Full Description
इस्लाम कृपा एवं दया का धर्म
लेखक
ख़ालिद अबू सालेह़
अनुवाद
जावेद अह़मद
संशोधन
अताउर्रह़मान ज़ियाउल्लाह
शफ़ीक़ुर्रह़मान ज़ियाउल्लाह मदनी
संक्षिप्त परिचय
“इस्लाम कृपा एवं दया का धर्म", यह पुस्तक इस बात पर प्रकाश डालती है कि इस्लाम कृपा एवं दया का धर्म है और इस्लाम के पैग़म्बर मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अल्लाह की ओर से इस भटकती हुई मानवता के लिए करुणा के भण्डार हैं। अतः इस धरती पर बसने वाला हर व्यक्ति दया का पात्र है, चाहे वह आस्तिक हो या नास्तिक।
بسم الله الرحمن الرحيم
अल्लाह के नाम से आरम्भ करता हूँ, जो अति मेहरबान और दयालु है।
सभी प्रशंसाएं अल्लाह रब्बुल आलमीन के लिए हैं और दरूद व सलाम हो हमारे नबी मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर, जिनको पूरी दुनिया के लिए रह़मत बनाकर भेजा गया तथा आपकी संतान और आपके सभी साथियों पर।
सन्देष्टा ह़ज़रत मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को क्यों भेजा गया?
क्या उनको मानवता को यातना देने के लिए भेजा गया?
क्या उनको मानवता को नष्ट करने के लिए भेजा गया?
क्या लोगों से उनके अविश्वास तथा शत्रुता का बदला लेने के लिए भेजा गया?
इन सारे प्रश्नों का उत्तर अल्लाह तआला का यह कथन दे रहा हैः
﴿وَمَآ أَرۡسَلۡنَٰكَ إِلَّا رَحۡمَةٗ لِّلۡعَٰلَمِينَ﴾[1]
“तथा हमने आपको पूरी दुनिया के लिए रह़मत बनाकर भेजा है।"
यही दूतत्व का उद्देश्य, अवतरण का आशय तथा नबूअत का मक़सद है।
निःसंदेह मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अल्लाह की ओर से पथ-भ्रष्ट तथा परेशान-हाल मानवता के लिए अनुकम्पा हैं।
अल्लाह तआला का कथन हैः
﴿فَبِمَا رَحۡمَةٖ مِّنَ ٱللَّهِ لِنتَ لَهُمۡۖ وَلَوۡ كُنتَ فَظًّا غَلِيظَ ٱلۡقَلۡبِ لَٱنفَضُّواْ مِنۡ حَوۡلِكَۖ﴾[2]
“अल्लाह की रह़मत के कारण आप उनके लिए रहम दिल हैं, यदि आप बद ज़ुबान और सख़्त दिल होते, तो यह सब आपके पास से छट जाते।"
यदि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम कठोर हृदय होते, तो अल्लाह तआला का संदेश पहुँचाने के लिए अनुचित होते। जब अल्लाह तआला ने आपको संदेश्वाहक बनाया, तो संदेष्टा के लिए अनिवार्य है कि वह कृपालु, दयावान, विशाल हृदय, सहनशील तथा धैर्यवान और संतोषी हो।
नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमायाः
“ऐ लोगो! मैं रहमत तथा दया बनाकर भेजा गया हूँ।"[3]
इतिहासकारों ने आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की विशेषताओं के विषय में लिखा हैः
· आप बीवी बच्चों के सम्बन्ध में लोगों में सबसे बढ़कर दयालु थे।[4]
· आप दयालु थे। आपके पास जो भी (कुछ माँगने) आता, (और उसे देने के लिए वह चीज़ नहीं होती तो) उससे वायदा करते थे और अगर वह वस्तु आपके पास होती, तो आप उसे अता करते थे।[5]
कृपा की प्रेरणा
नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने लोगों को अल्लाह की सृष्टि के साथ कृपा एवं दया करने पर उभारा है। वह छोटे हों या बड़े, नर हों या नारी तथा मुसलमान हों या नास्तिक। इस सम्बन्ध में बहुत सारे तर्क वर्णित हैं:
· जरीर बिन अब्दुल्लाह रज़ियल्लाहु अन्हु द्वारा वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमायाः
“जो व्यक्ति लोगों पर दया नहीं करता, अल्लाह उसपर दया नहीं करता।"[6]
· तथा ह़ज़रत अबू मूसा रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि उन्होंने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को फ़रमाते हुए सुनाः
“तुम मोमिन नहीं हो सकते यहाँ तक कि आपस में एक-दूसरे के ऊपर दया करने लगो।"
उन्होंने कहा कि ऐ अल्लाह के रसूल! हममें से हर व्यक्ति दयालु है! तो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमायाः
“दया यह नहीं है कि तुममें से कोई अपने साथी पर करे। परन्तु दया यह है कि तुम अपने साथी के साथ करो।"[7]
यह इस बात का तर्क है कि दया सबके साथ होनी चाहिए। परिचित के साथ भी तथा अपरिचित के साथ भी।
· तथा अब्दुल्लाह बिन अम्र बिन आस रज़ियल्लाहु अन्हुमा द्वारा वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः
“दया करने वालों पर अल्लाह तआला दया करता है। धरती पर बसने वालों पर दया करो, आकाश वाला तुमपर दया करेगा।"[8]
आप नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के इस फ़रमान “धरती पर बसने वालों पर दया करो।" के अर्थ पर चिन्तन करें, तो इस धर्म की महानता समझ जायेंगे, जो दरअसल पूरी मानव जाति के लिए कृपा बनकर उतरा है। चुनांचे इस धरती पर बसने वाला हर व्यक्ति इस्लाम धर्म में दया का पात्र है!
चाहे वह अनीश्वरवादी ही क्यों न हो...!
जी हाँ! चाहे वह गैर-मुस्लिम ही क्यों न हो!
अब यह प्रश्न उठता है कि इस्लाम ने जिहाद का आदेश क्यों दिया?
तो दर असल, इस्लाम ने जिहाद का आदेश अल्लाह की कृपा तथा लोगों के बीच रोड़ा बनने वाले व्यक्ति (अथवा तथ्यों) को रास्ते से हटाने के लिए दिया है। अल्लाह तआला का फ़र्मान हैः
كُنتُمۡ خَيۡرَ أُمَّةٍ أُخۡرِجَتۡ لِلنَّاسِ[9]
“तुम बेहतरीन उम्मत हो, जो लोगों के लिए पैदा की गई है।"
अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु फरमाते हैं कि तुम लोगों में, लोगों के लिए सबसे उत्तम हो। तुम उनको बेड़ियों में इसलिए जकड़कर लाते हो, ताकि तुम उनको स्वर्ग में ले जा सको।
इस्लाम का द्वेष तथा कीना-कपट से कोई सम्बन्ध नहीं, जिसने जीवन के अनेक भागों में मानवता को विनाश के घाट उतारा।
निःसंदेह कठोर हृदय जिसमें कृपा व दया न हो, वह सच्चे विश्वासियों (मोमिनों) के हृदय नहीं। इसीलिए नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः
“कृपा, केवल दुःशील से उठा ली जाती है।"[10]
मालूम रहे कि दूसरे विश्व युध्द में 60 मिलियन जनता मारी गई। क़बरें अपने मदफ़ूनों पर तंग हो गयीं, शव की बदबू संसार के कोने-कोने में फैल गयी और मानवता ख़ून तथा खोपड़ियों और शवों के टुकड़ों के समूद्र में डूब गयी। युध्द नेताओं की इच्छा थी कि अपने शत्रु राष्ट्रों के नागरिकों की अधिक से अधिक संख्या को मौत के घाट उतार दें। उन्होंने बस्तियों को नष्ट करने, निशाने राह को मिटाने और जीवन के हर दस्तूर का सफ़ाया करने के लिए सबसे बड़ी सम्भाविक ताक़त का प्रयोग किया।
ऐसे में, भला यह लोग विश्व को किस प्रकार की स्वतंत्रता दे सकते हैं?
तथा मानव जाति को कौन सी आज़ादी दिला सकते हैं?
यह युध्द क्यों हुआ? इसके क्या कारण थे? इसके नैतिक कारण क्या थे? इसके परिणाम क्या निकले? इसमें होने वाली तबाही का ज़िम्मेदार कौन है? इनसब पर किसी ने नहीं सोचा। इच्छाओं, कठोरता और कीना-कपट का दिलो दिमाग़ पर क़ब्ज़ा रहा। युध्द नेताओं पर बल-शक्ति का घमंड चढ़ा रहा। अन्ततः इस भयानक विश्व-संघर्ष का यह दर्दनाक परिणाम सामने आया!
आश्चर्य की बात यह है कि जो लोग इस घिनावने नर-हत्या के मुज्रिम थे, वही आज इस्लाम तथा मुसलमानों पर कठोरता और सख़्ती का आरोप लगाते हैं। समझते हैं कि इस्लाम कठोरता पर उभारने वाला धर्म है तथा नष्ट, विनाश और सार्वजनिक हत्या की ओर बुलाता है!!!
परन्तु, यह सफ़ेद झूठ है! इसका प्रमाण न इतिहास से मिलता है और न मौजूदा सूरते-हाल से।
नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने जब ह़ज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु को ख़ैबर के यहूदियों की ओर भेजा तो ह़ज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु ने आपसे प्रश्न किया कि ऐ अल्लाह के रसूल! क्या मैं उनसे युध्द करता रहूँगा, यहाँ तक कि वह हमारी तरह हो जायें (मुसलमान हो जायें)? तो आपने फ़रमायाः
“इत्मीनान से रवाना हो जाओ। ख़ैबर के मैदान में पहुँच जाओ तो सबसे पहले उन्हें इस्लाम की ओर बुलाओ और अल्लाह के अधिकारों से अवगत कराओ। अल्लाह की सौगन्ध! यदि अल्लाह तुम्हारे द्वारा एक व्यक्ति को भी हिदायत दे दे, तो यह तुम्हारे लिए लाल रंग के ऊँटों से बेहतर है।"[11]
अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम द्वारा अपने एक कमांडर को दिये गये इस आदेश में हत्या और खून बहाने जैसी कोई बात नहीं है। अपितु आपके आदेश में यह संकेत है कि उन लोगों का हिदायत पा जाना तथा सत्य (इस्लाम) को स्वीकार कर लेना, उन्हें कुफ़्र की स्थिति में मारने से बेहतर है।
और युध्द में इस्लाम की कृपा के विषय में ह़ज़रत अनस बिन मालिक रज़ियल्लाहु अन्हु वर्णन करते हैं कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः
“रसूलुल्लाह के धर्म पर रहते हुए, अल्लाह के वास्ते, अल्लाह का नाम लेकर निकल जाओ। न किसी कमज़ोर बूढ़े को मारो, न किसी छोटे बच्चे और न किसी नारी किसी नारी पर हाथ उठाओ। माले ग़नीमत में ख़्यानत न करो और माले ग़नीमत समेट लो तथा संधि से काम लो एवं भलाई करो। निःसंदेह अल्लाह भलाई करने वाले को पसन्द करता है।"[12]
आपके इस आदेश से उन लोगों का क्या सम्बन्ध है, जिन्होंने बस्तियों को नष्ट किया, बस्तियों में बसने वालों को तबाह किया, विश्व स्तर पर वर्जित हर प्रकार के हथियारों का प्रयोग करके औरतों, बच्चों, बूढ़ों, खेत में काम कर रहे किसानों और गिरजाघरों के पादरियों को क़त्ल किया?
जिन युध्दों में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने नेतृत्व किया या जो युध्द आपके युग में ल़ड़े गये, उनमें नास्तिकता के सैकड़ों नेता मारे गये, जिन्होंने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को कष्ट दिया था, आपके साथियों को शहीद किया था तथा इस्लाम और मुसलमानों पर हर जगह तंगियाँ की थीं, लेकिन नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथियों ने उन्हें कष्ट तथा दण्ड देते हुए अन्य देशों की ओर चले जाने और अपने मालों और घरों को छोड़ देने पर मजबूर नहीं किया। जबकि केवल सलीबी युध्द के अन्दर लोखों मुसलमान ख़त्म कर दिए गये तथा लाखों लोग अनेक प्रकार की घिनावनी यातनाओं से पीड़ित हुए।
तो तुम्हारी वह दया कहाँ है, जिसके तुम दावे करते थे?
तथा आज तक इन लोगों ने इन घिनावने कर्तूतों से क्षमा क्यों नहीं मांगी?
जोसेफ़ लोफन –जो एक बड़ा मुस्तश्रिक़ (पूर्व देशीय भाषाओं और उलूम का ज्ञान रखने वाला पश्चिमी विचारक) है- कहता हैः “सत्य तो यह है कि लोगों ने अरबों जैसी दया व रहम करने वाले विजेता नहीं देखे। दरअसल इस्लाम धर्म ने ही मुसलमानों को यह कृपा तथा दया प्रदान की थी। हमने अनेक युध्द देखे हैं, जैसे अफ़्यून युध्द तथा उससे कठोर आज के उपनिवेशिक युध्द और उनसे भी कठोर सहयूनियों की कठोरता तथा अत्याचार है। विनाशकारी तथा खून बहाने से इन सहयूनियों को लगाव है।"[13]
यह मुसलमानों की दया और यह इन शत्रुओं की कठोरता है। ऐसे में कौन से गरोह पर कठोरता, हत्या तथा आतंक का आरोप लगाया जा सकता है?"
शैख़ अब्दुररह़मान सअदी कहते हैं: “इस धर्म की कृपा, बेहतर मामलात, भलाई की दावत तथा इसके विपरीत वस्तुओं से मनाही ने ही इस धर्म को अत्याचार, दुर्व्यवहार तथा तिरस्कार के अऩ्धकार में ज्योति तथा प्रकाश बना दिया। इसी विशेषता ने कठोर शत्रुओं के हृदय को खींच लिया, यहाँ तक कि उन्होंने इस्लाम धर्म के साये में पनाह ले ली। इस धर्म ने अपने मानने वालों के ऊपर दया की, यहाँ तक कि क्षमा और दया उनके दिलों से छलककर उनके कथन और कार्यों पर प्रकट होने लगी और यह एहसान उनके शत्रुओं तक जा पहुँचा, यहाँ तक कि वह इस धर्म के महान मित्र बन गये। कुछ तो शौक़ और बेहतर सूझ-बुझ से इसके अन्दर दाखिल हो गये और कुछ इस धर्म के आगे झुक गये तथा (उनके दिलों में) इस के आदेशों के प्रति उल्लास पैदा हो गया और उन्होंने न्याय और कृपा के आधार पर इस्लाम धर्म को अपने धर्म के आदेशों पर प्राथमिकता दी।"[14]
बच्चों पर दया
इस्लाम के अन्दर कृपा की एक शक्ल छोटे बच्चों पर दया करना, उनसे लाड और प्यार करना और उनको दुःख न पहुँचाना है।
अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है, वह कहते हैं कि (एक दिन) नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने हसन बिन अली रज़ियल्लाहु अन्हुमा को बोसा दिया। आपके पास अक़रा बिन ह़ाबिस बैठे हुए थे। अक़रा ने कहा कि मेरे दस बच्चे हैं, परन्तु मैंने उनमें से किसी को बोसा नहीं दिया, तो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उनकी ओर देखा और फरमायाः
“जो दया नहीं करता, उसपर दया नहीं की जाती।"[15]
तथा ह़ज़रत आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा से वर्णित है, वह फरमाती हैं कि कुछ देहाती अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास आये और यह प्रश्न किया कि क्या आप लोग अपने बच्चों को बोसा देते हैं? आपने उत्तर दिया कि हाँ। उन्होंने कहा कि अल्लाह की क़सम! हम उनको बोसा नहीं देते हैं! तो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः
“अगर अल्लाह ने तुम्हारे दिलों से दया को उठा लिया, तो मैं इसका मालिक नहीं।"[16]
यह मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम हैं। यही वह व्यक्ति है, जिसके विषय में लोग मिथ्या से काम लेते हैं। कहते हैं कि वह एक युध्द प्रेमी और गँवार व्यक्ति था। ख़ून बहाने का अभिलाषी था। दया करना नहीं जानता था!!
यदि वह अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर इस प्रकार के असत्य तथा मनगढ़ंत आरोप लगाते हैं, तो वह असफल तथा नाकाम रहें!!
ह़ज़रत अबू मस्ऊद बदरी रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है, वह कहते हैं कि मैं अपने नौकर को कोड़े लगा रहा था कि मुझे मेरे पीछे से एक आवाज़ सुनाई दी “ऐ अबू मस्ऊद! याद रखो!", वह कहते हैं कि मैं क्रोध के कारण आवाज़ को पहचान न सका। परन्तु जब वह मेरे निकट आये तो वह अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम थे। आप फरमा रहे थेः
“अबू मस्ऊद याद रखो कि तुम जितनी शक्ति इस नौकर के ऊपर रखते हो, उससे अधिक शक्ति अल्लाह तुम्हारे ऊपर रखता है।"
तो मैंने कहा कि इसके बाद मैं कभी किसी नौकर को नहीं मारूँगा!
एक रिवायत में हैः मैंने कहा कि ऐ अल्लाह के रसूल! यह अल्लाह की प्रसन्नता की प्राप्ति के लिए आज़ाद है।!! तो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः
“यदि तुम ऐसा न करते, तो नरक की आग तुमको धर लेती।"[17]
जिन संगठनों की स्थापना बच्चों के ऊपर होने वाले अत्याचार को रोकने के लिए की गयी है, उनका उत्तरदायित्व बनता है कि वह बच्चों के अधिकार को सिध्द करने तथा उनको कष्ट से बचाने के सम्बन्ध में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की प्रधानता को स्वीकार करें तथा बच्चों पर दया, उनसे प्यार और भलाई की प्रेरणा देने वाली इन महत्वपूर्ण अहादीस नबवी को अपने दरवाज़ों पर लटका दें।
बच्चों पर नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की दया का एक प्रमाण यह भी है उनके देहान्त पर आपकी आँखों से आँसू जारी हो जाते। उसामा बिन ज़ैद रज़ियल्लाहु अन्हुमा से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अपने नवासे को अपने हाथों में लिया। उस समय वह मरने के निकट थे। चुनांचे आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की आँखों से आँसू निकल पड़े। यह देखकर सअद रज़ियल्लाहु अन्हु ने आपसे प्रश्न किया कि ऐ अल्लाह के रसूल! यह क्या है? तो आपने उत्तर दियाः
“यह दया का आँसू है, जिसे अल्लाह ने अपने बन्दों के दिलों में डाल रखा है तथा अल्लाह तआला अपने दया करने वाले बन्दों पर ही दया करता है।"[18]
नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अपने पुत्र इब्रीम के पास उनकी मृत्यु के समय गये, तो आपकी आँखों से आँसू बहने लगे। यह देखकर अब्दुररह़मान बिन औफ़ रज़ियल्लाहु अन्हु ने आपसे प्रश्न किया कि ऐ अल्लाह के रसूल! आपकी आँखों से आँसू निकल रहे हैं? तो आपने उत्तर दियाः “ऐ औफ़ के पुत्र! यह दया के आँसू हैं।" फिर आपने फरमायाः
“निःसंदेह आँखों से आँसू निकल रहे हैं, हृदय दुखित है, परन्तु हम वही बात कहते हैं, जिससे हमारा प्रभु प्रसन्न हो। ऐ इब्राहीम! हम तेरी जुदाई (देहान्त) से दुखित हैं।"[19]
स्त्रियों पर दया
जहाँ तक इस्लाम में स्त्रियों के साथ दया करने की बात है, तो यह ऐसी चीज़ है, जिसपर मुसलमान हर दौर में गर्व करते रहे हैं। इसीसे सम्बन्धित यह वर्णन है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने एक जंग में एक औरत को वधित पाया, तो इसे नापसंद किया तथा बच्चों और औरतों को क़त्ल करने से मना कर दिया।[20]
एक दूसरे वर्णन के अन्दर है कि आपने फरमायाः
“इसको क़त्ल नहीं करना चाहिए था।" फिर आपने अपने सह़ाबा की ओर देखा और उनमें से एक को आदेश दियाः “ख़ालिद बिन वलीद से जा मिलो तथा उनसे कहो कि छोटे बच्चों, कर्मकारों एवं स्त्रियों को क़त्ल न करें।"[21]
और आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः
“ऐ अल्लाह! मैं दो प्रकार के कमज़ोरों अर्थात अनाथ तथा स्त्री के अधिकारों के बारे में लोगों पर तंगी करता हूँ।"[22]
इस जगह स्त्री को कमज़ोरी से विशिष्ट करने का अर्थ है कि उसपर दया की जाय, उसके साथ सद्व्यवहार किया जाय तथा उसे दुःख न पहुँचाया जाय।
कहाँ हैं वह लोग, जो इस्लाम पर हिंसा तथा स्त्रियों के साथ भेद-भाव का आरोप लगाते हैं?
जानवरों पर दया
इस्लाम धर्म के अन्दर दया इन्सानों से आगे जानवरों को भी सम्मिलित है। इस्लाम ने मेहरबानी तथा दया के अन्दर जानवर का भाग सुनिश्चित कर दिया है। ह़ज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः
“एक औरत एक बिल्ली के कारण नरक में दाखिल हूई। उसने उसे बाँध दिया। न तो उसे खिलाया और न छोड़ा कि ज़मीन के कीड़े-मकूड़े खा सके।"
तथा एक अन्य वर्णन में हैः
“उसने उसे क़ैद कर दिया, यहाँ तक कि वह मर गई। जब उसे क़ैद किया, तो न उसे खिलाया-पिलाया और न ज़मीन के कीड़े मकूड़े खाने के लिए छोड़ा।"[23]
ह़ज़रत अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है, वह अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से वर्णन करते हैं कि आपने फरमयाः
“एक व्यक्ति एक कुएँ के निकट आया और उतर कर पानी पिया। कुएँ के पास एक कुत्ता प्यास के कारण हाँप रहा था। उसे दया आ गयी। उसने अपना एक मोज़ा निकालकर उसे पानी पिलाया। चुनांचे अल्लाह अल्लाह ने उसके बदले उसे स्वर्ग में दाख़िल कर दिया।"[24]
नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः
“जो व्यक्ति बिना किसी अधिकार के गोरैये या उससे बड़े जानवर को मारता है, अल्लाह तआला महाप्रलय के दिन उससे इसके बारे में प्रश्न करेगा।"
प्रश्न किया गया कि ऐ अल्लाह के रसूल! उसका अधिकार क्या है? तो आपने उत्तर दियाः
“उसका अधिकार यह है कि जब उसे ज़बह़ करे, तो उसे खाये तथा उसके सर को काटकर फेंक न दे।"[25]
यह उस व्यक्ति की बात है, जो बिना किसी अधिकार के एक गोरैये को मारे। ऐसे में उस व्यक्ति का हाल, बदला और यातना क्या होगी, जो नाह़क़ किसी व्यक्ति का क़त्ल कर डाले?
जानवरों के विषय में इस्लाम की दया का एक पक्ष यह भी है कि उसने उनके साथ एहसान करने तथा ज़बह करते समय उनको घबराहट में न डालने का आदेश दिया है। आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः
“अल्लाह ने हर वस्तु पर एहसान को अनिवार्य कर दिया है। अतः जब तुम क़त्ल करो, तो ठीक तरीक़े से क़त्ल करो, जब ज़बह करो तो ठीक तरीक़े से ज़बह करो तथा तुममें से एक व्यक्ति को चाहिए कि अपनी छुरी तेज़ कर ले और अपने जानवर को आराम पहुँचाये।"[26]
ह़ज़रत अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा से वर्णित है कि एक व्यक्ति ने एक बकरी को लिटाया तथा उसके सामने अपनी छुरी तेज़ करने लगा, तो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायाः
“क्या तुम इसे दो बार ज़बह करना चाहते हो? इसे लिटाने से पहले अपनी छुरी क्यों तेज़ नहीं कर ली?"[27]
तो जानवरों के साथ दया की याचना करने वाले संगठन इन उत्तम नबवी आदर्शों को क्यों नहीं अपनाते? कैसे यह लोग इस्लाम की श्रेष्ठता को नकारते हैं, जबकि यह धर्म इनके सामने चौदह सौ सालों से मौजूद है? लगातार यह लोग सत्य तथा असत्य के बीच अन्तर करने से भागते रहे हैं। क्योंकि इस्लामी तरीक़े से ज़बह करने को यह एक प्रकार का अत्याचार समझते हैं। यह लोग इस्लामी तरीक़े से ज़बह करने के ढेर सारे लाभ से अवगत नहीं हैं। जबकि यह या तो जानवरों को बिजली का झटका देते हैं या उनके सरों पर मारते हैं और मरने के पश्चात उन्हें ज़बह करते हैं और इस तरीक़े को जानवर के साथ दया समझते हैं। सच यह है कि यदि आदमी के पास कोई ईश्वरीय संदेश न हो, तो वह बिना ज्ञान के ज़िन्दगी की राह में आदे बढ़ता है और अपने मन से निर्णय लेता है। वह हर सफ़ेद वस्तु को चरबी का एक टुकड़ा तथा हर काली वस्तु को खजूर समझता है। वह अन्य लोगों पर गर्व करने लगता है। हालाँकि उसका यह कृत्य स्वंय एक प्रकार की कुत्सा तथा निंदा है। परन्तु इच्छा की आँख अन्धी होती है!
जिसको कड़वेपन का रोग होता है, उसे साफ़ तथा मीठा पानी भी कड़वा लगता है।
जानवर पर दया करने के सम्बन्ध में यह अनूठा वर्णन भी बयान किया जाता है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम एक अंसारी के बाग़ में दाखिल हुए, तो देखा कि उसके अन्दर एक ऊँट बंधा हुआ है, जो आपको देखकर आवाज़ करने लगा तथा उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम उसके पास आये और उसकी गर्दन पर अपना हाथ फेरा, तो वह चुप हो गया। आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने प्रश्न कियाः
“इस ऊँट का मालिक कौन है? यह ऊँट किसका है?"
तो एक अंसारी लड़के ने उत्तर दिया कि ऐ अल्लाह के रसूल! यह ऊँट मेरा है।
तो आपने फरमायाः
“क्या इस जानवर के बारे में तुम्हें अल्लाह का डर नहीं है, जिसने तुम्हें इसका मालिक बनाया है? क्योंकि इसने मुझसे शिकायत की है कि तुम इसे भूखा रखते हो और निरन्तर भारी-भरकम बोझ लादते हो।"[28]
नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की यह दया खनिज पदार्थों के साथ भी थी। आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम खजूर के एक तने पर खड़े होकर ख़ुतबा (भाषण) देते थे। जब आपके लिए मिंबर बनाया गया और उस पर खड़े होकर भाषण देने लगे, तो वह तना रो पड़ा। यहाँ तक कि सह़ाबा ने उसके रोने की आवाज़ सुनी। चुनांचे आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उसपर अपना हाथ रखा और वह चुप हो गया।[29]
यह नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की दया और मेहरबानी है, यह आपकी भावनाएं हैं, यह आपका आभार और आपके मूल सिध्दांत हैं, जिनकी ओर आपने लोगों को बुलाया। तो इन उत्तम आदर्शों को क्यों नकारते हो तथा इस अनुपम बुज़ुर्ग हस्ती के अन्दर मानवीय उच्च मूल्यों को क्यों नहीं देखते?
कभी-कभी आँख आने के कारण आँख सूर्य के प्रकाश का इन्कार कर देती है तथा कभी-कभी बीमारी के कारण पानी का मज़ा अच्छा नहीं लगता।
[1] सूरह अल्-अम्बियाः 107
[2] सूरह आले-इम्रानः 159
[3] इब्ने सअद ने इसका वर्णन किया है और अल्लामा अलबानी ने श्वाहिद के आधार पर इसे ह़सन कहा है।
[4] सह़ीहुल जामे
[5] सह़ीह़ुल जामे
[6] बुख़ारी एवं मुस्लिम
[7] इसे तबरानी ने बयान किया है और अलबानी ने ह़सन कहा है।
[8] अबू दाऊद और तिर्मिज़ी ने इसे बयान किया है और तिर्मिज़ी ने कहा है कि यह ह़दीस ह़सन-सह़ीह़ है।
[9] सूरह आले-इम्रानः 110
[10] इसे अबू दाऊद ने बयान किया है और अलबानी ने ह़सन कहा है।
[11] बुख़ारी एवं मुस्लिम
[12] अबू दाऊद
[13] रह़मतुल इस्लामः 167-168
[14] अद्दुर्रतुल-मुख्तसरह पृष्ठः 10-11
[15] बुख़ारी एवं मुस्लिम
[16] बुख़ारी एवं मुस्लिम
[17] मुस्लिम
[18] बुख़ारी तथा मुस्लिम
[19] बुख़ारी एवं मुस्लिम
[20] मुस्लिम
[21] अह़मद तथा अबू दाऊद
[22] इसे इमाम नसाई ने रिवायत किया है और अलबानी ने ह़सन कहा है।
[23] बुख़ारी एवं मुस्लिम
[24] बुख़ारी तथा मुस्लिम
[25] इमाम नसाई ने इस ह़दीस को वर्णन किया है तथा अलबानी ने ह़सन कहा है।
[26] मुस्लिम
[27] तबरानी और ह़ाकिम ने इसका वर्णन किया तथा अलबानी ने इसे सह़ीह़ कहा है।
[28] अह़मद तथा अबूदाऊद ने इसका वर्णन किया है और अलबानी ने सह़ीह़ कहा है।
[29] बुख़ारी