) लेकर। तो नहीं था अल्लाह कि उनपर अत्याचार करता, परन्तु वास्तव में वे स्वयं अपने ऊपर अत्याचार कर रहे थे।}[सूरा अर-रूम : 9]बता दें कि वैज्ञानिक अनुसंधान एवं शोध, इस्लाम से कदाचित नहीं टकराते। यहाँ पर हम इसका केवल एक उदाहरण प्रस्तुत करेंगे, जिसे क़ुरआन ने आज से चौहद सौ साल पहले सविस्तार बयान किया है और विज्ञान हाल ही में उसकी खोज कर सका है। इस सिलसिले में वैज्ञानिक शोध एवं अनुसंधान का जो परिणाम आया, वह पूर्णरूपेन क़ुरआन के बयान से मेल खाता है। हम बात कर रहे हैं माँ के पेट में पलने वाले भ्रूण की, जिसके बारे में अल्लाह तआला कहता है :{और हमने पैदा किया है मनुष्य को मिट्टी के सार से।फिर हमने उसे वीर्य बनाकर रख दिया एक सुरक्षित स्थान में।फिर बदल दिया वीर्य को जमे हुए रक्त में, फिर हमने उसे माँस का लोथड़ा बना दिया, फिर हमने लोथड़े में हड्डियाँ बनाईं, फिर हमने पहना दिया हड्डियों को माँस, फिर उसे एक अन्य रूप में उत्पन्न कर दिया। तो शुभ है अल्लाह, जो सबसे अच्छी उत्पत्ति करने वाला है।}[सूरा अल-मोमिनून : 12-14]
{अल्लाह तआला तुममें ईमान वालों को तथा जिन्हें ज्ञान से सम्मानित किया गया, उनके पदों को ऊँचा करता है।}
[सूरा अल-मुजादला : 11]
अल्लाह तआला ने ज्ञानियों की गवाही को, अपनी और अपने फ़रिश्तों की गवाही के साथ, कायनात के सबसे महत्वपूर्ण मामले में मिला दिया है। अल्लाह कहता है :
{अल्लाह गवाही देता है कि उसके अतिरिक्त कोई अन्य पूज्य नहीं है। इसी प्रकार फ़रिश्ते एवं ज्ञानी लोग भी (साक्षी हैं) कि उसके अतिरिक्त कोई अन्य पूज्य नहीं है। वह प्रभुत्वशाली हिकमत वाला है।}
[सूरा आल-ए-इमरान : 18]
यह आयत इस्लाम में ज्ञानियों की श्रेष्ठता एवं मुकाम का बखान करती है। आश्चर्य की बात यह है कि अल्लाह ने अपने नबी मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- को ज्ञान के अतिरिक्त किसी और चीज़ में बृद्धि की प्रार्थना करने का आदेश नहीं दिया। अल्लाह तआला ने कहा है :
{(ऐ नबी) आप कहिए, ऐ मेरे पालनहार! मेरे ज्ञान में और वृद्धि कर दे।}
[सूरा ता-हा : 114]
तथा अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है :
"जो व्यक्ति ज्ञान प्राप्त करने के पथ पर चलता है, अल्लाह उसके लिए जन्नत का रास्ता आसान कर देता है और फ़रिश्ते उसके कार्य से खुश होकर उसके लिए अपने पंख बिछा देते हैं। निश्चय ही, ज्ञानी के लिए आकाशों तथा धरती की सारी चीजें, यहाँ तक कि पानी की मछलियाँ भी क्षमा याचना करती हैं। ज्ञानी को तपस्वी पर वही श्रेष्ठता प्राप्त है, जो चाँद को सितारों पर। उलेमा नबियों के वारिस हैं और नबी दीनार तथा दिरहम विरासत में नहीं छोड़ते, बल्कि ज्ञान छोड़ जाते हैं। अत:, जिसने इसे प्राप्त कर लिया, उसने बड़ा भाग प्राप्त कर लिया।"
इसे अबू दाऊद (3641), तिरमिज़ी (2682), इब्ने माजा (223) और अहमद (21715) ने रिवायत किया है। यहाँ पर शब्द, इब्ने माजा के हैं।
इस्लाम, वासना और विलासिता रहित वैज्ञानिक अनुसंधानों पर उभारता है तथा हमें अपने-आपके अंदर और हमारे आस-पास फैली हुई असीम कायनात पर चिंतन-मनन करने का आह्वान करता है। अल्लाह तआला कहता है :
{हम शीघ्र ही दिखा देंगे उन्हें अपनी निशानियाँ संसार के किनारों में तथा स्वयं उनके भीतर। यहाँ तक कि खुल जाएगी उनके लिए यह बात कि यही सच है और क्या यह बात पर्याप्त नहीं कि आपका पालनहार ही प्रत्येक वस्तु का साक्षी (गवाह) है?}
[सूरा फ़ुस्सिलत : 53]
एक अन्य स्थान पर अल्लाह तआला का फ़रमान है :
{क्या उन्होंने आकाशों तथा धरती के राज्य को और जो कुछ अल्लाह ने पैदा किया है, उसे नहीं देखा? और (यह भी नहीं सोचा कि) हो सकता है कि उनका (निर्धारित) समय समीप आ गया हो? तो फिर इस (क़ुरआन) के बाद वे किस बात पर ईमान लाएँगे?}
[सूरा अल-आराफ़ : 185]
एक और जगह वह कहता है :
{क्या वे चले-फिरे नहीं धरती में, फिर देखते कि कैसा रहा उनका परिणाम जो इनसे पहले थे? वे इनसे अधिक थे शक्ति में। उन्होंने जोता-बोया धरती को और उसे आबाद किया, उससे अधिक, जितना इन्होंने आबाद किया और आए उनके पास उनके रसूल खुली निशानियाँ (प्रमाण) लेकर। तो नहीं था अल्लाह कि उनपर अत्याचार करता, परन्तु वास्तव में वे स्वयं अपने ऊपर अत्याचार कर रहे थे।}
[सूरा अर-रूम : 9]
बता दें कि वैज्ञानिक अनुसंधान एवं शोध, इस्लाम से कदाचित नहीं टकराते। यहाँ पर हम इसका केवल एक उदाहरण प्रस्तुत करेंगे, जिसे क़ुरआन ने आज से चौहद सौ साल पहले सविस्तार बयान किया है और विज्ञान हाल ही में उसकी खोज कर सका है। इस सिलसिले में वैज्ञानिक शोध एवं अनुसंधान का जो परिणाम आया, वह पूर्णरूपेन क़ुरआन के बयान से मेल खाता है। हम बात कर रहे हैं माँ के पेट में पलने वाले भ्रूण की, जिसके बारे में अल्लाह तआला कहता है :
{और हमने पैदा किया है मनुष्य को मिट्टी के सार से।
फिर हमने उसे वीर्य बनाकर रख दिया एक सुरक्षित स्थान में।
फिर बदल दिया वीर्य को जमे हुए रक्त में, फिर हमने उसे माँस का लोथड़ा बना दिया, फिर हमने लोथड़े में हड्डियाँ बनाईं, फिर हमने पहना दिया हड्डियों को माँस, फिर उसे एक अन्य रूप में उत्पन्न कर दिया। तो शुभ है अल्लाह, जो सबसे अच्छी उत्पत्ति करने वाला है।}
[सूरा अल-मोमिनून : 12-14]
40- अल्लाह तआला केवल उसी व्यक्ति के कर्म को ग्रहण करता और उसको पुण्य तथा श्रेय प्रदान करता है जो अल्लाह पर ईमान लाता है, केवल उसी का अनुसरण करता और तमाम रसूलों -अलैहिमुस्सलाम- की पुष्टि करता है। वह सिर्फ उन्हीं इबादतों को स्वीकारता है जिनको स्वयं उसी ने स्वीकृति प्रदान की है। इसलिए, ऐसा भला कैसे हो सकता है कि कोई इंसान अल्लाह के प्रति अविश्वास भी रखे और फिर उसी से अच्छा प्रतिफल पाने की आशा भी अपने मन में संजोए रखे? अल्लाह तआला उसी व्यक्ति के ईमान को स्वीकार करता है जो समस्त नबियों -अलैहिमुस्सलाम- पर और मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के अंतिम संदेष्टा होने पर भी पूर्ण ईमान रखे।
अल्लाह तआला केवल उसी व्यक्ति के कर्म को ग्रहण करता और उसका पुण्य तथा श्रेय प्रदान करता है, जो अल्लाह पर ईमान लाता है, केवल उसी का अनुसरण करता और तमाम रसूलों -अलैहिमुस्सलाम- की पुष्टि करता है। अल्लाह कहता है :{जो संसार ही चाहता हो, हम उसे यहीं दे देते हैं, जो हम चाहते हैं, जिसके लिए चाहते हैं। फिर हम उसका ठिकाना (परलोक में) जहन्नम को बना देते हैं, जिसमें वह निंदित-तिरस्कृत होकर प्रवेश करेगा।परन्तु जो परलोक चाहता हो और उसके लिए प्रयास करता हो और वह एकेश्वरवादी भी हो, तो वही हैं, जिनके प्रयास का आदर-सम्मान किया जाएगा।}[सूरा अल-इसरा : 18-19]एक अन्य स्थान पर अल्लाह तआला का फ़रमान है :{फिर जो सत्कर्म करता है और वह एकेश्वरवादी भी है, तो उसके प्रयास की उपेक्षा नहीं की जाएगी और हम उसे लिख रहे हैं।}[सूरा अल-अंबिया : 94]अल्लाह तआला उन्हीं इबादतों को ग्रहण करता है, जिनको स्वयं उसी ने स्वीकृति दे रखी है। अल्लाह कहता है :{अतः, जो अपने पालनहार से मिलने की आशा रखता है, उसे चाहिए कि सत्कर्म करे और किसी अन्य को अपने रब की इबादत में साझी न बनाए।}[सूरा अल-कहफ़ : 110]इससे स्पष्ट हो गया कि कोई भी अमल उसी वक्त सही होगा, जब वह अल्लाह तआला के जारी किए हुए तरीके के मुताबिक हो और उसका करने वाला उसे सिर्फ और सिर्फ अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए अंजाम दे। साथ ही, वह अल्लाह पर ईमान रखे और तमाम नबियों और रसूलों -अलैहिमुस्सलाम- की दिल से पुष्टि करे। इससे इतर जो भी कर्म या अमल है, उसके बारे में अल्लाह तआला का यह फ़रमान देखिए :{और उनके कर्मों को हम लेकर धूल के समान उड़ा देंगे।}[सूरा अल-फ़ुरक़ान : 23]एक अन्य स्थान पर वह कहता है :{उस दिन कितने ही मुँह लटके हुए होंगे।कर्म-कलान्तित और थके-माँदे होंगे।प्रवेश कर जाएँगे ज्वलंत आग में।}[सूरा अल-ग़ाशिया : 2-4]तो उन चेहरों के लटके हुए होने और अपने कर्मों से निराश होने का एक मात्र कारण यह होगा कि उन्होंने दुनिया में जो भी अमल किया होगा, वह अल्लाह के बताए हुए तरीके के अनुसार नहीं रहा होगा। परिणाम स्वरूप, उन्हें जहन्नम में झोंक दिया जाएगा, क्योंकि उनका कोई भी अमल अल्लाह की शरीयत के अनुसार नहीं रहा था, बल्कि असत्य तरीके पर रहा था। उन्होंने दुनिया में गुमराही के उन सरदारों का अनुसरण किया था, जो उनके लिए असत्य धर्म आविष्कार करते रहे थे। इससे मालूम हो गया कि अल्लाह के नज़दीक, वही कर्म नेक और स्वीकृत है, जो अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- की लाई हुई शरीयत के अनुसार हो। तनिक सोचिए कि भला यह कैसे संभव है कि इंसान अल्लाह के साथ कुफ्र भी करे और उसका अच्छा श्रेय पाने की आशा भी अपने मन में पाले रखे!?अल्लाह तआला किसी का ईमान उस वक्त तक क़बूल नहीं करता, जब तक वह तमाम नबियों -अलैहिमुस्सलाम- पर और विशेषकर मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के अंतिम संदेष्टा होने पर ईमान न लाए। इस विषय पर हमने कुछ प्रमाण एवं तर्क पारा संख्या : 20 में पेश किए हैं। अल्लाह तआला का फ़रमान है :{रसूल उस चीज़ पर ईमान लाया, जो उसके लिए अल्लाह की ओर से उतारी गई तथा सब ईमान वाले उसपर ईमान लाए। वे सब अल्लाह तथा उसके फ़रिश्तों और उसकी सब पुस्तकों एवं रसूलों पर ईमान लाए। (वे कहते हैं :) हम उसके रसूलों में से किसी के बीच अन्तर नहीं करते। हमने सुना और हम आज्ञाकारी हो गए। ऐ हमारे पालनहार! हमें क्षमा कर दे और हमें तेरे ही पास आना है।}[सूरा अल-बक़रा : 285]एक अन्य स्थान पर उसने कहा है :{ऐ ईमान वालो! अल्लाह, उसके रसूल और उस पुस्तक (क़ुरआन) पर, जो उसने अपने रसूल पर उतारी है तथा उन पुस्तकों पर, जो इससे पहले उतारी हैं, ईमान लाओ। जो अल्लाह, उसके फ़रिश्तों, उसकी पुस्तकों और अंतिम दिन (प्रलय) को अस्वीकार करेगा, वह पथभ्रष्टता में बहुत दूर जा पड़ेगा।}[सूरा अन-निसा : 136]एक और जगह कहता है :{तथा (याद करो) जब अल्लाह ने नबियों से वचन लिया कि जब भी मैं तुम्हें कोई पुस्तक और प्रबोध (तत्वदर्शिता) दूँ, फिर तुम्हारे पास कोई रसूल उसे प्रमाणित करने हेतु आए, जो तुम्हारे पास है, तो तुम अवश्य उसपर ईमान लाना और उसका समर्थन करना। (अल्लाह) ने कहा : क्या तुमने स्वीकार किया और इसपर मेरे वचन का भार उठाया? तो सबने कहा : हमने स्वीकार कर लिया। अल्लाह ने कहा : तुम साक्षी रहो और मैं भी तुम्हारे साथ साक्षियों में से हूँ।}[सूरा आल-ए-इमरान : 81]
{जो संसार ही चाहता हो, हम उसे यहीं दे देते हैं, जो हम चाहते हैं, जिसके लिए चाहते हैं। फिर हम उसका ठिकाना (परलोक में) जहन्नम को बना देते हैं, जिसमें वह निंदित-तिरस्कृत होकर प्रवेश करेगा।
परन्तु जो परलोक चाहता हो और उसके लिए प्रयास करता हो और वह एकेश्वरवादी भी हो, तो वही हैं, जिनके प्रयास का आदर-सम्मान किया जाएगा।}
[सूरा अल-इसरा : 18-19]
एक अन्य स्थान पर अल्लाह तआला का फ़रमान है :
{फिर जो सत्कर्म करता है और वह एकेश्वरवादी भी है, तो उसके प्रयास की उपेक्षा नहीं की जाएगी और हम उसे लिख रहे हैं।}
[सूरा अल-अंबिया : 94]
अल्लाह तआला उन्हीं इबादतों को ग्रहण करता है, जिनको स्वयं उसी ने स्वीकृति दे रखी है। अल्लाह कहता है :
{अतः, जो अपने पालनहार से मिलने की आशा रखता है, उसे चाहिए कि सत्कर्म करे और किसी अन्य को अपने रब की इबादत में साझी न बनाए।}
[सूरा अल-कहफ़ : 110]
इससे स्पष्ट हो गया कि कोई भी अमल उसी वक्त सही होगा, जब वह अल्लाह तआला के जारी किए हुए तरीके के मुताबिक हो और उसका करने वाला उसे सिर्फ और सिर्फ अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए अंजाम दे। साथ ही, वह अल्लाह पर ईमान रखे और तमाम नबियों और रसूलों -अलैहिमुस्सलाम- की दिल से पुष्टि करे। इससे इतर जो भी कर्म या अमल है, उसके बारे में अल्लाह तआला का यह फ़रमान देखिए :
{और उनके कर्मों को हम लेकर धूल के समान उड़ा देंगे।}
[सूरा अल-फ़ुरक़ान : 23]
एक अन्य स्थान पर वह कहता है :
{उस दिन कितने ही मुँह लटके हुए होंगे।
कर्म-कलान्तित और थके-माँदे होंगे।
प्रवेश कर जाएँगे ज्वलंत आग में।}
[सूरा अल-ग़ाशिया : 2-4]
तो उन चेहरों के लटके हुए होने और अपने कर्मों से निराश होने का एक मात्र कारण यह होगा कि उन्होंने दुनिया में जो भी अमल किया होगा, वह अल्लाह के बताए हुए तरीके के अनुसार नहीं रहा होगा। परिणाम स्वरूप, उन्हें जहन्नम में झोंक दिया जाएगा, क्योंकि उनका कोई भी अमल अल्लाह की शरीयत के अनुसार नहीं रहा था, बल्कि असत्य तरीके पर रहा था। उन्होंने दुनिया में गुमराही के उन सरदारों का अनुसरण किया था, जो उनके लिए असत्य धर्म आविष्कार करते रहे थे। इससे मालूम हो गया कि अल्लाह के नज़दीक, वही कर्म नेक और स्वीकृत है, जो अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- की लाई हुई शरीयत के अनुसार हो। तनिक सोचिए कि भला यह कैसे संभव है कि इंसान अल्लाह के साथ कुफ्र भी करे और उसका अच्छा श्रेय पाने की आशा भी अपने मन में पाले रखे!?
अल्लाह तआला किसी का ईमान उस वक्त तक क़बूल नहीं करता, जब तक वह तमाम नबियों -अलैहिमुस्सलाम- पर और विशेषकर मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के अंतिम संदेष्टा होने पर ईमान न लाए। इस विषय पर हमने कुछ प्रमाण एवं तर्क पारा संख्या : 20 में पेश किए हैं। अल्लाह तआला का फ़रमान है :
{रसूल उस चीज़ पर ईमान लाया, जो उसके लिए अल्लाह की ओर से उतारी गई तथा सब ईमान वाले उसपर ईमान लाए। वे सब अल्लाह तथा उसके फ़रिश्तों और उसकी सब पुस्तकों एवं रसूलों पर ईमान लाए। (वे कहते हैं :) हम उसके रसूलों में से किसी के बीच अन्तर नहीं करते। हमने सुना और हम आज्ञाकारी हो गए। ऐ हमारे पालनहार! हमें क्षमा कर दे और हमें तेरे ही पास आना है।}
[सूरा अल-बक़रा : 285]
एक अन्य स्थान पर उसने कहा है :
{ऐ ईमान वालो! अल्लाह, उसके रसूल और उस पुस्तक (क़ुरआन) पर, जो उसने अपने रसूल पर उतारी है तथा उन पुस्तकों पर, जो इससे पहले उतारी हैं, ईमान लाओ। जो अल्लाह, उसके फ़रिश्तों, उसकी पुस्तकों और अंतिम दिन (प्रलय) को अस्वीकार करेगा, वह पथभ्रष्टता में बहुत दूर जा पड़ेगा।}
[सूरा अन-निसा : 136]
एक और जगह कहता है :
{तथा (याद करो) जब अल्लाह ने नबियों से वचन लिया कि जब भी मैं तुम्हें कोई पुस्तक और प्रबोध (तत्वदर्शिता) दूँ, फिर तुम्हारे पास कोई रसूल उसे प्रमाणित करने हेतु आए, जो तुम्हारे पास है, तो तुम अवश्य उसपर ईमान लाना और उसका समर्थन करना। (अल्लाह) ने कहा : क्या तुमने स्वीकार किया और इसपर मेरे वचन का भार उठाया? तो सबने कहा : हमने स्वीकार कर लिया। अल्लाह ने कहा : तुम साक्षी रहो और मैं भी तुम्हारे साथ साक्षियों में से हूँ।}
[सूरा आल-ए-इमरान : 81]
41- सभी ईश्वरीय संदेशों का एक मात्र उद्देश्य यह है कि इंसान सत्य धर्म का पालनकर्ता बनकर, सारे जहानों के पालनहार अल्लाह का शुद्ध बंदा बन जाए और अपने आपको दूसरे इंसान या पदार्थ या फिर ख़ुराफ़ात की अंधभक्ति और बंदगी से मुक्त कर ले। क्योंकि इस्लाम, जैसा कि आपपर विदित है, किसी व्यक्ति विशेष को जन्मजात पवित्र नहीं मानता, ना उसे उसके अधिकार से ऊपर का दर्जा देता है और ना ही उसे रब और भगवान के पद पर आसीन करता है।
सभी ईश्वरीय संदेशों का एक मात्र उद्देश्य यह है कि इंसान सत्य धर्म का पालनकर्ता बनकर, सारे जहानों के पालनहार अल्लाह का विशुद्ध बंदा बन जाए। इस्लाम, वास्तव में इंसान को दूसरे इंसान या पदार्थ या फिर ख़ुराफ़ात की अंधभक्ति और बंदगी से मुक्त करता है। अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- कहते हैं :"दीनार, दिरहम, गोटदार चादर और रेशमी चादर का बंदा हलाक हुआ, कयोंकि उसे दिया जाए तो खुश और न दिया जाए तो नाराज़।"सहीह अल-बुख़ारी, हदीस संख्या : 6435अतः होशियार और बुद्धिजीवी इंसान को केवल अल्लाह के सामने नतमस्तक हो। उसे माल, वैभव, पद या खानदान अपना गुलाम न बना सके। निम्नलिखित कहानी से पाठक को मालूम हो जाएगा कि इंसान, इस्लाम के आने से पहले कैसा था और इस्लाम के आने के बाद कैसा हो गया?जब पहली बार मुसलमान देश त्याग कर हब्शा गए और वहाँ के शासक नज्जाशी ने उनसे उनके धर्म के बारे में पूछते हुए कहा :यह कौन सा धर्म है जिसके चलते तुमने अपनी क़ौम तक को छोड़ दिया और न मेरे धर्म को अपनाया और न ही दुनिया की किसी क़ौम के धर्म को ग्रहण किया?तो जाफ़र बिन अबू तालिब -रज़ियल्लाहु अनहु- ने उनको उत्तर दिया :ऐ बादशाह! हम जाहिल-जपाट लोग थे, बुतों की पूजा करते थे, मुर्दार खाते थे, हर प्रकार का पाप करते थे, रिश्तों-नातों को तोड़ते थे, पड़ोसी के साथ दुर्व्यवहार करते थे और हममें का मज़बूत आदमी, कमज़ोर को दबाता था। हमारा जीवन इसी ढर्रे पर गुज़र रहा था कि अल्लाह तआला ने हमारी तरफ एक ऐसा रसूल भेज दिया जिसके वंश, सच्चाई, अमानतदारी और पाकदामनी से हम सब अच्छी तरह परिचित हैं। उसने हमसे आह्वान किया कि हम केवल एक अल्लाह की उपासना एवं वंदना करें और उन तमाम पत्थरों से बने देवी-देवताओं को छोड़ दें, जिनकी हम और हमारे बाप-दादा पूजा करते थे। उन्होंने हमें सच बोलने, अमानतों को अदा करने, रिश्तों-नातों को जोड़ने, पड़ोसी के साथ अच्छा व्यवहार करने, हराम और अनुचित काम न करने और खून न बहाने का आदेश दिया और निर्लज्जता के कामों, झूठ बोलने, अनाथ का माल हड़प कर खाने और भोली-भाली पाकदामन औरतों पर आरोप जड़ने मना किया। उसने हमें हुक्म दिया कि हम केवल एक अल्लाह की इबादत करें और उसके साथ किसी को शरीक न करें। उसने हमें नमाज़, ज़कात और रोज़े का आदेश दिया। वर्णनकर्ता कहते हैं कि वह बादशाह के सामने इस्लाम की बातें गिनाने लगे और हम उनकी पुष्टि करते गए। उन्होंने आगे कहा : अतः, हम उसपर ईमान लाए, और जिस बात को नबी लेकर आए थे उसकी पैरवी की। हमने एक अल्लाह की पूजा की और उसके साथ किसी को साझी नहीं बनाया। उन सभी चीज़ों को हमने हराम माना जिनको इन्होंने हराम कहा, और उन सभी चीज़ों को हमने हलाल माना जिनको इन्होंने हलाल कहा. . .अहमद (1740) ने इसे थोड़ी सी भिन्नता के साथ और अबू नईम ने हिलयतुल औलिया (1/115) में संक्षेप में, रिवायत किया है।जैसा कि आपपर विदित है, इस्लाम लोगों को जन्मजात पवित्र आत्मा नहीं मानता, न उन्हें उनके अधिकार से अधिक दर्जा देता है और ना ही उन्हें पालनहार और पूज्य होने के पद पर आसीन करता है।अल्लाह तआला ने कहा है :{(ऐ नबी!) कह दीजिए कि ऐ किताब वालो! एक ऐसी बात की ओर आ जाओ, जो हमारे एवं तुम्हारे बीच समान रूप से मान्य है कि हम अल्लाह के अतिरिक्त किसी अन्य की इबादत न करें तथा किसी को उसका साझी न बनाएँ, तथा हममें से कोई एक-दूजे को अल्लाह के अतिरिक्त रब न बनाए। फिर यदि वे विमुख हों तो आप कह दें कि तुम साक्षी रहो कि हम अल्लाह के आज्ञाकारी हैं।}[सूरा आल-ए-इमरान : 64]एक और जगह कहता है :{तथा वह तुम्हें कभी आदेश नहीं देगा कि फ़रिश्तों तथा नबियों को अपना पालनहार (पूज्य) बना लो। क्या तुम्हें कुफ़्र करने का आदेश देगा, जबकि तुम अल्लाह के आज्ञाकारी हो?}[सूरा आल-ए-इमरान : 80]तथा अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया है :"तुम लोग मेरे प्रति प्रशंसा और तारीफ़ में उस प्रकार अतिशयोक्ति न करो, जिस प्रकार ईसाइयों ने मरयम के पुत्र के बारे किया। मैं केवल एक बंदा हूँ। अतः मुझे अल्लाह का बंदा और उसका रसूल कहो।"सहीह अल-बुख़ारी, हदीस संख्या : 3445
"दीनार, दिरहम, गोटदार चादर और रेशमी चादर का बंदा हलाक हुआ, कयोंकि उसे दिया जाए तो खुश और न दिया जाए तो नाराज़।"
सहीह अल-बुख़ारी, हदीस संख्या : 6435
अतः होशियार और बुद्धिजीवी इंसान को केवल अल्लाह के सामने नतमस्तक हो। उसे माल, वैभव, पद या खानदान अपना गुलाम न बना सके। निम्नलिखित कहानी से पाठक को मालूम हो जाएगा कि इंसान, इस्लाम के आने से पहले कैसा था और इस्लाम के आने के बाद कैसा हो गया?
जब पहली बार मुसलमान देश त्याग कर हब्शा गए और वहाँ के शासक नज्जाशी ने उनसे उनके धर्म के बारे में पूछते हुए कहा :
यह कौन सा धर्म है जिसके चलते तुमने अपनी क़ौम तक को छोड़ दिया और न मेरे धर्म को अपनाया और न ही दुनिया की किसी क़ौम के धर्म को ग्रहण किया?
तो जाफ़र बिन अबू तालिब -रज़ियल्लाहु अनहु- ने उनको उत्तर दिया :
ऐ बादशाह! हम जाहिल-जपाट लोग थे, बुतों की पूजा करते थे, मुर्दार खाते थे, हर प्रकार का पाप करते थे, रिश्तों-नातों को तोड़ते थे, पड़ोसी के साथ दुर्व्यवहार करते थे और हममें का मज़बूत आदमी, कमज़ोर को दबाता था। हमारा जीवन इसी ढर्रे पर गुज़र रहा था कि अल्लाह तआला ने हमारी तरफ एक ऐसा रसूल भेज दिया जिसके वंश, सच्चाई, अमानतदारी और पाकदामनी से हम सब अच्छी तरह परिचित हैं। उसने हमसे आह्वान किया कि हम केवल एक अल्लाह की उपासना एवं वंदना करें और उन तमाम पत्थरों से बने देवी-देवताओं को छोड़ दें, जिनकी हम और हमारे बाप-दादा पूजा करते थे। उन्होंने हमें सच बोलने, अमानतों को अदा करने, रिश्तों-नातों को जोड़ने, पड़ोसी के साथ अच्छा व्यवहार करने, हराम और अनुचित काम न करने और खून न बहाने का आदेश दिया और निर्लज्जता के कामों, झूठ बोलने, अनाथ का माल हड़प कर खाने और भोली-भाली पाकदामन औरतों पर आरोप जड़ने मना किया। उसने हमें हुक्म दिया कि हम केवल एक अल्लाह की इबादत करें और उसके साथ किसी को शरीक न करें। उसने हमें नमाज़, ज़कात और रोज़े का आदेश दिया। वर्णनकर्ता कहते हैं कि वह बादशाह के सामने इस्लाम की बातें गिनाने लगे और हम उनकी पुष्टि करते गए। उन्होंने आगे कहा : अतः, हम उसपर ईमान लाए, और जिस बात को नबी लेकर आए थे उसकी पैरवी की। हमने एक अल्लाह की पूजा की और उसके साथ किसी को साझी नहीं बनाया। उन सभी चीज़ों को हमने हराम माना जिनको इन्होंने हराम कहा, और उन सभी चीज़ों को हमने हलाल माना जिनको इन्होंने हलाल कहा. . .
अहमद (1740) ने इसे थोड़ी सी भिन्नता के साथ और अबू नईम ने हिलयतुल औलिया (1/115) में संक्षेप में, रिवायत किया है।
जैसा कि आपपर विदित है, इस्लाम लोगों को जन्मजात पवित्र आत्मा नहीं मानता, न उन्हें उनके अधिकार से अधिक दर्जा देता है और ना ही उन्हें पालनहार और पूज्य होने के पद पर आसीन करता है।
अल्लाह तआला ने कहा है :
{(ऐ नबी!) कह दीजिए कि ऐ किताब वालो! एक ऐसी बात की ओर आ जाओ, जो हमारे एवं तुम्हारे बीच समान रूप से मान्य है कि हम अल्लाह के अतिरिक्त किसी अन्य की इबादत न करें तथा किसी को उसका साझी न बनाएँ, तथा हममें से कोई एक-दूजे को अल्लाह के अतिरिक्त रब न बनाए। फिर यदि वे विमुख हों तो आप कह दें कि तुम साक्षी रहो कि हम अल्लाह के आज्ञाकारी हैं।}
[सूरा आल-ए-इमरान : 64]
एक और जगह कहता है :
{तथा वह तुम्हें कभी आदेश नहीं देगा कि फ़रिश्तों तथा नबियों को अपना पालनहार (पूज्य) बना लो। क्या तुम्हें कुफ़्र करने का आदेश देगा, जबकि तुम अल्लाह के आज्ञाकारी हो?}
[सूरा आल-ए-इमरान : 80]
तथा अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया है :
"तुम लोग मेरे प्रति प्रशंसा और तारीफ़ में उस प्रकार अतिशयोक्ति न करो, जिस प्रकार ईसाइयों ने मरयम के पुत्र के बारे किया। मैं केवल एक बंदा हूँ। अतः मुझे अल्लाह का बंदा और उसका रसूल कहो।"
सहीह अल-बुख़ारी, हदीस संख्या : 3445
42- अल्लाह तआला ने इस्लाम धर्म में तौबा (प्रायश्चित) को मान्यता प्रदान की है। प्रायश्चित यह है कि जब कोई इंसान पाप कर बैठे तो तुरंत अल्लाह से उसके लिए क्षमा माँगे और पाप करना छोड़ दे। जिस प्रकार, इस्लाम क़बूल करने से पहले के सारे पाप धुल जाते हैं, उसी तरह तौबा भी पहले के तमाम गुनाहों को धो देती है। इसलिए, किसी इंसान के सामने अपने पापों को स्वीकार करने की कोई ज़रूरत नहीं है।
अल्लाह तआला ने इस्लाम में तौबा को मान्यता प्रदान की है। तौबा यह है कि जब किसी इंसान से भूलवश पाप हो जाए, तो वह तुरंत अल्लाह से क्षमा याचना करे और उस पाप को सदा के लिए छोड़ दे। अल्लाह का फ़रमान है :{ऐ मोमिनो! तुम सब अल्लाह तआला के सामने तौबा करो, ताकि सफल हो सको।}[सूरा अन-नूर : 31]एक अन्य स्थान पर अल्लाह तआला का फ़रमान है :{क्या वे नहीं जानते कि अल्लाह ही अपने भक्तों की क्षमा याचना स्वीकार करता तथा (उनके) दानों को अंगीकार करता है और वास्तव में, अल्लाह अति क्षमाशील दयावान् है।}[सूरा अत-तौबा : 104]एक और जगह कहता है :{वही है, जो स्वीकार करता है अपने भक्तों की तौबा तथा क्षमा करता है दोषों को और जानता है, जो कुछ तुम करते हो।}[सूरा अश-शूरा : 25]तथा अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है :"अल्लाह तआला अपने मोमिन बंदे की तौबा से उस आदमी से ज़्यादा प्रसन्न होता है, जो चटियल मरुभूमि में अपनी सवारी के साथ जा रहा होता है, जिसपर उसके खाने-पीने की सामग्री लदी होती है। वह सवारी से उतरकर सो जाता है और जागने के बाद क्या देखता है कि उसकी सवारी का जानवर मौजूद नहीं है। वह उसे तलाश करता है और इस क्रम में उसे बड़ी प्यास लग जाती है। फिर वह दिल ही दिल में कहता है कि जहाँ था, वहीं वापस जाकर सो जाऊँगा, यहाँ तक कि मर जाऊँ। वह अपने हाथों पर सर रखकर मर जाने की नीयत से सो जाता है। लेकिन जब जागता है तो क्या देखता है कि उसकी सवारी, उसके पास ही खड़ी है और उसकी पीठ पर सारा सामान और खान-पान की चीज़ें जस की तस मौजूद हैं। अल्लाह तआला अपने मोमिन बंदे की तौबा से उस आदमी से कहीं ज़्यादा खुश होता है, जितना खुश वह आदमी अपनी खोई हुई सवारी और अपना खोया हुआ सामान दोबारा पाकर हुआ होगा।"सहीह मुस्लिम, हदीस संख्या : 2744जिस तरह, इस्लाम क़बूल करने से पहले के सारे पाप धुल जाते हैं, उसी तरह तौबा भी पहले के तमाम पापों को धो देती है। अल्लाह तआला का फ़रमान है :{(ऐ नबी!) इन काफ़िरों से कह दो : यदि वे रुक गए तो जो कुछ हो गया है, वह उनसे क्षमा कर दिया जाएगा और यदि पहले जैसा ही करेंगे तो अगली जातियों की दुर्गत हो चुकी है।}[सूरा अल-अनफ़ाल : 38]अल्लाह तआला ने ईसाइयों को तौबा करने का आदेश देते हुए कहा है :{वे अल्लाह से तौबा तथा क्षमा याचना क्यों नहीं करते, जबकि अल्लाह अति क्षमाशील दयावान है?}[सूरा अल-माइदा : 74]अल्लाह तआला ने तमाम अवज्ञाकारियों तथा पापियों को तौबा करने का प्रोत्साहन देते हुए कहा है :{आप कह दीजिए कि ऐ मेरे बन्दो! जिन्होंने अपनी जानों पर अत्याचार किया है, तुम अल्लाह की दया से निराश न हो। निस्संदेह, अल्लाह सभी पापों को क्षमा कर देता है। वास्तव में वह अत्यन्त क्षमाशील और दयावान है।}[सूरा अज़-ज़ुमर : 53]जब अम्र बिन आस -रज़ियल्लाहु अनहु- ने इस्लाम क़बूल करने का निश्चय किया, तो उनके दिल में डर की भावना जागी कि मैंने अब तक जितने पाप किए हैं, वह माफ़ होंगे या नहीं? वे अपनी इस मनोदशा को बयान करते हुए कहते हैं :"जब अल्लाह तआला ने मेरे दिल में इस्लाम को गहरा बिठा दिया, तो मैं अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- से बैअत करने के लिए, आपकी सेवा में उपस्थित हुआ। आपने मुझसे बैअत लेने के लिए अपना हाथ बढ़ाया तो मैंने कहा : ऐ अल्लाह के रसूल! मैं उस वक्त तक आपसे बैअत नहीं करूँगा, जब तक आप मेरे तमाम पापों को माफ़ न कर दें। यह सुनकर अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने मुझसे कहा : ऐ अम्र! क्या तुम्हें मालूम नहीं कि हिजरत, पहले के तमाम गुनाहों को मिटा देती है? ऐ अम्र! क्या तुम्हें नहीं मालूम है कि इस्लाम, पहले के तमाम गुनाहों को धो देता है?"इसे मुस्लिम (121) ने इसी तरह विस्तार के साथ और अहमद (17827) ने रिवायत किया है। यहाँ पर शबद, मुसनद अहमद के हैं।
{ऐ मोमिनो! तुम सब अल्लाह तआला के सामने तौबा करो, ताकि सफल हो सको।}
[सूरा अन-नूर : 31]
एक अन्य स्थान पर अल्लाह तआला का फ़रमान है :
{क्या वे नहीं जानते कि अल्लाह ही अपने भक्तों की क्षमा याचना स्वीकार करता तथा (उनके) दानों को अंगीकार करता है और वास्तव में, अल्लाह अति क्षमाशील दयावान् है।}
[सूरा अत-तौबा : 104]
एक और जगह कहता है :
{वही है, जो स्वीकार करता है अपने भक्तों की तौबा तथा क्षमा करता है दोषों को और जानता है, जो कुछ तुम करते हो।}
[सूरा अश-शूरा : 25]
तथा अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने फ़रमाया है :
"अल्लाह तआला अपने मोमिन बंदे की तौबा से उस आदमी से ज़्यादा प्रसन्न होता है, जो चटियल मरुभूमि में अपनी सवारी के साथ जा रहा होता है, जिसपर उसके खाने-पीने की सामग्री लदी होती है। वह सवारी से उतरकर सो जाता है और जागने के बाद क्या देखता है कि उसकी सवारी का जानवर मौजूद नहीं है। वह उसे तलाश करता है और इस क्रम में उसे बड़ी प्यास लग जाती है। फिर वह दिल ही दिल में कहता है कि जहाँ था, वहीं वापस जाकर सो जाऊँगा, यहाँ तक कि मर जाऊँ। वह अपने हाथों पर सर रखकर मर जाने की नीयत से सो जाता है। लेकिन जब जागता है तो क्या देखता है कि उसकी सवारी, उसके पास ही खड़ी है और उसकी पीठ पर सारा सामान और खान-पान की चीज़ें जस की तस मौजूद हैं। अल्लाह तआला अपने मोमिन बंदे की तौबा से उस आदमी से कहीं ज़्यादा खुश होता है, जितना खुश वह आदमी अपनी खोई हुई सवारी और अपना खोया हुआ सामान दोबारा पाकर हुआ होगा।"
सहीह मुस्लिम, हदीस संख्या : 2744
जिस तरह, इस्लाम क़बूल करने से पहले के सारे पाप धुल जाते हैं, उसी तरह तौबा भी पहले के तमाम पापों को धो देती है। अल्लाह तआला का फ़रमान है :
{(ऐ नबी!) इन काफ़िरों से कह दो : यदि वे रुक गए तो जो कुछ हो गया है, वह उनसे क्षमा कर दिया जाएगा और यदि पहले जैसा ही करेंगे तो अगली जातियों की दुर्गत हो चुकी है।}
[सूरा अल-अनफ़ाल : 38]
अल्लाह तआला ने ईसाइयों को तौबा करने का आदेश देते हुए कहा है :
{वे अल्लाह से तौबा तथा क्षमा याचना क्यों नहीं करते, जबकि अल्लाह अति क्षमाशील दयावान है?}
[सूरा अल-माइदा : 74]
अल्लाह तआला ने तमाम अवज्ञाकारियों तथा पापियों को तौबा करने का प्रोत्साहन देते हुए कहा है :
{आप कह दीजिए कि ऐ मेरे बन्दो! जिन्होंने अपनी जानों पर अत्याचार किया है, तुम अल्लाह की दया से निराश न हो। निस्संदेह, अल्लाह सभी पापों को क्षमा कर देता है। वास्तव में वह अत्यन्त क्षमाशील और दयावान है।}
[सूरा अज़-ज़ुमर : 53]
जब अम्र बिन आस -रज़ियल्लाहु अनहु- ने इस्लाम क़बूल करने का निश्चय किया, तो उनके दिल में डर की भावना जागी कि मैंने अब तक जितने पाप किए हैं, वह माफ़ होंगे या नहीं? वे अपनी इस मनोदशा को बयान करते हुए कहते हैं :
"जब अल्लाह तआला ने मेरे दिल में इस्लाम को गहरा बिठा दिया, तो मैं अल्लाह के नबी -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- से बैअत करने के लिए, आपकी सेवा में उपस्थित हुआ। आपने मुझसे बैअत लेने के लिए अपना हाथ बढ़ाया तो मैंने कहा : ऐ अल्लाह के रसूल! मैं उस वक्त तक आपसे बैअत नहीं करूँगा, जब तक आप मेरे तमाम पापों को माफ़ न कर दें। यह सुनकर अल्लाह के रसूल -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने मुझसे कहा : ऐ अम्र! क्या तुम्हें मालूम नहीं कि हिजरत, पहले के तमाम गुनाहों को मिटा देती है? ऐ अम्र! क्या तुम्हें नहीं मालूम है कि इस्लाम, पहले के तमाम गुनाहों को धो देता है?"
इसे मुस्लिम (121) ने इसी तरह विस्तार के साथ और अहमद (17827) ने रिवायत किया है। यहाँ पर शबद, मुसनद अहमद के हैं।
43- इस्लाम धर्म के दृष्टिकोण से, इंसान और अल्लाह के बीच सीधा संबंध होता है। आपके लिए यह बिल्कुल भी ज़रूरी नहीं है कि आप अपने और अल्लाह के बीच किसी को माध्यम बनाएँ। इस्लाम इससे मना करता है कि हम अपने ही जैसे दूसरे इंसानों को भगवान बना लें या रबूबियत (पालनहार होने) या उलूहियत (पूज्य होने) में किसी इंसान को अल्लाह का साझी एवं शरीक ठहरा लें।
इस्लाम में इसकी कोई आवश्यकता नहीं है कि आप अपने गुनाहों का किसी इंसान के सामने अंगीकार करें। इस्लाम की नज़र में, इंसान और अल्लाह के बीच सीधा संपर्क होता है। इसलिए आपके लिए यह बिल्कुल भी ज़रूरी नहीं है कि आप किसी को अपने और अल्लाह के बीच माध्यम बनाएँ। जैसा कि पारा संख्या : 36 में बताया जा चुका है, जिस प्रकार अल्लाह तआला ने तमाम लोगों को तौबा करने और अपनी ओर लौटने का आदेश दिया है, उसी प्रकार उसने लोगों को इस बात से मना भी किया है कि वे नबियों और फ़रिश्तों को अल्लाह और बंदों के बीच माध्यम बनाएँ। अल्लाह का फ़रमान है :{तथा वह तुम्हें कभी आदेश नहीं देगा कि फ़रिश्तों तथा नबियों को अपना पालनहार (पूज्य) बना लो। क्या तुम्हें कुफ़्र करने का आदेश देगा, जबकि तुम अल्लाह के आज्ञाकारी बन चुके हो?}[सूरा आल-ए-इमरान : 80]जैसा कि आपपर विदित है, इस्लाम हमें इस बात से मना करता है कि हम अपने ही जैसे इंसानों को पूज्य बना लें या उनको पालनहार और पूज्य होने में अल्लाह का शरीक व साझी ठहरा लें। अल्लाह तआला ने ईसाइयों के बारे में कहा है :{उन्होंने अपने विद्वानों और धर्माचारियों (संतों) को अल्लाह के सिवा पूज्य बना लिया तथा मरयम के पुत्र मसीह़ को, जबकि उन्हें जो आदेश दिया गया था, वह इसके सिवा कुछ न था कि एक अल्लाह की इबादत (वंदना) करें। कोई पूज्य नहीं है, परन्तु वही। वह उससे पवित्र है, जिसे उसका साझी बना रहे हैं।}[सूरा अत-तौबा : 31]इसी तरह, अल्लाह तआला ने काफ़िरों को इस बात पर फटकार लगाई कि वे अनगिनत देवी-देवताओं को अल्लाह और अपने बीच माध्यम बनाते हैं। उसने कहा है :{सुन लो! शुद्ध धर्म अल्लाह ही के लिए (योग्य) है, तथा जिन्होंने बना रखा है अल्लाह के सिवा संरक्षक, वे कहते हैं कि हम तो उनकी वंदना इसलिए करते हैं कि वह समीप कर देंगें हमें अल्लाह से। वास्तव में, अल्लाह ही निर्णय करेगा उनके बीच जिसमें वे विभेद कर रहे हैं। वास्तव में, अल्लाह उसे सुपथ नहीं दर्शाता जो बड़ा मिथ्यावादी, कृतघ्न हो।}[सूरा अज़-जुमर : 3]अल्लाह तआला ने स्पष्ट कर दिया है कि मूर्ति पूजने वाले -अज्ञान युग के लोग- अपने और अल्लाह के बीच, माध्यम बनाते थे और इसका कारण यह बताते थे कि वे उनको अल्लाह के करीब कर देंगे।जब अल्लाह तआला ने लोगों को नबियों और रसूलों -अलैहिमुस्सलाम- तक को अपने और अल्लाह के बीच माध्यम बनाने से मना कर दिया, तो यह कैसे संभव है कि उनसे इतर अन्यों को मध्यस्थ बनाने की अनुमति देगा। नबी और रसूलगण -अलैहिमुस्सलाम- तो स्वयं अल्लाह तआला की निकटता प्राप्त करने में हर पल प्रयासरत रहा करते थे, बल्कि इसमें जल्दबाज़ी किया करते थे। अल्लाह तआला इस मामले में उनकी उत्सुकता एवं जल्दबाज़ी को दर्शाते हुए कहता है :{वास्तव में, वे सभी नेक कामों में जल्दी करते थे और हमसे रुचि तथा भय के साथ प्रार्थना करते थे और हमारे समक्ष अनुनय-विनय करने वाले थे।}[सूरा अल-अंबिया : 90]एक अन्य स्थान पर वह कहता है :{वास्तव में, जिन्हें यह लोग पुकारते हैं, वे स्वयं अपने पालनहार का सामीप्य प्राप्त करने का साधन खोजते रहते हैं कि उनमें से कौन अधिक समीप हो जाए? और उसकी दया की आशा रखते हैं और उसकी यातना से डरते हैं। वास्तव में, आपके पालनहार की यातना डरने योग्य है भी।}[सूरा अल-इसरा : 57]अर्थात, तुम लोग अल्लाह से इतर, जिन नबियों और रसूलों -अलैहिमुस्सलाम- को पुकारते हो, वे स्वयं अल्लाह का सामीप्य हासिल करने की धुन में रहते, उसकी करूणा प्राप्त करने की आशा रखते और उसकी यातना से हर पल डरते हैं, तो फिर अल्लाह से इतर, उन्हीं को कैसे पुकारा जा सकता है भला?
{तथा वह तुम्हें कभी आदेश नहीं देगा कि फ़रिश्तों तथा नबियों को अपना पालनहार (पूज्य) बना लो। क्या तुम्हें कुफ़्र करने का आदेश देगा, जबकि तुम अल्लाह के आज्ञाकारी बन चुके हो?}
[सूरा आल-ए-इमरान : 80]
जैसा कि आपपर विदित है, इस्लाम हमें इस बात से मना करता है कि हम अपने ही जैसे इंसानों को पूज्य बना लें या उनको पालनहार और पूज्य होने में अल्लाह का शरीक व साझी ठहरा लें। अल्लाह तआला ने ईसाइयों के बारे में कहा है :
{उन्होंने अपने विद्वानों और धर्माचारियों (संतों) को अल्लाह के सिवा पूज्य बना लिया तथा मरयम के पुत्र मसीह़ को, जबकि उन्हें जो आदेश दिया गया था, वह इसके सिवा कुछ न था कि एक अल्लाह की इबादत (वंदना) करें। कोई पूज्य नहीं है, परन्तु वही। वह उससे पवित्र है, जिसे उसका साझी बना रहे हैं।}
[सूरा अत-तौबा : 31]
इसी तरह, अल्लाह तआला ने काफ़िरों को इस बात पर फटकार लगाई कि वे अनगिनत देवी-देवताओं को अल्लाह और अपने बीच माध्यम बनाते हैं। उसने कहा है :
{सुन लो! शुद्ध धर्म अल्लाह ही के लिए (योग्य) है, तथा जिन्होंने बना रखा है अल्लाह के सिवा संरक्षक, वे कहते हैं कि हम तो उनकी वंदना इसलिए करते हैं कि वह समीप कर देंगें हमें अल्लाह से। वास्तव में, अल्लाह ही निर्णय करेगा उनके बीच जिसमें वे विभेद कर रहे हैं। वास्तव में, अल्लाह उसे सुपथ नहीं दर्शाता जो बड़ा मिथ्यावादी, कृतघ्न हो।}
[सूरा अज़-जुमर : 3]
अल्लाह तआला ने स्पष्ट कर दिया है कि मूर्ति पूजने वाले -अज्ञान युग के लोग- अपने और अल्लाह के बीच, माध्यम बनाते थे और इसका कारण यह बताते थे कि वे उनको अल्लाह के करीब कर देंगे।
जब अल्लाह तआला ने लोगों को नबियों और रसूलों -अलैहिमुस्सलाम- तक को अपने और अल्लाह के बीच माध्यम बनाने से मना कर दिया, तो यह कैसे संभव है कि उनसे इतर अन्यों को मध्यस्थ बनाने की अनुमति देगा। नबी और रसूलगण -अलैहिमुस्सलाम- तो स्वयं अल्लाह तआला की निकटता प्राप्त करने में हर पल प्रयासरत रहा करते थे, बल्कि इसमें जल्दबाज़ी किया करते थे। अल्लाह तआला इस मामले में उनकी उत्सुकता एवं जल्दबाज़ी को दर्शाते हुए कहता है :
{वास्तव में, वे सभी नेक कामों में जल्दी करते थे और हमसे रुचि तथा भय के साथ प्रार्थना करते थे और हमारे समक्ष अनुनय-विनय करने वाले थे।}
[सूरा अल-अंबिया : 90]
एक अन्य स्थान पर वह कहता है :
{वास्तव में, जिन्हें यह लोग पुकारते हैं, वे स्वयं अपने पालनहार का सामीप्य प्राप्त करने का साधन खोजते रहते हैं कि उनमें से कौन अधिक समीप हो जाए? और उसकी दया की आशा रखते हैं और उसकी यातना से डरते हैं। वास्तव में, आपके पालनहार की यातना डरने योग्य है भी।}
[सूरा अल-इसरा : 57]
अर्थात, तुम लोग अल्लाह से इतर, जिन नबियों और रसूलों -अलैहिमुस्सलाम- को पुकारते हो, वे स्वयं अल्लाह का सामीप्य हासिल करने की धुन में रहते, उसकी करूणा प्राप्त करने की आशा रखते और उसकी यातना से हर पल डरते हैं, तो फिर अल्लाह से इतर, उन्हीं को कैसे पुकारा जा सकता है भला?
44- इस पुस्तिका के अंत में हम इस बात का उल्लेख कर देना उचित समझते हैं कि लोग काल, क़ौम और मुल्क के लिहाज़ से भिन्न-भिन्न हैं, बल्कि पूरा इंसानी समाज ही अपने सोच-विचार, जीवन के उद्देश्य, वातावरण और कर्म के ऐतबार से टुकड़ों में बटा हुआ है। ऐसे में उसे ज़रूरत है एक ऐसे मार्गदर्शक की जो उसकी रहनुमाई कर सके, एक ऐसे सिस्टम की जो उसे एकजुट कर सके और एक ऐसे शासक की जो उसे पूर्ण सुरक्षा दे सके। नबी और रसूलगण -अलैहिमुस्सलाम- इस दायित्व को अल्लाह तआला की वह्य के आलोक में अदा करते थे। वे, लोगों को भलाई और हिदायत का रास्ता दिखाते, अल्लाह के धर्म-विधान पर सबको एकत्र करते और उनके बीच हक़ के साथ फैसला करते थे, जिससे उनके रसूलों के मार्गदर्शन पर चलने और ईश्वरीय संदेशों से उनके युग के करीब होने के मुताबिक, उनके मामलात सही डगर पर हुआ करते थे। अब अल्लाह के रसूल मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के नबूवत के द्वारा नबियों और रसूलों का सिलसिला समाप्त कर दिया गया है और अल्लाह तआला ने आप -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- के लाए हुए धर्म को ही क़यामत तक बाक़ी रखने की घोषणा कर दी है, उसी को लोगों के लिए हिदायत, रहमत, रोशनी और उस संमार्ग का रहनुमा बना दिया है, जो अल्लाह तक पहुँचा सकता है।
इस पुस्तिका के अंत में हम इस बात का उल्लेख कर देना उचित समझते हैं कि लोग काल, क़ौम और मुल्क के लिहाज़ से भिन्न-भिन्न हैं, बल्कि पूरा इंसानी समाज ही अपने सोच-विचार, जीवन के उद्देश्य, वातावरण और कर्म के ऐतबार से टुकड़ों में बटा हुआ है। ऐसे में उसे ज़रूरत है एक ऐसे मार्गदर्शक की जो उसकी रहनुमाई कर सके, एक ऐसे सिस्टम की जो उसे एकजुट कर सके और एक ऐसे शासक की जो उसे पूर्ण सुरक्षा दे सके। नबी और रसूलगण -अलैहिमुस्सलाम- इस दायित्व को अल्लाह तआला की वह्य के आलोक में अदा करते थे। वे, लोगों को भलाई और हिदायत का रास्ता दिखाते, अल्लाह के धर्म-विधान पर सबको एकत्र करते और उनके बाच हक़ के साथ फैसला करते थे, जिससे उनके रसूलों के मार्गदर्शन पर चलने और ईश्वरीय संदेशों से उनके युग के करीब होने के मुताबिक, उनके मामलात सही डगर पर हुआ करते थे। लेकिन जब गुमराहियाँ बढ़ गईं, अज्ञानता छा गई और मनगढ़ंत करोड़ों देवी-देवताओं की पूजा होने लगी तो अल्लाह तआला ने अपने अंतिम नबी मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- को मार्गदर्शन और सच्चा धर्म देकर भेजा कि लोगों को कुफ्र, अज्ञानता और मूर्तिपूजा के अंधकारों से निकाल कर ईमान और हिदायत के प्रकाश में ले आएँ।
45- इसलिए ऐ मानव! मैं तुमसे विनम्रतापूर्वक आह्वान करता हूँ कि अंधभक्ति और अंधविश्वास को त्याग कर, सच्चे मन और आत्मा के साथ अल्लाह के पथ का पथिक बन जाओ। जान लो कि तुम मरने के बाद, अपने रब ही के पास लौटकर जाने वाले हो। तुम अपनी आत्मा और अपने आस-पास फैले हुए असीम क्षितिजों पर सोच-विचार करने के बाद, इस्लाम क़बूल कर लो। इससे तुम निश्चय ही दुनिया एवं आख़िरत दोनों में सफल हो जाओगे। यदि तुम इस्लाम में दाखिल होना चाहते हो तो तुम्हें बस इस बात की गवाही देनी है कि अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं और मुहम्मद अल्लाह के अंतिम संदेष्टा हैं, फिर अल्लाह के सिवा जिन चीज़ों को तुम पूजा करते थे, उन सबका इनकार कर दो, इस बात पर ईमान लाओ कि अल्लाह तआला सबको क़ब्रों से ज़िंदा करके उठाएगा और इस बात पर भी ईमान ले आओ कि कर्मों का हिसाब-किताब और उनके अनुरूप श्रेय और बदला दिया जाना, हक और सच है। जब तुम इन बातों की गवाही दे दोगे तो मुसलमान बन जाओगे। उसके बाद तुम्हारे लिए ज़रूरी हो जाएगा कि तुम अल्लाह के निर्धारित किए हुए विधि-विधान के मुताबिक नमाज़ पढ़ो, ज़कात दो, रोज़ा रखो और यदि सफर-खर्च जुटा सको तो हज करो।
इसलिए ऐ मानव! मैं तुमसे विनम्रतापूर्वक आह्वान करता हूँ कि अंधभक्ति और अंधविश्वास को त्याग कर, सच्चे मन और आत्मा के साथ, उसी तरह अल्लाह के पथ का पथिक बन जाओ, जिस तरह अल्लाह तआला अपनी इस मधुर वाणी के द्वारा तुम्हें बुला रहा है :{कह दीजिए कि मैं तुम्हें केवल एक ही बात का उपदेश देता हूँ कि तुम अल्लाह के लिए (विशुद्ध तौर पर, ज़िद छोड़कर) दो-दो मिलकर या अकेले-अकेले खड़े होकर ख़याल तो करो , तुम्हारे इस साथी में कोई पागलपन नहीं है। वह तो तुम्हें एक बड़ी यातना के आने से पहले सचेत करने वाला है।}[सूरा सबा : 46]जान लो कि तुमको मरने के अपने पालनहार ही के पास लौट कर जाना है। अल्लाह कहता है :{और यह कि मनुष्य के लिए वही है, जिसका उसने प्रयास किया।और यह कि उसका प्रयास, उसे दिखा दिया जाएगा।फिर उसे उसका पूरा-पूरा बदला दिया जाएगा।और यह कि उसका अंतिम ठिकाना, उसके रब ही के पास है।}[सूरा अन-नज्म : 39-42]तुम्हारे लिए ज़रूरी है कि अपने भीतर और अपने आस-पास की वस्तुओं पर नज़र डालो और चिंतन-मंथन करो। अल्लाह का फ़रमान है :{क्या उन्होंने आकाशों तथा धरती के राज्य को और जो कुछ अल्लाह ने पैदा किया है, उसे नहीं देखा? और (यह भी नहीं सोचा कि) हो सकता है कि उनका (निर्धारित) समय समीप आ गया हो? तो फिर इस (क़ुरआन) के बाद वे किस बात पर ईमान लाएँगे?}[सूरा अल-आराफ़ : 185]इस्लाम क़बूल कर लो, दुनिया एवं आख़िरत दोनों जहानों में सफल और सुखी रहोगे और यदि तुमने इस्लाम लाने का निश्चय कर लिया है, तो तुम्हें बस यह गवाही देना पड़ेगी कि अल्लाह के अतिरिक्त कोई सत्य पूज्य नहीं है और मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- अल्लाह के रसूल हैं।अल्लाह के रसूल मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने मुआज़ -रज़ियल्लाहु अनहु- को इस्लाम का आह्वानकर्ता बनाकर यमन भेजते वक्त उनसे कहा था :"तुम किताब वालों (यहूदियों एवं ईसाइयों) के एक समुदाय के पास जा रहे हो। अतः, सबसे पहेल उन्हें "ला इलाहा इल्लल्लाह" की गवाही देने की ओर बुलाना। जबकि एक रिवायत में है : "सबसे पहले उन्हें केवल अल्लाह की इबादत की ओर बुलाना। अगर वे तुम्हारी बात मान लें तो उन्हें बताना कि अल्लाह ने उनपर दिन एवं रात में पाँच वक़्त की नमाजें फ़र्ज़ की हैं। अगर वे तुम्हारी यह बात मान लें तो उन्हें सूचित करना कि अल्लाह ने उनपर ज़कात फ़र्ज़ की है, जो उनके धनी लोगों से ली जाएगी और उनके निर्धनों को लौटा दी जाएगी। अगर वे तुम्हारी इस बात को भी मान लें तो उनके उत्तम धनों से बचे रहना और मज़लूम (पीड़ित) की बद-दुआ से बचना, क्योंकि उसके तथा अल्लाह के बीच कोई आड़ नहीं होती।"सहीह मुस्लिम, हदीस संख्या : 19तुम हर उस चीज़ से स्वयं को अलग कर लो, जिसकी अल्लाह के अलावा पूजा की जाती है। याद रखो कि अल्लाह के अलावा पूजी जाने वाली हर वस्तु को त्याग देना ही, इबराहीम -अलैहिस्सलाम- के समुदाय का संमार्ग है। अल्लाह तआला कहता है :{इबराहीम और उनके साथियों में तुम्हारे लिए अच्छा नमूना है, जब उन्होंने अपनी क़ौम से कहा था कि हम तुम्हें और हर उस वस्तु को त्याग दे रहे हैं, जिसकी तुम लोग अल्लाह के अलावा पूजा करते हो। हमने तुम्हारा खुला इनकार किया और आज से हमारे और तुम्हारे बीच सदा के लिए दुश्मनी और घृणा शुरू हो रही है, यहाँ तक कि तुम लोग केवल एक अल्लाह पर ईमान ले आओ।}[सूरा अल-मुमतहिना : 4]तुम इस बात पर ईमान ले आओ कि अल्लाह तआला, तमाम इंसानों को क़ब्रों से जीवित करके उठाएगा। अल्लाह कहता है :{यह इसलिए है कि अल्लाह ही सत्य है तथा वही जीवित करता है मुर्दों को तथा वास्तव में, वह जो चाहे, कर सकता है।यह इस कारण है कि क़यामत (प्रलय) अवश्य आनी है, जिसमें कोई संदेह नहीं और अल्लाह ही उन लोगों को पुनः जीवित करेगा, जो समाधियों (क़ब्रों) में हैं।}[सूरा अल-हज : 6-7]इसी तरह, इस बात पर भी ईमान ले आओ कि हिसाब-किताब और प्रतिकार का दिया जाना सत्य है। अल्लाह कहता है :{तथा अल्लाह ने आकाशों एवं धरती को न्याय के साथ पैदा किया है और ताकि बदला दिया जाए प्रत्येक प्राणी को उसके कर्म का तथा उनपर अत्याचार नहीं किया जाएगा।}[सूरा अल-जासिया : 22]
{कह दीजिए कि मैं तुम्हें केवल एक ही बात का उपदेश देता हूँ कि तुम अल्लाह के लिए (विशुद्ध तौर पर, ज़िद छोड़कर) दो-दो मिलकर या अकेले-अकेले खड़े होकर ख़याल तो करो , तुम्हारे इस साथी में कोई पागलपन नहीं है। वह तो तुम्हें एक बड़ी यातना के आने से पहले सचेत करने वाला है।}
[सूरा सबा : 46]
जान लो कि तुमको मरने के अपने पालनहार ही के पास लौट कर जाना है। अल्लाह कहता है :
{और यह कि मनुष्य के लिए वही है, जिसका उसने प्रयास किया।
और यह कि उसका प्रयास, उसे दिखा दिया जाएगा।
फिर उसे उसका पूरा-पूरा बदला दिया जाएगा।
और यह कि उसका अंतिम ठिकाना, उसके रब ही के पास है।}
[सूरा अन-नज्म : 39-42]
तुम्हारे लिए ज़रूरी है कि अपने भीतर और अपने आस-पास की वस्तुओं पर नज़र डालो और चिंतन-मंथन करो। अल्लाह का फ़रमान है :
{क्या उन्होंने आकाशों तथा धरती के राज्य को और जो कुछ अल्लाह ने पैदा किया है, उसे नहीं देखा? और (यह भी नहीं सोचा कि) हो सकता है कि उनका (निर्धारित) समय समीप आ गया हो? तो फिर इस (क़ुरआन) के बाद वे किस बात पर ईमान लाएँगे?}
[सूरा अल-आराफ़ : 185]
इस्लाम क़बूल कर लो, दुनिया एवं आख़िरत दोनों जहानों में सफल और सुखी रहोगे और यदि तुमने इस्लाम लाने का निश्चय कर लिया है, तो तुम्हें बस यह गवाही देना पड़ेगी कि अल्लाह के अतिरिक्त कोई सत्य पूज्य नहीं है और मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- अल्लाह के रसूल हैं।
अल्लाह के रसूल मुहम्मद -सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम- ने मुआज़ -रज़ियल्लाहु अनहु- को इस्लाम का आह्वानकर्ता बनाकर यमन भेजते वक्त उनसे कहा था :
"तुम किताब वालों (यहूदियों एवं ईसाइयों) के एक समुदाय के पास जा रहे हो। अतः, सबसे पहेल उन्हें "ला इलाहा इल्लल्लाह" की गवाही देने की ओर बुलाना। जबकि एक रिवायत में है : "सबसे पहले उन्हें केवल अल्लाह की इबादत की ओर बुलाना। अगर वे तुम्हारी बात मान लें तो उन्हें बताना कि अल्लाह ने उनपर दिन एवं रात में पाँच वक़्त की नमाजें फ़र्ज़ की हैं। अगर वे तुम्हारी यह बात मान लें तो उन्हें सूचित करना कि अल्लाह ने उनपर ज़कात फ़र्ज़ की है, जो उनके धनी लोगों से ली जाएगी और उनके निर्धनों को लौटा दी जाएगी। अगर वे तुम्हारी इस बात को भी मान लें तो उनके उत्तम धनों से बचे रहना और मज़लूम (पीड़ित) की बद-दुआ से बचना, क्योंकि उसके तथा अल्लाह के बीच कोई आड़ नहीं होती।"
सहीह मुस्लिम, हदीस संख्या : 19
तुम हर उस चीज़ से स्वयं को अलग कर लो, जिसकी अल्लाह के अलावा पूजा की जाती है। याद रखो कि अल्लाह के अलावा पूजी जाने वाली हर वस्तु को त्याग देना ही, इबराहीम -अलैहिस्सलाम- के समुदाय का संमार्ग है। अल्लाह तआला कहता है :
{इबराहीम और उनके साथियों में तुम्हारे लिए अच्छा नमूना है, जब उन्होंने अपनी क़ौम से कहा था कि हम तुम्हें और हर उस वस्तु को त्याग दे रहे हैं, जिसकी तुम लोग अल्लाह के अलावा पूजा करते हो। हमने तुम्हारा खुला इनकार किया और आज से हमारे और तुम्हारे बीच सदा के लिए दुश्मनी और घृणा शुरू हो रही है, यहाँ तक कि तुम लोग केवल एक अल्लाह पर ईमान ले आओ।}
[सूरा अल-मुमतहिना : 4]
तुम इस बात पर ईमान ले आओ कि अल्लाह तआला, तमाम इंसानों को क़ब्रों से जीवित करके उठाएगा। अल्लाह कहता है :
{यह इसलिए है कि अल्लाह ही सत्य है तथा वही जीवित करता है मुर्दों को तथा वास्तव में, वह जो चाहे, कर सकता है।
यह इस कारण है कि क़यामत (प्रलय) अवश्य आनी है, जिसमें कोई संदेह नहीं और अल्लाह ही उन लोगों को पुनः जीवित करेगा, जो समाधियों (क़ब्रों) में हैं।}
[सूरा अल-हज : 6-7]
इसी तरह, इस बात पर भी ईमान ले आओ कि हिसाब-किताब और प्रतिकार का दिया जाना सत्य है। अल्लाह कहता है :
{तथा अल्लाह ने आकाशों एवं धरती को न्याय के साथ पैदा किया है और ताकि बदला दिया जाए प्रत्येक प्राणी को उसके कर्म का तथा उनपर अत्याचार नहीं किया जाएगा।}
[सूरा अल-जासिया : 22]
जब तुमने यह गवाही दे दी तो तुम मुसलमान हो गए और अब तुम्हारे लिए ज़रूरी है कि अल्लाह ने नमाज़, ज़कात, रोज़ा और यदि सफर-ख़र्च का प्रबंध किया जो सके, तो हज आदि, जो इबादतें सिखाई हैं, उन्हें अदा करो।
दिनांक 19-11-1441 की प्रति
लेखक : डाक्टर मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह अस-सुह़ैम
भूतपूर्व प्रोफेसर इस्लामी अध्ययन विभाग
प्रशिक्षण महाविद्यालय, किंग सऊद विश्वविद्यालय
रियाज़, सऊदी अरब