सामग्री के अनुवाद
Full Description
- किताबुत तौहीदजो बंदों पर अल्लाह का अधिकार है
- किताबुत तौहीद
- अध्याय : एकेश्वरवाद की फ़ज़ीलत तथा उसका तमाम गुनाहों के मिटा देना
- अध्याय : तौह़ीद का पूर्णतया पालन करने वाला बिना हिसाब के जन्नत में प्रवेश करेगा
- अध्याय : शिर्क से डरने की आवश्यकता
- अध्याय : ला इलाहा इल्लल्लाह की गवाही का आह्वान
- अध्याय : तौहीद की व्याख्या तथा ला इलाहा इल्लल्लाह की गवाही देने का अर्थ
- अध्याय : आपदा से बचाव या उसे दूर करने के उद्देश्य से कड़ा और धागा आदि पहनना शिर्क है
- अध्याय : दम करने तथा तावीज़-गंडे आदि के प्रयोग के बारे में शरई दृष्टिकोण
- अध्याय : पेड़ या पत्थर आदि से बरकत हासिल करने की मनाही
- अध्याय : अल्लाह के अतिरिक्त किसी और के लिए जानवर ज़बह करने की मनाही
- अध्याय : जहाँ अल्लाह के सिवा किसी और के नाम पर जानवर ज़बह किया जाता हो, वहाँ अल्लाह के नाम पर ज़बह करने की मनाही
- अध्याय : अल्लाह के सिवा किसी और के लिए मन्नत मानना शिर्क है
- अध्याय : अल्लाह के सिवा किसी और की शरण माँगना शिर्क है
- अध्याय : अल्लाह के सिवा किसी से फ़रियाद करना या उसे पुकारना शिर्क है
- अध्याय : उच्च एवं महान अल्लाह के इस कथन का वर्णन : {حَتَّى إِذَا فُزِّعَ عَن قُلُوبِهِمْ قَالُواْ مَاذَا قَالَ رَبُّكُمْ قَالُوا الْحَقَّ وَهُوَ الْعَلِيُّ الْكَبِيرُ} (यहाँ तक कि जब उन (फरिश्तों) के हृद्यों से घबराहट दूर कर दी जाती है, तो फरिश्ते पूछते हैं कि तुम्हारे रब ने क्या फरमाया? वे कहते हैं कि सच फरमाया, और वह सर्वाच्च और महान है।) [सूरा सबा : 23]
- अध्याय : शफ़ाअत (सिफ़ारिश) का वर्णन
- अध्याय : इनसान के अपने धर्म का परित्याग कर कुफ्र की राह अपनाने का मूल कारण सदाचारियों के संबंध में अतिशयोक्ति है
- अध्याय : किसी सदाचारी व्यक्ति की क़ब्र के पास बैठकर अल्लाह की इबादत करना भी बहुत बड़ा पाप है, तो स्वयं उसकी इबादत करना कितना बड़ा अपराध हो सकता है?!
- अध्याय : सदाचारियों की कब्रों के संबंध में अतिशयोक्ति उन्हें अल्लाह के सिवा पूजे जाने वाले बुतों में शामिल कर देती है
- अध्याय : मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का तौहीद की सुरक्षा करना एवं शिर्क की ओर ले जाने वाले हर रास्ते को बंद करना
- अध्याय : इस उम्मत के कुछ लोगों का बुतपस्ती में पड़ना
- अध्याय : जादू का वर्णन
- अध्याय : जादू के कुछ प्रकार
- अध्याय : काहिन तथा इस प्रकार के लोगों के बारे में शरई दृष्टिकोण
- अध्याय : जादू-टोने के ज़रिए जादू के उपचार की मनाही
- अध्याय : अपशगुन लेने की मनाही
- अध्याय : ज्योतिष विद्या के बारे में शरई दृष्टिकोण
- अध्याय : नक्षत्रों के प्रभाव से वर्षा होने की धारणा रखने की मनाही
- अध्याय : उच्च एवं महान अल्लाह के इस कथन का वर्नण :
- {وَمِنَ النَّاسِ مَنْ يَتَّخِذُ مِنْ دُونِ اللهِ أَندَادًا يُحِبُّونَهُمْ كَحُبِّ اللهِ} (कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो अल्लाह का साझी औरों को ठहरा कर उनसे ऐसा प्रेम रखते हैं, जैसा प्रेम वे अल्लाह से करते हैं।)
- [सूरा बक़रा : 165}
- अध्याय : उच्च एवं महान अल्लाह के इस कथन का वर्नण :
- {إِنَّمَا ذلِكُمُ الشَّيْطَانُ يُخَوِّفُ أَوْلِيَاءَهُ فَلاَ تَخَافُوهُمْ وَخَافُونِ إِن كُنتُم مُّؤْمِنِينَ} (वह शैतान है, जो तुम्हें अपने सहयोगियों से डरा रहा है, तो उनसे न डरो तथा मुझी से डरो यदि तुम ईमान वाले हो।)
- [सूरा आल-ए-इमरान : 175]
- अध्याय : उच्च एवं महान अल्लाह के इस कथन का वर्णन :
- {وَعَلَى اللهِ فَتَوَكَّلُواْ إِن كُنتُم مُّؤْمِنِينَ} (और तुम अपने रब पर भरोसा रखो, यदि तुम (वास्तव में ) मोमिन हो।)
- [सूरा अल-माइदा : 23]
- अध्याय : उच्च एवं महान अल्लाह के इस कथन का वर्नण :
- {أَفَأَمِنُواْ مَكْرَ اللهِ فَلاَ يَأمَنْ مَكْرَ اللهِ إِلاَّ الْقَوْمُ الْخَاسِرُونَ} (क्या वह अल्लाह की पकड़ से निश्चिन्त (निर्भय) हो गए? सो अल्लाह की पकड़ से वही लोग निश्चिन्त होते हैं, जो घाटा उठाने वाले हैं।)
- [सूरा आराफ़ : 99]
- अध्याय : अल्लाह के निर्णयों पर धैर्य रखना अल्लाह पर ईमान का अंश है
- अध्याय : दिखावा (रिया) का वर्णन
- अध्याय : इनसान का अपने अमल से दुनिया की चाहत रखना भी शिर्क है
- अध्याय : हलाल को हराम तथा हराम को हलाल करने के मामले में उलेमा तथा शासकों की बात मानना उन्हें अल्लाह के सिवा अपना रब बना लेना है
- अध्याय : उच्च एवं महान अल्लाह के इस कथन का वर्णन :
- {أَلَمْ تَرَ إِلَى الَّذِينَ يَزْعُمُونَ أَنَّهُمْ آمَنوا بِمَا أُنزِلَ إِلَيْكَ وَمَا أُنزِلَ مِن قَبْلِكَ يُرِيدُونَ أَن يَتَحَاكَمُواْ إِلَى الطَّاغُوتِ وَقَدْ أُمِرُواْ أَن يَكْفُرُواْ بِهِ وَيُرِيدُ الشَّيْطَانُ أَن يُضِلَّهُمْ ضَلاَلاً بَعِيدًا ((हे नबी!) क्या आपने उनको नहीं जाना, जिनका यह दावा है कि जो कुछ आपपर अवतरित हुआ है तथा जो कुछ आपसे पहले अवतरित हुआ है, उनपर ईमान रखते हैं, किन्तु चाहते हैं कि अपने विवाद का निर्णय ताग़ूत के पास ले जाएँ, जबकि उन्हें आदेश दिया गया है कि उसे अस्वीकार कर दें? और शैतान चाहता है कि उन्हें सत्धर्म से बहुत दूर कर दे।
- وإذَا قيِلَ لهَم تَعَالَوا إِلَى مَا أَنزَلَ اللهُ وإِلَى الرَّسولِ رَأيتَ المُنَافِقِينَ يَصُدُّونَ عَنكَ صُدُودًا तथा जब उनसे कहा जाता है कि उस (क़ुरआन) की ओर आओ, जो अल्लाह ने उतारा है, तथा रसूल की (सुन्नत की) ओर, तो आप मुनाफ़िक़ों (द्विधावादियों) को देखते हैं कि वे आपसे मुँह फेर रहे हैं।
- فَكَيفَ إذا أصَابَتهُم مُّصِيبةٌ بما قَدَّمتْ أَيدِيهِمْ ثمَّ جَاءوكَ يَحْلِفونَ بِاللهِ إنْ أَرَدْنَا إلاَّ إحْسَانًا وتَوْفِيقًا} फिर यदि उनके अपने ही करतूतों के कारण उनपर कोई आपदा आ पड़े, तो फिर आपके पास आकर शपथ लेते हैं कि हमने तो केवल भलाई तथा (दोनों पक्षों में) मेल कराना चाहा था।)
- [सूरा निसा : 60 - 62]
- अध्याय : अल्लाह के किसी नाम और गुण का इनकार करना
- अध्याय : उच्च एवं महान अल्लाह के इस कथन का वर्णन :
- {يَعْرِفُونَ نِعْمَةَ اللهِ ثُمَّ يُنكِرُونَهَا وأكثَرُهُمُ الكَافِرُونَ} (वे अल्लाह के उपकार पहचानते हैं, फिर उसका इनकार करते हैं और उनमें से अधिकतर लोग कृतघ्न हैं।)
- [सूरा नह्ल : 83]
- अध्याय : उच्च एवं महान अल्लाह के इस कथन का वर्णन :
- {فَلاَ تَجْعَلُواْ للهِ أَندَادًا وَأَنتُمْ تَعْلَمُونَ} (अतः, जानते हुए भी अल्लाह के साझी न बनाओ।)
- [सूरा बक़रा : 22]
- अध्याय : अल्लाह की क़सम पर बस न करने वाले के बारे में शरई दृष्टिकोण
- अध्याय : "जो अल्लाह चाहे और तुम चाहो" कहने की मनाही
- अध्याय : ज़माने को बुरा-भला कहना दरअसल अल्लाह को कष्ट देना है
- अध्याय : काज़ी अल-क़ुज़ात (जजों का जज) आदि उपाधियों के संबंध में शरई दृष्टिकोण
- अध्याय : उच्च एवं महान अल्लाह के नामों का सम्मान और इसके कारण नाम में परिवर्तन
- अध्याय : अल्लाह, क़ुरआन या रसूल के ज़िक्र वाली किसी चीज़ का उपहास करना
- अध्याय : उच्च एवं अल्लाह के इस कथन का वर्णन :{وَلَئِنْ أَذَقْنَاهُ رَحْمَةً مِّنَّا مِن بَعْدِ ضَرَّاءَ مَسَّتْهُ لَيَقُولَنَّ هَـذَا لِي وَمَا أظُنُّ السَّاعةَ قَائِمَةً ولَئِن رُجِعتُ إلى رَبي إنَّ لي عِندَهُ لَلحُسنَى فَلَنُنَبِّئنَّ الَّذينَ كَفَرُوا بمَا عَمِلُوا ولَنُذِيقَنَّهُم مِن عَذَابٍ غَلِيظٍ} (और यदि हम उसे चखा दें अपनी दया, दुःख के पश्चात्, जो उसे पहुँचा हो, तो अवश्य कह देता है कि मैं तो इसके योग्य ही था और मैं नहीं समझता कि क़यामत होनी है और यदि मैं पुनः अपने पालनहार की ओर गया, तो निश्चय ही मेरे लिए उसके पास भलाई होगी। तो हम अवश्य ही काफ़िरों को उनके कर्मों से अवगत कर देंगे तथा उन्हें अवश्य ही घोर यातना चखाएँगे।)[सूरा फ़ुस्सिलत : 50]
- {وَلَئِنْ أَذَقْنَاهُ رَحْمَةً مِّنَّا مِن بَعْدِ ضَرَّاءَ مَسَّتْهُ لَيَقُولَنَّ هَـذَا لِي وَمَا أظُنُّ السَّاعةَ قَائِمَةً ولَئِن رُجِعتُ إلى رَبي إنَّ لي عِندَهُ لَلحُسنَى فَلَنُنَبِّئنَّ الَّذينَ كَفَرُوا بمَا عَمِلُوا ولَنُذِيقَنَّهُم مِن عَذَابٍ غَلِيظٍ} (और यदि हम उसे चखा दें अपनी दया, दुःख के पश्चात्, जो उसे पहुँचा हो, तो अवश्य कह देता है कि मैं तो इसके योग्य ही था और मैं नहीं समझता कि क़यामत होनी है और यदि मैं पुनः अपने पालनहार की ओर गया, तो निश्चय ही मेरे लिए उसके पास भलाई होगी। तो हम अवश्य ही काफ़िरों को उनके कर्मों से अवगत कर देंगे तथा उन्हें अवश्य ही घोर यातना चखाएँगे।)
- [सूरा फ़ुस्सिलत : 50]
- अध्याय : उच्च एवं महान अल्लाह के इस कथन का वर्नण :{فَلَمَّا آتَاهُمَا صَالِحًا جَعَلاَ لَهُ شُرَكَاءَ فِيمَا آتَاهُمَا فَتَعَالى اللهُ عَمَّا يُشْرِكُونَ} (और जब उन दोनों को (अल्लाह ने) एक स्वस्थ बच्चा प्रदान कर दिया, तो अल्लाह ने जो प्रदान किया, उसमें दूसरों को उसका साझी बनाने लगे। तो अल्लाह इनके शिर्क की बातों से बहुत ऊँचा है।)[सूरा आराफ़ : 190]इब्ने हज़्म कहते हैं :"अब्दे अम्र (अम्र के गुलाम) और अब्दुल-काबा (काबा के गुलाम) आदि ऐसे नाम, जिनमें व्यक्ति को अल्लाह के सिवा किसी और का गुलाम (बंदा) करार दिया गया हो, के हराम होने पर समस्त उलेमा एकमत हैं। परन्तु अब्दुल-मुत्तलिब इन नामों के अंतर्गत नहीं आता।"
- {فَلَمَّا آتَاهُمَا صَالِحًا جَعَلاَ لَهُ شُرَكَاءَ فِيمَا آتَاهُمَا فَتَعَالى اللهُ عَمَّا يُشْرِكُونَ} (और जब उन दोनों को (अल्लाह ने) एक स्वस्थ बच्चा प्रदान कर दिया, तो अल्लाह ने जो प्रदान किया, उसमें दूसरों को उसका साझी बनाने लगे। तो अल्लाह इनके शिर्क की बातों से बहुत ऊँचा है।)
- [सूरा आराफ़ : 190]
- अध्याय : उच्च एवं महान अल्लाह के इस कथन का वर्नण :
- {وَللهِ الأَسْمَاءُ الْحُسْنَى فَادْعُوهُ بِهَا وَذَرُوا الَّذِينَ يُلْحِدُونَ فِي أَسْمَائِهِ} (और अल्लाह के बेहद अच्छे नाम हैं। अतः उसे उन्हीं के द्वारा पुकारो और उन लोगों को छोड़ दो, जो उसके नामों के संबंध में (इलहाद अर्थात) गलत रास्ता अपनाते हैं।)
- [सूरा आराफ़ : 180]
- अध्याय : "अल्लाह पर सलामती हो" कहने की मनाही
- अध्याय : "ऐ अल्लाह! अगर तू चाहे तो मुझे माफ़ कर दे!" कहने की मनाही
- अध्याय : "عَبْدِي" (मेरा दास) तथा "أَمَتي" (मेरी दासी) कहने की मनाही
- अध्याय : अल्लाह का वास्ता देकर माँगने वाले को खाली हाथ वापस न किया जाए
- अध्याय : अल्लाह का का वास्ता देकर जन्नत के सिवा कुछ न माँगा जाए
- अध्याय : किसी परेशानी के बाद "यदि" शब्द प्रयोग करने की मनाही
- अध्याय : हवा तथा आँधी को गाली देने की मनाही
- अध्याय : उच्च एवं महान अल्लाह के इस कथन का वर्णन :
- {يَظُنُّونَ بِاللهِ غَيْرَ الْحَقِّ ظَنَّ الْجَاهِلِيَّةِ يَقُولُونَ هَل لَّنَا مِنَ الأَمْرِ مِن شَيْءٍ قُلْ إِنَّ الأَمْرَ كُلَّهُ للهِ يُخْفُونَ فِي أنفُسِهِم مَا لا يُبدونَ لكَ يَقُولونَ لَو كانَ لنَا مِنَ الأمرِ شَيءٌ مَّا قُتِلنَا هَاهُنا قُل لَّو كُنتُمْ فِي بُيوتِكُم لَبَرزَ الَّذينَ كُتِبَ عليهِمُ القَتْلُ إِلَى مَضَاجِعِهِم ولِيَبتليَ اللهُ مَا فِي صُدُورِكُم ولِيُمَحِّصَ مَا فِي قُلُوبِكُم وَاللهُ عَلِيمٌ بِذَاتِ الصُّدُورِ} (वे अल्लाह के बारे में असत्य जाहिलियत की सोच सोच रहे थे। वे कह रहे थे कि क्या हमारा भी कुछ अधिकार है? (हे नबी!) कह दें कि सब अधिकार अल्लाह को है। वे अपने मनों में जो छुपा रहे थे, आपको नहीं बता रहे थे। वे कह रहे थे कि यदि हमारा कुछ भी अधिकार होता, तो यहाँ मारे नहीं जाते। आप कह दें : यदि तुम अपने घरों में रहते, तब भी जिनके (भाग्य में) मारा जाना लिखा है, वे अपने निहत होने के स्थानों की ओर निकल आते और ताकि अल्लाह जो तुम्हारे सीनों में है, उसकी परीक्षा ले तथा जो तुम्हारे दिलों में है, उसकी जाँच करे और अल्लह दिलों के भेदों से अवगत है।)
- [सूरा आल-ए-इमरान : 154]
- अध्याय : तक़दीर का इनकार करने वालों के बारे में शरई दृष्टिकोण
- अध्याय : चित्र बनाने वालों के बारे में शरई दृष्टिकोण
- अध्याय : अधिक क़सम खाने की मनाही
- अध्याय : अल्लाह एवं उसके रसूल का संरक्षण देने का बयान
- अध्याय : अल्लाह पर क़सम खाने की मनाही
- अध्याय : अल्लाह को किसी के सामने सिफ़ारिशकर्ता के रूप में प्रस्तुत करने की मनाही
- अध्याय : इस बात का उल्लेख कि मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने तौहीद की सुरक्षा की एवं शिर्क तक ले जाने वाले हर रास्ते को बंद किया
- अध्याय : उच्च एवं महान अल्लाह के इस कथन का वर्णन :
- {وَمَا قَدَرُوا اللهَ حَقَّ قَدْرِهِ وَالأَرْضُ جَمِيعـًا قَبْضَـتُهُ يَوْمَ الْقِيَامَةِ وَالسَّمَواتُ مَطْوِّيَاتٌ بِيَمِينِهِ سُبحَانَهُ وَتَعالى عَمَّا يُشْرِكُونَ} (तथा उन्होंने अल्लाह का सम्मान नहीं किया, जैसे उसका सम्मान करना चाहिए था और क़यामत के दिन धरती पूरी उसकी एक मुट्ठी में होगी, तथा आकाश लपेटे हुए होंगे उसके दाहिने हाथ में। वह पवित्र तथा उच्च है उस शिर्क से, जो वे कर रहे हैं।)
- [सूरा ज़ुमर : 67]
किताबुत तौहीदजो बंदों पर अल्लाह का अधिकार है
लेखक
शैखुल इस्लाम मुहम्मद बिन अब्दुल वह्हाब
1206 हिजरी
तत्वावधान
अब्दुल अज़ीज़ बिन दाख़िल अल-मुतैरी
अल्लाह के नाम से शुरू करता हूँ, जो बड़ा दयालु एवं अति कृपाशील है।
समस्त प्रशंसा केवल अल्लाह के लिए है, तथा दया और शांती (दरूद व सलाम) अवतरित हो मुहम्मद एवं उनके परिवार और साथियों पर हो।
किताबुत तौहीद
उच्च एवं महान अल्लाह का फ़रमान है :{وما خَلَقْتُ الجنَّ وَالإنسَ إلاَّ لِيَعْبُدونِ} (मैंने इनसानों और जिन्नों को केवल अपनी उपासना के लिए पैदा किया है।)[सूरा अज़-ज़ारियात : 56]एक और स्थान में वह कहता है :{ولقدْ بَعَثْنا فِي كلِّ أمَّةٍ رَّسولاً أنِ اعبدُوا اللهَ واجتَنِبُوا الطَّاغوتَ} (और हमने प्रत्येक समुदाय में एक रसूल भेजा कि अल्लाह की इबादत करो तथा ताग़ूत (अल्लाह के अतिरिक्त अन्य पूज्यों) से बचो।)[सूरा अन-नह्ल : 36]एक अन्य जगह पर वह कहता है :{وَقَضَى رَبُّكَ ألاَّ تَعبُدُوا إلاَّ إيَّاهُ وبالوالدَيْنِ إحْسَانًا إمَّا يَبْلُغَنَّ عندَكَ الكِبَرَ أحَدُهُمَا أوكِلاهُمَا فلا تَقُلْ لهما أُفٍّ وَلا تَنْهَرْهُمَا وقُل لهما قولاً كَرِيمًا، واخْفِضْ لهما جَنَاحَ الذُّلِّ مِن الرَّحمَةِ وقُل رَّبِّ ارْحَمْهُما كَمَا رَبَّيَاني صَغِيرًا} (और तेरा रब आदेश दे चुका है कि तुम उसके सिवा किसी और की इबादत न करना, और माँ-बाप के साथ अच्छा व्यवहार करना। यदि तेरी उपस्थिति में उनमें से एक या दोनों बुढ़ापे की उमर को पहुँँच जाएँ, तो उनके आगे उफ़ तक न कहना, न उन्हें डाँटना, तथा उनसे सादर बात बोलो। और उनके साथ विनम्रता का व्यवहार करो उनपर दया करते हुए। और प्रार्थना करो कि हे मेर पालनहार! उन दोनों पर दया कर, जैसे उन दोनों ने बाल्यावस्था मेें मेरा लालन-पालन किया हैैै।)[सूरा अल-इसरा : 23-24]एक और स्थान में उसका फ़रमान है :{और अल्लाह की उपासना करो और किसी अन्य को उसका साझी मत बनाओ।}[सूरा अन-निसा : 36]एक और स्थान में है :{قُلْ تَعَالَوْا أَتْلُ ما حرَّم رَبُّكم عليكم ألاَّ تُشرِكوا بهِ شَيْئًا وبالوَالِدينِ إحسَانًا ولا تقتلُوا أولادَكُمْ مِنْ إمْلاقٍ نحنُ نَرْزُقُكُمْ وإيَّاهُم وَلا تَقْرَبُوا الفَوَاحِشَ مَا ظَهَرَ مِنها ومَا بَطَنَ وَلا تقتلُوا النَّفسَ الَّتِي حَرَّم اللهُ إلاَّ بالحَقِّ ذلِكُمْ وَصَّاكُم بهِ لَعَلَّكُمْ تَعقِلُونَ (आप उनसे कहें कि आओ, मैं तुम्हें (आयतें) पढ़कर सुना दूँ कि तुमपर, तुम्हारे पालनहार ने क्या हराम (अवैध) किया है? वह यह है कि किसी चीज़ को उसका साझी न बनाओ, माता-पिता के साथ एहसान (अच्छा व्यवहार) करो और अपनी संतानों का निर्धनता के भय से वध न करो, हम तुम्हें जीविका देते हैं और उन्हें भी, और निर्लज्जा की बातों के समीप भी न जाओ, खुली हों अथवा छुपी, और जिस प्राण को अल्लाह ने हराम (अवैध) कर दिया है, उसका वध न करो, परन्तु उचित कारण से। अल्लाह ने तुम्हें इसका आदेश दिया है, ताकि तुम समझो।وَلا تَقْرَبُوا مَالَ اليَتِيمِ إلاَّ بِالَّتي هِيَ أحسَنُ حَتَّى يَبْلُغَ أشُدَّهُ وَأوفُوا الكَيلَ وَالمِيزَانَ بِالقِسْطِ لا نُكَلِّفُ نَفْسًا إلاَّ وُسْعَها وإذَا قُلْتُمْ فَاعْدِلُوا وَلَو كَانَ ذَا قُرْبَى وَبِعهدِ الله أَوفُوا ذَلِكُمْ وَصَّاكُمْ بهِ لَعَلَّكُمْ تَذَكَّرُونَ और अनाथ के धन के समीप न जाओ, परन्तु ऐसे ढंग से, जो उचित हो, यहाँ तक कि वह अपनी युवा अवस्था को पहुँच जाए। तथा नाप-तोल न्याय के साथ पूरा करो। हम किसी प्राण पर उसकी सकत से अधिक भार नहीं रखते। और जब बोलो तो न्याय करो, यद्यपि सगे संबंधी ही क्यों न हो और अल्लाह का वचन पूरा करो। उसने तुम्हें इसका आदेश दिया है, संभवतः तुम याद रखो।وأَنَّ هَذَا صِرَاطِي مُستَقِيمًا فَاتَّبِعُوهُ وَلا تَتَّبِعوا السُّبُلَ فَتَفَرَّقَ بِكُمْ عَن سَبيلِهِ ذَلِكُمْ وَصَّاكُم بهِ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُونَ} तथा (उसने बताया है कि) ये (इस्लाम ही) अल्लाह की सीधी राह है। अतः इसी पर चलो और दूसरी राहों पर न चलो, अन्यथा वह राहें तुम्हें उसकी राह से दूर करके तितर-बितर कर देंगी। यही है, जिसका आदेश उसने तुम्हें दिया है, ताकि तुम दोषों से दूर रहो।)[सूरा अल-अनआम : 151-153]और अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु फ़़रमाते हैं :जो मुह़म्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की उस वसीयत को देखना चाहे, जिसपर आपकी मुहर हो, तो वह यह आयत पढ़े :{قُلْ تَعَالَوْا أَتْلُ ما حرَّم رَبُّكم عليكم ألاَّ تُشرِكوا بهِ شَيْئًا} (आप उनसे कहें कि आओ, मैं तुम्हें (आयतें) पढ़कर सुना दूँ कि तुमपर, तुम्हारे पालनहार ने क्या हराम (अवैध) किया है? वह ये है कि किसी चीज़ को उसका साझी न बनाओ।)अल्लाह के इस कथन तक :{وأَنَّ هذا صِراطي مُستَقيمًا} الآيَةَ (तथा (आप उनसे यह कहें कि) ये (इस्लाम ही) अल्लाह की सीधी राह है।) पूरी आयत देखें।तथा मुआज़ बिन जबल रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है, वह कहते हैं कि मैं एक गधे पर नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पीछे बैठा था, तो आपने मुझसे पूछा :"मुआज़, क्या तुम जानते हो कि बंदों पर अल्लाह के तथा अल्लाह पर बंदों के क्या अधिकार हैं?"मैंने कहा : अल्लाह तथा उसके रसूल को अधिक ज्ञान है। आपने फ़रमाया :"बंदों पर अल्लाह का अधिकार यह है कि वे उसकी उपासना करें तथा किसी भी वस्तु को उसका साझी न बनाएँ, एवं अल्लाह पर बंदों का अधिकार यह है कि जो उसके साथ किसी भी वस्तु को उसका साझी न बनाए, उसे वह दंड न दे।''मैंने कहा : ऐ अल्लाह के रसूल, लोगों को यह खुशखबरी दे दूँ? आपने फ़रमाया :नहीं, वरना लोग इसी पर भरोसा कर बैठ जाएँगे।"इसे इमाम बुख़ारी एवं इमाम मुस्लिम ने रिवायत किया है।
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :इनसानों तथा जिन्नों की सृष्टि की हिकमत बताई गई है।दूसरी :इबादत से अभिप्राय तौहीद (एकेश्वरवाद) है, क्योंकि सदा से विवाद इसी के विषय मेें रहा है।तीसरी :जिसने एकेश्वरवाद का पालन नहीं किया, उसने अल्लाह की इबादत ही नहीं की। यही अल्लाह के इस कथन : {وَلاَ أَنتُمْ عَابِدُونَ مَا أَعْبُدُ} (और न तुम उसकी इबादत करने वाले हो, जिसकी मैं इबादत करता हूँ।) का अर्थ है।चौथी :रसूलों को भेजने की हिकमत भी बातई गई है।पाँचवीं :अल्लाह की ओर से हर समुदाय की ओर रसूल भेजे गए।छठी :सारे नबियों का धर्म एक ही है।सातवीं :एक महत्वपूर्ण बात यह मालूम हुई कि ताग़ूत का इनकार किए बिना अल्लाह की इबादत होगी ही नहीं। यही अल्लाह के इस कथन का अर्थ है :{فَمَن يَكْفُرْ بالطَّاغوت ويؤمن بالله} (जो ताग़ूत का इनकार करे और अल्लाह पर ईमान लाए) पूरी आयत देखें।आठवीं :ताग़ूत शब्द के अंतर्गत हर वह वस्तु आती है, जिसकी अल्लाह के सिवा उपासना की जाती हो।नवीं :सलफ़ (सदाचारी पूर्वजों) के निकट सूरा अनआम की उपरोक्त तीन मुहकम (स्पष्ट) आयतों का महत्व, जिनमें दस मसायल हैं और उनमें से पहला मसला है शिर्क से मनाही।दसवीं :सूरा अल-इसरा की मुहकम आयतों में अल्लाह ने अठारह बातें बयान की हैं, जिनका आरंभ अपने इस कथन से किया है :{لا تجعلْ معَ الله إلهًا آخرَ فتقعدَ مذمومًا مخذولاً} ((हे मानव!) अल्लाह के साथ कोई दूसरा पूज्य न बना, अन्यथा रुसवा और असहाय होकर रह जाएगा।)और अंत इस कथन पर किया है :{وَلاَ تَجْعَلْ مَعَ اللهِ إِلَهًا آخَرَ فَتُلْقَى فِي جَهَنَّمَ مَلُومًا مَدْحُورًا} (और अल्लाह के साथ किसी और को पूज्य न बनाना, अन्यथा निंदित तथा अल्लाह की रहमत से दूर करके जहन्नम में डाल दिया जाएगा।)अल्लाह ने इन मसायल के महत्व की ओर अपनेे इस कथन के द्वारा हमारा ध्यान आकृष्ट किया है :{ذلكَ مما أوحَى إليكَ ربُّكَ مِنَ الحِكْمَةِ} (यह भी हिकमत की उन बातों में से है, जिनको तेरे रब ने तेरी ओर वह्य की है।)ग्यारहवीं :सूरा अन-निसा की वह आयत, जिसे दस अधिकारों वाली आयत कहा जाता है, अल्लाह ने उसका आरंभ अपने इस कथन से किया है :{وَاعْبُدُوا اللهَ ولاَ تُشْرِكُوا بِهِ شَيْئًا} (अल्लाह की उपासना करो और किसी अन्य को उसका साझी मत बनाओ}।बारहवीं :अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अपनी मौत के समय जो वसीयत की थी, उसकी ओर ध्यान आकृष्ट किया गया है।तेरहवीं :हमारे ऊपर अल्लाह के जो अधिकार हैं, उनसे अवगत कराया गया है।चौदहवीं :बंदे अगर अल्लाह के अधिकारों को अदा करते हैं, तो बंंदों के जो अधिकार अल्लाह पर बनते हैं, उनकी जानकारी दी गई है।पंद्रहवाीं :इससे पहले अकसर सहाबा बंदों पर अल्लाह के अधिकारों और अल्लाह पर बंदों के अधिकारों से अवगत नहीं थे।सोलहवीं :किसी मसलहत के कारण ज्ञान को छुपाना जायज़ है।सत्रहवीं :मुसलमान को खुशख़बरी देना मुसतहब (जिस कार्य पर पुण्य मिले पर वह अनिवार्य न हो) है।अठारहवीं :अल्लाह की असीम कृपा पर भरोसा कर बैठ जाने से सावधान किया गया है।उन्नीसवीं :जब इनसान को प्रश्न का उत्तर मालूम न हो, तो उसे "अल्लाह तथा उसके रसूल को अधिक ज्ञान है" कहना चाहिए।बीसवीं :कुछ लोगों को विशेष रूप से कुछ सिखाना और अन्य लोगों को न सिखाना जायज़ है।इक्कीसवीं :अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की विनम्रता कि आप गधे की सवारी करते थे तथा उसपर सवारी के समय अपने पीछे किसी को बिठा भी लेते थे।बाईसवीं :जानवर पर सवारी करते समय किसी को पीछे बिठाने की जायज़ है।तेईसवीं :मुआज़ बिन जबल रज़ियल्लाहु अन्हु की फ़ज़ीलत (श्रेष्ठता)।चौबीसवीं :एकेश्वरवाद का महत्व।
अध्याय : एकेश्वरवाद की फ़ज़ीलत तथा उसका तमाम गुनाहों के मिटा देना
उच्च एवं महान अल्लाह का फ़रमान है :{الَّذِينَ ءامَنُواْ وَلَمْ يَلْبِسُواْ إِيمَانَهُم بِظُلْمٍ أُولَئِكَ لَهُمُ الأَمنُ وَهُم مُّهتَدُونَ} (जो लोग ईमान लाए और अपने ईमान को अत्याचार (शिर्क) से लिप्त नहीं किया, उन्हीं के लिए शांति है तथा वही सही राह पर हैं।)[सूरा अन-आम : 82]उबादा बिन सामित रज़ियल्लाहु अन्हु बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"जिसने इस बात की गवाही दी कि एक अल्लाह के अतिरिक्त कोई सत्य पूज्य नहीं तथा उसका कोई साझी नहीं है, मुहम्मद अल्लाह के बंदे और उसके रसूल हैं, ईसा भी अल्लाह के बंदे, उसके रसूल तथा उसके शब्द हैं, जिसे उसने मरयम की ओर डाला था एवं उसकी ओर से भेजी हुई आत्मा हैं तथा जन्नत और जहन्नम सत्य हैं, ऐसे व्यक्ति को अल्लाह जन्नत में दाख़िल करेगा, चाहे उसके कर्म जैसे भी रहे हों।"इस हदीस को बुख़ारी और मुस्लिम ने रिवायत किया है तथा बुख़ारी व मुस्लिम ही के अंदर इतबान रज़ियल्लाहु अन्हु की ह़दीस में है :"अल्लाह ने आग पर उस व्यक्ति को हराम कर दिया है, जो अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए 'ला इलाहा इल्लल्लाह' कहे।"और अबू सईद ख़ुदरी रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"मूसा ने अल्लाह से कहा : ऐ मेरे रब! मुझे कोई ऐसी वस्तु सिखा दे, जिससे तुझे याद करूँ तथा तुझे पुकारूँ। अल्लाह ने कहा : ऐ मूसा! कहो, 'ला इलाहा इल्लल्लाह'। मूसा ने कहा : यह तो तेरे सारे बंदे कहते हैं। अल्लाह ने कहा : ऐ मूसा! अगर मेरे सिवा सातों आसमानों तथा उनके अंदर रहने वालों और सातों ज़मीनों को तराज़ू के एक पलड़े में रख दिया जाए और 'ला इलाहा इल्लल्लाह' को दूसरे पलड़े में रखा जाए, तो 'ला इलाहा इल्लल्लाह' का पलड़ा उनके पलड़े से वज़नी होगा।"इस हदीस को इब्ने हिब्बान तथा हाकिम ने रिवायत किया है और हाकिम ने इसे सहीह कहा है।तिरमिज़ी की एक ह़दीस में -जिसे तिरमिज़ी ने ह़सन कहा है- अनस रज़ियल्लाहु अन्हु फ़रमाते हैं कि मैंने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को फ़रमाते हुए सुना है :"उच्च एवं महान अल्लाह ने फ़रमाया : ऐ आदम की संतान, यदि तू मेरे पास ज़मीन भर गुनाह लेकर आए, पर तू ने किसी वस्तु को मेरा साझीदार न ठहराया हो, तो मैं तेरे पास ज़मीन भर क्षमा लेकर आऊँगा।"
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :अल्लाह विशाल अनुग्रह का मालिक है।दूसरी :अल्लाह एकेश्वरवाद का पुण्य प्रचुर मात्रा में प्ररदान करता है।तीसरी :उसके साथ-साथ गुनाहों को भी मिटाताा है।चौथी :सूरा अल-अनआम की आयत की तफ़सीर (व्याख्या)।पाँचवीं :उबादा रज़ियल्लाहु अन्हु की हदीस में उल्लिखित पाँच बातों पर विचार करना चाहिए।छठी :जब आप इस अध्याय की हदीसों पर एक साथ विचार करेंगे, तो आपके सामने "ला इलाहा इल्लल्लाह" का सटीक अर्थ स्पष्ट हो जाएगा एवं धोखे में पड़े हुए लोगों की ग़लती का भी पता चल जाएगा।सातवीं :इतबान रज़ियल्लाहु अन्हु की हदीस में उल्लिखित शर्त की ओर ध्यान आकृष्ट किया गया है।आठवीं :नबियों को भी इस बात की ज़रूरत है कि "ला इलाहा इल्लल्लाह" की ओर उनका ध्यान आकृष्ट किया जाए।नवीं :इस बात की ओर ध्यान आकृष्ट करना कि "ला इलाहा इल्लाल्लाह" का पलड़ा सारी मख़लूक़ से भी भारी है। लेकिन इसके बावजूद "ला इलाहा इल्लल्लाह" कहने वाले बहुत-से लोगों का पलड़ा हलका रहेगा।दसवीं :इस बात का स्पष्ट वर्णन कि आसमानों की तरह ज़मीनें भी सात हैं।ग्यारहवीं :साथ ही उनके अंदर मख़लूक़ भी आबाद हैं।बारहवीं :इस बात का सबूत के अल्लाह के गुण हैं, जबकि अशअरी पंथ के लोग ऐसा नहीं मानते।तेरहवीं :जब आप अनस रज़ियल्लाहु अन्हु की हदीस से अवगत हो जाएँँगे, तो समझ जाएँगे कि इतबान रज़ियल्लाहु अन्हु की हदीस में आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के शब्द "अल्लाह ने आग पर उस व्यक्ति को हराम कर दिया है, जो अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए 'ला इलाहा इल्लल्लाह' कहे।" का अर्थ केवल ज़बान से इन शब्दों को अदा करना नहीं, बल्कि शिर्क का परित्याग है।चौदहवीं :इस बात पर ग़ौर करें कि अल्लाह ने ईसा तथा मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहिमा व सल्लम) दोनों को अपना बंदा एवं रसूल कहा है।पंद्रहवीं :इस बात की जानकारी कि विशेष रूप से ईसा अल्लाह का शब्द हैं (यानी अल्लाह के शब्द 'हो जा' द्वारा अस्तित्व में आए थे)।सोलहवीं :इस बात की जानकारी कि वे अल्लाह की ओर से भेजी गई एक आत्मा हैं।सत्रहवीं :इससे जन्नत व जहन्नम पर ईमान लाने की फज़ीलत मालूम होती है।अठारहवीं :इससे नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के कथन ''चाहे उसका अमल जो भी हो'' का अर्थ भी स्पष्ट होता है।उन्नीसवीं :इस बात का ज्ञान होता है कि तराज़ू (जो क़यामत के दिन बंदों के कर्म तौलने के लिए रखा जाएगा) के दो पलड़े होंगे।बीसवीं :इस बात की जानकारी मिली कि अल्लाह के चेहरे का उल्लेख हुआ है।
अध्याय : तौह़ीद का पूर्णतया पालन करने वाला बिना हिसाब के जन्नत में प्रवेश करेगा
उच्च एवं महान अल्लाह का फ़रमान है :{إِنَّ إِبْرَاهِيمَ كَانَ أُمَّةً قَانِتًا للهِ حَنِيفًا وَلَمْ يَكُ مِنَ الْمُشْرِكِينَ} (वास्तव में, इब्राहीम अकेले ही एक समुदाय, अल्लाह का आज्ञाकारी तथा एकेश्वरवादी था और वह अनेकेश्वरवादी नहीं था।)[सूरा नह्ल : 120]एक अन्य स्थान में उसका फ़रमान है :{وَالَّذِينَ هُم بِرَبِّهِمْ لاَ يُشْرِكُونَ} (और जो अपने पालनहार का साझी नहीं बनाते हैं।)[सूरा अल-मोमिनून : 59]और हुसैन बिन अब्दुर रहमान से रिवायत है, वह कहते हैं कि मैं सईद बिन जुबैर के पास था कि इसी दौरान उन्होंने पूछा : रात को जो तारा टूटा था उसे तुममें से किसने देखा है? मैंने कहा : मैंने देखा है। फिर मैंने कहा : परन्तु मैं नमाज़ में नहीं था, बल्कि मुझे किसी चीज़ ने डस लिया था। उन्होंने पूछा : तो तुमने क्या किया? मैंने कहा : (आयतें आदि पढ़कर) खुद को फूँक मारी। उन्होंने पूछा : तुमने ऐसा क्यों किया? मैंने कहा : इस बारे में मैंने शाबी से एक हदीस सुनी है। उन्होंने फिर सवाल किया : कौन-सी हदीस? मैंने कहा : उन्होंने हमसे बयान किया कि बुरैदा बिन हुसैब ने फ़रमाया है :"बुरी नज़र लगने अथवा डसे जाने पर ही रुक़या (कोई आयत या दुआ पढ़कर फूूँक मारना) किया जाएगा।"उन्होंने फ़रमाया : यह अच्छी बात है कि किसी ने जो कुछ सुना उसके अनुसार अमल भी किया। परन्तु इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु ने हमसे बयान किया है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया है :"मेरे सामने तमाम उम्मतों (समुदायों) को पेश किया गया, तो मैंने किसी नबी के साथ एक समूह और किसी के साथ एक दो व्यक्ति देखा और किसी नबी के साथ किसी को भी नही पाया। इसी दौरान मेरे सामने एक बहुत बड़ा दल प्रकट हुआ। मैंने सोचा कि वे मेरी उम्मत के लोग हैं। परन्तु मुझसे कहा गया कि यह मूसा तथा उनकी उम्मत के लोग हैं। फिर मुझे एक बड़ा समूह नज़र आया और मुझे बताया गया कि यह तुम्हारी उम्मत के लोग हैं एवं इनके साथ सत्तर हज़ार ऐसे लोग हैं, जो बिना हिसाब तथा अज़ाब के जन्नत में प्रवेश करेंगे।"फिर आप उठे एवं अपने घर में प्रवेश किया। इधर लोग उन लोगों के बारे में बातचीत करने लगे। किसी ने कहा : संम्भवतः वे अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथी हैं, तो किसी ने मत प्रकट किया कि शायद यह वे लोग हैं जिनका जन्म इस्लाम में हुआ और उन्होंने अल्लाह के साथ किसी प्रकार का कोई शिर्क नहीं किया। उनके बीच कुछ और बातें भी हुईं। नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम जब बाहर आए, तो लोगों ने उन्हें इन बातों की सूचना दी, तो आपने फ़रमाया :"ये वे लोग हैं जो न किसी से झाड़-फूँक कराते हैं, न (इलाज के लिए) अपना शरीर दग़वाते हैं और न अपशकुन लेते हैैं, बल्कि अपने रब पर ही भरोसा करते हैं।"तब उक्काशा बिन मिहसन खड़े हुए और बोले : ऐ अल्लाह के रसूल, अल्लाह से दुआ करें कि वह मुझे उन लोगों में से कर दे। आपने फ़रमाया : "तुम उन्हीं में से हो।" फिर एक और व्यक्ति खड़ा हुआ और निवेदन किया ऐ अल्लाह के रसूल, अल्लाह से दुआ करें कि वह मुझे भी उन लोगों में से कर दे, तो आपने फ़रमाया : "उक्काशा तुमसे आगे निकल गए।"
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :इस बात की जानकारी कि तौहीद के मामले में लोगों की विभिन्न श्रेणियाँ होती हैं।दूसरी :इस बात का ज्ञान कि पूर्णतया तौहीद के पालन का अर्थ क्या है?
तीसरी :
अल्लाह की ओर से इबराहीम की इस बात के साथ प्रशंसा कि वे मुश्रिकों (अनेकेश्वरवादियों) में से नहीं थे।
चौथी :अल्लाह की ओर से औलिया-ए-किराम की इस बात पर प्रशंसा कि वे शिर्क (अनेकेश्ववरवाद) से सुरक्षित थे।
पाँचवीं :
झाड़-फूँक तथा दग़वाने का परित्याग भी तौहीद के संपूर्ण अनुपालन में दाख़िल है।
छठी :इन विशेषताओं से सुशोभित होने का नाम ही तवक्कुल यानी अल्लाह पर संपूर्ण भरोसा है।सातवीं :सहाबा का ज्ञान बड़ा गहरा था, क्योंकि वे जानते थे कि उन्हें कर्म का बिना वह स्थान प्राप्त नहीं हो सकता।आठवीं :भली चीज़ों के प्रति उनकी वे उत्सुक रहा करते थे।नवीं :संख्या तथा गुण दोनों तबार से इस उम्मत की श्रेष्ठता।दसवीं :मूसा अलैहिस्सलाम के साथियों की श्रेष्ठता।ग्यारहवीं :नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के सामने उम्मतों का पेश किया जाना।बारहवीं :क़यामत के दिन हर उम्मत (समुदाय) को अलग-अलग उसके नबी के साथ एकत्र किया जाएगा।तेरहवीं :जिन लोगों ने नबियों का आह्वान स्वीकार किया, उनकी संख्या हमेशा कम रही है।चौदहवीं :जिस नबी का अनुसरण किसी ने नहीं किया, वे अकेला ही उपस्थित होगा।पंद्रहवीं :इससे यह मालूम हुआ कि अधिक संख्या पर अभिमान और कम संख्या से परेशान नहीं होना चाहिए।सोलहवीं :बुरी नज़र लगने तथा डंसे जाने पर दम करने की अनुमति है।सत्रहवीं :सलफ़ (सदाचारी पूर्वजों) का ज्ञान बड़ा गहरा हुआ करता था। क्योंकि सईद बिन जुबैर ने कहा : "यह अच्छी बात है कि किसी ने उसी के अनुसार अमल किया जो उस ने सुना, लेकिन और एक बात का ध्यान रखना चाहिए।" इससे यह मालूम हुआ कि पहली हदीस दूसरी हदीस की मुख़ालिफ़ नहीं है।अठारहवीं :सलफ़ (सदाचारी पूर्वज) किसी की झूठी प्रशंसा से रहते थे।उन्नीसवीं :नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फ़रमान कि "तुम उन्हीं में से हो" आपके नबी होने का एक प्रमाण है।बीसवीं :उक्काशा रज़ियल्लाहु अन्हु की श्रेष्ठता।इक्कीसवीं :इशारे-इशारे में बात करने की अनुमति।बाईसवीं :नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का सदव्यवहार।
अध्याय : शिर्क से डरने की आवश्यकता
सर्वशक्तिमान एवं महान अल्लाह ने फ़रमाया :{إِنَّ اللهَ لاَ يَغْفِـرُ أَن يُشْرَكَ بِهِ وَيَغْفِرُ مَا دُونَ ذَلِكَ لِمَنْ يَشَاءُ} (निःसंदेह, अल्लाह अपने साथ साझी स्थापित किये जाने को नहीं माफ़ करता और इसके सिवा जो चाहे, जिसके लिए चाहे, माफ़ कर देता है।)[सूरा निसा : 48]और अल्लाह के परममित्र इबराहीम अलैहिस्सलाम ने दुआ की है :{وَاجْنُبْنِي وَبَنِيَّ أَنْ نَّعْبُدَ الأَصْنَامَ} (और मुझे तथा मेरी संतान को मूर्तियों की पूजा करने से बचा ले।)[सूरा इबराहीम : 35]
इसी तरह, हदीस में है : "मुझे तुम्हारे बारे में जिस वस्तु का भय सबसे अधिक है, वह है, छोटा शिर्का।" आपसे उसके बारे में पूछा गया, तो फ़रमायाः "उससे मुराद दिखावा है।"
तथा अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फ़रमाया :"जिस व्यक्ति की मृत्यु इस अवस्था में हुई कि वह किसी को अल्लाह का समकक्ष बनाकर पुकार रहा था, वह जहन्नम में प्रवेश करेगा।"इस हदीस को इमाम बुख़ारी ने रिवायत किया है।जबकि सहीह मुस्लिम में जाबिर रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"जो अल्लाह से इस अवस्था में मिलेगा कि किसी को उसका साझी न बनाया होगा, वह जन्नत में प्रवेश करेगा और जो अल्लाह से इस अवस्था में मिलेगा कि किसी को उसका साझी ठहराया होगा, वह जहन्नम में प्रवेश करेगा।"
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :इनसान को शिर्क से डरना चाहिए।दूसरी :दिखावा भी शिर्क है।तीसरी :दिखावा छोटा शिर्क है।चौथी :नेक लोगों पर अन्य गुनाहों की तुलना में दिखावा का भय अधिक रहता है।पाँचवीं :जन्नत तथा जहन्नम इनसान से क़रीब हैं।छठी :एक ही हदीस में जन्नत तथा जहन्नम दोनों के निकट होने को एक साथ बयान किया गया है।सातवीं :जो अल्लाह से इस अवस्था में मिलेगा कि किसी को उसका साझी न बनाया होगा, वह जन्नत में प्रवेश करेगा, और जो उससे इस अवस्था में मिलेगा कि किसी को उसका साझी ठहराया होगा, वह जहन्नम में प्रवेश करेगा, चाहे वह अधिकतम इबादत करने वालों में से ही क्यों न हो।आठवीं :एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात है इबराहीम अलैहिस्सलाम का अल्लाह से यह दुआ करना कि उनको और उनकी संतान को मूर्ति पूजा से बचाए।नवीं :इबराहीम अलैहिस्सलाम ने अकसर लोगों के हाल को ध्यान में रखते हुए यह दुआ की थी, जिसका पता उनके इस वाक्य से चलता है :{رَبِّ إِنَّهُنَّ أَضْلَلْنَ كَثِيرًا مِّنَ النَّاسِ} (मेरे रब, निःसंदेह इन (मूर्तियों) ने बहुत-से लोगों को गुमराह किया है।)दसवीं :इसमें "ला इलाहा इल्लल्लाह" की व्याख्या भी है, जैसा कि इमाम बुख़ारी ने उल्लेख किया है।ग्यारहवीं :शिर्क से सुरक्षित रहने वाले की फ़ज़ीलत।
अध्याय : ला इलाहा इल्लल्लाह की गवाही का आह्वान
उच्च एवं महान अल्लाह का फ़रमान है :{قُلْ هَـذِهِ سَبِيلِي أَدْعُو إِلَى اللهِ عَلَى بَصِيرَةٍ أنَا ومَنِ اتَّبَعَنِي وسُبحَانَ اللهِ ومَا أنَا مِنَ المُشرِكِينَ} ((हे नबी!) आप कह दें : यही मेरी डगर है। मैं अल्लाह की ओर बुला रहा हूँ। मैं पूरे विश्वास और सत्य पर हूँ और जिसने मेरा अनुसरण किया (वे भी) तथा अल्लाह पवित्र है और मैं अनेकेश्वरवादियों में से नहीं हूँ।)[सूरा यूसुफ़ : 108]अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा का वर्णन है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने मुआज़ रज़ियल्लाहु अन्हु को यमन की ओर रवाना करते हुऐ उनसे फ़रमाया :"तुम अहDल-ए-किताब (जिनके पास अल्लाह की तरफ से किताब आई हो) के एक समुदाय के पास जा रहे हो। अतः, सबसे पहेल उन्हें "ला इलाहा इल्लल्लाह" की गवाही देने की ओर बुलाना।" तथा एक रिवायत में है : "सबसे पहले उन्हें केवल अल्लाह की इबादत की ओर बुलाना। अगर वे तुम्हारी बात मान लें, तो उन्हें बताना कि अल्लाह ने उनपर दिन एवं रात में पाँच वक़्त की नमाजें फ़र्ज़ की हैं। अगर वे तुम्हारी यह बात मान लें, तो उन्हें सूचित करना कि अल्लाह ने उनपर ज़कात फ़र्ज़ की है, जो उनके धनी लोगों से ली जाएगी और उनके निर्धनों को लौटा दी जाएगी। अगर वे तुम्हारी इस बात को भी मान लें, तो उनके उत्तम धनों को ज़कात के रूप में लेने से बचना। तथा मज़लूम की बददुआ से बचना। क्योंकि उसके तथा अल्लाह के बीच कोई आड़ नहीं होती।"इस हदीस को इमाम बुख़ारी तथा इमाम मुस्लिम ने रिवायत किया है।तथा बुखारी एवं मुस्लिम में ही सहDल बिन साद रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि ख़ैबर के दिन अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"कल मैं झंडा एक ऐसे आदमी को दूँगा, जिसे अल्लाह तथा उसके रसूल से प्रेम है तथा अल्लाह एवं उसके रसूल को भी उससे प्रेम है। अल्लाह उसके हाथों विजय प्रदान करेगा।"अतः लोग रात भर अनुमान लगाते रहे कि झंडा किसे मिल सकता है? सुबह हुई तो सब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास पहुxचे। हर एक यही उम्मीद किए हुए था कि उसी को आप झंडा देंगे। लेकिन आपने पूछा :"अली बिन अबू तालिब कहाँ है?"किसी ने कहा : उन्हें आँखों में तकलीफ है। आपने उन्हें बुला भेजा। जब वह पहुँचे, तो उनकी आंखों में अपना थूक डाला तथा उनके लिए दुआ की और वह इस तरह स्वस्थ हो गए, जैसे उन्हें कोई तकलीफ़ थी ही नहीं। तब आपने उन्हें झंडा प्रदान करते हुए फ़रमाया :"तुम आराम से (और सतर्कता के साथ) जाओ, यहाँ तक कि उनके एलाक़े को पहुँच जाओ। फिर उन्हें इस्लाम की ओर बुलाओ और बताओ कि इस्लाम में अल्लाह के कौन-से अधिकार उनपर लागू होते हैं। अल्लाह की क़सम, यदि अल्लाह तुम्हारे माध्यम से एक व्यक्ति को भी सीधे रास्ते पर लगा दे, तो यह तुम्हारे लिए लाल ऊँटों से भी उत्तम है।"
हदीस में आए हुए शब्द "يَخُوضُونَ" का अर्थ है, चर्चा तथा बातचीत करना।
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :अल्लाह की ओर बुलाना नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का अनुसरण करने वालों का रास्ता है।दूसरी :इख़लास की ओर ध्यान आकृष्ट करना, क्योंकि बहुत-से लोग सत्य की ओर बुलाते समय अपनी ओर बुलाने लगते हैं।तीसरी :बसीरत (विश्वास तथा सत्य का ज्ञान) अनिवार्य चीज़ों में से है।चौथी :तौहीद के सौन्दर्य का एक प्रमाण यह है कि उसमें अल्लाह की पवित्रता बयान की जाती है।पाँचवीं :शिर्क के बुरे होने का एक प्रमाण यह भी है कि शिर्क अल्लाह के प्रति निन्दा है।छठी :इस अध्याय की एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमें मुसलमानों को मुश्रिकों से दूर रहने की शिक्षा दी गई है, ताकि कहीं ऐसा न हो कि वह उनमें से हो जाए, यद्यपि शिर्क न करता हो।सातवीं :तौहीद इनसान का पहला कर्तव्य है।आठवीं :आह्वानकर्ता हर चीज़ यहाँ तक कि नमाज़ से पहले भी तौहीद की ओर बुलाएगा।नवीं :मुआज़ बिन जबल रज़ियल्लाहु अनहु की हदीस में प्रयुक्त शब्द "सबसे पहले उन्हें केवल अल्लाह की इबादत की ओर बुलाना" का अर्थ वही है, जो ला इलाहा इल्लल्लाह की गवाही देने के अंदर निहित है।दसवीं :कभी-कभी इनसान अह्ल-ए-किताब में से होता है, लेकिन वह इस गवाही का अर्थ नहीं जानता या फिर जानता भी है तो उसपर अमल नहीं करता।ग्यारहवीं :इस बात की ओर ध्यान आकृष्ट किया गया है कि शिक्षा धीरे-धीरे और क्रमवार देनी चाहिए।
बारहवीं :
साथ ही शिक्षा देते समय अति महत्वपूर्ण से कम महत्वपूर्ण की ओर आने के क्रम का ख़याल रखना चाहिए।
तेरहवीं :
ज़कात खर्च करने के स्थान बता दिया गया है।
चौदहवीं :गुरू को शिष्य के संदेहों को दूर करना चाहिए।पंद्रहवीं :(ज़कात वसूल करते समय) उत्तम धनों को लेने से बचने का आदेश दिया गया है।सोलहवीं :मज़लूम की बददुआ से बचने का आदेश दिया गया है।सत्रहवीं :यह बताया गया है कि मज़लूम की बददुआ के सामने कोई सुकावट नहीं होती।अठारहवीं :नबियों के सरदार तथा दूसरे अल्लाह के नेक बंदों को जो कष्ट, भूख तथा रोग आदि से गुज़रना पड़ा है, वह सभी तौहीद के प्रमाणों में से हैं।उन्नीसवीं :नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की यह बात कि "कल मैं झंडा दूँगा एक ऐसे व्यक्ति को दूँगा..." आपके नबी होने की निशानियों में से है।बीसवीं :इसी प्रकार अली रज़ियल्लाहु अन्हु की आंखों में थूक का प्रयोग करना भी आपके नबी होने की निशानियों में से है।इक्कीसवीं :अली रज़ियल्लाहु अन्हु की श्रेष्ठता।बाईसवीं :सहाबा-ए-किराम की फ़ज़ीलत कि वे विजय की खुशखबरी भुलाकर उस रात बस यह सोचते रहे कि झंडा किसे मिल सकता है?तेईसवीं :तक़दीर (भाग्य) पर ईमान का सबूत। क्योंकि यह फ़ज़ीलत उन्हें मिल गई, जिन्होंने इसे पाने का कोई प्रयास ही नहीं किया था और जिन्होंने प्रयास किया, उन्हें नहीं मिली।चौबीसवीं :आपके फ़रमान : ''तुम आराम से जाना" में निहित शिष्टाचार।पच्चीसवीं :युद्ध से पहले इस्लाम की ओर बुलाया जाएगा।छब्बीसवीं :ऐसा उन लोगों के साथ भी किया जाएगा, जिन्हें इससे पहले इस्लाम की ओर बुलाया जा चुका हो एवं जिनसे युद्ध भी किया जा चुका हो।सत्ताईसवीं :इस्लाम की ओर बुलाने का कार्य हिकमत के साथ होना चाहिए, क्योंकि आप अल्लाहु अलैहि व सल्लम का फ़रमान है : "उन्हें बता देना कि उनके कर्तव्य क्या किया हैं।"अठाईसवीं :इस्लाम में अल्लाह के अधिकार की जानकारी दी गई है।उन्तीसवीं :जिसके हाथों एक व्यक्ति को भी सच्चा मार्ग मिल जाए उसे मिलने वाले पुण्य का बयान।तीसवीं :फ़तवा देते समय क़सम खाने के उचित होने का सबूत।
अध्याय : तौहीद की व्याख्या तथा ला इलाहा इल्लल्लाह की गवाही देने का अर्थ
उच्च एवं महान अल्लाह का फ़रमान है :{أُولَـئِكَ الَّذِينَ يَدْعُونَ يَبْتَغُونَ إِلَى رَبِّهِمُ الْوَسِيلَةَ أَيُّهُمْ أَقْرَبُ وَيَرجُونَ رَحْمَتَهُ ويَخافُونَ عَذَابَهُ إنَّ عذابَ رَبِّكَ كَانَ مَحذُورًا} (वास्तव में, जिन्हें ये लोग पुकारते हैं, वे स्वयं अपने पालनहार का सामीप्य प्राप्त करने का साधन खोजते रहते हैं कि उनमें से कौन अधिक समीप हो जाए? और उसकी दया की आशा रखते हैं और उसकी यातना से डरते हैं। वास्तव में, आपके पालनहार की यातना डरने योग्य है।)[सूरा इसरा : 57एक अन्य स्थान में उसका फ़रमान है :{وَإِذْ قَالَ إِبْرَاهِيمُ لأَبِيهِ وَقَوْمِهِ إِنَّنِي بَرَاءٌ مِّمَّا تَعْبُدُونَ (तथा (याद करो) जब इबराहीम ने अपने पिता और अपनी क़ौम से कहा : निश्चय ही मैं विरक्त (बेज़ार) हूँ उनसे, जिनकी तुम इबादत करते हो।إِلاَّ الَّذِي فَطَرَنِي فَإنَّهُ سَيَهدِيْنِ उसके अतिरिक्त जिसने मुझे पैदा किया है। वही मुझे रास्ता दिखाएगा।وَجعلَها كَلِمَةً بَاقِيَةً فِي عَقِبِهِ لَعَلَّهُمْ يَرْجِعُونَ} तथा वह इस बात (एकेश्वरवाद) को अपनी संतान में छोड़ गया, ताकि वे (शिर्क से) बचते रहें।)[सूरा जुख़रुफ़ : 26-28]एक और जगह वह फ़रमाता है :{اتَّخَذُواْ أَحْبَارَهُمْ وَرُهْبَانَهُمْ أَرْبَابًا مِّن دُونِ اللهِ وَالمَسِيحَ ابنَ مَرْيَمَ ومَا أُمِرُوا إلاَّ لِيَعبُدُوا إلَهًا وَاحِدًا لا إلهَ إلاَّ هُوَ سُبْحَانَهُ عَمَّا يُشْرِكُونَ} (उन्होंने अपने विद्वानों और धर्माचारियों (संतों) को अल्लाह के सिवा पूज्य बना लिया तथा मर्यम के पुत्र मसीह को, जबकि उन्हें जो आदेश दिया गया था, वो इसके सिवा कुछ न था कि वे एक अल्लाह की इबादत (वंदना) करें। कोई पूज्य नहीं है, परन्तु वही। वह उससे पवित्र है, जिसे वे उसका साझी बना रहे हैं।)[सूरा तौबा : 31]एक और जगह उसका फ़रमान है :{وَمِنَ النَّاسِ مَنْ يَتَّخِذُ مِن دُونِ اللهِ أَندَادًا يُحِبُّونَهُمْ كَحُبِّ اللهِ وَالَّذِينَ ءامَنُوا أَشَدُّ حُبًّا لِّلَّه} (कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो अल्लाह का साझी औरों को ठहराकर उनसे ऐसा प्रेम रखते हैं, जैसा प्रेम वे अल्लाह से रखते हैं, और ईमान वाले अल्लाह से अधिक प्रेम करते हैं।)[सूरा बक़रा : 165]और सहीह मुसलिम की एक हदीस में है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"जिसने 'ला इलाहा इल्लल्लाह' का इक़रार किया और अल्लाह के सिवा पूजी जाने वाली अन्य वस्तुओं का इनकार कर दिया, उसका धन तथा प्राण सुरक्षित हो जाएगा और उसका हिसाब अल्लाह के हवाले होगा।"
इस अध्याय की व्याख्या आने वाले अध्यायों में देखी जा सकती है।
इसमें सबसे बड़े तथा महत्वपूर्ण विषय का वर्णन है, और वह है :
तौहीद की तफ़सीर तथा "ला इलाहा इल्लल्लाह" की गवाही की व्याख्या। इसे निम्नलिखित आयतों एवं हदीसों के ज़रिए सुस्पष्ट किया गया है :
1. सूरा इसरा की आयत, जिसमें मुश्रिकों के नेक लोगों को पुकारने का खंडन किया गया है, जिससे स्पष्ट होता है कि ऐसा करना ही शिर्क-ए-अकबर (सबसे बड़ा शिर्क) है।
2. सूरा तौबा की आयत, जिसमें यह बयान किया गया है कि यहूदियों एवं ईसाइयों ने अल्लाह को छोड़ अपने विद्वानों तथा धर्माचारियों को पूज्य बना लिया था, जबकि उन्हें केवल एक अल्लाह की इबादत का आदेश दिया गया था। हालाँकि इस आयत की सही व्याख्या, जिसमें कोई एतराज़ नहीं है, यह है कि अह्ल-ए-किताब अपने उलेमा तथा सदाचारी लोगों को मुसीबात एवं आपदा के समय पुकारते नहीं थे, बल्कि गुनाह के कामों में उनका अनुसरण करते थे।
3. इबराहीम अलैहिस्सलाम का काफ़िरों से यह कहना कि{إِنَّنِي بَرَاءٌ مِّمَّا تَعْبُدُونَ (मैं बेज़ार हूँ उससे, जिसकी तुम पूजा करते हो।إِلاَّ الَّذِي فَطَرَنِي} (सिवाय उसके जिसने मुझे पैदा किया है।)इस प्रकार, उन्होंने अपने रब को अन्य पूज्यों से अलग कर लिया है।फिर, अल्लाह ने बता दिया कि दरअसल यही दोस्ती तथा यही बेज़ारी ही "ला इलाहा इल्लल्लाह" की व्याख्या है। फ़रमाया :{وَجَعَلَهَا كَلِمَةً بَاقِيَةً فِي عَقِبِهِ لَعَلَّهُمْ يَرْجِعُونَ} (तथा वह इस बात (एकेश्वरवाद) को अपनी संतान में छोड़ गया, ताकि वे (शिर्क से) बचते रहें।)4. सूरा बक़रा की यह आयत, जो काफ़िरों के बारे में उतरी है और जिनके संबंध में अल्लाह तआला ने फ़रमाया है :{وَمَا هُم بِخَارِجِينَ مِنَ النَّارِ} (एवं वे कभी भी आग से बाहर नहीं आ सकते।)इस आयत में अल्लाह ने उल्लेख किया है कि वे अपने ठेराए हुए अल्लाह के साझियों से अल्लाह ही के समान प्रेम करते हैं। इससे मालूम हुआ कि वे अल्लाह से बहुत ज़्यादा प्रेम करते हैं। फिर भी, वे अल्लाह के यहाँ मुसलमान समझे न जा सके। तो भला उन लोगों का क्या हाल होगा, जो अल्लाह से अधिक प्रेम अपने ठेराए हुए उसके साझियों से करते हैं?
और उसका क्या होगा जिसने साझी से ही प्रेम किया, अल्लाह से उसे मुहब्बत ही नहीं?!
5. अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"जिसने 'ला इलाहा इल्लल्लाह' का इक़रार किया और अल्लाह के सिवा पूजी जाने वाली अन्य वस्तुओं का इनकार कर दिया, उसका धन तथा प्राण सुरक्षित हो जाएगा और उसका हिसाब अल्लाह के हवाले होगा।"
यह हदीस "ला इलाहा इल्लल्लाह" के अर्थ को स्पष्ट करने वाली एक अति महत्वपूर्ण हदीस है। क्योंकि इस हदीस का मतलब यह है कि केवल "ला इलाहा इल्लल्लाह" का उच्चारण कर लेना जान और माल की सुरक्षा के लिए काफ़ी नहीं है। बल्कि उसका अर्थ जान लेना, ज़ूबान से इक़रार करना, यहाँ तक कि केवल एकमात्र अल्लाह को पुकारना भी इसके लिए पर्याप्त नहीं है, जब तक इसके साथ-साथ दूसरे पूज्यों से पूर्णतया नाता तोड़ न लिया जाए। अतः यदि इस मामले में संदेह व्यक्त करे या कुछ न बोले, तो उसकी जान और माल सुरक्षित नहीं होंगे। भला बताएँ कि कितना महत्वपूर्ण विषय है यह!
और कितनी स्पष्ट बात है यह! एवं कितना ठोस सबूत है विरोधी को चुप करने के लिए!
अध्याय : आपदा से बचाव या उसे दूर करने के उद्देश्य से कड़ा और धागा आदि पहनना शिर्क है
उच्च एवं महान अल्लाह का फ़रमान है :{قُلْ أَفَرَأَيْتُم مَّا تَدْعُونَ مِن دُونِ اللهِ إِنْ أَرَادَنِيَ اللهُ بِضُرٍّ هَلْ هُنَّ كَاشِفَاتُ ضُرِّهِ أوْ أرَادَنِي بِرَحمَةٍ هلْ هُنَّ مُمْسِكَاتُ رَحْمَتِهِ قُلْ حَسْبِيَ اللهُ عَلَيهِ يَتوكَّلُ المُتَوكِّلُونَ} (आप कहिए कि तुम बताओ, जिन्हें तुम अल्लाह के सिवा पुकारते हो, यदि अल्लाह मुझे कोई हानि पहुँचाना चाहे, तो क्या ये उसकी हानि दूर कर सकते हैं? अथवा मेरे साथ दया करना चाहे, तो क्या ये रोक सकते हैं उसकी दया को? आप कह दें कि मुझे पर्याप्त है अल्लाह और उसी पर भरोसा करते हैं भरोसा करने वाले।)[सूरा ज़ुमर : 38]इमरान बिन हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने एक व्यक्ति के हाथ में तांबे का एक कड़ा देखा, तो पूछा : "यह क्या है?" उसने कहा : मैंने इसे वाहिना (बाज़ू या कंधे की एक बीमारी) के कारण पहना है। आपने फ़रमाया :"इसे निकाल दो, क्योंकि यह तुम्हारी बीमारी को बढ़ाने ही का काम करेगा। तथा यदि तुम इसे पहनकर मरोगे, तो कभी सफल नहीं हो सकोगे।"इस हदीस को इमाम अहमद ने एक ऐसी सनद से बयान किया है, जिसमें कोई ख़राबी नहीं है।तथा मुसनद अहमद ही में उक़बा बिन आमिर रज़ियल्लाहु अनहु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"जिसने तावीज़ लटकाया, अल्लाह उसके उद्देश्य को पूरा न करे, और जिसने कौड़ी लटकाई, अल्लाह उसे आराम न दे।"और एक रिवायत में है :"जिसने तावीज़ लटकाया, उसने शिर्क किया।"इसी तरह इब्ने अबू हातिम ने हुज़ैफ़ा रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णन किया है कि उन्होंने एक व्यक्ति के हाथ में कोई धागा देखा, जो उसने बुख़ार के कारण पहन रखा था, तो उसे काट फेंका और यह आयत पढ़ी :{وَمَا يُؤْمِنُ أَكْثَرُهُم بِاللهِ إِلاَّ وَهُم مُّشْرِكُون} (और उनमें से अधिकतर लोग अल्लाह को मानते तो हैं, परन्तु (साथ ही) मुश्रिक (मिश्रणवादी) भी हैं।)[सूरा यूसुफ़ : 106]
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :इस तरह के उद्देश्य से कड़ा तथा धागा आदि पहनने से सख़्ती के साथ मना किया गया है।दूसरी :यदि उस धागे या कड़े के साथ उन सहाबी की मौत हो जाती, तो वे कभी सफल न होते। इससे सहाबा किराम के इस कथन की पुष्टि होती है कि छोटा शिर्क बड़े पापों से भी बड़ा गुनाह है।तीसरी :इन चीज़ों के मामले में अज्ञानता उचित कारण नहीं है।चौथी :धागा तथा छल्ला आदि दुनिया में भी लाभदायक नहीं, बल्कि हानिकारक हैं। आपने फ़रमाया : "यह केवल तुम्हारी बीमारी को बढ़ाने का काम करेगा।"पाँचवीं :इस तरह की चीज़ों पहनने वालों का सख़्ती से खंडन होना चाहिए।छठी :इस बात की वज़ाहत कि जिसने कोई वस्तु लटकाई, उसे उसी के हवाले कर दिया जाता है।सातवीं :इस बात की वज़ाहत कि जिसने तावीज़ लटकाया, उसने शिर्क किया।आठवीं :बुख़ार के कारण धागा पहनना भी शिर्क के अंतर्गत आता है।नवीं :हुज़ैफा रज़ियल्लाहु अन्ह का इस आयत की तिलावत करना, इस बात का प्रमाण है कि सहाबा किराम बड़े शिर्क वाली आयतों से छोटे शिर्क के लिए तर्क दिया करते थे, जैसा कि अब्दुल्लाह अब्बास ने सूरा बक़रा की आयत के संबंध में उल्लेख किया है।दसवीं :बुरी नज़र से बचने के लिए कौड़ी लटकाना भी शिर्क है।ग्यारहवीं :जिसने तावीज़ लटकाया उसको यह बददुआ देना कि अल्लाह उसका उद्देश्य पूरा न करे, और जिसने कौड़ी लटकाई उसको यह बद दुआ देना कि अल्ला उसको आराम ने दे।
अध्याय : दम करने तथा तावीज़-गंडे आदि के प्रयोग के बारे में शरई दृष्टिकोण
सहीह बुख़ारी तथा सहीह मुस्लिम में अबू बशीर रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि वे किसी सफ़र के दौरान अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथ थे कि इसी दरमियान आपने एक संदेशवाहक को (यह घोषणा करने के लिए) भेजा :"किसी ऊँट की गर्दन में तांत का पट्टा अथवा कोई भी पट्टा नज़र आए तो उसे काट दिया जाए।"और अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"निश्चय ही दम करना, तावीज़ गंडे बाँधना और पति-पत्नी के बीच प्रेम पैदा करने के लिए जादूई अमल करना शिर्क है।"इस हदीस को अहमद तथा अबू दाऊद ने रिवायत किया है।
तमाइम (तमीमा का बहुवचन) : वह चीज़ जो बुरी नज़र से बचने के लिए बच्चों को पहनाई जाए। हाँ, यदि उस चीज़ में क़ुरआन की आयतें हों तो सलफ़ (सहाबा और ताबईन) मेें से कुछ ने इसे पहनाने की अनुमति दी है, जबकि इनमें से कुछ लोग इससे भी रोकते हैं तथा इसे हराम में से घोषित करते हैं। इस तरह के लोगों में अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु भी शामिल हैं।
रुक़ा (रुक़या का बहुवचन): रुक़ा को अज़ाइम भी कहते हैं (और इसका अर्थ है : दम और झाड़ फूंक करना)। जो रुक़या शिर्क से पवित्र हो उसे करने की अनुमती है, क्योंकि डंक तथा बुरी नज़र के इलाज के तौर पर अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने रुक़या की अनुमति दी है।
तिवला : यह वह अमल है जिसे लोग इस ख़याल से करते थे कि यह पति-पत्नी के बीच प्रेम पढ़ाता है।
अब्दुल्लाह बिन उकैम रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि आल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"जिसने कोई वस्तु लटकाई, उसे उसी के हवाले कर दिया जाता है।"इस हदीस को इमाम अहमद और तिरमिज़ी ने रिवायत किया है।और इमाम अहमद ने रुवैफे रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया है, वह बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने मुुुझसे कहा :"ऐ रुवैफे, हो सकता है कि तुम्हें लंबी आयु मिले। लोगों को बता देना कि जो अपनी दाढ़ी में गिरह लगाएगा, ताँत गले में डालेगा या किसी पशु के गोबर अथवा हड्डी से इस्तिंजा करेगा, तो मुहम्मद निःसंदेह उससे बरी हैं।"
तथा सईद बिन जुबैर कहते हैं : "जिसने किसी इनसान का तावीज़ काट दिया, उसे एक दास मुक्त करने का पुण्य मिलेगा।" इसे वकी ने रिवायत किया है।
इसी तरह वकी ने ही इबराहीम नख़ई से रिवायत किया है कि उन्होंने फ़रमाया : "वे लोग (अर्थाथ इब्ने मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु के शिष्य) हर तरह की तावीज़ को हराम जानते थे, क़ुरआन से हो या क़ुरआन के अतिरिक्त से।"
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :रुक़या तथा तमीमा की व्याख्या की गई है।दूसरी :तिवला की व्याख्या की गई है।तीसरी :यह तीनों ही चीज़ें बिना किसी अपवाद के शिर्क में से हैं।चौथी :बुरी नज़र तथा डंक के इलाज के तौर पर सत्य शब्दों (आयात आदि) के द्वारा जो रुक़या किया जाए यानी दम किया जाए अथवा फूँक मारी जाए वह शिर्क में से नहीं है।पाँचवीं :यदि तावीज़ में कुरआन की आयतें हों तो उलेमा के दरमियान मतभेद है कि यह शिर्क में से होगा या नहीं?छठी :बुरी नज़र से बचने के लिए जानवरों को तांत के पट्टे पहनाना भी शिर्क है।सातवीं :जो तांत लटकाए उस सख़्त धमकी दी गई है।आठवीं :जो किसी इनसान का तावीज़ काट फेंके, उसे बड़ा पुण्य मिलेगा।नवीं :इबराहीम नख़ई की बात उपर्युक्त मतभेद के विपरीत नहीं है, क्योंकि नख़ई ने अब्दुल्लाह बिन मसऊद के साथियों का मत बयान किया है।
अध्याय : पेड़ या पत्थर आदि से बरकत हासिल करने की मनाही
उच्च एवं महान अल्लाह का फ़रमान है :{أَفَرَأَيْتُمُ اللاَّتَ وَالْعُزَّى (तो (हे मुश्रिको!) क्या तुमने देख लिया लात्त तथा उज़्ज़ा को।وَمَنَاةَ الثَّالِثَةَ الأُخْرَى तथा एक तीसरे (बुत) मनात को?أَلَكُمُ الذَّكَرُ وَلَهُ الأُنْثَى क्या तुम्हारे लिए पुत्र हैं और उस अल्लाह के लिए पुत्रियाँ?تِلْكَ إذًا قِسْمَةٌ ضِيْزَى ये तो बड़ा अन्यायपूर्ण विभाजन है।إنْ هِيَ إلاَّ أسمَاءٌ سَمَّيتُمُوهَا أنتُمْ وءابآؤكُمْ مَا أنزَلَ اللهُ بها مِن سُلْطَانٍ إن يَتَّبِعُونَ إلاَّ الظَّنَّ وَمَا تَهْـوَى الأَنْفُسُ ولقَدْ جَآءهُم مِّن رَّبِّهِـمُ الهُدَى} वास्तव में, ये केवल कुछ नाम हैं, जो तुमने तथा तुम्हारे पूर्वजों ने रख लिए हैं। अल्लाह ने उनका कोई प्रमाण नहीं उतारा है। वे केवल अनुमान तथा अपनी मनमानी पर चल रहे हैं। जबकि उनके पास उनके पालनहार की ओर से मार्गदर्शन आ चुका है।)[सूरा नज्म : 19 - 23]अबू वाक़िद लैसी रज़ियल्लाहु अन्हु बयान करते हैं, वह कहते हैं कि हम अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के साथ हुनैन की ओर निकले। उस समय हम नए-नए मुसलमान हुए थे। उन दिनों मुश्रिकों का एक बेरी का पेड़ हुआ करता था, जिसके पास ठहरते थे तथा उसपर अपने हथियार भी लटकाया करते थे। उस पेड़ का नाम ज़ात-ए-अनवात था। सो हम एक बेरी के पेड़ के पास से गुज़रे तो हमने कहा : ऐ अल्लाह के रसूल, जैसे मुश्रिकों के पास ज़ात-ए-अनवात है, हमारे लिए भी एक ज़ात-ए-अनवात नियुक्त कर दें। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"अल्लाहु अकबर, यह सब (गुमराही के) रास्ते हैं। उस ज़ात की क़सम जिस के हाथ में मेरी जान है, तुमने वैसी ही बात की, जैसी बनी इसराईल ने मुसा से की थी कि : {जैसे उनके बहुत-से पूज्य हैं, वैसे हमारे लिए भी एक पूज्य नियुक्त कर दें। (मूसा ने) कहा : निःसंदेह तुम नासमझ क़ौम हो।) [सूरा-आराफ़ : 138] तुम भी अवश्य अपने से पहले के लोगों के रास्तों पर चल पड़ोगे।"इसे तिरमिज़ी ने रिवायत किया है तथा सहीह भी करार दिया है।
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :सूरा नज्म की उपर्युक्त आयत की तफ़सीर की गई है।दूसरी :उस बात को स्पष्ट रूप से समझाया गया है, जिसकी कुछ नए-नए मुसलमान होने वाले सहाबा ने माँग की थी।तीसरी :यह स्पष्ट है कि उन्होंने केवल माँग की थी, कुछ किया नहीं था।चौथी :उन नए-नए मुसलमान होने वाले सहाबा का अनुमान था कि अल्लाह को यह बात (ज़ात-ए-अनवात से बरकत हासिल करना आदि) पसंद है, इसलिए इसके द्वारा वे अल्लाह की निकटता प्राप्त करना चाहते थे।पाँचवीं :जब उनको यह बात मालूम नहीं थी, तो इस बात की अधिक संभावना है कि अन्य लोगों को भी मालूम न हो।छठी :उनके पास जो पुण्य हैं तथा उन्हें क्षमा का जो वचन दिया गया है, वह दूसरे लोगों को प्राप्त नहीं।सातवीं :नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उन्हें क्षमा योग्य नही माना, बल्कि यह कर उनका खंडन किया कि :"अल्लाहु अकबर, यह सब (गुमराही के) रास्ते हैं, तुम भी अवश्य अपने से पहले के लोगों के रास्तों पर चल पड़ोगे।"चुनांचे इन तीन वाक्यों वाक्यों द्वारा इस काम की निंदा तथा भर्त्सना की।आठवीं :एक बड़ी बात, जो मूल उद्देश्य है, यह है कि आपने बताया, उनकी यह माँग बनी इसराईल की माँग जैसी ही है, जब उन्होंने मूसा अलैहिस्सलाम से कहा था कि हमारे लिए एक पूज्य नियुक्त कर दें।नवीं :इस (पेड़ों आदि से बरकत चाहने) का इनकार करना "ला इलाहा इल्लल्लाह" के अर्थ में शामिल है। यह अलह बात है कि यह बात उनसे ओझल और छुपी रही।दसवीं :आपने फ़तवा देते हुए क़सम खाई और आप बिना किसी मसलहत के क़सम नहीं खाते थे।ग्यारहवीं :शिर्क दो प्रकार के हैं : छोटा एवं बड़ा, क्योंकि उस माँग से वे धर्म से नहीं निकले।बारहवीं :उनका यह कहना कि "हम उस समय नए-नए मुसलमान हुए थे।" से पता चलता है कि उनके सिवा अन्य लोगों को यह बात (कि इस प्रकार बरकत हासिल करना सही नहीं) मालूम थी।तेरहवीं :आश्चर्य के समय अल्लाहु अकबर कहने का प्रमाण, जबकि कुछ लोग इसे नापसंद कहते हैं।चौदहवीं :माध्यमों (बुराई और शिर्क के ओर ले जाने वाले रास्तों) को बंद करना।पंद्रहवीं :जाहिलियत काल के लोगों की मुशाबहत अपनाने से रोका गया है।सोलहवीं :शिक्षा देते समय (किसी मसलहत के तहत) क्रोधित होने का प्रमाण मिलता है।सत्रहवीं :आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने "यह सब (गुमराही के) रास्ते हैं" फ़रमाकर एक मूल नियम बयान कर दिया है।अठारहवीं :यह आपके नबी होने का एक अकाट्य प्रमाण है, क्योंकि जैसा आपने कहा था, बाद में वैसा ही हुआ।उन्नीसवीं :जिस बात के कारण भी अल्लाह ने यहूदियों तथा ईसाइयों की निंदा की है, दरअसल वह हमारे लिए चेतावनी है।बीसवीं :यह सिद्धांत विद्वानों के यहां निर्धारित है कि इबादतों का आधार (अल्लाह तआला और उसके रसूल के) आदेश पर है। तो इस (ज़ातु अनवात वाली) हदीस में क़ब्र में पूछी जाने वाली तीन बातों की और संकेत है। पहली बात "तेरा रब कौन है?" तो स्पष्ट है। दूसरी बात "तेरा नबी कौन है?" तो नबूवत की ओर संकेत आपकी भविष्यवाणी में है जिसका इस हदीस में उल्लेख हुआ है। तीसरी बात "तेरा धर्म क्या है?" इसकी ओर संकेत इस कथन में है कि {हमारे लिए भी एक पूज्य निर्धारित कर दे...} अंत तक।इक्कीसवीं :मुश्रिकों की तरह यहूदियों एवं ईसाइयों के तौर-तरीक़े भी निंदनीय एवं अमान्य हैं।बाईसवीं :जब कोई किसी गलत तौर-तरीक़े से बाहर निकलता है, तो यह शंका बाकी रहती है कि उसके दिल में उस तौर-तरीक़े का कुछ असर रह जाए। इसका प्रमाण उन सहाबा का यह कथन है : "और हम उस समय नए-नए मुसलमान हुए थे।"
अध्याय : अल्लाह के अतिरिक्त किसी और के लिए जानवर ज़बह करने की मनाही
उच्च एवं महान अल्लाह का फ़रमान है :{قُلْ إِنَّ صَلاَتِي وَنُسُكِي وَمَحْيَايَ وَمَمَاتِي للهِ رَبِّ الْعَالَمِينَ (आप कह दें कि निश्चय ही मेरी नमाज़, मेरी कुरबानी तथा मेरा जीवन-मरण, सारे संसारों के पालनहार अल्लाह के लिए है।لاَ شَرِيكَ لَهُ وَبِذَلِكَ أُمِرْتُ وأنَا أولُ المُسْلِمِينَ} जिसका कोई साझी नहीं तथा मुझे इसी का आदेश दिया गया है और मैं प्रथम मुसलमान हूँ।)[सूरा अनआम :162,163]एक अन्य स्थान में उसका फ़रमान है :{فَصَلِّ لِرَبِّكَ وَانْحَرْ} (तो तुम अपने पालनहार के लिए नमाज़ पढ़ो तथा क़ुरबानी करो।)[सूरा कौसर : 2]और अली बिन अबू तालिब रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है, वह कहते हैं कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने मुझे चार बातें बताईं :"जो अल्लाह के अतिरिक्त किसी और के लिए ज़बह करे उसपर अल्लाह की लानत हो (अर्थात अल्लाह उसे अपनी दया से दूर रखे), जो अपने माता-पिता पर लानत भेजे उसपर अल्लाह की लानत हो, जो दीन में नई चीज़ दाखिल करने वाले किसी व्यक्ति को शरण दे उसपर अल्लाह की लानत हो, जो धरती की निशानी बदल दे उसपर भी अल्लाह की लानत हो।"इसे इमाम मुस्लिम ने रिवायत किया है।और तारिक़ बिन शिहाब रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"एक मक्खी के कारण एक व्यक्ति जन्नत में और एक मक्खी ही के कारण एक दूसरा व्यक्ति जहन्नम में दाखिल हुआ।"
सहाबा ने पूछा : वो कैसे, ऐ अल्लाह के रसूल?
आपने फ़रमाया : "दो लोग एक ऐसी कौम के पास से गुजरे, जिनकी एक मूर्ती थी। वेे किसी को भी मूर्ति पर चढ़ावा चढ़ाए बिना आगे जाने की अनुमती नही देते थे।
ऐसे में उन लोगों ने दोनों में से एक से कहा : कुछ चढ़ा दो।
वह बोला : मेरे पास तो चढ़ाने को कुछ है नहीं।
वे बोले : कोई मक्खी ही चढा दो। तो उसने एक मक्खी का चढ़ावा चढा दिया। इसके उपरांत उन्होंने उसका रास्ता छोड़ दिया और वह जहन्नम में दाखिल हो गया।
उन्होंने दूसरे से भी कहा : तुम भी कुछ चढ़ा दो।
उसने कहा : अल्लाह के अतिरिक्त किसी को भी मैं कुछ नहीं चढ़ाऊँगा। इसबर उन्होंने उसे मार दिया और वह जन्नत में दाखिल हो गया।इसे इमाम अह़मद ने रिवायत किया है।
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :अल्लाह के कथन : {إِنَّ صَلاَتِي وَنُسُكِي} (निःसंदेस मेरी नमाज़ तथा मेरी क़ुरबानी...) की व्याख्या की गई है।दूसरी :अल्लाह के फ़रमान : {فَصَلِّ لِرَبِّكَ وَانْحَرْ} (तो तुम अपने पालनहार के लिए नमाज़ पढ़ो तथा क़ुरबानी करो) की व्याख्या की गई है।तीसरी :जिसने अल्लाह के अतिरिक्त किसी और के लिए ज़बह किया हो उसपर सबसे पहले लानत की गई है।चौथी :जिसने अपने माता-पिता पर लानत भेजी, उसपर लानत भेजी गई है। इसका एक रूप यह है तुम कसी के माता-पिता पर लानत भेजो और परिणामस्वरूप वह तुम्हारे माता-पिता पर लानत भेजे।पाँचवीं :उस व्यक्ति पर भी लानत भेजी गई है, जो दीन में नई चीज़ दाखिल करने वाले किसी व्यक्ति को शरण दे। इससे मुराद ऐसा व्यक्ति है, जो कोई ऐसा नया काम करे, जिसमें अल्लाह का कोई अधिकार अनिवार्य होता हो। फिर इसके उपरांत वह किसी ऐसे व्यक्ति के पास पहुँचे, जो उसे अपना शरण दे।छठी :जो ज़मीन की निशानी बदल दे उसपर लानत की गई है। यहाँ मुराद ऐसी निशानियाँ हैं, जिनके द्वारा लोग अपने-अपने हिस्सों की पहचान करते हैं। इन्हें आगे या पीछे करके बदलना लानत का काम है।सातवीं :किसी विशेष व्यक्ति पर लानत भेजने तथा साधारण रूप से पापियों पर लानत भेजने में अंतर है।आठवीं :मक्खी वाली महत्वपूर्ण कहानी।नवीं :उस व्यक्ति ने हालाँकि अपने इरादे से मक्खी नहीं चढ़ाई, बल्कि केवल अपनी जान बचाने के लिए ऐसा किया था। लेकिन, फिर भी उसके कारण उसे जहन्नम जाना पड़ा।दसवीं :इस बात की जानकारी प्राप्त हुई कि ईमान वालों के दिलों में शिर्क कितना बड़ा पाप है कि उस व्यक्ति ने मर जाना गवारा किया, पर उनकी बात नहीं मानी। हालाँकि उन लोगों ने केवल ज़ाहिरी अमल ही की माँग की थी।ग्यारहवीं :जो व्यक्ति जहन्नम में दाखिल हुआ वह मुसलमान था; क्योंकि काफ़िर होता तो आप यह नहीं कहते : "एक मक्खी के कारण जहन्नम में दाखिल हुआ।"बारहवीं :इस हदीस से एक अन्य सहीह हदीस की पुष्टि होती है, जिसमें है :"जन्नत, तुममें से किसी व्यक्ति से उसके जूते के तसमे से भी अधिक निकट है तथा नर्क का भी यही हाल है।"तेरहवीं :इस बात की जानकारी मिली कि दिल का अमल ही सबसे बड़ा उद्देश्य है, यहाँ तक कि मूर्तिपूजकों के निकट भी।
अध्याय : जहाँ अल्लाह के सिवा किसी और के नाम पर जानवर ज़बह किया जाता हो, वहाँ अल्लाह के नाम पर ज़बह करने की मनाही
उच्च एवं महान अल्लाह का फ़रमान है :{لاَ تَقُمْ فِيهِ أَبَدًا لَّمَسجِدٌ أُسِّسَ عَلَى التَّقـوَى مِنْ أَوَّلِ يَوْمٍ أَحَقُّ أن تَقُومَ فِيهِ فيهِ رِجَالٌ يُحِبُّونَ أن يَتَطَهَّرُوا وَاللهُ يُحِبُّ المُطَّهِّرِينَ} ((हे नबी!) आप उसमें कभी खड़े न हों। वास्तव में, वो मस्जिद जिसका शिलान्यास प्रथम दिन से अल्लाह के भय पर किया गया है, वो अधिक योग्य है कि आप उसमें (नमाज़ के लिए) खड़े हों। उसमें ऐसे लोग हैं, जो स्वच्छता से प्रेम करते हैं और अल्लाह स्वच्छ रहने वालों से प्रेम करता है।)[सूरा तौबा : 108]साबित बिन ज़ह्हाक रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है, उन्होंने कहा : एक व्यक्ति ने मन्नत मानी कि बुवाना (एक स्थान) में ऊँट ज़बह करेगा। अतः नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से इस संबंध में प्रश्न किया, तो आपने फ़रमाया :"क्या वहाँ पर कोई ऐसी चीज़ थी, जिसकी जाहिलियत के दिनों में इबादत की जाती रही हो?"
लोगों ने कहा : नहीं।
आपने और पूछा : "क्या वहाँ जाहिलियत के लोग कोई त्योहार मनाते थे?"
लोगों ने कहा : नहीं, तो अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"अपनी मन्नत पूरी करो। देखो, ऐसी नज़र पूरी नहीं की जाएगी जिसमें अल्लाह की अवज्ञा हो या जो इनसान के बस में न हो।"इसे अबू दाऊद ने रिवायत किया है एवं इसकी सनद बुख़ारी तथा मुस्लिम की शर्त के अनुसार है।
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :अल्लाह के कथन : {لاَ تَقُمْ فِيهِ أَبَدًا} (उसमें कभी खड़े न हों) की व्याख्या की गई है।दूसरी :अज्ञापालन एवं अवज्ञा का असर स्थान पर भी होता है।तीसरी :कठिन मअले को स्पष्ट मसले की ओर फेरना, ताकि कठिनाई दूर हो जाए।चौथी :ज़रूरत पड़ने पर मुफ़्ती का तफसील मालूम करनी चाहिए।पाँचवीं :यदि कोई (शरई) रुकावट न हो, तो किसी विशेष स्थान को मन्नत के लिए चुनने में कोई हर्ज नहीं है।छठी :पर इससे रोका जाएगा यदि वहाँ जाहिलियत काल में कोई पूज्य वस्तु रही हो, यद्यपि उसे हटा दिया गया हो।सातवीं :और इसी तरह इससे रोका जाएगा यदि वहाँ जाहिलियत काल में कोई त्योहार मनता रहा हो, यद्यपि उसे हटा दिया जाए।आठवीं :ऐसे (त्योहार आदी वाले) स्थान में मानी हुई मन्न पूरी करना जायज़ नहीं; क्योंकि यह अवज्ञा की मन्नत है।नवीं :बिना इरादे के ही सही पर त्योहारों में मुश्रिकों की मुशाबहत से सावधान रहना चाहिए।दसवीं :अवज्ञा वाली मन्नत का कोई एतबार नहीं।ग्यारहवीं :इसी प्रकार से ऐसी मन्नत का भी कोई एतबार नहीं, जो इनसान के बस के बाहर हो।
अध्याय : अल्लाह के सिवा किसी और के लिए मन्नत मानना शिर्क है
उच्च एवं महान अल्लाह का फ़रमान है :{يُوفُونَ بِالنَّذْر ويخَافُونَ يَومًا كانَ شَرُّهُ مُسْتَطِيرًا} (जो (इस दुनिया में) मन्नत पूरी करते हैं तथा उस दिन से डरते हैं, जिसकी आपदा चारों ओर फैली हुई होगी।)[सूरा इनसान : 7]एक अन्य स्थान में उसका फ़रमान है :{وَمَا أَنفَقْتُم مِّن نَّفَقَةٍ أَوْ نَذَرْتُم مِّن نَّذْرٍ فَإِنَّ اللهَ يَعْلَمُهُ} (तथा तुम जो भी दान करो अथवा मन्नत मानो, अल्लाह उसे जानता है।)[सूरा बक़रा : 207]और सहीह बुखारी में आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"जो अलालह के आज्ञापालन की मन्नत माने वह अल्लाह के आदेश का पालन करे और जो उसकी नाफरमानी की मन्नत माने वह उसकी अवज्ञा न करे।"
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :मन्नत पूरी करना अनिवार्य है।दूसरी :जब यह प्रमाणित हो गया कि मन्नत मानना अल्लाह की इबादत है, तो फिर किसी और के लिए मन्नत मानना शिर्क है।तीसरी :जिस मन्नत में गुनाह हो उसे पूरा करना वैध नहीं।
अध्याय : अल्लाह के सिवा किसी और की शरण माँगना शिर्क है
उच्च एवं महान अल्लाह का फ़रमान है :{وَأَنَّهُ كَانَ رِجَالٌ مِّنَ الإِنسِ يَعُوذُونَ بِرِجَالٍ مِّنَ الْجِنِّ فَزَادوهُمْ رَهَقًا} (और वास्तविक्ता ये है कि मनुष्य में से कुछ लोग, जिन्नों में से कुछ लोगों की शरण माँगते थे, तो उन्होंने उन जिन्नों के दंभ तथा उल्लंघन को और बढ़ा दिया।)[सूरा जिन्न : 6]तथा खौला बिन्त हकीम रज़ियल्लाहु अन्हा से वर्णित है कि उन्होंने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को फ़रमाते हुए सुना है :"जो किसी स्थान में उतरते समय कहे : 'मैं अल्लाह की पैदा की हुई चीज़ों की बुराई से उसके संपूर्ण शब्दों की शरण में आता हूँ', उसे कोई चीज़ वह स्थान छोड़ने तक नुक़सान नहीं पहुँचा सकती।"इसे इमाम मुस्लिम ने रिवायत किया है।
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :सूरा जिन्न की उपर्युक्त आयत की व्याख्या की गई है।दूसरी :जिन्नों की शरण माँगना शिर्क है।तीसरी :उपर्युक्त हदीस को इस मसले में प्रमाण के रूप में पेश किया जाता है, क्योंकि उलेमा इससे यह साबित करते हैं कि अल्लाह के शब्द मख़लूक़ नहीं हैं। उनका कहना है कि अगर अल्लाह के शब्द मख़लूक़ होते, तो अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम उनका शरण न लेते, क्योंकि मख़लूक़ का शरण लेना शिर्क है।चौथी :इस छोटी-सी दुआ की फ़ज़ीलत।पाँचवीं :यदि किसी चीज़ के द्वारा दुनिया में कोई लाभ मिले या कोई हानि दूर हो तो इसका यह मतलब नहीं कि वह शिर्क नहीं है।
अध्याय : अल्लाह के सिवा किसी से फ़रियाद करना या उसे पुकारना शिर्क है
उच्च एवं महान अल्लाह का फ़रमान है :{وَلاَ تَدْعُ مِن دُونِ اللهِ مَا لاَ يَنفَعُكَ وَلاَ يَضُرُّكَ فَإِن فَعَلْتَ فَإِنَّكَ إِذًا مِّنَ الظَّالِمِينَ (और अल्लाह के सिवा उसे न पुकारें, जो आपको न लाभ पहुँचा सकता है और न हानि पहुँचा सकता है। फिर यदि, आप ऐसा करेंगे, तो अत्याचारियों में हो जाएँगे।وَإِن يَمْسَسْكَ اللهُ بِضُرٍّ فَلاَ كَاشِفَ لَهُ إِلاَّ هُوَ وَإِن يُرِدْكَ بِخَيرٍ فَلا رَادَّ لِفَضْلِهِ يُصِيبُ بِهِ مَن يَشَاءُ مِنْ عِبَادِهِ وَهُوَ الغَفُورُ الرَّحِيمُ} (और यदि अल्लाह आपको कोई हानि पहुँचाना चाहे, तो उसके सिवा कोई उसे दूर करने वाला नहीं, और यदि आपको कोई भलाई पहुँचाना चाहे, तो कोई उसकी भलाई को रोकने वाला नहीं। वह अपनी दया अपने भक्तों में से जिसपर चाहे, करता है तथा वह क्षमाशील दयावान है।)[सूरा यूनुस : 106 -107]एक अन्य स्थान में उसका फ़रमान है :{فَابْتَغُواْ عِندَ اللهِ الرِّزْقَ وَاعْبُدُوهُ وَاشْكُرُوا لَهُ إِليهِ تُرْجَعُونَ} (अतः तुम अल्लाह ही से रोज़ी माँगो, उसी की इबादत करो एवं उसी का आभार मानो। उसी की ओर तुम लौटाए जाओगे।)[सूरा अनकबूत : 17]तथा एक और स्थान में उसका फ़रमान है :{وَمَنْ أَضَلُّ مِمَّن يَدْعُو مِن دُونِ اللهِ مَن لاَّ يَسْتَجِيبُ لَهُ إِلَى يَوْمِ الْقِيَامَةِ وَهُم عَن دُعَائِهِم غَافِلونَ (तथा उससे अधिक बहका हुआ कौन हो सकता है, जो अल्लाह के सिवा उन्हें पुकारता हो, जो क़यामत के दिन तक उसकी प्रार्थना स्वीकार न कर सकें, और वे उसकी प्रार्थना से निश्चेत (अनजान) हों?وَإِذا حُشِرَ النَّاسُ كَانُوا لَهُمْ أَعدَاءً وَكَانُوا بِعِبَادَتِهِمْ كَافِرِينَ} तथा जब लोग एकत्र किए जाएँगे, तो वे उनके शत्रु हो जाएँगे और उनकी इबादत का इनकार कर देंगे।)[सूरा अहक़ाफ़ : 5 , 6]इसी तरह एक अन्य स्थान में उसका फ़रमान है :{أمَّن يُجِيبُ الْمُضْطَرَّ إِذَا دَعَاهُ وَيَكْشِفُ السُّوءَ وَيَجْعلُكُمْ خُلَفَاءَ الأَرْضِ أَإِلهٌ مَعَ اللهِ} (कौन है, जो व्याकुल की प्रार्थना सुनता है, जब उसे पुकारे और दूर करता है दुःख तथा तुम्हें बनाता है धरती का अधिकारी, क्या कोई पूज्य है अल्लाह के साथ?)[सूरा नम्ल : 62]और तबरानी ने अपनी सनद से रिवायत किया है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लमके ज़माने में एक मुनाफिक़ था, जो मोमिनों को कष्ट पहुँचाता था। ऐसे में कुछ लोगों ने कहा : चलो, इस मुनाफिक़ के विरुद्ध नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से फ़रियाद करते हैं। तो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"मुझसे फरियाद नहीं की जाएगी, फ़रियाद केवल अल्लाह से की जाएगी।"
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :फरियाद के बाद दुआ का उल्लेख विशेष के बाद साधारण के उल्लेख के अंतर्गत आता है।दूसरी :अल्लाह के कथन : {وَلاَ تَدْعُ مِن دُونِ اللهِ مَا لاَ يَنفَعُكَ وَلاَ يَضُرُّكَ} (और अल्लाह के सिवा उसे न पुकारें, जो आपको न लाभ पहुँचा सकता है और न हानि पहुँचा सकता है।) की व्याख्या की गई है।तीसरी :यह कि अल्लाह के सिवा किसी को पुकारना ही बड़ा शिर्क है।चौथी :कोई सबसे नेक तथा सदाचारी बंदा भी यदि अल्लाह के सिवा किसी को उसकी प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए पुकारे, तो वह अत्याचारियों में शुमार होगा।पाँचवीं :उसके बाद वाली आयत यानी अल्लाह तआला के कथन : {وَإِن يَمْسَسْكَ ...اللهُ بِضُرٍّ فَلاَ كَاشِفَ لَهُ إِلاَّ هُوَ } (और यदि अल्लाह आपको कोई हानि पहुँचाना चाहे, तो उसके सिवा कोई उसे दूर करने वाला नहीं...) की व्याख्या मालूम हुई।छठी :अल्लाह के सिवा किसी को पुकारना कुफ़्र होने के साथ-साथ दुनिया में कुछ लाभकारी भी नहीं है।सातवीं :तीसरी आयत की तफ़सीर भी मालूम हुई।आठवीं :जिस तरह जन्नत केवल अल्लाह से माँगी जाती है, उसी प्रकार रोज़ी भी केवल उसी से माँगनी चाहिए।नवीं :चौथी आयत की व्याख्या मालूम हुई।दसवीं :अल्लाह के सिवा किसी और को पुकारने वाले से अधिक गुमराह कोई नहीं है।ग्यारहवीं :अल्लाह के सिवा जिसे पुकारा जाता है, वह पुकारने वाले की पुकार से बेखबर होता है। वह नही जानता कि उसे कोई पुकार भी रहा है।बारहवीं :जिसे अल्लाअह के अतिरिक्त पुकारा जाता है, वह इस पुकार के कारण पुकारने वाले का दुश्मन बन जाएगा।तेरहवीं :अल्लाह के सिवा किसी को पुकारने को पुकारे जाने वाले की इबादत का नाम दिया गया है।चौदहवीं :जिसे पुकारा जा रहा है, वह क़यामत के दिन इस इबादत का इनकार कर देगा।पंद्रहवीं :अल्लाह के सिवा किसी से फरियाद करने और उसको पुकारने के कारण ही वह व्यक्ति सबसे अधिक गुमरहा हो गया।सोलहवीं :पाँचवीं आयत की व्याख्या भी मालूम हुई।सत्रहवीं :आश्चर्यजनक बात यह है कि मूर्तिपूजक भी यह मानते हैं कि व्याकुल व्यक्ति की पुकार केवल अल्लाह ही सुनता है। यही कारण है कि वे कठिन परिस्थितियों में सबको छोड़-छाड़कर केवल अल्लाह को पुकारते हैं।अठारहवीं :इससे साबित होता है कि हमारे नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने एकेश्वरवाद की वाटिका ही संपूर्ण रक्षा की है और बंदों को अल्लाह के साथ सम्मानपूर्ण व्यवहार करने की शिक्षा दी है।अध्याय : उच्च एवं महान अल्लाह के इस कथन का वर्णन :{أَيُشْرِكُونَ مَا لاَ يَخْلُقُ شَيْئًا وَهُمْ يُخْلَقُونَ (क्या वह ऐसों को साझी ठहराते हैं जो किसी चीज़ को पैदा न कर सकें और वह स्वयं ही पैदा किए गए हों?وَلاَ يَسْتَطِيعُونَ لَهُمْ نَصْرًا ولا أَنفُسَهُمْ يَنصُرُونَ} (और न वह उनकी किसी प्रकार की सहायता कर सकते हैं और न स्वयं अपनी सहायता करने की शक्ति रखते हैं।)[सूरा आराफ़ : 191-192]एक अन्य स्थान में उसका फ़रमान है :{وَالَّذِينَ تَدْعُونَ مِن دُونِهِ مَا يَمْلِكُونَ مِن قِطْمِيرٍ (जिन्हें तुम अल्लाह के सिवा पुकारते हो वे खजूर की गुठली के छिलके के भी मालिक नहीं हैं।إن تَدْعُوهُمْ لا يَسْمَعُوا دُعَاءَكُمْ وَلَوْ سَمِعُوا مَا استَجَابُوا لَكُمْ وَيَومَ القِيَامَةِ يَكْفُرُونَ بِشِركِكُمْ وَلا يُنَبِّئُكَ مِثْلُ خَبِير} (यदि तुम उन्हें पुकारते हो, तो वे नहीं सुनते तुम्हारी पुकार को, और यदि सुन भी लें, तो नहीं उत्तर दे सकते तुम्हें, और क़यामत के दिन वे नकार देंगे तुम्हारे साझी बनाने को, और आपको कोई सूचना नहीं देगा सर्वसूचित की तरह।)[सूरा फ़ातिर : 13 ,14]सहीह मुस्लिम में अनस रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है, वह कहते हैं :उहुद युद्ध में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम चोटिल हो गए और आपके सामने के दो दाँत तोड़ दिए गए, तो आपने फरमाया : "ऐसी कौम को सफलता कैसे मिल सकती है जो अपने नबी को ज़ख़्मी कर दे?"ऐसे में यह आयत नाज़िल हुई : {आपके अधिकार में कुछ भी नहीं है।}[सूरा आल-ए-इमरान : 28]और सहीह बुखारी में अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा से वर्णित है कि उन्होंने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को फ़ज्र की नमाज़ के अंदर अंतिम रकात के रुकू से सर उठाने के बाद तथा "سَمِعَ اللهُ لِمَنْ حَمِدَهُ رَبَّنَا وَلَكَ الْحَمْدُ" कहने के पश्चात यह कहते हुए सुना :"ऐ अल्लाह, अमुक तथा अमुक पर लानत कर।"जिसपर अल्लाह ने यह आयत उतारी :{لَيْسَ لَكَ مِنَ الأَمْرِ شَيْءٌ} (आपके अधिकार में कुछ भी नहीं है।)[सूरा आल-ए-इमरान : 28]जबकि एक रिवायत में है कि आप सफवान बिन उमैया, सुहैल बिन अम्र एवं हारिस बिन हिशाम पर बददुआ कर रहे थे, तो यह आयत उतरी :{لَيْسَ لَكَ مِنَ الأَمْرِ شَيْءٌ} (आपके अधिकार में कुछ भी नहीं है।)[सूरा आल-ए-इमरान : 28]तथा सहीह बुखारी में अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है, वह कहते हैं कि जब अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर यह आयत उतरी : {وَأَنذِرْ عَشِيرَتَكَ الأَقْرَبِينَ} (और अपने निकटवर्तियों को डराएँ।) [सुरा-शुआरा : 214] तो आप खड़े हुए और फ़रमाया :"कुरैश के लोगो! -या इसी प्रकार का कोई और संबोधन का शब्द प्रयोग किया- अपने आप को खरीद लो, अल्लाह के यहाँ मैं तुम्हारे कुछ काम नहीं आ सकता। ऐ अब्बास बिन अब्दुल मुत्तलिब! अल्लाह के यहाँ मैं तुम्हारे कुछ काम नहीं आ सकता। ऐ सफ़ीया -अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की फूफी-! अल्लाह के यहाँ मैं तुम्हारे कुछ काम नहीं आ सकता। ऐ फ़ातिमा बिन्त मुहम्मद! मेरे धन में से जो चाहो माँग लो, अल्लाह के यहाँ मैं तुम्हारे कुछ काम नहीं आ सकता।"
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :दोनों आयतों की व्याख्या सामने आई।दूसरी :उहुद युद्ध की कहानी मालूम हुई।तीसरी :पता चला कि रसूलों के सरदार नमाज़ में दुआ-ए-क़ुनूत पढ़ रहे थे और उनके पीछे अवलियागण यानी सहाबा किराम आमीन कह रहे थे।चौथी :जिन लोगों पर आपने बददुआ की थी वे काफ़िर थे।पाँचवीं :लेकिन उन्हों ने कुछ ऐसे कार्य किए थे, जो अधिकतर काफिरों ने नहीं किए थे। मसलन उन्होंने अपने नबी को ज़ख्मी कर दिया था, आपका वध करने की इच्छा रखते थे और शहीद होने वाले मुसलमानों के शरीर के अंग काट डाले थे। हालाँकि ये सारे लोग उनके रिश्तेदार ही थे।छठी :इसी संबंध में अल्लाह ने आपपर यह आयत उतारी : {لَيْسَ لَكَ مِنَ الأَمْرِ شَيْءٌ} (आप के अधिकार में कुछ नहीं है।)सातवीं :अल्लाह ने फ़रमाया : {أَوْ يَتُوبَ عَلَيْهِمْ أَوْ يُعَذِّبَهُمْ} (या अल्लाह उनकी तौबा क़बूल करे या उन्हें यातना दे।) चुनांचे अल्लाह ने उनकी तौबा क़बूल कर ली और वे ईमान ले आए।आठवीं :मुसीबतों के समय कुनूत पढ़ने का सबूत।नवीं :नमाज़ के अंदर जिनपर बददुआ की जाए, उनके तथा उनके पिता के नाम का सबूत।दसवीं :दुआ-ए-क़ुनूत के अंदर किसी विशेष व्यक्ति पर लानत भेजने का सबूत।ग्यारहवीं :उस परिस्थिति का वर्णन जिसमें आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर यह आयत उतरी थी :{وَأَنذِرْ عَشِيرَتَكَ الأَقْرَبِينَ} (और आप सावधान कर दें अपने समीपवर्ती संबंधियों को।)बारहवीं :अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इस कार्य में इस क़दर तत्परता दिखाई कि आपको पागल कहा जाने लगा तथा वस्तुस्थिति यह है कि आज भी यदि कोई उसी तरह मुस्तैदी दिखाए, तो उसे भी वही नाम दिया जाएगा।तेरहवीं :अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने निकट तथा दूर के संबंधियों से यही कहा कि : "अल्लाह के यहाँ मैं तुम्हारे कुछ काम नहीं आ सकता।"यहाँ तक कि यह भी फ़रमाया : "ऐ फ़ातिमा बिन्त मुहम्मद! अल्लाह के यहाँ मैं तुम्हारे कुछ काम नहीं आ सकता।"
जब आप रसूलों के सरदार होने के बावजूद औरतों की सरदार तथा अपनी बेटी से स्पष्ट रूप से कह रहे हैं की आप उन्हें भी नहीं बचा सकते और इनसान को यकीन हो कि आप सत्य ही बोलते हैं, फिर वह आज विशेष लोगों के दिलों का जो हाल है उसपर विचार करे, तो उसके सामने यह बात साफ हो जाएगी कि तौहीद को छोड़ दिया गया है और दीन (इस्लाम) अजनबी हो गया है।
अध्याय : उच्च एवं महान अल्लाह के इस कथन का वर्णन : {حَتَّى إِذَا فُزِّعَ عَن قُلُوبِهِمْ قَالُواْ مَاذَا قَالَ رَبُّكُمْ قَالُوا الْحَقَّ وَهُوَ الْعَلِيُّ الْكَبِيرُ} (यहाँ तक कि जब उन (फरिश्तों) के हृद्यों से घबराहट दूर कर दी जाती है, तो फरिश्ते पूछते हैं कि तुम्हारे रब ने क्या फरमाया? वे कहते हैं कि सच फरमाया, और वह सर्वाच्च और महान है।) [सूरा सबा : 23]
सहीह बुखारी में अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"जब आसमान में अल्लाह तआला किसी बात का निर्णय करता है, तो फरिश्ते आज्ञापालन तथा विनय के तौर पर अपने पर मारते हैं। उस समय ऐसी आवाज़ पैदा होती है, जैसे किसी साफ पत्थर पर ज़ंजीर के पड़ने की आवाज़ हो। यह बात फरिश्तों तक पहुंचती है। फिर जब उनसे घबराहट दूर होती है तो वे एक-दूसरे से पूछते हैं कि तुम्हारे रब ने क्या फरमाया? तो (अल्लाह के निकटवर्ती फ़रिश्ते) कहते हैं कि उसने सत्य फरमाया है और वह सर्वोच्च तथा सबसे बड़ा है। तब चोरी से कान लगाने वाले जिन्न उस बात को सुन लेते हैं। वे, उस समय इस प्रकार एक-दूसरे पर सवार होते हैं। इस बात को कहते समय हहीस के वर्णनकर्ता सुफ़यान ने अपनी हथेली को टेढ़ा किया और उंगलियो को फैलाते हुए बताया कि वे इस प्रकार एक-दूसरे पर सवार होते हैं। एक शैतान उसे सुनकर अपने से नीचे वाले को पहुंचाता है और वह अपने से नीचे वाले को। यहाँ तक कि वह बात जादूगर या काहिन तक पहुँच जाती है। कभी उस बात को नीचे भेजने से पहले ही शैतान पर सितारे की मार पड़ती है और कभी वह इससे बच जाता है। फिर वह जादूगर या काहिन उसके साथ सौ झूटी बातें मिलाता है, तो लोग कहते हैं : क्या उसने अमुक दिन यह और यह बात नहीं बताई थी? इस प्रकार आसमान से प्राप्त उस एक बात के कारण उस जादूगर या काहिन को सच्चा समझ लिया जाता है।"और नव्वास बिन समआन रज़ियल्लाहु अन्हु बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"जब अल्लाह किसी बात की वह्य करना चाहता है, तो वह वह्य के शब्दों का उच्चारण करता है। उस वह्य के कारण, सर्वशक्तिमान एवं महान अल्लाह के डर से आसमान कंपन या थरथराहट का शिकार हो जाते हैं। फिर जब आसमानों के निवासी उसे सुनते हैं तो उनपर बेहोशी छा जाती है एवं वे सजदे में गिर जाते हैं। उसके बाद सबसे पहले जिबरील सर उठाते हैं और अल्लाह जो चाहता है उनकी ओर वह्य करता है। फिर जिबरील फरिश्तों के पास से गुज़रते हैं और हर आसमान के निवासी उनसे पूछते हैं : जिबरील, हमारे रब ने क्या फरमाया?
वह जवाब देते हैं : उसने सत्य फरमाया और वह सर्वोच्च तथा महान है। सो वे भी जिबरील की बात को दोहराते हैं। फिर जिबरील, उस वह्य को जहाँ अल्लाह का आदेश होता है, पहुँचा देते हैं।"
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :सूरा सबा की उक्त आयत की व्याख्या।दूसरी :इस आयत में शिर्क को असत्य ठहराने का अकाट्य प्रमाण है, विशेष रूप से उस शिर्क को, जो सदाचारियों से संबंध जोड़ने के रूप में पाया जाता है। इस आयत के बारे में कहा जाता है कि यह दिल से शिर्क की ज़ड़ों को काट फेंकती है।तीसरी :अल्लाह के इस कथन की व्याख्या :{قَالُوا الْحَقَّ وَهُوَ الْعَلِيُّ الْكَبِيرُ} (वे कहते हैं कि सत्य फरमाया और वह सरवोच्च तथा महान है।)चौथी :फरिश्तों के इस संबंध में प्रश्न करने का कारण भी बता दिया गया है।पाँचवीं :उनके पूछने के बाद जिबरील उन्हें उत्तर देते हुए कहते हैं : "अल्लाह ने यह और यह बातें कही हैं।"छठी :इस बात का वर्णन कि सबसे पहले जिबरील सर उठाते हैं।सातवीं :चूँकि सारे आकाशों में रहने वाले उनसे पूछते हैं, इसलिए वह हर एक का उत्तर देते हैं।आठवीं :सारे आकाशों में रहने वाले सारे फ़रिश्ते बेहोशी के शिकार हो जाते हैं।नवीं :अल्लाह जब बात करता है, तो सारे आकाश काँप उठते हैं।दसवीं :जिबरील ही वह्य को वहाँ पहुँचाते हैं, जहाँ अल्लाह का आदेश होता है।ग्यारहवीं :शैतान आकाश के निर्णयों को चुपके-चुपके सुनने का प्रयास करते हैं।बारहवीं :शैतानों के एक-दूसरे पर सवार होने की सिफत भी बता दी गई है।तेरहवीं :(शैतानों को भगाने के लिए) चमकते तारों का भेजा जाता हैं।चौदहवीं :शैतान कभी तो सुनी हुई बात को नीचे भेजने से पहले ही चमकते तारे का शिकार हो जाते हैं
और कभी उसका शिकार होने से पहले अपने मानवा मित्रों को पहुँचाने में सफल हो जाते हैं।
पंद्रहवीं :काहिन की कुछ बातें सच्ची भी होती हैं।सोलहवीं :लेकिन वह एक सच्ची बात के साथ सौ झूठ मिलाता है।सत्रहवीं :आसमान से प्राप्त उस एक सच्ची बात के कारण ही उसकी तमाम झूठी बातों को को सच मान लिया जाता है।अठारहवीं :इनसान का दिल असत्य को स्वीकार करने के लिए अधिक तत्पर रहता है। यही कारण है कि वह एक सच्ची बात से चिमट जाता है, लेकिन सौ झूठी बातों पर ध्यान नहीं देता।उन्नीसवीं :शैतान उस एक बात को एक-दूसरे से प्राप्त करते हैं
उसको याद कर लेते हैं और उससे अनुमान लगाते हैं।
बीसवीं :इससे अल्लाह के गुण सिद्ध होते हैं, जबकि अल्लाह को गुणरहित बताने वाले अशअरियों का मत इससे भिन्न है।इक्कीसवीं :इस बात की वज़ाहत कि वह कंपन तथा बेहोशी
अल्लाह के भय से होती है।
बाईसवीं :फरिश्ते अल्लाह के लिए सजदे में गिर जाते हैं।
अध्याय : शफ़ाअत (सिफ़ारिश) का वर्णन
उच्च एवं महान अल्लाह का फरमान है :{وَأَنذِرْ بِهِ الَّذِينَ يَخَافُونَ أَن يُحْشَرُواْ إِلَى رَبِّهِمْ لَيْسَ لَهُمْ مِّن دُونِهِ وَلِيٌّ وَلاَ شَفِيعٌ لَعَلَّهُمْ يَتَّقُونَ} (और इस (वह्य) के द्वारा उन्हें सचेत करो, जो इस बात से डरते हों कि वे अपने रब के पास (क़यामत के दिन) एकत्र किए जाएँगे, इस दशा में कि अल्लाह के सिवा कोई उनका सहायक न होगा तथा उनके लिए कोई अनुशंसक (सिफ़ारिशी) न होगा (जो अल्लाह के यहाँ उनके लिए सिफ़ारिश कर सके), संभवतः वे आज्ञाकारी हो जाएँ।)[सूरा अनआम : 51]एक और स्थान में उसका फरमान है :{قُل للهِ الشَّفَاعَةُ جَمِيعًا} (कह दो कि शफ़ाअत (सिफ़ारिश) सारी की सारी (केवल) अल्लाह के अधिकार में है।)[सूरा ज़ुमर : 44]एक अन्य जगह वह फ़रमाता है :{مَن ذَا الَّذِي يَشْفَعُ عِنْدَهُ إِلاَّ بِإِذْنِهِ} (उसकी अनुमति के बिना कौन उसके पास सिफारिश कर सकता है?)[सूरा बक़रा : 255]साथ ही वह कहता है :{وَكَم مِّن مَّلَكٍ فِي السَّمَاوَاتِ لاَ تُغْنِي شَفَاعَتُهُمْ شَيْئًا إِلاَّ مِن بَعْدِ أَن يَأْذَنَ اللهُ لِمَن يَشَاءُ وَيَرْضَى} (और आकाशों में बहुत-से फ़रिश्ते हैं, जिनकी अनुशंसा कुछ लाभ नहीं देती, परन्तु इसके पश्चात् कि अल्लाह अनुमति दे, जिसके लिए चाहे तथा जिससे प्रसन्न हो।)[सूरा नज्म : 26]एक और स्थान में उसका फरमान है :{قُلِ ادْعُوا الَّذِينَ زَعَمْتُم مِّن دُونِ اللهِ لاَ يَمْلِكُونَ مِثْقَالَ ذَرَّةٍ فِي السَّمَاوَاتِ وَلاَ فِي الأَرْضِ ومَا لَهُمْ فِيهِمَا مِن شِرْكٍ ومَا لَهُ مِنْهُم مِّنْ ظَهِيرٍ ولا تَنْفَعُ الشَّفَاعَةُ عِندَهُ إِلا لِمَنْ أَذِنَ لَهُ} (आप कह दीजिए ! अल्लाह के अतिरिक्त जिन-जिन का तुम्हें भ्रम है सब को पुकार लो। न उनमें से किसी को आकाशों तथा धरती में से एक कण का अधिकार है, न उनका उनमें कोई भाग है और न उनमें से कोई अल्लाह का सहायक है। और उसके यहाँ कोई भी अनुशंसा कुछ लाभ नहीं देती, परन्तु उस व्यक्ति को जिसके लिए वह अनुमति दे।)[सूरा सबा : 22, 23]अबुल अब्बास इब्न-ए-तैमिया कहते हैं :"अल्लाह ने अपने सिवा हर वस्तु के बारे में हर उस चीज़ का इनकार किया है, जिससे मुश्रिक नाता जोड़ते हैं। अतः इस बात का इनकार किया कि किसी को बादशाहत या उसका कोई भाग प्राप्त हो, या वह अल्लाह का सहायक हो। अतः अब केवल अनुशंसा ही बाकी रह जाती है, जिसके बारे में अल्लाह ने स्पष्ट कर दिया कि वह उसकी अनुमति के बिना कोई लाभ नहीं दे सकती। जैसा कि फ़रमाया :{وَلاَ يَشْفَعُونَ إِلاَّ لِمَنِ ارْتَضَى} (और वे उसके सिवा किसी की सिफ़ारिश नहीं कर सकते, जिससे अल्लाह राज़ी हो}।[सूरा अंबिया : 28]
अतः जिस अनुशंसा की आशा मुश्रिकों ने लगा रखी है, क़यामत के दिन उसका कोई अस्तित्व नहीं होगा। खुद क़ुरआन ने उसका इनकार किया है और साथ ही अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने बताया है :
"आप आएंगे, अपने रब को सजदा करेंगे, उसकी प्रशंसा करेंगे -अनुशंसा से ही आरंभ नहीं करेंगे- फिर आपसे कहा जाएगा कि सिर उठाओ और अपनी बात रखो, तुम्हारी बात सुनी जाएगी, मांगो तुम्हें प्रदान किया जाएगा और सिफ़ारिश करो, तुम्हारी अनुशंसा स्वीकार की जाएगी।"
और अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु ने आपसे पूछा कि आपकी सिफ़ारिश का सबसे ज़्यादा हक़दार कौन होगा? आपने जवाब दिया :"जो सच्चे दिल से "ला इलाहा इल्लल्लाह" कहे।"
इस तरह यह सिफ़ारिश इखलास तथा निष्ठा वालों को अल्लाह की अनुमति से प्राप्त होगी और शिर्क करने वालों का उसमें कोई भाग नहीं होगा।
इस सिफ़ारिश की वास्तविकता यह है कि अल्लाह तआला ही इख़लास की राह पर चलने वालों को अनुग्रह प्रदान करते हुए किसी ऐसे व्यक्ति की दुआ से क्षमा करेगा, जिसे वह सिफ़ारिश की अनुमति देकर सम्मानित करेगा तथा प्रशंसित स्थान (मक़ा-ए- महमूद) प्रदान करेगा।
अतः जिस अनुशंसा का कुरआन ने इनकार किया है, वह ऐसी अनुशंसा है जिसमें शिर्कहो। यही कारण है कि उसकी अनुमति से होने वाली सिफ़ारिश को कई स्थानों पर सिद्ध किया है। साथ ही अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने भी स्पष्ट कर दिया है कि यह सिफ़ारिश केवल तौहीद तथा इख़लास वालों को प्राप्त होगी।"अबुल अब्बास इब्न-ए-तैमिया की बात समाप्त हुई।
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :उपर्युक्त आयतों की व्याख्या।दूसरी :उस सिफ़ारिश का विवरण, जिसका इनकार किया गया है।तीसरी :उस सिफ़ारिश का विवरण, जिसे सिद्ध किया गया है।चौथी :सबसे बड़ी सिफ़ारिश का उल्लेख।
उसी के अधिकार का नाम मक़ाम-ए-महमूद (प्रशंसित स्थान) है।
पाँचवीं :नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सिफारिश का विवरण कि आप पहुँचने के साथ ही सिफ़ारिश शुरू नहीं कर देंगे, बल्कि पहले सजदा करेंगेे।
फिर जब अल्लाह की ओर से अनुमति मिलेगी, तो सिफ़ारिश करेंगे।
छठी :इस बात का उल्लेख कि आपकी सिफ़ारिश सबसे अधिक हक़दार कौन होगा?सातवीं :आपकी सिफ़ारिश का सौभाग्य शिर्क करने वालों को प्राप्त नहीं होगा।आठवीं :इस सिफ़ारिश की वास्तविकता का वर्णन।अध्याय : उच्च एवं महान अल्लाह के इस कथन का वर्नण :{إِنَّكَ لاَ تَهْدِي مَنْ أَحْبَبْتَ وَلَكِنَّ اللهَ يَهْدِي مَن يَشَاء وَهُوَ أَعْلَمُ بِالمُهتَدِينَ} ((हे नबी!) आप जिसे चाहें सुपथ नहीं दर्शा सकते, परन्तु अल्लाह जिसे चाहे सुपथ दर्शाता है, और वह भली-भाँति जानता है सुपथ प्राप्त करने वालों को।)[सूरा क़सस : 56]सहीह बुखारी तथा सहीह मुस्लिम में इब्ने मुसय्यिब ने अपने पिता से रिवायत किया है कि उन्होंने बयान किया कि अबू तालिब की मृत्यु के समय नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम उनके पास आए। उस समय उनके पास अब्दुल्लाह बिन अबू उमय्या और अबू जह्ल मौजूद थे। आपने अबू तालिब से कहा :"प्रिय चचा, आप एक बार "ला इलाहा इल्लल्लाह" कह दें। मैं उसे अल्लाह के यहाँ आपके लिए दलील के तौर पर पेश करूँगा।"
इसपर दोनों ने अबू तालिब से कहा : क्या तुम अब्दुल मुत्तलिब के धर्म का परित्याग कर दोगे?
नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फिर अपनी बात अबू तालिब के समक्ष रखी, तो उन दोनों ने भी अपनी बात दोहराई। अंततः अबू तालिब ने "ला इलाहा इल्लल्लाह" कहने से इनकार कर दिया और अंतिम शब्द यह कहा कि वह अब्दुल मुत्तलिब के धर्म पर ही हैं।
इबके बाद नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "जब तक मुझे रोका न जाए मैं तुम्हारे लिए क्षमा माँगता रहूँगा।"
जिसके जवाब में अल्लाह ने यह आयत उतारी :{مَا كَانَ لِلنَّبِيِّ وَالَّذِينَ آمَنواْ أَن يَسْتَغْفِرُواْ لِلْمُشْرِكِينَ ولَوْ كَانُوا أُولِي قُرْبَى مِن بَعدِ مَا تَبَيَّنَ لهُمْ أَنهَّم أَصحَابُ الجَحِيمِ} (किसी नबी तथा उनके लिए जो ईमान लाए हों, उचित नहीं कि मुश्रिकों (मिश्रणवादियों) के लिए क्षमा की प्रार्थना करें। यद्यपि वे उनके समीपवर्ती हों, जब ये उजागर हो गया कि वास्तव में, वह जहन्नमी हैं।)[सूरा तौबा : 113}साथ ही अबू तालिब के बारे में यह आयत उतारी :{إِنَّكَ لاَ تَهْـدِي مَنْ أَحْبَبْتَ وَلَـكِنَّ اللهَ يَهْـدِي مَن يَشَاءُ} ((हे नबी!) आप जिसे चाहें सुपथ नहीं दर्शा सकते, परन्तु अल्लाह जिसे चाहे सुपथ दर्शाता है।)[सूरा क़सस : 56]
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :अल्लाह के कथन : {إِنَّكَ لاَ تَهْدِي مَنْ أَحْبَبْتَ وَلَكِنَّ اللهَ يَهْدِي مَن يَشَاءُ} ((हे नबी!) आप जिसे चाहें सुपथ नहीं दर्शा सकते, परन्तु अल्लाह जिसे चाहे सुपथ दर्शाता है।) की व्याख्या।दूसरी :अल्लाह के कथन : {مَا كَانَ لِلنَّبِيِّ وَالذينَ آمَنُوا أَن يَسْتَغْفِرُوا لِلْمُشْرِكِينَ} (किसी नबी तथा उनके लिए जो ईमान लाए हों, उचित नहीं कि मुश्रिकों (मिश्रणवादियों) के लिए क्षमा की प्रार्थना करें।) की व्याख्या।तीसरी :एक महत्वपूर्ण मसला यानी आपके शब्द "قُلْ لاَ إِلَهَ إِلاَّ اللهُ" की व्याख्या, जबकि कुछ इल्म के दावेदार इसके विपरीत राय रखते हैं और केवल ज़बान से कह लेने का काफ़ी समझते हैं।चौथी :जब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम किसी से कहते कि ला इलाहा इल्लल्लाह कहो, तो अबू जह्ल तथा उसके साथी जानते थे कि आप चाहते क्या हैं? अतः अल्लाह सत्यानाश करे उन लोगों का, जो अबू जह्ल के बराबर भी इस्लाम के मूल सिद्धांतों का ज्ञान नहीं रखते।पाँचवीं :आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की अपने चचा को इस्लाम की ओर बुलाने में अनथक कोशिश।छठीं :उन लोगों का खंडन जो यह समझते हैं कि अब्दुल मुत्तलिब तथा उनके पूर्वज मुसलमान थे।सातवीं :नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अबू तालिब के लिए क्षमा मांगी, पर उन्हें माफ़ी नहीं मिली, बल्कि आपको इससे रोक दिया गया।आठवीं :इनसान को बुरे साथियों का नुकसान।नवीं :पूर्वजों तथा बड़े लोगों के असीमित सम्मान का नुक़सान।दसवीं :यह (अर्थात पूर्वजों की बातों को प्रमाण मानना) कुपथगामियों का एक संदेह है, क्योंकि अबू जह्ल ने इसी को प्रमाण के रूप में पेश किया।ग्यारहवीं :इस बात का सबूत कि असल एतबार अंतिम अमल का होता है; क्योंकि यदि अबू तालिब ने यह कलिमा कह दिया होता, तो उन्हें इसका लाभ मिलता।बारहवीं :यह बात ध्यान देने योग्य है कि गुमराह लोगों के दिलों में पूर्वजों के पदचिह्नों पर चलने का कितना महत्व होता है? क्योंकि इस घटना में अबू जह्ल तथा उसके साथी ने उसे ही अपने तर्क का आधार बनाया। हालांकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने बार-बार अपनी बात दोहराई। लेकिन उन दोनों ने अपने तर्क के महत्व और स्पष्टता को ध्यान में रखते हुए केवल उसी को पेश किया।
अध्याय : इनसान के अपने धर्म का परित्याग कर कुफ्र की राह अपनाने का मूल कारण सदाचारियों के संबंध में अतिशयोक्ति है
उच्च एवं महान अल्लाह ने फ़रमाया :{يَا أَهْلَ الْكِتَابِ لاَ تَغْلُواْ فِي دِينِكُمْ ولا تَقُولُوا عَلَى اللهِ إلاَّ الحقَّ إنما المَسِيحُ عِيسى ابنُ مَرْيمَ رَسُولُ اللهِ وكَلِمَتُهُ ألْقَاها إِلَى مَرْيمَ وَرُوحٌ مِّنْهُ} (ऐ किताब वालो, अपने दीन के संबंध में अतिशयोक्ति न करो और अल्लाह पर सत्य के सिवा कुछ न कहो। मरयम के पुत्र ईसा मसीह केवल अल्लाह के रसूल तथा उसका शब्द हैं, जिसे मरयम की ओर डाल दिया तथा उसकी ओर से एक आत्मा हैं।)[सूरा निसा : 171]तथा सहीह बुखारी में अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा से अल्लाह के इस कथन के बारे में वर्णित है :{وَقَالُواْ لاَ تَذَرُنَّ آلِهَتَكُمْ وَلاَ تَذَرُنَّ وَدًّا وَلاَ سُوَاعًا وَلاَ يَغُوثَ وَيَعُوقَ وَنَسْرًا} (और उन्होंने कहा : तुम कदापि न छोड़ना अपने पूज्यों को और कदापि न छोड़ना वद्द को, न सुवाअ को और न यग़ूस को और न यऊक़ को तथा न नस्र को।)[सूरा नूह : 23]
कहा : "यह नूह की कौम के कुछ सदाचारियों के नाम हैं। जब इनकी मृत्यु हो गई, तो शैतान ने इनकी कौम के लोगों के दिलों में यह भ्रम डाला कि जहां यह नेक लोग बैठा करते थे, वहां कुछ पत्थर आदि रख दो और उन्हें उनके नाम से नामित कर दो। सो उन्होंने वैसा ही किया, पर उन पत्थरों की पूजा नहीं हुई, यहां तक कि जब यह लोग भी गुज़र गए और लोग ज्ञान से दूर हो गए, तो उन पत्थरों की पूजा होने लगी।"
इब्न अल-क़य्यिम कहते हैं :"सलफ़ में से कई एक ने कहा है कि जब वे (सदाचारी) मर गए, तो लोग पहले उनकी कबरों के मुजाविर बने, फिर उनकी मूर्तियां बनाईं और फिर एक लम्बे समय के पश्चात उनकी पूजा करने लगे।"तथा उमर रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया :"तुम लोग मेरे प्रति प्रशंसा और तारीफ़ में उस प्रकार अतिशयोक्ति न करो, जिस प्रकार ईसाइयों ने मरयम के पुत्र के बारे में किया। मैं केवल एक बंदा हूँ। अत : मुझे अल्लाह का बंदा और उसका रसूल कहो।" इसे बुखारी एवं मुस्लिम ने रिवायत किया है।इसी तरह अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया है :"तुम लोग अतिशयोक्ति से बचो। क्योंकि इसी अतिशयोक्ति ने तुमसे पहले के लोगों का विनाश किया है।"तथा सहीह मुस्लिम में अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया : "अतिशयोक्ति तथा सख़्ती करने वालों का विनाश हो गया।"आपने यह बात तीन बार दोहराई।
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :जो इस अध्याय तथा इसके बाद के दो अध्यायों को समझ लेगा, उसके सामने इस्लाम के अजनबी होने की स्थिति स्पष्ट हो जाएगी
और वह अल्लाह के सामर्थ्य तथा दिलों को फेरने की शक्ति के आश्चर्यजनक दृश्य देखेगा।
दूसरी :इस बात की जानकारी कि धरती में सबसे पहला शिर्क सदाचारियों से संबंधित संदेह के कारण हुआ।तीसरी :उस पहली वस्तु की जानकारी जिस के द्वारा नबियों के दीन को बदला गया, और इस बात की जानकारी कि इस बदलाव का कारण क्या था, तथा इस बात का ज्ञान कि अल्लाह ने उन नबियों को भेजा था।चौथी :बिदअत तथा दीन के बारे में गढ़ी गई नई चीज़ों को स्वीकृति मिलना, जबकि शरीयतें एवं फितरतें दोनों ही उन्हें स्वीकार नहीं करतीं।पाँचवीं :इस बात की जानकारी कि इन सब का कारण था सत्य तथा असत्य का मिश्रण और इसकी दो वजहें थीं :
पहली वजह : अल्लाह के सदाचारी बंदों से असीमित प्रेम।
दूसरी वजह : कुछ ज्ञानी तथा धार्मिक लोगों का ऐसा कार्य, जिसे वे अच्छी नीयत से कर रहे थे, लेकिन बाद के लोगों ने समझा कि उनका इरादा कुछ और था।
छठीं :सूरा नूह की आयत की तफ़सीर।सातवीं :आदमी की फितरत कि उसके दिल में सत्य का प्रभाव घटता रहता है और असत्य का प्रभाव बढ़ता जाता है।आठवीं :इससे सलफ़ यानी सदाचारी पूर्वजों से वर्णित से इस बात की पुष्टि होती है कि बिदअतें कुफ़्र का सबब हुआ करती हैं।नवीं :शैतान को मालूम है कि बिदअत का अंजाम क्या है, यद्यपि बिदअत करने वाले का उद्देश्य अच्छा हो।दसवीं :इससे एक बड़ा सिद्धांत मालूम हुआ कि अतिशयोक्ति करना मना है। साथ ही उसके अंजाम का भी ज्ञान हो गया।ग्यारहवीं :क़ब्र के पास किसी पुण्य कार्य के लिए बैठना हानिकारक है।बारहवीं :इससे मूर्तियों से मनाही की जानकारी मिली और यह मालूम हुआ कि उन्हें हटाने के आदेश में कौन-सी हिकमत निहित है।तेरहवीं :इस घटना के महत्व की जानकारी मिली और यह भी मालूम हुआ कि इसे जानने की कितनी आवश्यकता है, जबकि लोग इससे बेखबर हैं।चौदहवीं :सबसे अधिक आश्चर्य की बात यह है कि लोग इस घटना को तफ़सीर और हदीस की किताबों में पढ़ते हैं एवं समझते भी हैं। लेकिन अल्लाह ने उनके दिलों में इस तरह मुहर लगा दी है कि वे नूह अलैहिस्सलाम की जाति के अमल को सबसे उत्तम इबादत समझ बैठे हैं और जिस चीज़ से अल्लाह और उसके रसूल ने मना किया है, उससे रोकने को ऐसा कुफ्र मान चुके हैं कि उसके कारण इनसान की जान और माल हलाल हो जाते हैं।पंद्रहवीं :इस बात का वज़ाहत कि नूह अलैहिस्सलाम की कौम का उद्देश्य केवल अनुशंसा की प्राप्ति ही था।सोलहवीं :बाद के लोगों का यह समझना कि जिन विद्वानों ने वह मूर्तियाँ स्थापित की थीं उनका उद्देश्य उनकी पूजा ही था।सत्रहवीं :आपका यह महत्वपूर्ण फरमान कि "मेरे बारे में अतिशयोक्ति न करना, जिस तरह ईसाइयों ने मरयम के पुत्र के बारे में किया था।" अतः आपपर अनंत दरूद व सलाम अवतरित हो कि आपने इस बात को पूर्ण स्पष्टता के साथ पहुँचा दिया।अठारहवीं :आपका हमें इस बात की नसीहत कि अतिशयोक्ति करने वाले हलाक हो गए।उन्नीसवीं :इस बात का बयान कि उन मूर्तियों की पूजा तब तक नहीं हुई जब तक ज्ञान बाकी था। अतः इससे ज्ञान के बाकी रहने का महत्व और उसके न होने का नुकसान स्पष्ट होता है।बीसवीं :ज्ञान के विलुप्त होने का कारण उलेमा की मौत है।
अध्याय : किसी सदाचारी व्यक्ति की क़ब्र के पास बैठकर अल्लाह की इबादत करना भी बहुत बड़ा पाप है, तो स्वयं उसकी इबादत करना कितना बड़ा अपराध हो सकता है?!
सहीह बुखारी और सहीह मुस्लिम में आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा से वर्णित है कि उम्मे सलमा रज़ियल्लाहु अन्हा ने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के सामने एक गिरजा का उल्लेख किया, जो उन्होंने हबशा में देखा था और साथ ही उसमें मौजूद तसवीरों का ज़िक्र किया, तो आपने फरमाया :"उन लोगों में से जब कोई सदाचारी व्यक्ति अथवा सदाचारी बंदा मर जाता, तो वे उसकी कब्र के ऊपर मस्जिद बना लेते और उसमें वह चित्र बना देते। वे अल्लाह के निकट सबसे बुरे लोग हैं।"
इस तरह इन लोगों के यहां दो फितने एकत्र हो गए; कब्रों का फितना एवं मूर्तियों का फितना।
इसी तरह बुखारी और मुस्लिम ही में है कि आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा ने बयान किया कि जब नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की मृत्यु का समय निकट आया, तो आप एक चादर से अपना चेहरा ढाँक लेते। फिर जब उससे परेशानी होने लगती, तो उसे हटा देते। इसी दौरान आपने फरमाया :"यहूदियों तथा ईसाइयों पर अल्लाह का धिक्कार हो। उन लोगों ने नबियों की क़ब्रों को मसजिदें बना लीं।"आप यह कहकर उनके बुरे कार्य से सावधान कर रहे थे। यदि यह भय न होता, तो आपको किसी खुले स्थान में दफ़न किया जाता। पर यह डर था कि कहीं लोग इसे सजदा का स्थान न बना लें!इसे इमाम बुख़ारी तथा इमाम मुस्लिम ने रिवायत किया है।और सहीह मुस्लिम में जुनदुब बिन अब्दुल्लाह रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है, वह कहते हैं कि मैंने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को उनकी मृत्यु से पाँच दिन पहले यह फरमाते सुना है :"मैं अल्लाह के यहाँ इस बात से बरी होने का एलान करता हूँ कि तुममें से कोई मेरा 'ख़लील' (अनन्य मित्र) हो। क्योंकि अल्लाह ने जैसे इबराहीम को 'ख़लील' बनाया था, वैसे मुझे भी 'ख़लील' बना लिया है। हाँ, अगर मैं अपनी उम्मत के किसी व्यक्ति को 'ख़लील' बनाता, तो अबू बक्र को बनाता। सुन लो, तुमसे पहले के लोग अपने नबियों की कब्रों को मस्जिद बना लिया करते थे। सुन लो, तुम कब्रों को मस्जिद न बनाना। मैं तुम्हें इससे मना करता हूँ।"इस तरह, आपने इस कार्य से अपने जीवन के अंतिम क्षणों में भी रोका और मौत के बिस्तर पर भी ऐसा करने वाले पर लानत भेजी है। याद रहे कि कब्र के पास नमाज़ पढ़ना भी कब्र को सजदे का स्थान बनाने के अंतर्गत आता है, यद्यपि वहाँ कोई मस्जिद न बनाई जाए।यही आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा के इस कथन का निहितार्थ है कि "इस बात का भय महसूस किया गया कि कहीं आपकी क़ब्र को मस्जिद न बना लिया जाए।"क्योंकि सहाबा रज़ियल्लाहु से इस बात की उम्मीद नहीं थी कि वे आपकी क़ब्र के पास मस्जिद बना लेंगे। वैसे भी हर वह स्थान जहाँ नमाज़ पढ़ने का इरादा कर लिया गया, उसे मस्जिद बना लिया गया, बल्कि जहाँ भी नमाज़ पढ़ी जाए, उसे मस्जिद कहा जाएगा। जैसा कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया है :"पूरी धरती को मेरे लिए पवित्रता प्राप्त करने का साधन एवं मस्जिद क़रार दिया गया है।"और मुसनद अहमद में अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु से एक उत्तम सनद से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया :"वह लोग सबसे बुरे लोगों में से हैं, जो क़यामत आते समय जीवित होंगे एवं जो क़ब्रों को मस्जिद बना लेते हैं।"और इस हदीस को अबू हातिम तथा इब्ने हिब्बान ने भी अपनी पुस्तक (सहीह इब्ने हिब्बान) में रिवायत किया है।
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :किसी सदाचारी बंदे की क़ब्र के पास मस्जिद बनाकर अल्लाह की इबादत करने वाले को अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की फटकार, चाहे उसकी नीयत सही ही क्यों न हो।दूसरी :मूर्तियों से मनाही तथा इस मामले में सख़्त आदेश।तीसरी :इस बारे में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के सख़्त व्यवहार में निहित सीख, कि कैसे आपने शुरू में इस बात को स्पष्ट किया, फिर मौत से पाँच दिन पहले इससे सावधान किया और इसी को पर्याप्त नहीं समझा, बल्कि जीवन के अंतिम लमहों में भी इससे सावधान किया।चौथी :आपने अपनी कब्र के पास ऐसा करने से मना कर दिया, हालाँकि उस समय आपकी क़ब्र बनी भी नहीं थी।पाँचवीं :यहूदी एवं ईसाई अपने नबियों की क़ब्रों को मस्जिद बनाकर उसमें इबादत करते आए हैं।छठा :इसके कारण अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उनपर लानत की है।सातवीं :आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का उद्देश्य आपकी कब्र के पास इस तरह का कोई काम करने से सावधान करना था।आठवीं :यहाँ आपको खुले में दफ़न न करने का कारण स्पष्ट हो गया।नवीं :कब्र को मस्जिद बनाने का अर्थ स्पष्ट हो गया।दसवीं :आपने क़ब्र को मस्जिद बनाने वाले
तथा क़यामत आने के समय जीवित रहने वाले को एक साथ बयान किया है। इस तरह, गोया आपने शिर्क के सामने आने से पहले ही उसके सबब और उसके अंजाम का उल्लेख कर दिया है।
ग्यारहवीं :अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अपनी मृत्यु से पाँच दिन पहले खुतबे में उन दो दलों का खंडन किया, जो सबसे बदतरीन बिदअती हैं।
बल्कि सलफ़ में से कुछ लोग तो इन दो दलों को बहत्तर दलों के अंतर्गत भी नहीं मानते। और वे दो दल हैंः राफ़िज़ा एवं जहमीया। राफ़िज़ा ही की वजह से शिर्क तथा कब्रपरस्ती ने जन्म लिया और इन्होंने ही सब से पहले क़ब्रों पर मस्जिदें बनाईं।
बारहवीं :अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को भी मृत्यु की कठिनाई का सामना करना पड़ा।तेरहवीं :आप को अल्लाह के अनन्य मित्र (खलील) होने का सम्मान मिला।चौदहवीं :इस बात का वर्णन कि इस मित्रता का स्थान मुहब्बत से कहीं ऊँचा है।पंद्रहवीं :इस बात का उल्लेख कि अबू बक्र सर्वश्रेष्ठ सहाबी हैं।सोलहवीं :अबू बक्र रज़ियल्लाहु अन्हु की खिलाफत की ओर इशारा।
अध्याय : सदाचारियों की कब्रों के संबंध में अतिशयोक्ति उन्हें अल्लाह के सिवा पूजे जाने वाले बुतों में शामिल कर देती है
इमाम मालिक ने (मुवत्ता) में वर्णन किया है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"ऐ अल्लाह, मेरी क़ब्र को बुत न बनने देना, जिसकी उपासना होने लगे। उस कौम पर अल्लाह का बड़ा भारी प्रकोप हुआ, जिसने अपने नबियों की क़ब्रों को मस्जिदों में परिवर्तित कर दिया।"और इब्ने जरीर ने अपनी सनद के द्वारा सुफयान से, उन्होंने मनसूर से और उन्होंने मुजाहिद से रिवायत करते हए अल्लाह के कथन :{أَفَرَأَيْتُمُ اللاَّتَ وَالْعُزَّى} (तो (हे मुश्रिको!) क्या तुमने देख लिया लात्त तथा उज़्ज़ा को।)[सूरा नज्म : 19]के बारे में कहा : "लात्त लोगों को सत्तू घोलकर पिलाया करता था। जब वह मर गया, तो लोग उसकी कब्र पर मुजाविर बन बैठे।"
और इसी तरह अबुल जौज़ा ने अब्दुल्लाह बिन अब्बास से रिवायत किया है कि : "वह हाजियों को सत्तू घोलकर पिलाया करता था।"
और अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा से वर्णित है, वह कहते हैं :"अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने क़ब्रों की ज़ियारत करने वाली स्त्रियों, उनपर मस्जिद बनाने वालों और उनपर चिराग जलाने वालों पर लानत की है।"इसे सुनन के संकलनकर्ताओं ने रिवायत किया है।
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :" الأَوْثَانِ" शब्द की व्याख्या मालूम हुई।दूसरी :इबादत की व्याख्या मालूम हुई।तीसरी :नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उसी चीज़ से (अल्लाह की) शरण माँगी, जिसके घटित होने का आप को डर था।चौथी :जहाँ अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने यह दुआ की कि ऐ अल्लाह, मेरी क़ब्र को बुत न बनने देना कि उसकी उपासना होने लगे, वहीं आपने पिछले नबियों की क़ब्रों को मस्जिद बना लिए जाने का भी उल्लेख किया।पाँचवीं :नबियों की क़ब्रों को मस्जिद बनाने वालों पर अल्लाह के सख़्त क्रोध का उल्लेख।छठीं :एक महत्वपूर्ण बात यह मालूम हुई कि लात्त की पूजा कैसे होने लगी, जो कि सबसे बड़े बुतों में से एक था।सातवीं :इस बात की जानकारी मिली कि लात्त ए नेक व्यक्ति की कब्र थी।आठवीं :और लात्त उस क़ब्र में दफ़न व्यक्ति का नाम था। साथ ही उसे इस नाम से याद किए जाने का कारण भी मालूम हो गया।नवीं :अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कब्रों की ज़ियारत करने वाली स्त्रियों पर लानत की है।दसवीं :आपने कब्रों पर चिराग जलाने वालों पर भी लानत की है।
अध्याय : मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का तौहीद की सुरक्षा करना एवं शिर्क की ओर ले जाने वाले हर रास्ते को बंद करना
उच्च एवं महान अल्लाह का फ़रमान है :{لَقَدْ جَاءَكُمْ رَسُولٌ مِّنْ أَنفُسِكُمْ عَزِيزٌ عَلَيْهِ مَا عَنِتُّم حَرِيصٌ عَلَيكُم بِالمُؤمِنينَ رَءوفٌ رَّحيمٌ} ((हे ईमान वालो!) तुम्हारे पास तुम्हीं में से अल्लाह का एक रसूल आ गया है। उसे वो बात भारी लगती है, जिससे तुम्हें दुःख हो। वह तुम्हारी सफलता की लालसा रखते हैं और ईमान वालों के लिए करुणामय दयावान हैं।)[सूरा तौबा : 128]अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"अपने घरों को क़ब्रिस्तान न बनाओ और न मेरी क़ब्र को मेला स्थल बनाओ। हाँ, मुझपर दुरूद भेजते रहो, क्योंकि तुम जहाँ भी रहो, तुम्हारा दुरूद मुझे पहुँच जाएगा।"इसे अबू दाऊद ने हसन सनद के साथ रिवायत किया है एवं इसके रावी (वर्णनकर्ता) सिक़ा (जो सत्यवान तथा हदीस को सही ढंग से सुरक्षित रखने वाला हो) हैं।और अली बिन हुसैन से रिवायत है कि उन्होंने एक व्यक्ति को नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की क़ब्र के निकट दीवार के एक छिद्र से अंदर जाकर दुआ करते देखा, तो उसे मना किया और फ़रमाया : क्या मैं तुम्हें वह हदीस न बताऊँ, जो मैंने अपने पिता के वास्ते से अपने दादा से सुनी है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"तुम मेरी क़ब्र को मेला स्थल न बनाना और न अपने घरों को क़ब्रिस्तान बनाना। हाँ, मुझपर दुरूद भेजते रहना। क्योंकि तुम जहाँ भी रहो, तुम्हारा सलाम मुझे पहुँच जाएगा।"इसे (ज़िया मक़दसी ने अपनी पुस्तक) अल-अहादीसुल मुख्तारा में रिवायत किया है।
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :सूरा बराअह (तौबह) की उपर्युक्त आयत की व्याख्या।दूसरी :आपने अपनी उम्मत को शिर्क की चारदीवारी से बहुत दूर ले गए थे।तीसरी :हमारे बारे में आपका विशेष ध्यान, दयालुता तथा करुणा का बयान।चौथी :आपने अपनी कब्र की एक विशेष रूप से ज़ियारत करने से रोका है, हालाँकी उसकी ज़ियारत करना उत्तम कार्यों में से है।पाँचवीं :आपने क़ब्रों की अधिक ज़ियारत करने से मना किया है।छठीं :आपने घरों में नफ़ल नमाज़ें पढ़ने की प्रेरणा दी है।सातवीं :सलफ़ (सदाचारी पूर्वजों) के निकट यह एक स्थापित तथ्य था कि कब्रिस्तान में नमाज़ नहीं पढ़ी जाएगी।आठवीं :आपने अपनी क़ब्र की बहुत ज़्यादा ज़ियारत से इसलिए रोका था, क्योंकि इनसान आपपर जहाँ से भी दरूद व सलाम भेजे, उसका दरूद व सलाम आपको पहुँच जाता है। इसलिए निकट आकर दरूद भेजने की कोई आवश्यकता नहीं है।नवीं :नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर बर्ज़ख (मरने के बाद और क़यामत से पहले की अवस्था) मेें भी आपकी उम्मत की ओर से भेजे जाने वाले दरूद व सलाम पेश किए जाते हैं।
अध्याय : इस उम्मत के कुछ लोगों का बुतपस्ती में पड़ना
उच्च एवं महान अल्लाह का फ़रमान है :{أَلَمْ تَرَ إِلَى الَّذِينَ أُوتُواْ نَصِيبًا مِّنَ الْكِتَابِ يُؤْمِنُونَ بِالْجِبْتِ وَالطَّاغُوتِ} (क्या तुमने उन्हें नहीं देखा, जिन्हें किताब का एक भाग मिला है? वे बुतों तथा असत्य पूज्यों पर ईमान रखते हैं।)[सूरा निसा : 51]एक अन्य स्थान में उसका फ़रमान है :{قُلْ هَلْ أُنَبِّئُكُم بِشَرٍّ مِّن ذلِكَ مَثُوبَةً عِندَ اللهِ مَن لَّعَنَهُ اللهُ وَغَضِبَ عَلَيْهِ وَجَعَلَ مِنْهُمُ الْقِرَدَةَ وَالْخَنَازِيرَ وَعَبَدَ الطَّاغُوتَ} (आप उनसे कह दें कि क्या तुम्हें बता दूँ, जिनका प्रतिफल (बदला) अल्लाह के पास इससे भी बुरा है? वे हैं, जिन्हें अल्लाह ने धिक्कार दिया और उनपर उसका प्रकोप हुआ तथा उनमें से कुछ लोग बंदर और सूअर बना दिए गए तथा वे ताग़ूत (असत्य पूज्य) को पूजने लगे।)[सूरा माइदा : 61]एक और स्थान में वह कहता है :{قَالَ الَّذِينَ غَلَبُواْ عَلَى أَمْرِهِمْ لَنَتَّخِذَنَّ عَلَيْهِم مَّسْجِدًا} (जिन लोगों को उनके बारे में वर्चस्व मिला, वे कहने लगे कि हम तो इनके आस-पास मस्जिद बना लेंगे।)[सूरा कहफ़ : 21]अबू सईद रज़ियल्लाहु अनहु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"तुम अवश्य अपने से पहले के लोगों के रास्तों पर चलोगे, और उनकी बराबरी करोगे जैसे तीर के सिरे पर लगे पर बराबर होते हैं। यहाँ तक कि यदि वे किसी गोह के बिल में घुसे हों, तो तुम भी उसमें घुस जाओगे।"
सहाबा ने पूछा : ऐ अल्लाह के रसूल, क्या आपकी मुराद यहूदियों तथा ईसाइयों से है?
आपने फरमाया : "फिर और कौन?" इस हदीस को इमाम बुखारी तथा मुस्लिम ने रिवायत किया है।
एवं मुस्लिम में सौबान रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"अल्लाह ने मेरे लिए धरती को समेट दिया। अतः मैंने उसके पूर्व एवं पश्चिम को देखा। निश्चय ही मेरी उम्मत का राज्य वहाँ तक पहुँचेगा, जहाँ तक मेरे लिए धरती को समेट दिया गया।
तथा मुझे लाल तथा सफ़ेद दो ख़ज़ाने दिए गए हैं।
इसी तरह मैने अपने रब से विनती की है कि वह व्यापक अकाल के द्वारा मेरी उम्मत का विनाश न करे और उनपर बाहरी दुश्मन को इस तरह हावी न करे कि वह उन्हें नेस्तनाबूद कर दे।
तथा मेरे रब ने कहा है कि ऐ मुहम्मद! जब मैं कोई निर्णय ले लेता हूँ, तो वह रद्द नहीं होता। मैंने तुम्हारी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली कि तुम्हारी उम्मत को व्यापक अकाल के ज़रिए हलाक नहीं करूँगा और उनपर किसी बाहरी दुश्मन को इस तरह हावी होने नहीं दूँगा कि वह उन्हें नेस्तनाबूद कर दे, यद्यपि धरती के सारे लोग उनके विरुद्ध खड़े हो जाएँ। यह और बात है कि तुम्हारी उम्मत के लोग स्वयं एक-दूसरे का विनाश करने लगें और एक-दूसरे को क़ैदी बनाने लगें।"
बरक़ानी ने इसे अपनी "सहीह" में रिवायत किया, जिसमें यह इज़ाफ़ा है :"मुझे तो अपनी उम्मत के प्रति राह भटकाने वाले शासकों का डर है। अगर उनमें एक बार तलवार चल गई तो क़यामत तक यह नहीं थमेगी। उस वक्त तक क़यामत नहीं आएगी जब तक मेरी उम्मत में से एक दल मुश्रिकों से न मिल जाए एवं मेरी उम्मत के कुछ लोग बुतों की पूजा न करने लगें। तथा मेरी उम्मत में तीस महा झूठे पैदा होंगे, जिनका दावा होगा कि वे नबी हैं। हालाँकी मैं अंतिम नबी हूँ, मेरे बाद कोई नबी नहीं आएगा। और मेरी उम्मत का एक दल सदैव सत्य पर डटा रहेगा। उन्हें अल्लाह की ओर से सहायता प्राप्त होगी और उनका साथ छोड़ने वाले उन्हें कुछ हानि नहीं पहुँचा सकते, यहां तक कि अल्लाह तआला का आदेश आ जाए।"
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :सूरा निसा की उपर्युक्त आयत की व्याख्या।दूसरी :सूरा माइदा की उपर्युक्त आयत की व्याख्या।तीसरी :सूरा कहफ़ की उल्लिखित आयत की व्याख्या।चौथी :एक महत्वपूर्ण बात यह मालूम हुई कि इस स्थान में जिब्त (बुत) तथा ताग़ूत (असत्य पूज्य) पर ईमान लाने का क्या अर्थ है
?
क्या यह दिल से विश्वास करने का नाम है
अथवा उनके असत्य होने की जानकारी तथा उससे घृणा के बावजूद उन्हें मानने वालों का समर्थन करना?
पाँचवीं :इससे यहूदियों की यह बात मालूम हुई कि अपने कुफ़्र से अवगत काफ़िर ईमान वालों से अधिक सीधे रास्ते पर हैं।छठीं :इससे मालूम हुआ कि इस उम्मत के कुछ लोग बुतों की पूजा करेंगे, जैसा कि अबू सईद रज़ियल्लाहु अन्हु की हीस से सिद्ध होता है और यही इस अध्याय का मूल उद्देश्य भी है।सातवीं :इस बात का स्पष्ट उल्लेख कि बुतों की पूजा का प्रचलन इस उम्मत के बहुत-से भागों में हो जाएगा।आठवीं :अति आश्चर्य की बात यह है कि कई नबूवत के दावेदार सामने आएँगे, जो अल्लाह के रब होने और मुहम्मद के रसूल होने की गवाही देंगे और यह स्वीकार करेंगे कि वह इसी उम्मत में शामिल हैं, रसूल सत्य हैं और कुरआन भी सत्य है, जिसमें लिखा है कि आप अंतिम रसूल हैं। फिर, इस स्पष्ट विरोधाभास के बावजूद उनकी इन सारी बातों को सच माना जाएगा। हुआ भी कुछ ऐसा ही। सहाबा के अंतिम दौर में मुख़्तरा सक़फ़ी ने नबी होने का दावा किया और बहुत-से लोगों ने उसे नबी मान भी लिया।नवीं :इस बात की खुशख़बरी कि पूर्व युगों की तरह इस उम्मत के अंदर से सत्य बिल्कुल समाप्त नहीं हो जाएगा, बल्कि एक दल सदैव सत्य की आवाज़ बुलंद करता रहेगा।दसवीं :बड़ी निशानी कि संख्या में बहुत ही कम होने के बावजूद इस सत्यवादी दल को उन लोगों से कोई नुकसान नहीं होगा, जो उनका साथ छोड़ देंगे और उनका विरोध करेंगे।ग्यारहवीं :यह दशा क़यामत आने तक जारी रहेगी।बारहवीं :उपर्युक्त हदीस में यह कुछ बड़ी निशानियाँ आई हैं : आपने सूचना दी कि अल्लाह ने आपके लिए धरती को समेट दिया और आपने उसके पूर्व एवं पश्चिम को देखा। आपने इसका अर्थ भी बताया और बाद में हुआ भी वैसा जैसा आपने बताया था। परन्तु उत्तर तथा दक्षिण में ऐसा नहीं हुआ। आपने सूचना दी कि आपको दो ख़ज़ाने दिए गए हैं। साथ ही यह कि अपनी उम्मत के संबंध में आपकी दो दुआएँ क़बूल हुईं, पर तीसरी क़बूल नहीं हुई। आपने बताया कि आपकी उम्मत के बीच जब तलवार चल पड़ेगी, तो फिर थमने का नाम नहीं लेगी। आपने यह भी बताया कि आपकी उम्मत के लोग एक-दुसरे की हत्या करेंगे तथा एक-दूसरे को क़ैदी बनाएँगे। आपने यह भी बताया कि आपको अपनी उम्मत के बारे में राह भटकाने वाले शासकों का डर है। आपने खबर दी कि इस उम्मत में नबूवत के दावेदार प्रकट होंगे। आपने यह भी बताया कि इस उम्मत के अंदर एक सहायता प्राप्त दल बाक़ी रहेगा। फिर, यह सब कुछ वैसे ही सामने आया जैसे आपने बताया था, हालाँकि यह सारी चीज़ें बहुत ही असंभव-सी लगती हैं।तेरहवीं :आपने बताया कि आपको इस उम्मत के बारे में केवल गुमराह करने वाले शासकों का डर है।चौदहवीं :बुतों की पूजा के अर्थ का वर्णन।
अध्याय : जादू का वर्णन
उच्च एवं महान अल्लाह का फ़रमान है :{وَلَقَدْ عَلِمُواْ لَمَنِ اشْتَرَاهُ مَا لَهُ فِي الآخِرَةِ مِنْ خَلاَقٍ} (और वे यह अच्छी तरह जानते हैं कि उसके खरीदने वाले का आखिरत में कोई भाग नहीं होगा।){सूरा बक़रा : 102}एक अन्य स्थान में उसका फ़रमान है :{يُؤْمِنُونَ بِالْجِبْتِ وَالطَّاغُوتِ} (वे जिब्त (बुत आदि) तथा ताग़ूत (असत्य पूज्यों) पर ईमान लाते हैं।)[सूरा निसा : 51]उमर रज़ियल्लाहु अन्हु फ़रमाते हैं :"जिब्त से मुराद जादू है और ताग़ूत से मुराद शैतान है।"और जाबिर रज़ियल्लाहु अन्हु कहते हैं :"ताग़ूत से मुराद काहिन हैं, जिनके पास शैतान आता था। हर क़बीले में एक काहिन होता था।"अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"सात विनाशकारी वस्तुओं से बचो।"
सहाबा ने पूछा : ऐ अल्लाह के रसूल, वे कौन-सी वस्तुएँ हैं?
आप ने फरमाया : "शिर्क करना, जादू करना, बिना हक़ के हत्या करना, सूद लेना, अनाथ का माल हड़पना, रणभूमि से भाग निकलना एवं मोमिन पाकदामन महिलाओं पर झूठे लांछन लगाना।"
और जुनदुब रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया :"जादूगर का दंड यह है कि तलवार से उसकी गर्दन उड़ा दी जाए।"इसे तिरमिज़ी ने रिवायत किया और कहा कि सही बात यही है कि यह हदीस मौक़ूफ़ (अर्थाथ सहाबी का कथन) है, (नबी का नहीं है)।"
जबकि सहीह बुखारी में बजाला बिन अबदा से वर्णित है, वह कहते हैं कि उमर बिन ख़त्ताब रज़ियल्लाहु अन्हु ने आदेश भेजा कि हर जादूगर और जादूगरनी का वध कर दो। बजाला कहते हैं कि इसके बाद हमने तीन जादूगरनियों को क़त्ल किया।
और हफसा रज़ियल्लाहु अन्हुमा से साबित है कि एक दासी ने उनपर जादू किया, तो उन्होंने उसे क़त्ल करने का आदेश दिया और उसे क़त्ल कर दिया गया।
और ऐसी ही बात जुनदुब रज़ियल्लाहु अन्हु से भी साबित है।
इमाम अहमद काकहना है : "नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के तीन सहाबियों से ऐसा साबित है।"
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :सूरा बक़रा की उपर्युक्त आयत की व्याख्य।दूसरी :सूरा निसा की उल्लिखित आयत की व्याख्या।तीसरी :जिब्त तथा ताग़ूत की व्याख्या एवं दोनों में अंतर।चौथी :ताग़ूत इनसान और जिन्न दोनों में से हो सकता है।पाँचवीं :उन साथ विनाशकारी गुनाहों की जानकारी, जिनसे विशेष रूप से रोका गया है।छठीं :जादू करने वाला काफ़िर हो जाता है।सातवीं :जादूगर को क़त्ल कर दिया जाएगा और तौबा करने को नहीं कहा जाएगा।आठवीं :जब उमर रज़ियल्लाहु अन्हु के ज़माने में मुसलमानों के अंदर जादू करने वाले मौजूद थे, तो बाद के ज़मानों का क्या हाल हो सकता है?
अध्याय : जादू के कुछ प्रकार
इमाम अहमद ने मुहम्मद बिन जाफर से, उन्होंने औफ़ से, उन्होंने ह़य्यान बिन अला से, उन्होंने क़तन बिन क़बीसा से और उन्होंने अपने पिता से वर्णन किया है कि उन्होंने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को फ़रमाते हुए सुना है :"निःसनदेह पक्षी उड़ाकर शगुन लेना, ग़ैब जानने के लिए ज़मीन पर रेखा खींचना और किसी वस्तु को देखकर अपशगुन लेना, यह सब जिब्त (जादू) के अंतर्गत आते हैं।"
औफ़ कहते हैं : "الْعِيَافَةُ का अर्थ है: पक्षी उड़ाकर शगुन लेना, एवं الطَّرْقُ का अर्थ है: ग़ैब जानने के लिए ज़मीन पर रेखा खींचना।"
और जिब्त के बारे में
हसन कहते हैं कि यह कि यह शैतान की पुकार है।
इसकी सनद उत्तम है। जबकि अबू दाऊद, नसई एवं इब्ने हिब्बान ने अपनी सहीह में इस हदीस के केवल उस भाग का वर्णन किया है, जो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया है।
तथा अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अनहुमा से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"जिसने नक्षत्र के ज्ञान का कुछ अंश प्राप्त किया, उसने जादू का कुछ अंश प्राप्त किया। वह आगे नक्षत्र के बारे में जितना ज्ञान प्राप्त करता जाएगा, जादू के बारे में उतना ही ज्ञान बढ़ाता जाएगा।"इसे अबू दाऊद ने रिवायत किया है और इसकी सनद सहीह है।तथा नसई में अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित हदीस में आया है :"जिसने कोई गिरह लगाई और फिर उसपर फूँक मारी उसने जादू किया, तथा जिसने जादू किया उसने शिर्क किया, एवं जिसने कोई चीज़ लटकाई उसे उसी के हवाले कर दिया गया।"और अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"क्या मैं तुम्हें न बताऊँ कि अल-अज़्ह (जादू का एक नाम) क्या है? यह लोगों के बीच लगाई-बुझाई की बातें करते फिरना है।"इसे इमाम मुस्लिम ने रिवायत किया है।तथा सहीह बुखारी एवं सहीह मुस्लिम में अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु अनहुमा से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"कुछ वर्णन निःसनदेह जादू होते हैं।"
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :पक्षी उड़ाकर शगुन लेना, ग़ैब जानने के लिए बालू पर लकीर खींचना और किसी वस्तु को देखकर अपशगुन लेना, यह सब जादू हैं।दूसरी :الْعِيَافَةِ, الطَّرْقِ एवं الطِّيَرَةِ की व्याख्या।तीसरी :नक्षत्र का ज्ञान भी जादू का एक प्रकार है।चौथी :गिरह लगाना और उसपर फूँक मारना भी जादू है।पाँचवीं :चुगली करना भी जादू के अंतर्गत आता है।छठीं :अलंकृत भाषा एवं संबोधन के कुछ प्रकार भी इसमें दाखिल हैं।
अध्याय : काहिन तथा इस प्रकार के लोगों के बारे में शरई दृष्टिकोण
सहीह मुस्लिम में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की किसी स्त्री से वर्णित है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"जो व्यक्ति किसी अर्राफ़ (ग़ैब की बात बताने वाले) के पास जाकर उससे कुछ पूछे और उसकी कही हुई बात को सच माने, तो उसकी चालीस दिन की नमाज़ स्वीकृत नहीं होती।"और अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु का वर्णन है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"जिस व्यक्ति ने किसी काहिन के पास जाकर उससे कुछ पूछा और उसकी कही हुई बात को सच माना, उसने उस दीन (धर्म) का इनकार किया जो मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर उतरा है।"इसे अबू दाऊद ने रिवायत किया है।
इसी तरह अबू दाऊद, तिरमिज़ी, नसई, इब्ने माजा तथा मुस्तदरक हाकिम में है
और इमाम हाकिम ने उसे बुख़ारी एवं मुस्लिम की शर्त पर सहीह कहा है :"जिस व्यक्ति ने किसी काहिन अथवा अर्राफ़ के पास जाकर उससे कुछ पूछा और उसकी कही हुई बात को सच माना, उसने उस दीन (धर्म) का इनकार किया जो मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर उतरा है।"
और मुसनद अबू याला में
उत्तम सनद के साथ इसी तरह की बात अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़ियल्लाहु अनहु से वर्णित है।
तथा इमरान बिन हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"वह व्यक्ति हममें से नहीं, जिसने अपशगुन लिया अथवा जिसके लिए अपशगुन लिया गया, जिसने काहिन वाला कार्य किया अथवा काहिन वाला कार्य किसी से करवाया, जिसने जादू किया या जादू करवाया। तथा जो किसी काहिनके पास गया और उसकी बात को सच माना, उसने उस शरीयत का इनकार किया, जो मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर उतारी गई है।"इस हदीस को बज़्ज़ार ने उत्तम सनद के साथ रिवायत किया है।
जबकि तबरानी ने उसे अपनी पुस्तक "अल-औसत" में अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा से रिवायत किया है, लेकिन उसमें "जो किसी काहिन के पास गया..." से बाद का भाग मौजूद नहीं है।
इमाम बग़वी फ़रमाते हैं :"अर्राफ़ : वह व्यक्ति जो कुछ साधनों का उपयोग कर चोरी की हुई अथवा खोई हुई वस्तु आदि के बारे में बताने का दावा करता हो।"
जबकि कुछ लोगों के अनुसार अर्राफ़ और काहिन समानार्थक शब्द हैं और दोनों से अभिप्राय ऐसा व्यक्ति है, जो भविष्यवाणी करता हो।
एक और मत के अनुसार काहिन वह होता है जो किसी के दिल की बाताता हो।
जबकि इब्न-ए- तैमिया कहते हैं :"काहिन, ज्योतिषी एवं रम्माल (जो बालू पर लकीर खींचकर ग़ैब की बातें जानने का दावा करे) तथा इन जैसे लोग, जो इन तरीकों से वस्तुओं के ज्ञान का दावा करते हैं, उनको अर्राफ़ कहा जाता है।"तथा अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा ने ऐसे लोगों के बारे में, जो कुछ वर्णों को लिखते हैं और तारों को देखते हैं और इस तरह ग़ैब की बात बताने का दावा करते हैं, फ़रमाया :"मुझे नहीं लगता कि ऐसा करने वाले के लिए अल्लाह के निकट कोई भाग होगा।"
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :कुरआन पर ईमान तथा काहिन को सच्चा मानना एकत्र नहीं हो सकते।दूसरी :इस बात का स्पष्ट रूप से उल्लेख कि काहिन की बात को सही मानना कुफ़्र है।तीसरी :कहानत करने के साथ-साथ करवाना भी मना है।चौथी :अपशगुन लेने वाले के साथ-साथ जिसके लिए लिया जाए, उसका भी उल्लेख है।पाँचवीं :जादू करने वाले के साथ-साथ जादू करवाने वाले का भी उल्लेख कर दिया गया है।छठीं :वर्णों को लिखकर भविष्यवाणी करने का भी उल्लेख कर दिया गया है।सातवीं :काहिन तथा अर्राफ़ में अंतर का बता दिया गया है।
अध्याय : जादू-टोने के ज़रिए जादू के उपचार की मनाही
जाबिर रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से जादू-टोने के ज़रिए जादू के उपचार के बारे में पूछा गया, तो आपने फ़रमाया :"यह शैतान का काम है।"इस हदीस को अहमद ने उत्तम सनद से रिवायत किया है और इसी तरह अबू दाऊद ने भी इसे रिवायत किया है और कहा है कि अहमद से जादू-टोने के ज़रिए जादू के इलाज के बारे में पूछा गया, तो कहा : अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु इस तरह की तमाम बातों को नापसंद करते थे।
और सहीह बुखारी में क़तादा से वर्णित है, वह कहते हैं कि मैंने इब्ने मुसय्यिब से पूछा कि यदि किसी पर जादू कर दिया गया हो या जादू आदि के कारण वह अपनी पत्नी के पास न जा पाता हो, क्या कुछ साधनों का उपयोग कर उसके जादू को तोड़ा जा सकता है या मंतर के ज़रिए उसका उपचार किया जा सकता है?
उन्होंने उत्तर दिया : "इसमें कोई हर्ज नहीं है। इस तरह का काम करने वाले सुधार ही करना चाहते हैं। अतः जिसमें लाभ हो उससे रोका नहीं गया है।"
तथा हसन बसरी से नक़ल किया जाता है कि उन्होंने कहा : "जादू का उपचार केवल जादूगर ही कर सकता है।"
इब्ने क़य्यिम फरमाते हैं : "النُّشْرَةُ शब्द का अर्थ है, जिसपर जादू किया गया हो, उससे जादू को उतारना। दरअसल इसके दो प्रकार हैं :
पहला : जादू ही के द्वारा जादू को उतारना। इसी को शैतान का कार्य कहा गया है और यही हसन बसरी की बात का मतलब है। यहाँ जादू उतारने वाला तथा जिससे उतारा जाता है दोनों, ऐसे कार्यों के द्वारा शैतान की निकटता प्राप्त करते हैं, जो उसे प्रिय हों और फलस्वरूप वह पीड़ित व्यक्ति पर से अपना जादू हटा देता है।
दूसरा : दुआओं, दवाओं और वैध दम आदि का उपयोग कर जादू को उतारना। जादू उतारने का यह तरीक़ा जायज़ है।"
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :जादू-टोने के ज़रिए जादू के उपचार से मनाही।दूसरी :जादू के इलाज के जायज़ एवं नाजायज़ तरीकों का ऐसा अंदर जिससे सारे संदेह समाप्त हो जाते हैं।
अध्याय : अपशगुन लेने की मनाही
उच्च एवं महान अल्लाह का फ़रमान है :{أَلا إِنَّمَا طَائِرُهُمْ عِندَ اللهِ وَلَـكِنَّ أَكْثَرَهُمْ لاَ يَعْلَمُونَ} (उनका अपशगुन तो अल्लाह के पास है, परन्तु उनमें से अकसर लोग कुछ नहीं जानते।)[सूरा आराफ : 131]एक अन्य स्थान में उसका फ़रमान है :{قَالُواْ طَائِرُكُم مَّعَكُمْ أَإِن ذُكِّرْتُم بَلْ أَنتُمْ قَوْمٌ مُّسْرِفُونَ} (उन्होंने कहा : तुम्हारा अपशगुन तुम्हारे साथ है। क्या यदि तुम्हें शिक्षा दी जाए (तो हमसे अपशगुन लेने लगते हो?) सच्चाई यह है कि तुम हो ही उल्लंघनकारी लोग।)[सूरा यासीन : 19]तथा अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"कोई रोग संक्रामक नहीं होता, अपशगुन कोई वस्तु नहीं है, उल्लू का कोई कुप्रभाव नहीं पड़ता और सफ़र मास में कोई दोष नहीं है।"इस हदीस को इमाम बुख़ारी एवं इमाम मुस्लिम ने रिवायत किया है।
जबकि सहीह मुस्लिम में यह वृद्धि है : "और न नक्षत्र का कोई प्रभाव होता है और न भूतों को कोई अस्तित्व है।"
सहीह बुखारी एवं सहीह मुस्लिम ही में अनस रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया :"कोई रोग संक्रामक नहीं होता और न अपशगुन की कोई वास्तविकता है। हाँ, मुझे फ़ाल ( शगुन) अच्छा लगता है।" सहाबा ने पूछा : फ़ाल क्या है?
तो फ़रमाया : "अच्छी बात।"
और अबू दाऊद में सही सनद के साथ उक़बा बिन आमिर रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के सामने शगुन-अपशगुन का उल्लेख हुआ, तो आपने फरमाया :"इनमें सबसे अच्छी चीज़ फ़ाल (शगून) है और जिसे अपशगुन समझा जाता है वह किसी मुसलमान को (उसके इरादे से) न रोके। अतः जब इनसान कोई ऐसी चीज़ देखे जो उसे पसंद न हो तो कहे : ऐ अल्लाह, अच्छाइयाँ केवल तू लाता है और बुराइयाँ तू ही दूर करता है और अल्लाह की सहयाता के बिना हमारे किसी भी वस्तु से फिरने की शक्ति तथा किसी भी कार्य के करने का सामर्थ्य नहीं है।"तथा अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"अपशगुन लेना शिर्क है। अपशगुन लेना शिर्क है। तथा हममें से हर व्यक्ति के दिल में इस तरह की बात आती है, लेकिन अल्लाह उसे भरोसे (तवक्कूल) की वजह से दूर कर देता है।"इस हदीस को अबू दाऊद और तिरमिज़ी ने रिवायत किया है, तथा तिरमिज़ी ने सहीह क़रार दिया है एवं हदीस के अंतिम भाग को अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु का कथन बताया है।
जबकि मुसनद अहमद में अब्दुल्लाह बिन अम्र रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाय : "जिसे अपशगुन ने उसके काम से रोक दिया, उसने शिर्क किया।" सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम ने कहा : इसका कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) क्या है? फ़रमाया : "उसका कफ़्फ़ारा यह दुआ है : "اللهم لا خيرَ إلا خيرُك، ولا طَيْرَ إِلَّا طَيْرُكَ ولا إله غيرُك" (ऐ अल्लाह, तेरी भलाई के अतिरिक्त कोई भलाई नहीं है, तेरे शगुन के अतिरिक्त कोई शगुन नहीं है और तेरे अतिरिक्त कोई सत्य पूज्य नहीं है।)
और मुसनद अहमद ही में फ़ज़्ल बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "अपशगुन वह है, जो तुझे तेरे काम में आगे बढ़ा दे या रोक दे।"
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :अल्लाह के इस कथन : {أَلا إِنَّمَا طَائِرُهُمْ عِندَ اللهِ} (उनका अपशगुन तो अल्लाह के पास है) तथा साथ ही इस कथन की ओर ध्यान आकृष्ट करना : {طَائِرُكُم مَّعَكُمْ} (तुम्हारा अपशगुन तुम्हारे साथ ही है।)दूसरी :बीमारी के (खुद से) संक्रमित होने का इनकार।तीसरी :अपशगुन का इनकार।चौथी :उल्लू के कुप्रभाव का इनकार।पाँचवीं :सफर के महीने में कोई दोष होने का इनकार।छठीं :अच्छा शगुन लेना मना नहीं है, बल्कि मुसतहब है।सातवीं :अच्छे शगुन की व्याख्या कर दी गई है।आठवीं :यदि इनसान अपशगुन को नापसंद करता हो, लेकिन फिर भी कभी दिल में इस तरह की बात आ जाए, तो इससे कोई नुकसान नहीं होता, बल्कि अल्लाह पर भरोसे की शक्ति से इस तरह की चीज़ें दूर हो जाती हैं।नवीं :यह भी बता दिया गया है कि जिसके दिन अपशगुन की कोई बात आए, उसे क्या करना चाहिए?दसवीं :इस बात की वज़ाहत कि अपशगुन लेना शिर्क है।ग्यारहवीं :अवैध शगुन की व्याख्या भी कर दी गई है।
चौथी :
उल्लू के कुप्रभाव का इनकार।
पाँचवीं :
सफर के महीने में कोई दोष होने का इनकार।
छठीं :
अच्छा शगुन लेना मना नहीं है, बल्कि मुसतहब है।
सातवीं :
अच्छे शगुन की व्याख्या कर दी गई है।
आठवीं :
यदि इनसान अपशगुन को नापसंद करता हो, लेकिन फिर भी कभी दिल में इस तरह की बात आ जाए, तो इससे कोई नुकसान नहीं होता, बल्कि अल्लाह पर भरोसे की शक्ति से इस तरह की चीज़ें दूर हो जाती हैं।
नवीं :
यह भी बता दिया गया है कि जिसके दिन अपशगुन की कोई बात आए, उसे क्या करना चाहिए?
दसवीं :
इस बात की वज़ाहत कि अपशगुन लेना शिर्क है।
ग्यारहवीं :
अवैध शगुन की व्याख्या भी कर दी गई है।
अध्याय : ज्योतिष विद्या के बारे में शरई दृष्टिकोण
सहीह बुखारी में है कि क़तादा ने कहा :"अल्लाह ने इन तारों को तीन उद्देश्यों के तहत पैदा किया है : आसमान की शोभा के तौर पर, शैतानों को मार भगाने के लिए और दिशा मालूम करने के चिह्न के तौर पर। अतः जिसने तारों के बारे में इन बातों के अतिरिक्त कुछ और अर्थ निकाला उसने गलती की, अपना भाग नष्ट किया एवं ऐसा कुछ जानने का प्रयास किया जो उसकी पहुँच से बाहर है।"क़तादा का कथन समाप्त हुआ।
"अल्लाह ने इन तारों को तीन उद्देश्यों के तहत पैदा किया है : आसमान की शोभा के तौर पर, शैतानों को मार भगाने के लिए और दिशा मालूम करने के चिह्न के तौर पर। अतः जिसने तारों के बारे में इन बातों के अतिरिक्त कुछ और अर्थ निकाला उसने गलती की, अपना भाग नष्ट किया एवं ऐसा कुछ जानने का प्रयास किया जो उसकी पहुँच से बाहर है।"
क़तादा का कथन समाप्त हुआ।
क़तादा ने चाँद के स्थानों का ज्ञान प्राप्त करने को नापसंद किया है और इब्न-ए-उययना ने भी इसकी अनुमति नहीं दी है। इस बात को उन दोनों से हर्ब ने नक़ल किया है।
जबकि अहमद तथा इसहाक़ ने इसकी अनुमति दी है।
और
अबू मूसा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया है, वह बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया :"तीन प्रकार के लोग जन्नत में प्रवेश नहीं करेंगे : शराब का रसिया, रिश्ते-नाते को काटने वाला और जादू को सच मानने वाला।"इसे अहमद ने तथा इब्ने हिब्बान ने अपनी सहीह में रिवायत किया है।
"तीन प्रकार के लोग जन्नत में प्रवेश नहीं करेंगे : शराब का रसिया, रिश्ते-नाते को काटने वाला और जादू को सच मानने वाला।"
इसे अहमद ने तथा इब्ने हिब्बान ने अपनी सहीह में रिवायत किया है।
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :तारों को पैदा करने में निहित हिकमत (उद्देश्य)।दूसरी :उसका खंडन जो इसके अतिरिक्त कुछ और बयान करे।तीसरी :चाँद के स्थानों के ज्ञान प्राप्त करने के बारे में मौजूद मतभेद का उल्लेख।चौथी :उस व्यक्ति को सख़्त सज़ा की धमकी दी गई जो असत्य समझते हुए भी जादू की पुष्टि करे।
तारों को पैदा करने में निहित हिकमत (उद्देश्य)।
दूसरी :
उसका खंडन जो इसके अतिरिक्त कुछ और बयान करे।
तीसरी :
चाँद के स्थानों के ज्ञान प्राप्त करने के बारे में मौजूद मतभेद का उल्लेख।
चौथी :
उस व्यक्ति को सख़्त सज़ा की धमकी दी गई जो असत्य समझते हुए भी जादू की पुष्टि करे।
अध्याय : नक्षत्रों के प्रभाव से वर्षा होने की धारणा रखने की मनाही
उच्च एवं महान अल्लाह का फ़रमान है :{وَتَجْعَلُونَ رِزْقَكُمْ أَنَّكُمْ تُكَذِّبُونَ} (तथा नेमत का यह शुक्र अदा करते हो कि तुम झुठलाते हो?)[सूरा वाक़िआ : 82]और अबू मालिक अल-अशअरी रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"मेरी उम्मत में जाहिलियत की चार ऐसे काम हैं, जिन्हें लोग कभी नहीं छोड़ेंगे : अपने कुल की श्रेष्ठता पर गर्व करना, दूसरे के नसब पर लांछन लगाना, नक्षत्रों के प्रभाव से बारिश होने का अक़ीदा रखना और और किसी के मरने पर रोना-पीटना।"तथा आपने फ़रमाया : "किसी के मरने पर रोने-पीटने वाली स्त्री यदि तौबा किए बिना ही मर गई, तो क़यामत के दिन इस अवस्था में उठाई जाएगी कि उसके शरीर में तारकोल का कुर्ता होगा और खुजली में मुब्तला कर देने का कपड़ा होगा।"इसे इमाम मुस्लिम ने रिवायत किया है।तथा सहीह बुखारी एवं सहीह मुस्लिम में ज़ैद बिन खालिद रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है, वह कहते हैं कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने हमें हुदैबिया में रात में होने वाली वर्षा के बाद सुबह फ़ज्र की नमाज़ की नमाज़ पढ़ाई। जब नमाज़ पढ़ चुके, तो लोगों की ओर चेहरा किया और फ़रमाया : "क्या तुम जानते हो कि तुम्हारे रब ने क्या कहा?" लोगों ने कहा : "अल्लाह ओर उसके रसूल अधिक जानते हैं। आपने फ़रमाया :"अल्लाह ने कहा : मेरे कुछ बंदों ने मुझपर ईमान की अवस्था में सुबह की और कुछ ने कुफ़्र की अवस्था में। जिसने कहा कि हमें अल्लाह के अनुग्रह तथा उसकी रहमत से बारिश मिली, वह मुझपर ईमान रखने वाला और नक्षत्रों के प्रभाव का इनकार करने वाला है और जिसने कहा कि हमें अमुक एवं अमुक नक्षत्रों के असर से बारिश मिली, वह मेरी नेमत का इनकार करने वाला तथा नक्षत्रों के प्रभाव पर ईमान रखने वाला है।"
{وَتَجْعَلُونَ رِزْقَكُمْ أَنَّكُمْ تُكَذِّبُونَ} (तथा नेमत का यह शुक्र अदा करते हो कि तुम झुठलाते हो?)
[सूरा वाक़िआ : 82]
और अबू मालिक अल-अशअरी रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :
"मेरी उम्मत में जाहिलियत की चार ऐसे काम हैं, जिन्हें लोग कभी नहीं छोड़ेंगे : अपने कुल की श्रेष्ठता पर गर्व करना, दूसरे के नसब पर लांछन लगाना, नक्षत्रों के प्रभाव से बारिश होने का अक़ीदा रखना और और किसी के मरने पर रोना-पीटना।"
तथा आपने फ़रमाया : "किसी के मरने पर रोने-पीटने वाली स्त्री यदि तौबा किए बिना ही मर गई, तो क़यामत के दिन इस अवस्था में उठाई जाएगी कि उसके शरीर में तारकोल का कुर्ता होगा और खुजली में मुब्तला कर देने का कपड़ा होगा।"
इसे इमाम मुस्लिम ने रिवायत किया है।
तथा सहीह बुखारी एवं सहीह मुस्लिम में ज़ैद बिन खालिद रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है, वह कहते हैं कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने हमें हुदैबिया में रात में होने वाली वर्षा के बाद सुबह फ़ज्र की नमाज़ की नमाज़ पढ़ाई। जब नमाज़ पढ़ चुके, तो लोगों की ओर चेहरा किया और फ़रमाया : "क्या तुम जानते हो कि तुम्हारे रब ने क्या कहा?" लोगों ने कहा : "अल्लाह ओर उसके रसूल अधिक जानते हैं। आपने फ़रमाया :
"अल्लाह ने कहा : मेरे कुछ बंदों ने मुझपर ईमान की अवस्था में सुबह की और कुछ ने कुफ़्र की अवस्था में। जिसने कहा कि हमें अल्लाह के अनुग्रह तथा उसकी रहमत से बारिश मिली, वह मुझपर ईमान रखने वाला और नक्षत्रों के प्रभाव का इनकार करने वाला है और जिसने कहा कि हमें अमुक एवं अमुक नक्षत्रों के असर से बारिश मिली, वह मेरी नेमत का इनकार करने वाला तथा नक्षत्रों के प्रभाव पर ईमान रखने वाला है।"
तथा बुखारी एवं मुस्लिम ही में
अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा से इसी अर्थ की हदीस वर्णित हुई है, जिसमें है :"उनमें से किसी ने कहा : अमुक तथा अमुक नक्षत्र के प्रभाव की बात सही साबित हुई, तो अल्लाह ने यह आयतें उतारीं :{فَلاَ أُقْسِمُ بِمَوَاقِعِ النُّجُومِ (मैं शपथ लेता हूँ सितारों के स्थानों की!وإنَّهُ لَقَسَمٌ لَّو تَعلَمُونَ عَظِيمٌ और ये निश्चय एक बड़ी शपथ है, यदि तुम समझो।إنَّهُ لَقُرْآنٌ كَرِيمٌ वास्तव में, यह आदरणीय क़ुरआन है।فِي كِتَابٍ مَّكْنونٍ सुरक्षित पुस्तक में।لا يَمَسُّهُ إلاَّ المُطَهَّرُونَ उसे पवित्र लोग ही छूते हैं।वह सर्वलोक के पालनहार का उतारा हुआ है।أفَبِهذا الحَديثِ أنتُم مُّدْهِنونَ फिर क्या तुम इस वाणी (क़ुरआन) की अपेक्षा करते हो?وتَجْعَلُونَ رِزْقَكُم أنَّكَم تُكَذِّبُونَ तथा नेमत का यह शुक्र अदा करते हो कि इसे तुम झुठलाते हो?)[सूरा वाक़िआ : 75 - 82]
"उनमें से किसी ने कहा : अमुक तथा अमुक नक्षत्र के प्रभाव की बात सही साबित हुई, तो अल्लाह ने यह आयतें उतारीं :
{فَلاَ أُقْسِمُ بِمَوَاقِعِ النُّجُومِ (मैं शपथ लेता हूँ सितारों के स्थानों की!
وإنَّهُ لَقَسَمٌ لَّو تَعلَمُونَ عَظِيمٌ और ये निश्चय एक बड़ी शपथ है, यदि तुम समझो।
إنَّهُ لَقُرْآنٌ كَرِيمٌ वास्तव में, यह आदरणीय क़ुरआन है।
فِي كِتَابٍ مَّكْنونٍ सुरक्षित पुस्तक में।
لا يَمَسُّهُ إلاَّ المُطَهَّرُونَ उसे पवित्र लोग ही छूते हैं।
वह सर्वलोक के पालनहार का उतारा हुआ है।
أفَبِهذا الحَديثِ أنتُم مُّدْهِنونَ फिर क्या तुम इस वाणी (क़ुरआन) की अपेक्षा करते हो?
وتَجْعَلُونَ رِزْقَكُم أنَّكَم تُكَذِّبُونَ तथा नेमत का यह शुक्र अदा करते हो कि इसे तुम झुठलाते हो?)
[सूरा वाक़िआ : 75 - 82]
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :सूरा वाक़िआ की उपर्युक्त आयत की व्याख्या।दूसरी :उन चार कामों का उल्लेख, जो जाहिलियत के काम हैं।तीसरी :इनमें से कुछ कामों को कुफ़्र कहा गया है।चौथी :कुफ्र के कुछ प्रकार ऐसे भी हैं, जिनके कारण इनसान इस्लाम के दायरे से नहीं निकलता।पाँचवीं :अल्लाह का कथन : "मेरे कुछ बंदों ने मुझपर ईमान की अवस्था में सुबह की और कुछ ने कुफ़्र की अवस्था में।" यानी वर्षा के सबब के इनकार की अवस्था में।छठीं :इस स्थान पर ईमान का अर्थ समझना।सातवीं :इस स्थान पर कुफ्र का अर्थ समझना।आठवीं :आपके कथन : "अमुक तथा अमुक नक्षत्र के प्रभाव की बात सही साबित हुई।" का अर्थ समझना।नवीं :शिक्षक का छात्र से किसी विषय के बारे में प्रश्न कर उस विषय को सामने लाना, जैसे आपने फरमाया : "क्या तुम जानते हो कि तुम्हारे रब ने क्या कहा?"दसवीं :किसी की मृत्यु पर रोने-पीटने वाली स्त्री के लिए धमकी।अध्याय : उच्च एवं महान अल्लाह के इस कथन का वर्नण :{وَمِنَ النَّاسِ مَنْ يَتَّخِذُ مِنْ دُونِ اللهِ أَندَادًا يُحِبُّونَهُمْ كَحُبِّ اللهِ} (कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो अल्लाह का साझी औरों को ठहरा कर उनसे ऐसा प्रेम रखते हैं, जैसा प्रेम वे अल्लाह से करते हैं।)[सूरा बक़रा : 165}एक और स्थान में उसका फरमान है :{قُلْ إِن كَانَ ءآبَاؤُكُمْ وَأَبْنَاؤُكُمْ وإخوَانُكُم وأزوَاجُكُم وعَشِيرَتُكُم وأمْوَالٌ اقتَرَفتُمُوهَا وتِجَارةٌ تَخْشَونَ كَسَادَها وَمَسَاكِنُ تَرْضَونَها أَحَبَّ إِلَيْكُم مِّنَ اللهِ وَرَسُولِهِ وجِهَادٍ فِي سَبيلِهِ فَتَرَبَّصُوا حَتى يَأتِيَ اللهُ بِأمْرِهِ وَاللهُ لا يَهْدِي القَوْمَ الفَاسِقِينَ} (हे नबी! कह दो कि यदि तुम्हारे बाप, तुम्हारे पुत्र, तुम्हारे भाई, तुम्हारी पत्नियाँ, तुम्हारे परिवार, तुम्हारा धन जो तुमने कमाया है और जिस व्यपार के मंद हो जाने का तुम्हें भय है तथा वो घर जिनसे तुम मोह रखते हो, तुम्हें अल्लाह तथा उसके रसूल और अल्लाह की राह में जिहाद करने से अधिक प्रिय हैं, तो प्रतीक्षा करो, यहाँ तक कि अल्लाह का निर्णय आ जाए और अल्लाह उल्लंघनकारियों को सुपथ नहीं दिखाता।)[सूरा तौबा : 24}तथा अनस रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"तुममें से कोई उस समय तक मोमिन नहीं हो सकता, जब तक मैं उसके निकट, उसकी संतान, उसके पिता और तमाम लोगों से अधिक प्यारा न हो जाऊँ।"इस हदीस को इमाम बुख़ारी एवं इमाम मुस्लिम ने रिवायत किया है।बुखारी तथा मुस्लिम ही में अनस रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है, वह बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया :"तीन चीज़ें जिसके अंदर होंगी, वह उनके कारण ईमान की मिठास महसूस कर पाएगा : अल्लाह और उसके रसूल उसके निकट सबसे प्रिय हों, किसी इनसान से केवल अल्लाह के लिए प्रेम रखे और जब अल्लाह ने उसे कुफ्र से बचा लिया, तो वह वापस कुफ्र की ओर लौटने को वैसे ही नापसंद करे, जैसे जहन्नम में डाला जाना उसे नापसंद हो।"एक रिवायत के शब्द इस प्रकार हैं :"कोई व्यक्ति ईमान की मिठास उस वक्त तक नहीं पा सकता, जब तक..." शेष हदीस उसी तरह है।और अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा से वर्णित है, वह कहते हैं :"जो अल्लाह के लिए प्रेम करे, अल्लाह के लिए द्वेष रखे, अल्लाह के लिए मोहब्बत करे और अल्लाह ही की ख़ातिर शत्रु बनाए, तो अल्लाह की मित्रता इन्हीं बातों से प्राप्त होती है। किसी बंदे की नमाज-रोज़ा कितना ही ज़्यादा क्यों न हो, उसकी हालत जब तक ऐसी न हो जाए, उसे ईमान की मिठास मिल नहीं सकती। जबकि आम तौर पर लोगों का भाईचारा और याराना सांसारिक मामलों के लिए होता है, जिससे इनसान को कोई फ़ायदा नहीं होगा।"इसे इब्ने जरीर ने रिवायत किया है ।
सूरा वाक़िआ की उपर्युक्त आयत की व्याख्या।
दूसरी :
उन चार कामों का उल्लेख, जो जाहिलियत के काम हैं।
तीसरी :
इनमें से कुछ कामों को कुफ़्र कहा गया है।
चौथी :
कुफ्र के कुछ प्रकार ऐसे भी हैं, जिनके कारण इनसान इस्लाम के दायरे से नहीं निकलता।
पाँचवीं :
अल्लाह का कथन : "मेरे कुछ बंदों ने मुझपर ईमान की अवस्था में सुबह की और कुछ ने कुफ़्र की अवस्था में।" यानी वर्षा के सबब के इनकार की अवस्था में।
छठीं :
इस स्थान पर ईमान का अर्थ समझना।
सातवीं :
इस स्थान पर कुफ्र का अर्थ समझना।
आठवीं :
आपके कथन : "अमुक तथा अमुक नक्षत्र के प्रभाव की बात सही साबित हुई।" का अर्थ समझना।
नवीं :
शिक्षक का छात्र से किसी विषय के बारे में प्रश्न कर उस विषय को सामने लाना, जैसे आपने फरमाया : "क्या तुम जानते हो कि तुम्हारे रब ने क्या कहा?"
दसवीं :
किसी की मृत्यु पर रोने-पीटने वाली स्त्री के लिए धमकी।
अध्याय : उच्च एवं महान अल्लाह के इस कथन का वर्नण :
{وَمِنَ النَّاسِ مَنْ يَتَّخِذُ مِنْ دُونِ اللهِ أَندَادًا يُحِبُّونَهُمْ كَحُبِّ اللهِ} (कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो अल्लाह का साझी औरों को ठहरा कर उनसे ऐसा प्रेम रखते हैं, जैसा प्रेम वे अल्लाह से करते हैं।)
[सूरा बक़रा : 165}
एक और स्थान में उसका फरमान है :
{قُلْ إِن كَانَ ءآبَاؤُكُمْ وَأَبْنَاؤُكُمْ وإخوَانُكُم وأزوَاجُكُم وعَشِيرَتُكُم وأمْوَالٌ اقتَرَفتُمُوهَا وتِجَارةٌ تَخْشَونَ كَسَادَها وَمَسَاكِنُ تَرْضَونَها أَحَبَّ إِلَيْكُم مِّنَ اللهِ وَرَسُولِهِ وجِهَادٍ فِي سَبيلِهِ فَتَرَبَّصُوا حَتى يَأتِيَ اللهُ بِأمْرِهِ وَاللهُ لا يَهْدِي القَوْمَ الفَاسِقِينَ} (हे नबी! कह दो कि यदि तुम्हारे बाप, तुम्हारे पुत्र, तुम्हारे भाई, तुम्हारी पत्नियाँ, तुम्हारे परिवार, तुम्हारा धन जो तुमने कमाया है और जिस व्यपार के मंद हो जाने का तुम्हें भय है तथा वो घर जिनसे तुम मोह रखते हो, तुम्हें अल्लाह तथा उसके रसूल और अल्लाह की राह में जिहाद करने से अधिक प्रिय हैं, तो प्रतीक्षा करो, यहाँ तक कि अल्लाह का निर्णय आ जाए और अल्लाह उल्लंघनकारियों को सुपथ नहीं दिखाता।)
[सूरा तौबा : 24}
तथा अनस रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :
"तुममें से कोई उस समय तक मोमिन नहीं हो सकता, जब तक मैं उसके निकट, उसकी संतान, उसके पिता और तमाम लोगों से अधिक प्यारा न हो जाऊँ।"
इस हदीस को इमाम बुख़ारी एवं इमाम मुस्लिम ने रिवायत किया है।
बुखारी तथा मुस्लिम ही में अनस रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है, वह बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया :
"तीन चीज़ें जिसके अंदर होंगी, वह उनके कारण ईमान की मिठास महसूस कर पाएगा : अल्लाह और उसके रसूल उसके निकट सबसे प्रिय हों, किसी इनसान से केवल अल्लाह के लिए प्रेम रखे और जब अल्लाह ने उसे कुफ्र से बचा लिया, तो वह वापस कुफ्र की ओर लौटने को वैसे ही नापसंद करे, जैसे जहन्नम में डाला जाना उसे नापसंद हो।"
एक रिवायत के शब्द इस प्रकार हैं :
"कोई व्यक्ति ईमान की मिठास उस वक्त तक नहीं पा सकता, जब तक..." शेष हदीस उसी तरह है।
और अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा से वर्णित है, वह कहते हैं :
"जो अल्लाह के लिए प्रेम करे, अल्लाह के लिए द्वेष रखे, अल्लाह के लिए मोहब्बत करे और अल्लाह ही की ख़ातिर शत्रु बनाए, तो अल्लाह की मित्रता इन्हीं बातों से प्राप्त होती है। किसी बंदे की नमाज-रोज़ा कितना ही ज़्यादा क्यों न हो, उसकी हालत जब तक ऐसी न हो जाए, उसे ईमान की मिठास मिल नहीं सकती। जबकि आम तौर पर लोगों का भाईचारा और याराना सांसारिक मामलों के लिए होता है, जिससे इनसान को कोई फ़ायदा नहीं होगा।"
इसे इब्ने जरीर ने रिवायत किया है ।
जबकि अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा अल्लाह के कथन : {وَتَقَطَّعَتْ بِهِمُ الأَسْبَابُ} (और सारे निश्ते-नाते टूट जाएँगे) का अर्थ बताते हुए कहते हैं कि सारी दोस्ती-यारी समाप्त हो जाएगी।
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :सूरा बक़रा की उपर्युक्त आयत की व्याख्या।दूसरी :सूरा तौबा की उपर्युक्त आयत की व्याख्या।तीसरी :यह ज़रूरी है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से अपने आप, परिवार एवं अपनी धन संपत्ति से अधिक प्रेम रखा जाए।चौथी :ईमान के अंदर ईमान न होने की बात कहना इस बात का प्रमाण नहीं है कि वह इस्लाम के दायरे से बाहर हो गया है।पाँचवीं :ईमान की भी मिठास होती है, जो कभी इनसान को मिलती है और कभी नहीं भी मिलती।छठीं :हृदय से संबंधित वे चार कार्य जिनके बिना अल्लाह की मित्रता प्राप्त नहीं होती और ईमान की मिठास महसूस नहीं होती।सातवीं :अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के सहाबी अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा वास्तविकता को समझते हुए कहा है कि आम तौर पर बंधुत्व दुनिया के आधार पर पनपता है।आठवीं :कुरआन के शब्द : {وَتَقَطَّعَتْ بِهِمُ الأَسْبَابُ} (और सारे रिश्ते-नाते टूट गए) की व्याख्या।नवीं :कुछ मुश्रिक अल्लाह से बेहद प्रेम रखते हैं।दसवीं :उपर्युक्त आयत में उल्लिखित आठ चीज़ें जिसको अपने दीन से ज़्यादा प्यारी हों, उसके लिए धमकी।ग्यारहवीं :जो किसी को अल्लाह का साझी ठहराए और उससे वैसी ही मुहब्बत करे जैसी अल्लाह से करता हो, तो उसका यह कार्य बड़े शिर्क के अंतर्गत आएगा।अध्याय : उच्च एवं महान अल्लाह के इस कथन का वर्नण :{إِنَّمَا ذلِكُمُ الشَّيْطَانُ يُخَوِّفُ أَوْلِيَاءَهُ فَلاَ تَخَافُوهُمْ وَخَافُونِ إِن كُنتُم مُّؤْمِنِينَ} (वह शैतान है, जो तुम्हें अपने सहयोगियों से डरा रहा है, तो उनसे न डरो तथा मुझी से डरो यदि तुम ईमान वाले हो।)[सूरा आल-ए-इमरान : 175]एक अन्य स्थान में उसका फ़रमान है :{إِنَّمَا يَعْمُرُ مَسَاجِدَ اللهِ مَنْ ءآمَنْ بِاللهِ وَالْيَوْمِ الآخِرِ وَأَقَامَ الصَّلاَةَ وَآتَى الزَّكَاةَ وَلَمْ يَخْشَ إِلاَّ اللهَ فَعَسَى أُوْلَـئِكَ أَن يَكُونُواْ مِنَ الْمُهْتَدِينَ} (वास्तव में, अल्लाह की मस्जिदों को वही आबाद करते हैं, जो अल्लाह पर और अन्तिम दिन पर ईमान लाए, नमाज़ की स्थापना की, ज़कात दी और अल्लाह के सिवा किसी से नहीं डरे। तो आशा है कि वही सीधी राह चलेंगे।)[सूरा तौबा : 18]एक और जगह उसका फ़रमान है :{وَمِنَ النَّاسِ مَنْ يَقُولُ ءآمَنا بِاللهِ فَإِذَا أُوذِيَ فِي اللهِ جَعَلَ فِتْنَةَ النَّاسِ كَعَذَابِ اللهِ} (और कुछ लोग कहते हैं कि हम अल्लाह पर ईमान लाए, फिर जब उन्हें अल्लाह की राह में कोई तकलीफ़ होती है, तो वे इनसानों की ओर से आने वाली परीक्षा को अल्लाह की यातना समझ लेते हैं।)[सूरा अनकबूत : 10]तथा अबू सईद रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया :"यह विश्वास की दुर्बलता है कि तुम अल्लाह को नाराज़ कर लोगों को खुश करने की कोशिश करो, अल्लाह की दी हुई आजीविका पर लोगों की प्रशंसा करो और जो कुछ अल्लाह तुम्हें न दे उसपर लोगों की निंदा करो। याद रखो कि अल्लाह की आजीविका न किसी लालची के लालच से मिलती है और न किसी न चाहने वाले के न चाहने से रुक सकती है।"इसी तरह आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"जो अल्लाह को राज़ी करने का प्रयास करे चाहे लोग उससे नाराज़ हो जाएं, तो अल्लाह तआला उससे प्रसन्न होता है एवं लोगों को भी उससे राज़ी कर देता है तथा जो अल्लाह को नाराज़ कर लोगों को खुश करने की कोशिश करे अल्लाह उससे अप्रसन्न हो जाता है और लोगों को भी उसके प्रति नाख़ुश कर देता है।"इसे इब्ने हिब्बान ने अपनी सहीह में रिवायत किया है।
सूरा बक़रा की उपर्युक्त आयत की व्याख्या।
दूसरी :
सूरा तौबा की उपर्युक्त आयत की व्याख्या।
तीसरी :
यह ज़रूरी है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से अपने आप, परिवार एवं अपनी धन संपत्ति से अधिक प्रेम रखा जाए।
चौथी :
ईमान के अंदर ईमान न होने की बात कहना इस बात का प्रमाण नहीं है कि वह इस्लाम के दायरे से बाहर हो गया है।
पाँचवीं :
ईमान की भी मिठास होती है, जो कभी इनसान को मिलती है और कभी नहीं भी मिलती।
छठीं :
हृदय से संबंधित वे चार कार्य जिनके बिना अल्लाह की मित्रता प्राप्त नहीं होती और ईमान की मिठास महसूस नहीं होती।
सातवीं :
अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के सहाबी अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा वास्तविकता को समझते हुए कहा है कि आम तौर पर बंधुत्व दुनिया के आधार पर पनपता है।
आठवीं :
कुरआन के शब्द : {وَتَقَطَّعَتْ بِهِمُ الأَسْبَابُ} (और सारे रिश्ते-नाते टूट गए) की व्याख्या।
नवीं :
कुछ मुश्रिक अल्लाह से बेहद प्रेम रखते हैं।
दसवीं :
उपर्युक्त आयत में उल्लिखित आठ चीज़ें जिसको अपने दीन से ज़्यादा प्यारी हों, उसके लिए धमकी।
ग्यारहवीं :
जो किसी को अल्लाह का साझी ठहराए और उससे वैसी ही मुहब्बत करे जैसी अल्लाह से करता हो, तो उसका यह कार्य बड़े शिर्क के अंतर्गत आएगा।
अध्याय : उच्च एवं महान अल्लाह के इस कथन का वर्नण :
{إِنَّمَا ذلِكُمُ الشَّيْطَانُ يُخَوِّفُ أَوْلِيَاءَهُ فَلاَ تَخَافُوهُمْ وَخَافُونِ إِن كُنتُم مُّؤْمِنِينَ} (वह शैतान है, जो तुम्हें अपने सहयोगियों से डरा रहा है, तो उनसे न डरो तथा मुझी से डरो यदि तुम ईमान वाले हो।)
[सूरा आल-ए-इमरान : 175]
एक अन्य स्थान में उसका फ़रमान है :
{إِنَّمَا يَعْمُرُ مَسَاجِدَ اللهِ مَنْ ءآمَنْ بِاللهِ وَالْيَوْمِ الآخِرِ وَأَقَامَ الصَّلاَةَ وَآتَى الزَّكَاةَ وَلَمْ يَخْشَ إِلاَّ اللهَ فَعَسَى أُوْلَـئِكَ أَن يَكُونُواْ مِنَ الْمُهْتَدِينَ} (वास्तव में, अल्लाह की मस्जिदों को वही आबाद करते हैं, जो अल्लाह पर और अन्तिम दिन पर ईमान लाए, नमाज़ की स्थापना की, ज़कात दी और अल्लाह के सिवा किसी से नहीं डरे। तो आशा है कि वही सीधी राह चलेंगे।)
[सूरा तौबा : 18]
एक और जगह उसका फ़रमान है :
{وَمِنَ النَّاسِ مَنْ يَقُولُ ءآمَنا بِاللهِ فَإِذَا أُوذِيَ فِي اللهِ جَعَلَ فِتْنَةَ النَّاسِ كَعَذَابِ اللهِ} (और कुछ लोग कहते हैं कि हम अल्लाह पर ईमान लाए, फिर जब उन्हें अल्लाह की राह में कोई तकलीफ़ होती है, तो वे इनसानों की ओर से आने वाली परीक्षा को अल्लाह की यातना समझ लेते हैं।)
[सूरा अनकबूत : 10]
तथा अबू सईद रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया :
"यह विश्वास की दुर्बलता है कि तुम अल्लाह को नाराज़ कर लोगों को खुश करने की कोशिश करो, अल्लाह की दी हुई आजीविका पर लोगों की प्रशंसा करो और जो कुछ अल्लाह तुम्हें न दे उसपर लोगों की निंदा करो। याद रखो कि अल्लाह की आजीविका न किसी लालची के लालच से मिलती है और न किसी न चाहने वाले के न चाहने से रुक सकती है।"
इसी तरह आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :
"जो अल्लाह को राज़ी करने का प्रयास करे चाहे लोग उससे नाराज़ हो जाएं, तो अल्लाह तआला उससे प्रसन्न होता है एवं लोगों को भी उससे राज़ी कर देता है तथा जो अल्लाह को नाराज़ कर लोगों को खुश करने की कोशिश करे अल्लाह उससे अप्रसन्न हो जाता है और लोगों को भी उसके प्रति नाख़ुश कर देता है।"
इसे इब्ने हिब्बान ने अपनी सहीह में रिवायत किया है।
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :सूरा आल-ए-इमरान की उपर्युक्त आयत की व्याख्या।दूसरी :सूरा बराअह (तौबा) की उपर्युक्त आयत की व्याख्या।तीसरी :सूरा अनकबूत की उपर्युक्त आयत व्याख्या।चौथी :विश्वास कभी मज़बूत तो कभी दुर्बल भी होता है।पाँचवीं :हदीस में उल्लिखित तीन चीज़ें विश्वास की दुर्बलता के चिन्ह हैं।छठीं :केवल अल्लाह ही से डरना आवश्यक है।सातवीं :जो ऐसा करेगा, उसे मिलने वाली नेकी का उल्लेख।आठवीं :जो ऐसा नहीं करेगा, उसकी यातना का बयान।अध्याय : उच्च एवं महान अल्लाह के इस कथन का वर्णन :{وَعَلَى اللهِ فَتَوَكَّلُواْ إِن كُنتُم مُّؤْمِنِينَ} (और तुम अपने रब पर भरोसा रखो, यदि तुम (वास्तव में ) मोमिन हो।)[सूरा अल-माइदा : 23]एक अन्य स्थान में उसका फ़रमान है :{إِنَّمَا الْمُؤْمِنُونَ الَّذِينَ إِذَا ذُكِرَ اللهُ وَجِلَتْ قُلُوبُهُمْ وَإذَا تُلِيتْ عَلَيهِمْ آيَاتُهُ زَادَتهم إيمَانًا وعَلَى رَبِّهِمْ يَتَوَكَّلُونَ} (वास्तव में, ईमान वाले वही हैं कि जब अल्लाह का वर्णन किया जाए, तो उनके दिल काँप उठते हैं और जब उनके समक्ष उसकी आयतें पढ़ी जाएँ, तो उनका ईमान अधिक हो जाता है और वे अपने पालनहार पर ही भरोसा रखते हैं।)[सूरा अनफ़ाल : 2]एक अन्य स्थान में उसका फ़रमान है :{يَا أَيُّهَا النَّبِيُّ حَسْبُكَ اللهُ ومَن اتَّبَعكَ مِنَ المُؤمِنِينَ} (हे नबी! आपके लिए तथा आपके ईमान वाले साथियों के लिए अल्लाह काफ़ी है।)[सूरा अनफ़ाल : 64]एक और जगह पर वह कहता है :{وَمَنْ يَتَوَكَّلْ عَلَى اللهِ فَهُوَ حَسْبُهُ} (और जो व्यक्ति अल्लाह पर भरोसा करेगा, तो अल्लाह उसके लिए पर्याप्त है।)[सूरा तलाक़ : 3]तथा अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा से रिवायत है, वह कहते हैं :({حَسْبُنا اللهُ ونِعْمَ الوكيلُ} (अल्लाह हमारे लिए काफ़ी है और वही सबसे अच्छा कार्य-साधक है।)यह शब्द इबराहीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कहे जब उन्हें आग में डाला गया और मुहम्मह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने भी कहे जब उनसे लोगों ने कहा :{إِنَّ النَّاسَ قَدْ جَمَعُواْ لَكُمْ فَاخْشَوْهُمْ فَزَادَهُمْ إِيمَانًا وَقَالُوا حَسْبُنَا اللهُ ونِعْمَ الوَكِيلُ} (तुम्हारे लिए लोगों ने फौज इकट्ठी कर ली है। अतः उनसे डरो, तो इस (सूचना) ने उनके ईमान को और अधिक कर दिया और उन्होंने कहा : हमें अल्लाह बस है और वह अच्छा काम बनाने वाला है।)[सूरा आल-ए-इमरान : 173]इस हदीस को बुख़ारी और नसई ने रिवायत किया है।
सूरा आल-ए-इमरान की उपर्युक्त आयत की व्याख्या।
दूसरी :
सूरा बराअह (तौबा) की उपर्युक्त आयत की व्याख्या।
तीसरी :
सूरा अनकबूत की उपर्युक्त आयत व्याख्या।
चौथी :
विश्वास कभी मज़बूत तो कभी दुर्बल भी होता है।
पाँचवीं :
हदीस में उल्लिखित तीन चीज़ें विश्वास की दुर्बलता के चिन्ह हैं।
छठीं :
केवल अल्लाह ही से डरना आवश्यक है।
सातवीं :
जो ऐसा करेगा, उसे मिलने वाली नेकी का उल्लेख।
आठवीं :
जो ऐसा नहीं करेगा, उसकी यातना का बयान।
अध्याय : उच्च एवं महान अल्लाह के इस कथन का वर्णन :
{وَعَلَى اللهِ فَتَوَكَّلُواْ إِن كُنتُم مُّؤْمِنِينَ} (और तुम अपने रब पर भरोसा रखो, यदि तुम (वास्तव में ) मोमिन हो।)
[सूरा अल-माइदा : 23]
एक अन्य स्थान में उसका फ़रमान है :
{إِنَّمَا الْمُؤْمِنُونَ الَّذِينَ إِذَا ذُكِرَ اللهُ وَجِلَتْ قُلُوبُهُمْ وَإذَا تُلِيتْ عَلَيهِمْ آيَاتُهُ زَادَتهم إيمَانًا وعَلَى رَبِّهِمْ يَتَوَكَّلُونَ} (वास्तव में, ईमान वाले वही हैं कि जब अल्लाह का वर्णन किया जाए, तो उनके दिल काँप उठते हैं और जब उनके समक्ष उसकी आयतें पढ़ी जाएँ, तो उनका ईमान अधिक हो जाता है और वे अपने पालनहार पर ही भरोसा रखते हैं।)
[सूरा अनफ़ाल : 2]
एक अन्य स्थान में उसका फ़रमान है :
{يَا أَيُّهَا النَّبِيُّ حَسْبُكَ اللهُ ومَن اتَّبَعكَ مِنَ المُؤمِنِينَ} (हे नबी! आपके लिए तथा आपके ईमान वाले साथियों के लिए अल्लाह काफ़ी है।)
[सूरा अनफ़ाल : 64]
एक और जगह पर वह कहता है :
{وَمَنْ يَتَوَكَّلْ عَلَى اللهِ فَهُوَ حَسْبُهُ} (और जो व्यक्ति अल्लाह पर भरोसा करेगा, तो अल्लाह उसके लिए पर्याप्त है।)
[सूरा तलाक़ : 3]
तथा अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा से रिवायत है, वह कहते हैं :
({حَسْبُنا اللهُ ونِعْمَ الوكيلُ} (अल्लाह हमारे लिए काफ़ी है और वही सबसे अच्छा कार्य-साधक है।)
यह शब्द इबराहीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कहे जब उन्हें आग में डाला गया और मुहम्मह सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने भी कहे जब उनसे लोगों ने कहा :
{إِنَّ النَّاسَ قَدْ جَمَعُواْ لَكُمْ فَاخْشَوْهُمْ فَزَادَهُمْ إِيمَانًا وَقَالُوا حَسْبُنَا اللهُ ونِعْمَ الوَكِيلُ} (तुम्हारे लिए लोगों ने फौज इकट्ठी कर ली है। अतः उनसे डरो, तो इस (सूचना) ने उनके ईमान को और अधिक कर दिया और उन्होंने कहा : हमें अल्लाह बस है और वह अच्छा काम बनाने वाला है।)
[सूरा आल-ए-इमरान : 173]
इस हदीस को बुख़ारी और नसई ने रिवायत किया है।
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :तवक्कुल (केवल अल्लाह पर भरोसा रखना) अनिवार्य चीज़ों में से है।दूसरी :यह ईमान की शर्तों में से है।तीसरी :सूरा अनफ़ाल की उपर्युक्त आयत की व्याख्या।चौथी :उपर्युक्त आयत के अंतिम भाग की व्याख्या।पाँचवीं :सूरा तालाक़ की उपर्युक्त आयत की व्याख्या।छठीं :{حَسْبُنَا اللهُ ونِعْمَ الوَكِيلُ} कहने का महत्व तथा यह कि इन शब्दों को इबराहीम अलैहिस्सलाम तथा मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने विपरीत परिस्थितियों में कहा था।अध्याय : उच्च एवं महान अल्लाह के इस कथन का वर्नण :{أَفَأَمِنُواْ مَكْرَ اللهِ فَلاَ يَأمَنْ مَكْرَ اللهِ إِلاَّ الْقَوْمُ الْخَاسِرُونَ} (क्या वह अल्लाह की पकड़ से निश्चिन्त (निर्भय) हो गए? सो अल्लाह की पकड़ से वही लोग निश्चिन्त होते हैं, जो घाटा उठाने वाले हैं।)[सूरा आराफ़ : 99]एक अन्य स्थान में उसका फ़रमान है :{وَمَن يَقْنَطُ مِن رَّحْمَةِ رَبِّهِ إِلاَّ الضَّآلُّونَ} (अपने पालनहार की दया से निराश, केवल कुपथगामी लोग ही हुआ करते हैं।)[सूरा हिज्र : 56]और अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से महा-पापों के संबंध में प्रश्न किया गया, तो आपने फ़रमाया :"अल्लाह के साथ शिर्क करना, अल्लाह की रहमत से निराश हो जाना एवं अल्लाह की पकड़ से निश्चिंत रहना।"तथा अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है, वह कहते हैं :"सबसे बड़े गुनाह हैं : अल्लाह का साझी बनाना, अल्लाह के उपाय (पकड़) से निश्चिंत हो जाना तथा उसकी दया एवं कृपा से निराश होना।"इसे अब्दुर रज़्ज़ाक़ ने रिवायत किया है।
तवक्कुल (केवल अल्लाह पर भरोसा रखना) अनिवार्य चीज़ों में से है।
दूसरी :
यह ईमान की शर्तों में से है।
तीसरी :
सूरा अनफ़ाल की उपर्युक्त आयत की व्याख्या।
चौथी :
उपर्युक्त आयत के अंतिम भाग की व्याख्या।
पाँचवीं :
सूरा तालाक़ की उपर्युक्त आयत की व्याख्या।
छठीं :
{حَسْبُنَا اللهُ ونِعْمَ الوَكِيلُ} कहने का महत्व तथा यह कि इन शब्दों को इबराहीम अलैहिस्सलाम तथा मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने विपरीत परिस्थितियों में कहा था।
अध्याय : उच्च एवं महान अल्लाह के इस कथन का वर्नण :
{أَفَأَمِنُواْ مَكْرَ اللهِ فَلاَ يَأمَنْ مَكْرَ اللهِ إِلاَّ الْقَوْمُ الْخَاسِرُونَ} (क्या वह अल्लाह की पकड़ से निश्चिन्त (निर्भय) हो गए? सो अल्लाह की पकड़ से वही लोग निश्चिन्त होते हैं, जो घाटा उठाने वाले हैं।)
[सूरा आराफ़ : 99]
एक अन्य स्थान में उसका फ़रमान है :
{وَمَن يَقْنَطُ مِن رَّحْمَةِ رَبِّهِ إِلاَّ الضَّآلُّونَ} (अपने पालनहार की दया से निराश, केवल कुपथगामी लोग ही हुआ करते हैं।)
[सूरा हिज्र : 56]
और अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से महा-पापों के संबंध में प्रश्न किया गया, तो आपने फ़रमाया :
"अल्लाह के साथ शिर्क करना, अल्लाह की रहमत से निराश हो जाना एवं अल्लाह की पकड़ से निश्चिंत रहना।"
तथा अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है, वह कहते हैं :
"सबसे बड़े गुनाह हैं : अल्लाह का साझी बनाना, अल्लाह के उपाय (पकड़) से निश्चिंत हो जाना तथा उसकी दया एवं कृपा से निराश होना।"
इसे अब्दुर रज़्ज़ाक़ ने रिवायत किया है।
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :सूरा आराफ़ की उपर्युक्त आयत की व्याख्या।दूसरी :सूरा हिज्र की उपर्युक्त आयत की व्याख्या।तीसरी :उसके लिए सख़्त धमकी, जो अल्लाह की पकड़ से निश्चिंत हो जाए।चौथी :अल्लाह की कृपा से निराश होने के संबंध में सख़्त धमकी।
सूरा आराफ़ की उपर्युक्त आयत की व्याख्या।
दूसरी :
सूरा हिज्र की उपर्युक्त आयत की व्याख्या।
तीसरी :
उसके लिए सख़्त धमकी, जो अल्लाह की पकड़ से निश्चिंत हो जाए।
चौथी :
अल्लाह की कृपा से निराश होने के संबंध में सख़्त धमकी।
अध्याय : अल्लाह के निर्णयों पर धैर्य रखना अल्लाह पर ईमान का अंश है
उच्च एवं महान अल्लाह का फ़रमान है :{وَمَن يُؤْمِن بِاللهِ يَهْدِ قَلْبَهُ وَاللهُ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيمٌ} (और जो अल्लाह पर ईमान लाए अल्लाह उसके दिल को राह दिखाता है, और अल्लाह प्रत्येक चीज़ को जानता है।)[सूरा तग़ाबुन : 11]
{وَمَن يُؤْمِن بِاللهِ يَهْدِ قَلْبَهُ وَاللهُ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيمٌ} (और जो अल्लाह पर ईमान लाए अल्लाह उसके दिल को राह दिखाता है, और अल्लाह प्रत्येक चीज़ को जानता है।)
[सूरा तग़ाबुन : 11]
अलक़मा कहते हैं : "इससे मुराद वह व्यक्ति है, जिसे जब कोई मुसीबत आती है, तो वह जानता है कि यह मुसीबत अल्लाह की ओर से है। अतः, वह उसपर राज़ी हो जाता है एवं समर्पण कर देता है।"
एवं सहीह मुस्लिम में अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अनहु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"लोगों के अंदर कुफ़्र की दो बातें पाई जाती रहेंगी : किसी के कुल पर कटाक्ष करना तथा मरे हुए व्यक्ति पर विलाप करना।"और सहीह बुखारी तथा सहीह मुस्लिम ही में अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"वह हममें से नहीं, जो गालों पर थप्पड़ मारे, गिरेबान के कपड़े फाड़े और जाहिलियत का कोई बोल बोले।"और अनस रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"जब अल्लाह अपने बंदे के साथ भलाई का इरादा करता है, तो उसे दुनिया ही में सज़ा दे देता है, तथा जब अपने बंदे के साथ बुराई का इरादा करता है, तो उसके गुनाहों की सज़ा को रोके रखता है, यहाँ तक कि वह क़यामत के दिन अपने सारे गुनाहों को पाएग।"और नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया :"निश्चय ही बड़ा बदला बड़ी परीक्षा के साथ है। जब अल्लाह किसी क़ौम से प्रेम करता है, तो उसकी परीक्षा लेता है। अतः, जो अल्लाह के निर्णय से संतुष्ट रहेगा, उससे अल्लाह प्रसन्न होगा और जो असंतुष्टी दिखाएगा, उससे अल्लाह नाराज रहेगा।"इस हदीस को तिरमिज़ी ने हसन करार दिया है।
"लोगों के अंदर कुफ़्र की दो बातें पाई जाती रहेंगी : किसी के कुल पर कटाक्ष करना तथा मरे हुए व्यक्ति पर विलाप करना।"
और सहीह बुखारी तथा सहीह मुस्लिम ही में अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :
"वह हममें से नहीं, जो गालों पर थप्पड़ मारे, गिरेबान के कपड़े फाड़े और जाहिलियत का कोई बोल बोले।"
और अनस रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :
"जब अल्लाह अपने बंदे के साथ भलाई का इरादा करता है, तो उसे दुनिया ही में सज़ा दे देता है, तथा जब अपने बंदे के साथ बुराई का इरादा करता है, तो उसके गुनाहों की सज़ा को रोके रखता है, यहाँ तक कि वह क़यामत के दिन अपने सारे गुनाहों को पाएग।"
और नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया :
"निश्चय ही बड़ा बदला बड़ी परीक्षा के साथ है। जब अल्लाह किसी क़ौम से प्रेम करता है, तो उसकी परीक्षा लेता है। अतः, जो अल्लाह के निर्णय से संतुष्ट रहेगा, उससे अल्लाह प्रसन्न होगा और जो असंतुष्टी दिखाएगा, उससे अल्लाह नाराज रहेगा।"
इस हदीस को तिरमिज़ी ने हसन करार दिया है।
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :सूरा तग़ाबुन की उपर्युक्त आयत की व्याख्या।दूसरी :अल्लाह के निर्णयों को धैर्य के साथ मानना अल्लाह पर ईमान का एक भाग है।तीसरी :किसी के कुल पर कटाक्ष करना जाहिलियत के कामों में से है।चौथी :जो गालों पर थप्पड़ मारे, गिरेबान के कपड़े फाड़े और जाहिलियत का कोई बोल बोले, उसके लिए सख़्त धमकी।पाँचवीं :जब अल्लाह अपने किसी बंदे के साथ भलाई करना चाहता है, तो उसकी निशानी क्या होती है, यह बता दिया गया है।छठीं :और जब अल्लाह किसी बंदे के साथ बुराई का इरादा करता है, तो उसकी निशानी क्या होती है, यह भी बता दिया गया है।सातवीं :अल्लाह के किसी बंदे से प्रेम करने की निशानी।आठवीं :मुसीबतों के समय अल्लाह के निर्णय से नाराज़ होना हराम है।नवीं :परीक्षा की घड़ी में अल्लाह के निर्णय पर राज़ी रहने की नेकी।
सूरा तग़ाबुन की उपर्युक्त आयत की व्याख्या।
दूसरी :
अल्लाह के निर्णयों को धैर्य के साथ मानना अल्लाह पर ईमान का एक भाग है।
तीसरी :
किसी के कुल पर कटाक्ष करना जाहिलियत के कामों में से है।
चौथी :
जो गालों पर थप्पड़ मारे, गिरेबान के कपड़े फाड़े और जाहिलियत का कोई बोल बोले, उसके लिए सख़्त धमकी।
पाँचवीं :
जब अल्लाह अपने किसी बंदे के साथ भलाई करना चाहता है, तो उसकी निशानी क्या होती है, यह बता दिया गया है।
छठीं :
और जब अल्लाह किसी बंदे के साथ बुराई का इरादा करता है, तो उसकी निशानी क्या होती है, यह भी बता दिया गया है।
सातवीं :
अल्लाह के किसी बंदे से प्रेम करने की निशानी।
आठवीं :
मुसीबतों के समय अल्लाह के निर्णय से नाराज़ होना हराम है।
नवीं :
परीक्षा की घड़ी में अल्लाह के निर्णय पर राज़ी रहने की नेकी।
अध्याय : दिखावा (रिया) का वर्णन
उच्च एवं महान अल्लाह का फ़रमान है :{قُلْ إِنَّمَا أَنَاْ بَشَرٌ مِّثْلُكُمْ يُوحَى إِلَيَّ أَنَّمَا إِلَـهُكُمْ إِلَـهٌ وَاحِدٌ فَمَن كَانَ يَرْجُو لِقَاءَ رَبِّهِ فَلْيعْمَلْ عَمَلاً صَالِحًا وَلا يُشْرِكْ بِعَبَادَةِ رَبِّهِ أَحَدًا} (आप कह दें, मैं तो तुम जैसा एक मनुष्य हूँ। (अंतर यह है कि) मेरे पास अल्लाह की ओर से वह्य आती है कि तुम्हारा अल्लाह वही एक सच्चा पूज्य है। इसलिए जिसे अपने रब से मिलने की इच्छा हो, उसको चाहिए कि वह अच्छा कर्म करे और अपने रब की उपासना में किसी को भागीदार न बनाए।)[सूरा अल-कह्फ़ : 110]और अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"उच्च एवं महान अल्लाह ने फ़रमायाः मैं तमाम साझेदारों से अधिक, साझेदारी से निस्पृह हूँ। जिसने कोई काम किया और उसमें किसी को मेरा साझी ठहराया, मैं उसको और उसके साझी बनाने के कार्य को छोड़ देता हूँ।"इसे इमाम मुस्लिम ने रिवायत किया है।तथा अबू सईद रज़ियल्लाहु अनहु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"क्या मैं तुम्हें उस बात की सूचना न दूँ, जिसका मुझे तुमहारे बारे में दज्जाल से भी अधिक भय है?"लोगों ने कहा : अवश्य, ऐ अल्लाह के रसूल! आपने फ़रमाया :"छुपा हुआ शिर्क, कि कोई इनसान नमाज़ शुरू करे और किसी को देख खूब अच्छी तरह नमाज़ पढ़ने लगे"इसे अहमद ने रिवायत किया है।
{قُلْ إِنَّمَا أَنَاْ بَشَرٌ مِّثْلُكُمْ يُوحَى إِلَيَّ أَنَّمَا إِلَـهُكُمْ إِلَـهٌ وَاحِدٌ فَمَن كَانَ يَرْجُو لِقَاءَ رَبِّهِ فَلْيعْمَلْ عَمَلاً صَالِحًا وَلا يُشْرِكْ بِعَبَادَةِ رَبِّهِ أَحَدًا} (आप कह दें, मैं तो तुम जैसा एक मनुष्य हूँ। (अंतर यह है कि) मेरे पास अल्लाह की ओर से वह्य आती है कि तुम्हारा अल्लाह वही एक सच्चा पूज्य है। इसलिए जिसे अपने रब से मिलने की इच्छा हो, उसको चाहिए कि वह अच्छा कर्म करे और अपने रब की उपासना में किसी को भागीदार न बनाए।)
[सूरा अल-कह्फ़ : 110]
और अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :
"उच्च एवं महान अल्लाह ने फ़रमायाः मैं तमाम साझेदारों से अधिक, साझेदारी से निस्पृह हूँ। जिसने कोई काम किया और उसमें किसी को मेरा साझी ठहराया, मैं उसको और उसके साझी बनाने के कार्य को छोड़ देता हूँ।"
इसे इमाम मुस्लिम ने रिवायत किया है।
तथा अबू सईद रज़ियल्लाहु अनहु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :
"क्या मैं तुम्हें उस बात की सूचना न दूँ, जिसका मुझे तुमहारे बारे में दज्जाल से भी अधिक भय है?"
लोगों ने कहा : अवश्य, ऐ अल्लाह के रसूल! आपने फ़रमाया :
"छुपा हुआ शिर्क, कि कोई इनसान नमाज़ शुरू करे और किसी को देख खूब अच्छी तरह नमाज़ पढ़ने लगे"
इसे अहमद ने रिवायत किया है।
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :सूरा कहफ़ की उपर्युक्त आयत की व्याख्या।दूसरी :एक महत्वपूर्ण बात यह है कि यदि किसी नेकी के कार्य में अल्लाह के सिवा किसी के लिए कुछ पाया जाए तो उसे ठुकरा दिया जाता है।तीसरी :ठुकरा देने का कारण यह है कि अल्लाह सम्पूर्ण निस्पृह है।चौथी :ठुकरा देने का एक अन्य कारण यह है कि अल्लाह तमाम साझियों से उत्कृष्ट एवं श्रेष्ठ है।पाँचवीं :नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को अपने सहाबा केे बारे मेें दिखावे (रिया) का भय था।छठीं :दिखावा (रिया) की व्याख्या आपने यह की कि कोई इनसान नमाज़ शुरू करे और किसी को देख खूब अच्छी तरह नमाज़ पढ़ने लगे।
सूरा कहफ़ की उपर्युक्त आयत की व्याख्या।
दूसरी :
एक महत्वपूर्ण बात यह है कि यदि किसी नेकी के कार्य में अल्लाह के सिवा किसी के लिए कुछ पाया जाए तो उसे ठुकरा दिया जाता है।
तीसरी :
ठुकरा देने का कारण यह है कि अल्लाह सम्पूर्ण निस्पृह है।
चौथी :
ठुकरा देने का एक अन्य कारण यह है कि अल्लाह तमाम साझियों से उत्कृष्ट एवं श्रेष्ठ है।
पाँचवीं :
नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को अपने सहाबा केे बारे मेें दिखावे (रिया) का भय था।
छठीं :
दिखावा (रिया) की व्याख्या आपने यह की कि कोई इनसान नमाज़ शुरू करे और किसी को देख खूब अच्छी तरह नमाज़ पढ़ने लगे।
अध्याय : इनसान का अपने अमल से दुनिया की चाहत रखना भी शिर्क है
उच्च एवं महान अल्लाह का फ़रमान है :{مَن كَانَ يُرِيدُ الْحَيَاةَ الدُّنْيَا وَزِينَتَهَا نُوَفِّ إِلَيْهِمْ أَعْمَالَهُمْ فِيهَا وَهُمْ فِيهَا لا يُبْخَسُونَ (जो लोग सांसारिक जीवन तथा उसकी शोभा चाहते हों, हम उनके कर्मों का (फल) उसी में चुका देंगे और उनके लिए (संसार में) कोई कमी नहीं की जाएगी।)أُولَئِكَ الَّذِينَ لَيسَ لَهُمْ فِي الآخِرَةِ إلاَّ النَّارُ وَحَبِطَ مَا صَنَعُوا فِيهَا وَبَاطِلٌ مَّا كَانُوا يَعْمَلُونَ} (यही वह लोग हैं, जिनका आखिरत में अग्नि के सिवा कोई भाग नहीं होगा और उन्होंने जो कुछ किया, वह व्यर्थ हो जाएगा और वे जो कुछ कर रहे हैं, वह असत्य सिद्ध होने वाला है।)[सूरा हूद : 15 -16]और सहीह बुख़ारी में अबू हुरैरा रजियल्लाहू अन्हु से रिवायत है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"विनाश हो दीनार के गुलाम का, विनाश हो दिरहम के गुलाम का,
{مَن كَانَ يُرِيدُ الْحَيَاةَ الدُّنْيَا وَزِينَتَهَا نُوَفِّ إِلَيْهِمْ أَعْمَالَهُمْ فِيهَا وَهُمْ فِيهَا لا يُبْخَسُونَ (जो लोग सांसारिक जीवन तथा उसकी शोभा चाहते हों, हम उनके कर्मों का (फल) उसी में चुका देंगे और उनके लिए (संसार में) कोई कमी नहीं की जाएगी।)
أُولَئِكَ الَّذِينَ لَيسَ لَهُمْ فِي الآخِرَةِ إلاَّ النَّارُ وَحَبِطَ مَا صَنَعُوا فِيهَا وَبَاطِلٌ مَّا كَانُوا يَعْمَلُونَ} (यही वह लोग हैं, जिनका आखिरत में अग्नि के सिवा कोई भाग नहीं होगा और उन्होंने जो कुछ किया, वह व्यर्थ हो जाएगा और वे जो कुछ कर रहे हैं, वह असत्य सिद्ध होने वाला है।)
[सूरा हूद : 15 -16]
और सहीह बुख़ारी में अबू हुरैरा रजियल्लाहू अन्हु से रिवायत है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :
"विनाश हो दीनार के गुलाम का, विनाश हो दिरहम के गुलाम का,
विनाश हो रेशमी एवं ऊनी कपड़े के गुलाम का,
विनाश हो रुएँदार कपड़े के गुलाम का।
यदि उसे कुछ दिया जाए तो प्रसन्न होता है और न दिया जाए तो क्रोधित हो जाता है। विनाश हो उस का और असफलता का सामना करे वह। जब उसे कोई कांटा चुभे तो निकाला न जा सके।
भला हो उस बंदे का जो पैरों में गर्द-गुबार लिए एवं बिखरे बालों के साथ अपने घोड़े की नकेल अल्लाह की राह में थामे रहे।
यदि उसे पहरेदारी की ज़िम्मेवारी दी जाए तो वह उसे पूरा करे,
और यदि उसे फ़ौज के पिछले भाग में रखा जाए तो वहीं रह जाए।
यदि अनुमति चाहे तो उसे अनुमति न मिले और यदि सिफ़ारिश करे तो उसकी सिफ़ारिश रद्द कर दी जाए।"
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :आख़िरत के कार्य के द्वारा दुनिया तलब करना भी शिर्क में दाखिल है।दूसरी :सूरा हूद की उपर्युक्त आयत की व्याख्या।तीसरी :एक मुसलमान को दीनार, दिरहम और रेशमी एवं ऊनी कपड़े का गुलाम कहा गया है।चौथी :तथा इसका मतलब यह बताया गया है कि यदि उसे दिया जाए तो राज़ी होता है और यदि न दिया जाए तो नाराज़ हो जाता है।पाँचवीं :आप का फ़रमानः "उसका विनाश हो और वह नाकाम व नामुराद हो।"छठीं :आप का फ़रमान : "और जब उसको काँटा लग जाए, तो निकाला न जा सके।"सातवीं :हदीस में उल्लिखित विशेषताएँ जिस मुजाहिद के अंदर हों, उसकी प्रशंसा की गई है।
आख़िरत के कार्य के द्वारा दुनिया तलब करना भी शिर्क में दाखिल है।
दूसरी :
सूरा हूद की उपर्युक्त आयत की व्याख्या।
तीसरी :
एक मुसलमान को दीनार, दिरहम और रेशमी एवं ऊनी कपड़े का गुलाम कहा गया है।
चौथी :
तथा इसका मतलब यह बताया गया है कि यदि उसे दिया जाए तो राज़ी होता है और यदि न दिया जाए तो नाराज़ हो जाता है।
पाँचवीं :
आप का फ़रमानः "उसका विनाश हो और वह नाकाम व नामुराद हो।"
छठीं :
आप का फ़रमान : "और जब उसको काँटा लग जाए, तो निकाला न जा सके।"
सातवीं :
हदीस में उल्लिखित विशेषताएँ जिस मुजाहिद के अंदर हों, उसकी प्रशंसा की गई है।
अध्याय : हलाल को हराम तथा हराम को हलाल करने के मामले में उलेमा तथा शासकों की बात मानना उन्हें अल्लाह के सिवा अपना रब बना लेना है
अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा कहते हैं :"कहीं तुमपर आसमान से पत्थर न बरसे। मैं कहता हूँ : अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फनमाया और तुम कहते हो : अबू बक्र तथा उमर ने कहा!!"और इमाम अहमद ने फरमाया :"मुझे ऐसे लोगों पर आश्चर्य होता है, जिनके पास हदीस की सनद और उसके सहीह होने की जानकारी होती है, फिर भी वे सुफ़यान के मत को ग्रहण करते हैं, जबकि उच्च एवं महान अल्लाह का फ़रमान है :{فَلْيَحْذَرِ الَّذِينَ يُخَالِفُونَ عَنْ أَمْرِهِ أَن تُصِيبَهُمْ فِتْنَةٌ أَوْ يُصِيبَهُمْ عَذَابٌ أَلِيمٌ} (जो लोग अल्लाह के रसूल के आदेश का उल्लंघन करते हैं और उससे विमुख होते हैं उन्हें डरना चाहिए कहीं वे किसी फितने के शिकार न हो जाएँ अथवा उन्हें कोई दुखदायी यातना न आ घेरे।)[सूरा नूर : 63]क्या तुम जानते हो फितना क्या है? फितना शिर्क है। जब इनसान नबी की कोई बात ठुकराए, तो हो सकता है कि उसके दिल में कोई टेढ़ापन आ जाए और वह बर्बाद हो जाए।)तथा अदी बिन हातिम रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित हैकि उन्हों ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को यह आयत पढ़ते सुना :{اتَّخَذُواْ أَحْبَارَهُمْ وَرُهْبَانَهُمْ أَرْبَابًا مِّن دُونِ اللهِ وَالمَسِيحَ ابنَ مَرْيمَ وَمَا أُمِرُوا إلاَّ لِيعبُدوا إلهًا وَاحِدًا لا إلهَ إلاَّ هُوَ سُبحَانَهُ عَمَّا يُشْرِكُونَ} (उन्होंने अपने विद्वानों और धर्माचारियों (संतों) को अल्लाह के सिवा रब बना लिया तथा मरयम के पुत्र मसीह को, जबकि उन्हें जो आदेश दिया गया था, वह इसके सिवा कुछ न था कि एक अल्लाह की इबादत (वंदना) करें। उसके सिवा कोई पूज्य नहीं है। वह उससे पवित्र है, जिसे यह लोग उसका साझी बना रहे हैं।)[सूरा तौबा : 31]वह कहते हैं कि तो मैंने कहा : हम उनकी पूजा तो नहीं करते!
"कहीं तुमपर आसमान से पत्थर न बरसे। मैं कहता हूँ : अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फनमाया और तुम कहते हो : अबू बक्र तथा उमर ने कहा!!"
और इमाम अहमद ने फरमाया :
"मुझे ऐसे लोगों पर आश्चर्य होता है, जिनके पास हदीस की सनद और उसके सहीह होने की जानकारी होती है, फिर भी वे सुफ़यान के मत को ग्रहण करते हैं, जबकि उच्च एवं महान अल्लाह का फ़रमान है :
{فَلْيَحْذَرِ الَّذِينَ يُخَالِفُونَ عَنْ أَمْرِهِ أَن تُصِيبَهُمْ فِتْنَةٌ أَوْ يُصِيبَهُمْ عَذَابٌ أَلِيمٌ} (जो लोग अल्लाह के रसूल के आदेश का उल्लंघन करते हैं और उससे विमुख होते हैं उन्हें डरना चाहिए कहीं वे किसी फितने के शिकार न हो जाएँ अथवा उन्हें कोई दुखदायी यातना न आ घेरे।)
[सूरा नूर : 63]
क्या तुम जानते हो फितना क्या है? फितना शिर्क है। जब इनसान नबी की कोई बात ठुकराए, तो हो सकता है कि उसके दिल में कोई टेढ़ापन आ जाए और वह बर्बाद हो जाए।)
तथा अदी बिन हातिम रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है
कि उन्हों ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को यह आयत पढ़ते सुना :
{اتَّخَذُواْ أَحْبَارَهُمْ وَرُهْبَانَهُمْ أَرْبَابًا مِّن دُونِ اللهِ وَالمَسِيحَ ابنَ مَرْيمَ وَمَا أُمِرُوا إلاَّ لِيعبُدوا إلهًا وَاحِدًا لا إلهَ إلاَّ هُوَ سُبحَانَهُ عَمَّا يُشْرِكُونَ} (उन्होंने अपने विद्वानों और धर्माचारियों (संतों) को अल्लाह के सिवा रब बना लिया तथा मरयम के पुत्र मसीह को, जबकि उन्हें जो आदेश दिया गया था, वह इसके सिवा कुछ न था कि एक अल्लाह की इबादत (वंदना) करें। उसके सिवा कोई पूज्य नहीं है। वह उससे पवित्र है, जिसे यह लोग उसका साझी बना रहे हैं।)
[सूरा तौबा : 31]
वह कहते हैं कि तो मैंने कहा : हम उनकी पूजा तो नहीं करते!
तो आपने फ़रमाया : "क्या ऐसा नहीं है कि तुम हलाल को हराम तथा हराम को हलाल करार देने के मामले में उनकी बात मान लेते थे?"
मैंने कहा : जी, ऐसा तो है।
आपने फरमाया : "यही उनकी पूजा है।"इस हदीस को अहमद और तिरमिज़ी ने रिवायत किया है और तिरमिज़ी ने इसे हसन कहा है।
इस हदीस को अहमद और तिरमिज़ी ने रिवायत किया है और तिरमिज़ी ने इसे हसन कहा है।
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :सूरा नूर की उपर्युक्त आयत की व्याख्या।दूसरी :सूरा बराअह (तौबा) की उपर्युक्त आयत की व्याख्या।तीसरी :उस इबादत का अर्थ समझाया गया है, जिसका अदी रज़ियल्लाहु अन्हु ने इनकार किया था।चौथी :अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा ने अबू बक्र तथा उमर का एवं इमाम अहमद ने सुफ़यान का उदाहरण पेश कर मसले को समझाने का प्रयास किया।पाँचवीं :परिस्थिति यहाँ तक पहुँच गई कि अधिकतर लोगों के निकट धर्माचारियों की पूजा ही उत्तम कार्य बन गई और उसे वलायत (अल्लाह का प्रिय होना) का नाम दे दिया गया, तथा विद्वानों की इबादत को इल्म और फ़िक्ह करार दे दिया गया। फिर हालत और बिगड़ी तो लोगों ने अल्लाह को छोड़ ऐसे लोगों की इबादत शुरू कर दी, जो सदाचारी भी नहीं होते और इबादत के उपर्युक्त दूसरे अर्थ के अनुसार जाहिलों की पूजा की जाने लगी।अध्याय : उच्च एवं महान अल्लाह के इस कथन का वर्णन :{أَلَمْ تَرَ إِلَى الَّذِينَ يَزْعُمُونَ أَنَّهُمْ آمَنوا بِمَا أُنزِلَ إِلَيْكَ وَمَا أُنزِلَ مِن قَبْلِكَ يُرِيدُونَ أَن يَتَحَاكَمُواْ إِلَى الطَّاغُوتِ وَقَدْ أُمِرُواْ أَن يَكْفُرُواْ بِهِ وَيُرِيدُ الشَّيْطَانُ أَن يُضِلَّهُمْ ضَلاَلاً بَعِيدًا ((हे नबी!) क्या आपने उनको नहीं जाना, जिनका यह दावा है कि जो कुछ आपपर अवतरित हुआ है तथा जो कुछ आपसे पहले अवतरित हुआ है, उनपर ईमान रखते हैं, किन्तु चाहते हैं कि अपने विवाद का निर्णय ताग़ूत के पास ले जाएँ, जबकि उन्हें आदेश दिया गया है कि उसे अस्वीकार कर दें? और शैतान चाहता है कि उन्हें सत्धर्म से बहुत दूर कर दे।وإذَا قيِلَ لهَم تَعَالَوا إِلَى مَا أَنزَلَ اللهُ وإِلَى الرَّسولِ رَأيتَ المُنَافِقِينَ يَصُدُّونَ عَنكَ صُدُودًا तथा जब उनसे कहा जाता है कि उस (क़ुरआन) की ओर आओ, जो अल्लाह ने उतारा है, तथा रसूल की (सुन्नत की) ओर, तो आप मुनाफ़िक़ों (द्विधावादियों) को देखते हैं कि वे आपसे मुँह फेर रहे हैं।فَكَيفَ إذا أصَابَتهُم مُّصِيبةٌ بما قَدَّمتْ أَيدِيهِمْ ثمَّ جَاءوكَ يَحْلِفونَ بِاللهِ إنْ أَرَدْنَا إلاَّ إحْسَانًا وتَوْفِيقًا} फिर यदि उनके अपने ही करतूतों के कारण उनपर कोई आपदा आ पड़े, तो फिर आपके पास आकर शपथ लेते हैं कि हमने तो केवल भलाई तथा (दोनों पक्षों में) मेल कराना चाहा था।)[सूरा निसा : 60 - 62]एक अन्य स्थान में उसका फ़रमान है :{وَإِذَا قِيلَ لَهُمْ لاَ تُفْسِدُواْ فِي الأَرْضِ قَالُواْ إِنَّمَا نَحْنُ مُصْلِحُونَ} (और जब उनसे कहा जाता है कि धरती में उपद्रव न करो, तो कहते हैं कि हम तो केवल सुधार करने वाले हैं।)[सूरा बक़रा : 11]एक और जगह पर वह कहता है :{وَلاَ تُفْسِدُواْ فِي الأَرْضِ بَعْدَ إِصْلاَحِهَا وادْعُوهُ خَوفًا وطَمَعًا إنَّ رَحمةَ اللهِ قَريبٌ مِّنَ المحسِنِينَ} (तथा धरती में उसके सुधार के पश्चात उपद्रव न करो और उसी से डरते हुए तथा आशा रखते हुए प्रार्थना करो। वास्तव में, अल्लाह की दया सदाचारियों के समीप है।)[सूरा आराफ़ : 56]एक अन्य स्थान में उसका फ़रमान है :{أَفَحُكمَ الْجَاهِلِيَّةِ يَبْغُونَ ومَنْ أحسَنُ مِنَ اللهِ حُكْمًا لِقَومٍ يُوقِنُونَ} (तो क्या वे जाहिलियत का निर्णय चाहते हैं? और अल्लाह से अच्छा निर्णय किसका हो सकता है, उनके लिए जो विश्वास रखते हैं?)[सूरा माइदा : 50]और अब्दुल्लाह बिन अम्र रज़ियल्लाहु अनहु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"तुममें से कोई उस समय तक मोमिन नहीं हो सकता, जब तक उसकी इच्छाएँ मेरी लाई हुई शरीयत की अधीन न हो जाएँ।"
सूरा नूर की उपर्युक्त आयत की व्याख्या।
दूसरी :
सूरा बराअह (तौबा) की उपर्युक्त आयत की व्याख्या।
तीसरी :
उस इबादत का अर्थ समझाया गया है, जिसका अदी रज़ियल्लाहु अन्हु ने इनकार किया था।
चौथी :
अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा ने अबू बक्र तथा उमर का एवं इमाम अहमद ने सुफ़यान का उदाहरण पेश कर मसले को समझाने का प्रयास किया।
पाँचवीं :
परिस्थिति यहाँ तक पहुँच गई कि अधिकतर लोगों के निकट धर्माचारियों की पूजा ही उत्तम कार्य बन गई और उसे वलायत (अल्लाह का प्रिय होना) का नाम दे दिया गया, तथा विद्वानों की इबादत को इल्म और फ़िक्ह करार दे दिया गया। फिर हालत और बिगड़ी तो लोगों ने अल्लाह को छोड़ ऐसे लोगों की इबादत शुरू कर दी, जो सदाचारी भी नहीं होते और इबादत के उपर्युक्त दूसरे अर्थ के अनुसार जाहिलों की पूजा की जाने लगी।
अध्याय : उच्च एवं महान अल्लाह के इस कथन का वर्णन :
{أَلَمْ تَرَ إِلَى الَّذِينَ يَزْعُمُونَ أَنَّهُمْ آمَنوا بِمَا أُنزِلَ إِلَيْكَ وَمَا أُنزِلَ مِن قَبْلِكَ يُرِيدُونَ أَن يَتَحَاكَمُواْ إِلَى الطَّاغُوتِ وَقَدْ أُمِرُواْ أَن يَكْفُرُواْ بِهِ وَيُرِيدُ الشَّيْطَانُ أَن يُضِلَّهُمْ ضَلاَلاً بَعِيدًا ((हे नबी!) क्या आपने उनको नहीं जाना, जिनका यह दावा है कि जो कुछ आपपर अवतरित हुआ है तथा जो कुछ आपसे पहले अवतरित हुआ है, उनपर ईमान रखते हैं, किन्तु चाहते हैं कि अपने विवाद का निर्णय ताग़ूत के पास ले जाएँ, जबकि उन्हें आदेश दिया गया है कि उसे अस्वीकार कर दें? और शैतान चाहता है कि उन्हें सत्धर्म से बहुत दूर कर दे।
وإذَا قيِلَ لهَم تَعَالَوا إِلَى مَا أَنزَلَ اللهُ وإِلَى الرَّسولِ رَأيتَ المُنَافِقِينَ يَصُدُّونَ عَنكَ صُدُودًا तथा जब उनसे कहा जाता है कि उस (क़ुरआन) की ओर आओ, जो अल्लाह ने उतारा है, तथा रसूल की (सुन्नत की) ओर, तो आप मुनाफ़िक़ों (द्विधावादियों) को देखते हैं कि वे आपसे मुँह फेर रहे हैं।
فَكَيفَ إذا أصَابَتهُم مُّصِيبةٌ بما قَدَّمتْ أَيدِيهِمْ ثمَّ جَاءوكَ يَحْلِفونَ بِاللهِ إنْ أَرَدْنَا إلاَّ إحْسَانًا وتَوْفِيقًا} फिर यदि उनके अपने ही करतूतों के कारण उनपर कोई आपदा आ पड़े, तो फिर आपके पास आकर शपथ लेते हैं कि हमने तो केवल भलाई तथा (दोनों पक्षों में) मेल कराना चाहा था।)
[सूरा निसा : 60 - 62]
एक अन्य स्थान में उसका फ़रमान है :
{وَإِذَا قِيلَ لَهُمْ لاَ تُفْسِدُواْ فِي الأَرْضِ قَالُواْ إِنَّمَا نَحْنُ مُصْلِحُونَ} (और जब उनसे कहा जाता है कि धरती में उपद्रव न करो, तो कहते हैं कि हम तो केवल सुधार करने वाले हैं।)
[सूरा बक़रा : 11]
एक और जगह पर वह कहता है :
{وَلاَ تُفْسِدُواْ فِي الأَرْضِ بَعْدَ إِصْلاَحِهَا وادْعُوهُ خَوفًا وطَمَعًا إنَّ رَحمةَ اللهِ قَريبٌ مِّنَ المحسِنِينَ} (तथा धरती में उसके सुधार के पश्चात उपद्रव न करो और उसी से डरते हुए तथा आशा रखते हुए प्रार्थना करो। वास्तव में, अल्लाह की दया सदाचारियों के समीप है।)
[सूरा आराफ़ : 56]
एक अन्य स्थान में उसका फ़रमान है :
{أَفَحُكمَ الْجَاهِلِيَّةِ يَبْغُونَ ومَنْ أحسَنُ مِنَ اللهِ حُكْمًا لِقَومٍ يُوقِنُونَ} (तो क्या वे जाहिलियत का निर्णय चाहते हैं? और अल्लाह से अच्छा निर्णय किसका हो सकता है, उनके लिए जो विश्वास रखते हैं?)
[सूरा माइदा : 50]
और अब्दुल्लाह बिन अम्र रज़ियल्लाहु अनहु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :
"तुममें से कोई उस समय तक मोमिन नहीं हो सकता, जब तक उसकी इच्छाएँ मेरी लाई हुई शरीयत की अधीन न हो जाएँ।"
इमाम नववी कहते हैं : "यह हदीस सही है, इसे हमारे लिए "अल-हुज्जह" नामी पुस्तक में सही सनद के साथ रिवायत किया गया है।"
और शाबी कहते हैं : "एक मुनाफ़िक़ तथा एक यहूदी के बीच विवाद हुआ।
तो यहूदी ने कहा : चलो मुहम्मद से फैसला करवाते हैं।
उसे पता था कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम रिश्वत नहीं लेते।
जबकि मुनाफ़िक़ ने कहा : चलो, यहूदियों से फैसला करवाते हैं, क्योंकि वह जानता था कि वे रिश्वत लेते हैं।
अंततः उन्होंने यह तय किया कि क़बीला जुहैना के एक काहिन के पास जाएँगे और उससे फैसला करवाएँगे, तो यह आयत नाज़िल हुई : {أَلَمْ تَرَ إِلَى الَّذِينَ يَزْعُمُونَ} (क्या आपने उन्हें नहीं देखा जो यह समझते हैं...।)[सूरा निसा : 60 - 62] पूरी आयत देखें।
[सूरा निसा : 60 - 62] पूरी आयत देखें।
और यह भी कहा गया है कि यह आयत उन दो लोगों के बारे में उतरी, जिनके बीच कोई झगड़ा हुआ, तो एक ने कहा : "मामले को लेकर नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास जाते हैं" और दूसरे ने कहा : "काब बिन अशरफ़ के पास चलते हैं।" फिर वे उमर रज़ियल्लाहु अन्हु के पास गए, तो एक ने उनके सामने पूरी घटना बयान की।
तो उमर रज़ियल्लाहु अन्हु ने उस व्यक्ति से प्रश्न किया, जो अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से राज़ी नहीं था : "क्या बात ऐसी ही है?"
जब उसने हाँ में उत्तर दिया, तो उन्होंने तलवार से उसका काम तमाम कर दिया।"
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :सूरा निसा की उपर्युक्त आयत की व्याख्या, जिससे ताग़ूत का अर्थ समझने में सहायता मिलती है।दूसरी :सूरा बक़रा की इस आयत की व्याख्या : {وَإِذَا قِيلَ لَهُمْ لاَ تُفْسِدُواْ فِي الأَرْضِ} (और जब उनसे कहा जाए कि धरती में उपद्रव न मचाओ।)तीसरी :सूरा आराफ़ की इस आयत की व्याख्या : {وَلاَ تُفْسِدُواْ فِي الأَرْضِ بَعْدَ إِصْلاَحِهَا} (और धरती में सुधार के पश्चात उपद्रव न मचाओ।)चौथी :अल्लाह के फ़रमान : {أَفَحُكْمَ الْجَاهِلِيَّةِ يَبْغُونَ} (तो क्या वे जाहिलियत का निर्णय चाहते हैं?) की व्याख्या।पाँचवीं :पहली आयत के उतरने के कारण संबंधित शाबी रहिमुहुल्लाह की बात।छठीं :सच्चे तथा झूठे ईमान की व्याख्या।सातवीं :उमर रज़ियल्लाहु अन्हु तथा उस मुनाफिक़ की घटना।आठवीं :जब तक आदमी की आकांक्षाएँ अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की लाई हुई शरीयत के अधीन न हो जाएँ, तब तक ईमान के शून्य होने की बात का उल्लेख।
सूरा निसा की उपर्युक्त आयत की व्याख्या, जिससे ताग़ूत का अर्थ समझने में सहायता मिलती है।
दूसरी :
सूरा बक़रा की इस आयत की व्याख्या : {وَإِذَا قِيلَ لَهُمْ لاَ تُفْسِدُواْ فِي الأَرْضِ} (और जब उनसे कहा जाए कि धरती में उपद्रव न मचाओ।)
तीसरी :
सूरा आराफ़ की इस आयत की व्याख्या : {وَلاَ تُفْسِدُواْ فِي الأَرْضِ بَعْدَ إِصْلاَحِهَا} (और धरती में सुधार के पश्चात उपद्रव न मचाओ।)
चौथी :
अल्लाह के फ़रमान : {أَفَحُكْمَ الْجَاهِلِيَّةِ يَبْغُونَ} (तो क्या वे जाहिलियत का निर्णय चाहते हैं?) की व्याख्या।
पाँचवीं :
पहली आयत के उतरने के कारण संबंधित शाबी रहिमुहुल्लाह की बात।
छठीं :
सच्चे तथा झूठे ईमान की व्याख्या।
सातवीं :
उमर रज़ियल्लाहु अन्हु तथा उस मुनाफिक़ की घटना।
आठवीं :
जब तक आदमी की आकांक्षाएँ अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की लाई हुई शरीयत के अधीन न हो जाएँ, तब तक ईमान के शून्य होने की बात का उल्लेख।
अध्याय : अल्लाह के किसी नाम और गुण का इनकार करना
उच्च एवं महान अल्लाह का फ़रमान है :{وَهُمْ يَكْفُرُونَ بِالرَّحْمَـنِ قُلْ هُوَ رَبي لا إلَهَ إلاَّ هُوَ عَلَيهِ تَوَكَّلتُ وإليهِ مَتَابِ} (और वे रहमान के साथ कुफ्र करते हैं। आप कह दें : वही मेरा रब है। उसके सिवा कोई सत्य पूज्य नहीं। मेरा भरोसा उसी पर है और उसी की ओर मुझे लौटना है।)[सूरा राद : 30]
{وَهُمْ يَكْفُرُونَ بِالرَّحْمَـنِ قُلْ هُوَ رَبي لا إلَهَ إلاَّ هُوَ عَلَيهِ تَوَكَّلتُ وإليهِ مَتَابِ} (और वे रहमान के साथ कुफ्र करते हैं। आप कह दें : वही मेरा रब है। उसके सिवा कोई सत्य पूज्य नहीं। मेरा भरोसा उसी पर है और उसी की ओर मुझे लौटना है।)
[सूरा राद : 30]
और सही हबुखारी में वर्णित है कि अली रज़ियल्लाहु अन्हु ने फरमाया : "लोगों से वह बात करो जो वे समझ सकें। क्या तुम चाहते हो कि अल्लाह और उसके रसूल को झुटलाया जाए?
तथा अब्दुर रज़्ज़ाक़ ने मामर से, उन्होंने इब्ने ताऊस से और उन्होंने अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा से रिवायत किया है कि उन्होंने एक व्यक्ति को देखा कि जैसे ही अल्लाह की विशेषताओं के बारे में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की एक हदीस सुनी, उसे एक अनुचित वस्तु समझते हुए काँप उठा। ऐसे में उन्होंने कहा : इन लोगों का भय कैसा है? क़ुरआन की मुह्कम (स्पष्ट अर्थ वाली) आयतओं से, यह शीतलता और स्वीकृति की चेतना पाते हैं, लेकिन क़ुरआन की मुताशाबेह (अस्पष्ट अर्थ वाली) आयतओं को सुनकर हलाक होते हैं!"
और जब क़ुरैश ने नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को रहमान का उल्लेख करते हुए सुना, तो उससे बिदकने लगे। जिसपर अल्लाह ने उनके बारे में यह आयत उतारी :{وَهُمْ يَكْفُرُونَ بِالرَّحْمَـنِ} (और वे रहमान के साथ कुफ्र करते हैं।)[सूरा राद : 30]
{وَهُمْ يَكْفُرُونَ بِالرَّحْمَـنِ} (और वे रहमान के साथ कुफ्र करते हैं।)
[सूरा राद : 30]
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :अल्लाह के किसी नाम और विशेषता के इनकार के कारण इनसान का ईमान खत्म हो जाता है।दूसरी :सूरा राद की उपर्युक्त आयत की व्याख्या।तीसरी :इनसान ऐसी बात नहीं करनी चाहिए, जो सुनने वाले की समझ में न आए।चौथी :इसका कारण यह बताया गया है कि यह अल्लाह तथा उसके रसूल को झुटलाने का सबब बन सकता है, चाहे इनकार करने वाले का यह इरादा न भी रहा हो।पाँचवीं :जो अल्लाह के किसी नाम अथवा गुण से बिदके, उसके बारे में अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा की उपर्युक्त बात तथा उनका यह कहना कि यह उसके विनाश का कारण है।अध्याय : उच्च एवं महान अल्लाह के इस कथन का वर्णन :{يَعْرِفُونَ نِعْمَةَ اللهِ ثُمَّ يُنكِرُونَهَا وأكثَرُهُمُ الكَافِرُونَ} (वे अल्लाह के उपकार पहचानते हैं, फिर उसका इनकार करते हैं और उनमें से अधिकतर लोग कृतघ्न हैं।)[सूरा नह्ल : 83]
अल्लाह के किसी नाम और विशेषता के इनकार के कारण इनसान का ईमान खत्म हो जाता है।
दूसरी :
सूरा राद की उपर्युक्त आयत की व्याख्या।
तीसरी :
इनसान ऐसी बात नहीं करनी चाहिए, जो सुनने वाले की समझ में न आए।
चौथी :
इसका कारण यह बताया गया है कि यह अल्लाह तथा उसके रसूल को झुटलाने का सबब बन सकता है, चाहे इनकार करने वाले का यह इरादा न भी रहा हो।
पाँचवीं :
जो अल्लाह के किसी नाम अथवा गुण से बिदके, उसके बारे में अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा की उपर्युक्त बात तथा उनका यह कहना कि यह उसके विनाश का कारण है।
अध्याय : उच्च एवं महान अल्लाह के इस कथन का वर्णन :
{يَعْرِفُونَ نِعْمَةَ اللهِ ثُمَّ يُنكِرُونَهَا وأكثَرُهُمُ الكَافِرُونَ} (वे अल्लाह के उपकार पहचानते हैं, फिर उसका इनकार करते हैं और उनमें से अधिकतर लोग कृतघ्न हैं।)
[सूरा नह्ल : 83]
इस संबंध में मुजाहिद का एक कथन है, जिसका अर्थ यह है : "इससे मुराद किसी आदमी का यह कहना है कि यह मेरा धन है, जो मुझे अपने बाप दादा से विरासत में मिला है।"
और औन बिन अब्दुल्लाह कहते हैं : "लोग कह देते हैं : यदि अमुक न होता तो ऐसा न हो पाता।"
और इब्ने क़ुतैबा कहते हैं : "लोग कहते हैं : यह हमारे पूज्यों की सिफ़ारिश से संभव हो पाया है।"
तथा शैखुल इस्लाम इब्ने तैमिया, ज़ैद बिन ख़ालिद रज़ियल्लाहु अन्हु की हदीस ज़िक्र करने के बाद, जो इस किताब में पीछे गुज़र चुकी है और जिसमें है कि अल्लाह तआला ने फ़रमाया : "मेरे कुछ बंदों ने मुझपर ईमान की अवस्था में सुबह की..." फ़रमाते हैं :
कुरआन व सुन्नत में इसका उल्लेख बहुत मिलता है कि जो व्यक्ति अल्लाह की नेमतों का संबंध किसी ग़ैर से जोड़ता है और अल्लाह का साझी ठहराता है, अल्लाह तआला उसकी निंदा करता है।
सलफ़ में से किसी ने कहा है : "जैसे लोग कहते हैं : हवा अच्छी थी और नाविक माहिर था आदि, जो कि बहुत-से लोगों की ज़बान पर चढ़ा हुआ है।"
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :अल्लाह की नेमत को पहचानने तथा उसका इनकार करने की तफ़सीर।दूसरी :इस बात की जानकारी कि इस तरह की बातें बहुत-से लोगों की ज़बान पर चढ़ी होती हैं।तीसरी :इस तरह की बातों को नेमत के इनकार का नाम दिया गया है।चौथी :दो विपरीत वस्तुओं को दिल में एकत्र होना।अध्याय : उच्च एवं महान अल्लाह के इस कथन का वर्णन :{فَلاَ تَجْعَلُواْ للهِ أَندَادًا وَأَنتُمْ تَعْلَمُونَ} (अतः, जानते हुए भी अल्लाह के साझी न बनाओ।)[सूरा बक़रा : 22]
अल्लाह की नेमत को पहचानने तथा उसका इनकार करने की तफ़सीर।
दूसरी :
इस बात की जानकारी कि इस तरह की बातें बहुत-से लोगों की ज़बान पर चढ़ी होती हैं।
तीसरी :
इस तरह की बातों को नेमत के इनकार का नाम दिया गया है।
चौथी :
दो विपरीत वस्तुओं को दिल में एकत्र होना।
अध्याय : उच्च एवं महान अल्लाह के इस कथन का वर्णन :
{فَلاَ تَجْعَلُواْ للهِ أَندَادًا وَأَنتُمْ تَعْلَمُونَ} (अतः, जानते हुए भी अल्लाह के साझी न बनाओ।)
[सूरा बक़रा : 22]
इस आयत की तफ़सीर में अब्दुल्लाह बिन अब्बास से वर्णित है : "अनदाद का अर्थ शिर्क है, जो कि रात के अंधेरे में किसी काले पत्थर पर चलने वाली चींटी की आहट से भी अधिक गुप्त होता है।
और वह यह है कि तुम कहो : अल्लाह की क़सम और ऐ अमुक (स्त्री) तुम्हारे जीवन की क़सम और मेरे जीवन की क़सम।
इसी तरह तुम कहो : यदि इसकी कुतिया न होती तो चोर आ जाते
और यदि घर पे बतख़ न होती तो घर में चोर घुुुसस आते।
इसी तरह कोई अपने साथी से कहे : जो अल्लाह चाहे और तुम चाहो।
इसी तरह कोई यह कहे : यदि अल्लाह और अमुक न होता। यहाँ अमुक को मत घुसाओ। यह सब शिर्क के अंतर्गत आता है।"इसे इब्ने अबू हातिम ने रिवायत किया है।और उमर बिन खत्ताब रज़ियल्लाहु अन्हु का वर्णन है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"जो अल्लाह के सिवा किसी और वस्तु की सौगंध खाता है, वह शिर्क करता है।"इसे तिरमिज़ी ने रिवायत किया है और हसन करार दिया है, जबकि हाकिम ने इसे सहीह करार दिया है।
इसे इब्ने अबू हातिम ने रिवायत किया है।
और उमर बिन खत्ताब रज़ियल्लाहु अन्हु का वर्णन है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :
"जो अल्लाह के सिवा किसी और वस्तु की सौगंध खाता है, वह शिर्क करता है।"
इसे तिरमिज़ी ने रिवायत किया है और हसन करार दिया है, जबकि हाकिम ने इसे सहीह करार दिया है।
और अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु कहते हैं : "मेरे निकट अल्लाह की झूठी कसम खाना किसी और की सच्ची कसम खाने से अधिक प्रिय है।"
और हुज़ैफा रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"तुम 'जो अल्लाह चाहे एवं अमुक चाहे' न कहो, बल्कि 'जो अल्लाह चाहे फिर अमुक चाहे' कहो।"इसे अबू दाऊद ने सही सनद के साथ रिवायत किया है।
"तुम 'जो अल्लाह चाहे एवं अमुक चाहे' न कहो, बल्कि 'जो अल्लाह चाहे फिर अमुक चाहे' कहो।"
इसे अबू दाऊद ने सही सनद के साथ रिवायत किया है।
और इबराहीम नख़ई से रिवायत है कि वह "मैं अल्लाह की तथा आपकी शरण में आता हूँ" कहना नापसंद करते थे। जबकि "अल्लाह की फिर आपकी शरण में आता हूँ" कहना जायज़ समझते थे। वह कहते थे : आदमी यह तो कह सकता है कि "यदि अल्लाह न होता, फिर अमुक व्यक्ति न होता", लेकिन यह नहीं कह सकता कि "यदि अल्लाह और अमुक व्यक्ति न होता।"
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :अल-अनदाद (साझियों) से संबंधित सूरा बक़रा की उपर्युक्त आयत की तफ़सीर।दूसरी :सहाबा किराम बड़े शिर्क के बारे में उतरने वाली आयतों की इस तरह तफ़सीर करते थे कि वह छोटे शिर्क को भी शामिल हो जतीं।तीसरी :अल्लाह के सिवा किसी और की क़सम खाना शिर्क है।चौथी :अल्लाह के सिवा किसी की सच्ची क़सम खाना अल्लाह की झूठी क़सम से अधिक बड़ा पाप है।पाँचवीं :वाव (और) तथा सुम्मा (फिर) शब्दों का अंतर।
अल-अनदाद (साझियों) से संबंधित सूरा बक़रा की उपर्युक्त आयत की तफ़सीर।
दूसरी :
सहाबा किराम बड़े शिर्क के बारे में उतरने वाली आयतों की इस तरह तफ़सीर करते थे कि वह छोटे शिर्क को भी शामिल हो जतीं।
तीसरी :
अल्लाह के सिवा किसी और की क़सम खाना शिर्क है।
चौथी :
अल्लाह के सिवा किसी की सच्ची क़सम खाना अल्लाह की झूठी क़सम से अधिक बड़ा पाप है।
पाँचवीं :
वाव (और) तथा सुम्मा (फिर) शब्दों का अंतर।
अध्याय : अल्लाह की क़सम पर बस न करने वाले के बारे में शरई दृष्टिकोण
अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"तुम अपने बाप-दादा की क़समें न खाओ। जो अल्लाह की क़सम खाए वह सच बोले। और जिसके लिए अल्लाह की क़सम खाई जाए वह राज़ी हो जाए। और जो राज़ी न हो उसका अल्लाह से संबंध नहीं।"इस हदीस को इब्ने माजा ने हसन सनद के साथ रिवायत किया है।
"तुम अपने बाप-दादा की क़समें न खाओ। जो अल्लाह की क़सम खाए वह सच बोले। और जिसके लिए अल्लाह की क़सम खाई जाए वह राज़ी हो जाए। और जो राज़ी न हो उसका अल्लाह से संबंध नहीं।"
इस हदीस को इब्ने माजा ने हसन सनद के साथ रिवायत किया है।
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली : बाप-दादा की क़सम खाने से रोकना।
दूसरी :जिस के लिए अल्लाह की क़सम खाई जाए, उसे यह आदेश कि वह संतुष्ट हो जाए।तीसरी :जो संतुष्ट न हो उस के लिए धमकी।
जिस के लिए अल्लाह की क़सम खाई जाए, उसे यह आदेश कि वह संतुष्ट हो जाए।
तीसरी :
जो संतुष्ट न हो उस के लिए धमकी।
अध्याय : "जो अल्लाह चाहे और तुम चाहो" कहने की मनाही
क़ुतैला से वर्णित है कि एक यहूदी नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास आया और कहने लगा : तुम लोग शिर्क करते हो।
तुम कहते हो : जो अल्लाह चाहे और तुम चाहो।
इसी तरह तुम कहते हो : काबे की क़सम।
अतः नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने सहाबा को आदेश दिया कि क़सम खाते समय कहें :काबा के रब की क़सम।साथ ही इसी तरह कहें : जो अल्लाह चाहे, फिर आप चाहें।"इसे नसई ने रिवायत किया है तथा सहीह भी करार दिया है।इसी तरह सुनन नसई ही में अब्दुल्लाह बिन अब्बास से वर्णित है कि एक व्यक्ति ने नबी नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से कहा : जो अल्लाह चाहे और आप चाहें, तो आपने फरमाया :"क्या तुमने मुझे अल्लाह का साझी ठहरा दिया? केवल 'जो अल्लाह चाहे' कहो।"
काबा के रब की क़सम।
साथ ही इसी तरह कहें : जो अल्लाह चाहे, फिर आप चाहें।"
इसे नसई ने रिवायत किया है तथा सहीह भी करार दिया है।
इसी तरह सुनन नसई ही में अब्दुल्लाह बिन अब्बास से वर्णित है कि एक व्यक्ति ने नबी नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से कहा : जो अल्लाह चाहे और आप चाहें, तो आपने फरमाया :
"क्या तुमने मुझे अल्लाह का साझी ठहरा दिया? केवल 'जो अल्लाह चाहे' कहो।"
तथा इब्ने माजा में आयशा रज़ियल्लाहु अन्हा के माँ जाया भाई तुफ़ैल से वर्णित है, वह कहते हैं : "मैंने देखा कि जैसे कि मैं यहूदियों के एक दल के पास आया।
और उनसे कहा : यदि तुम "उज़ैर अल्लाह के बेटे हैं" न कहते तो तुम बड़े अच्छे लोग होते।
तो उन्होंने उत्तर दिया : और यदि तुम "जो अल्लाह तथा मुहम्मद चाहें" न कहते, तो तुम भी बड़े अच्छे लोग होते।
फिर मैं कुछ ईसाइयों के पास से गुज़रा और उनसे कहा : यदि तुम ईसा अलैहिस्सलाम को अल्लाह का बेटे न कहते, तो तुम बड़े अच्छे लोग होते।
तो उन्होंने उत्तर दिया : और यदि तुम :जो अल्लाह तथा मुहम्मद चाहें" न कहते, तो तुम भी बड़े अच्छे लोग होते।
जब सुबह सोकर उठा, तो मैंने कुछ लोगों को इसके बारे में बताया।
फिर नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास आकर उन्हे इससे अवगत किया।
आपने पूछा : "क्या तुमने किसी को यह घटना सुनाई है?"
मैंने कहा : जी।
तो आपने अल्लाह की प्रशंसा एवं स्तुति करने के बाद फरमाया :
तुफैल ने एक सपना देखा है, जिसके बारे में कुछ लोगों को सूचित भी कर दिया है।
दरअसल, तुम लोग एक बात कहते हो, जिससे अमुक अमुक कारणों से मैं तुम्हें रोक नहीं रहा था।
सो अब 'जो अल्लाह चाहे एवं मुहम्मद चाहे' न कहो, बल्कि केवल 'जो अल्लाह चाहे' कहो।"
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :यहूदियों के पास छोटे शिर्क की भी जानकारी थी।दूसरी :इनसान की इच्छा हो तो वह सत्य एवं असत्य को मालूम कर सकता है।तीसरी :आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने एक सहाबी को केवल "जो अल्लाह चाहे और आप चाहें" कहने पर कह दिया : "क्या तुमने मुझे अल्लाह का साझी बना दिया?" तो उसके बारे में आप क्या कहते, जो कहता है :
यहूदियों के पास छोटे शिर्क की भी जानकारी थी।
दूसरी :
इनसान की इच्छा हो तो वह सत्य एवं असत्य को मालूम कर सकता है।
तीसरी :
आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने एक सहाबी को केवल "जो अल्लाह चाहे और आप चाहें" कहने पर कह दिया : "क्या तुमने मुझे अल्लाह का साझी बना दिया?" तो उसके बारे में आप क्या कहते, जो कहता है :
(ऐ नबी) आपके सिवा मैं किस की शरण लूँ? साथ ही इसके बद की दो पंक्तियाँ?
चौथी :"जो अल्लाह चाहे और आप चाहें" बड़ा शिर्क नहीं है, क्योंकि आपने फरमाया : "अमुक-अमुक कारणों से मैं तुम्हें रोकता नहीं था।"पाँचवीं :अच्छा सपना वह्य का एक भाग है।छठीं :अच्छे सपने कभी-कभी कुछ अहकाम के आधार बन जाते हैं।
"जो अल्लाह चाहे और आप चाहें" बड़ा शिर्क नहीं है, क्योंकि आपने फरमाया : "अमुक-अमुक कारणों से मैं तुम्हें रोकता नहीं था।"
पाँचवीं :
अच्छा सपना वह्य का एक भाग है।
छठीं :
अच्छे सपने कभी-कभी कुछ अहकाम के आधार बन जाते हैं।
अध्याय : ज़माने को बुरा-भला कहना दरअसल अल्लाह को कष्ट देना है
उच्च एवं महान अल्लाह का फ़रमान है :{وَقَالُواْ مَا هِيَ إِلاَّ حَيَاتُنَا الدُّنْيَا نَمُوتُ وَنَحْيَا وَمَا يُهْلِكُنَا إِلاَّ الدَّهْرُ وَمَا لهُم بِذَلِكَ مِنْ عِلْمٍ إنْ هُمْ إلاَّ يَظُنُّونَ} (तथा उन्होंने कहा कि हमारा जीवन तो बस यही सांसारिक जीवन है। हम यहीं मरते और जीते हैं और हमारा विनाश युग (काल) ही करता है। दरअसल वे इसके बारे में कुछ जानते ही नहीं। वे केवल अनुमान की बात कर रहे हैं।)[सूरा जासिया : 24]और सहीह बुख़ारी एवं सहीह मुस्लिम में अबु हुरैरा रजियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया :"अल्लाह तआला ने फ़रमाया : आदम की संतान मुझे कष्ट देती है। वह ज़माने को गाली देती है। जबकि मैं ही ज़माने (का मालिक) हूँ। मैं ही रात और दिन को पलटता हूँ।"
{وَقَالُواْ مَا هِيَ إِلاَّ حَيَاتُنَا الدُّنْيَا نَمُوتُ وَنَحْيَا وَمَا يُهْلِكُنَا إِلاَّ الدَّهْرُ وَمَا لهُم بِذَلِكَ مِنْ عِلْمٍ إنْ هُمْ إلاَّ يَظُنُّونَ} (तथा उन्होंने कहा कि हमारा जीवन तो बस यही सांसारिक जीवन है। हम यहीं मरते और जीते हैं और हमारा विनाश युग (काल) ही करता है। दरअसल वे इसके बारे में कुछ जानते ही नहीं। वे केवल अनुमान की बात कर रहे हैं।)
[सूरा जासिया : 24]
और सहीह बुख़ारी एवं सहीह मुस्लिम में अबु हुरैरा रजियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया :
"अल्लाह तआला ने फ़रमाया : आदम की संतान मुझे कष्ट देती है। वह ज़माने को गाली देती है। जबकि मैं ही ज़माने (का मालिक) हूँ। मैं ही रात और दिन को पलटता हूँ।"
एक रिवायत में है : "काल को बुरा-भला न कहो; क्योंकि अल्लाह ही काल (का मालिक) है।"
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :ज़माने को गाली देने की मनाही।दूसरी :इसे अल्लाह को तकलीफ़ पहुँचाने का नाम दिया गया है।तीसरी :आप के कथन : "अल्लाह ही ज़माना (का मालिक) है।" पर विचार करना चाहिए।चौथी :कभी-कभार मनुष्य अल्ललाह को गाली देने वाला हो जाता है, यद्यपि उसने इसका इरादा न किया हो।
ज़माने को गाली देने की मनाही।
दूसरी :
इसे अल्लाह को तकलीफ़ पहुँचाने का नाम दिया गया है।
तीसरी :
आप के कथन : "अल्लाह ही ज़माना (का मालिक) है।" पर विचार करना चाहिए।
चौथी :
कभी-कभार मनुष्य अल्ललाह को गाली देने वाला हो जाता है, यद्यपि उसने इसका इरादा न किया हो।
अध्याय : काज़ी अल-क़ुज़ात (जजों का जज) आदि उपाधियों के संबंध में शरई दृष्टिकोण
सहीह बुखारी तथा सहीह मुस्लिम में अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"अल्लाह के निकट सबसे घटिया और तुच्छ व्यक्ति वह है, जो मलिकुल अमलाक (अर्थाथ : शहनशाह) नाम रख ले। वास्तविक बादशाह तो बस अल्लाह है।"
"अल्लाह के निकट सबसे घटिया और तुच्छ व्यक्ति वह है, जो मलिकुल अमलाक (अर्थाथ : शहनशाह) नाम रख ले। वास्तविक बादशाह तो बस अल्लाह है।"
सुफयान कहते हैं : "जैसे शाहनशाह।"
और एक रिवायत में है : 'क़यामत के दिन अल्लाह के निकट सबसे बुरा इनसान एवं क्रोध का पात्र व्यक्ति।"
आपके शब्द "أَخْنَعُ" का अर्थ है सबसे घटिया।
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :"मलिकुल अमलाक" (शहनशाह) उपाधि धारण करने की मनाही।दूसरी :इस मनाही के अंदर इस तरह की अर्थों वाली सारी उपाधियाँ शामिल हैं।तीसरी :इस तरह की उपाधियों के मामले में जो सख़्ती बरती गई है, उसपर ध्यान देने की आवश्यकता है, जबकि उन्हें बोलते समय दिल में उस तरह का अर्थ होता नहीं है।चौथी :इस बात को भी समझने की आवश्यकता है कि यह मनाही दरअसल पवित्र एवं महान अल्लाह के सम्मान में है।
"मलिकुल अमलाक" (शहनशाह) उपाधि धारण करने की मनाही।
दूसरी :
इस मनाही के अंदर इस तरह की अर्थों वाली सारी उपाधियाँ शामिल हैं।
तीसरी :
इस तरह की उपाधियों के मामले में जो सख़्ती बरती गई है, उसपर ध्यान देने की आवश्यकता है, जबकि उन्हें बोलते समय दिल में उस तरह का अर्थ होता नहीं है।
चौथी :
इस बात को भी समझने की आवश्यकता है कि यह मनाही दरअसल पवित्र एवं महान अल्लाह के सम्मान में है।
अध्याय : उच्च एवं महान अल्लाह के नामों का सम्मान और इसके कारण नाम में परिवर्तन
अबू शुरैह से वर्णित है कि उनकी कुनयत (जैसे अमुक के पिता) अबुल-हकम (हकम के पिता) थी, तो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने उनसे कहा :"अल-हकम (फैसला करने वाला) केवल अल्लाह है और सारे फैसले भी वही करता है।"
"अल-हकम (फैसला करने वाला) केवल अल्लाह है और सारे फैसले भी वही करता है।"
तो उन्होंने कहा : मेरी क़ौम के लोगों में जब कोई झगड़ा होता है, तो वे मेरे पास आते हैं और मैं उनके बीच फैसला कर देता हूँ और लोग संतुष्ट हो जाते हैं।
आपने कहा : "यह तो बड़ी अच्छी बात है। अच्छा यह बताओ कि तुम्हारे बच्चों के क्या नाम हैं?"
मैंने कहा : शुरैह, मुस्लिम और अब्दुल्लाह।
आपने पूछा : "सबसे बड़ा कौन है?"
मैंने कहा : शुरैह।
तो आपने फ़रमाया : "तो तुम अबू शुरैह हो।" इस हदीस को अबू दाऊद आदि ने रिवायत किया है।
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :अल्लाह के नामों तथा गुणों का सम्मान करना, यद्यपि उनके अर्थ का इरादा न हो ।दूसरी :अल्लाह के नामों एवं गुणों में नाम में परिवर्तन करना।तीसरी :कुनयत के लिए बड़े बेटे का चयन करना।
अल्लाह के नामों तथा गुणों का सम्मान करना, यद्यपि उनके अर्थ का इरादा न हो ।
दूसरी :
अल्लाह के नामों एवं गुणों में नाम में परिवर्तन करना।
तीसरी :
कुनयत के लिए बड़े बेटे का चयन करना।
अध्याय : अल्लाह, क़ुरआन या रसूल के ज़िक्र वाली किसी चीज़ का उपहास करना
उच्च एवं महान अल्लाह का फ़रमान है :{وَلَئِن سَأَلْتَهُمْ لَيَقُولُنَّ إِنَّمَا كُنَّا نَخُوضُ وَنَلْعَبُ قُلْ أبِاللهِ وآيَاتِهِ ورسُولِهِ كُنْتُم تَستَهْزِئونَ} (और यदि आप उनसे प्रश्न करें, तो वे अवश्य कह देंगे कि हम तो यूँ ही बातें तथा उपहास कर रहे थे। आप कह दें कि क्या अल्लाह, उसकी आयतों और उसके रसूल के ही साथ उपहास कर रहे थे?)[सूरा तौबा : 65]
{وَلَئِن سَأَلْتَهُمْ لَيَقُولُنَّ إِنَّمَا كُنَّا نَخُوضُ وَنَلْعَبُ قُلْ أبِاللهِ وآيَاتِهِ ورسُولِهِ كُنْتُم تَستَهْزِئونَ} (और यदि आप उनसे प्रश्न करें, तो वे अवश्य कह देंगे कि हम तो यूँ ही बातें तथा उपहास कर रहे थे। आप कह दें कि क्या अल्लाह, उसकी आयतों और उसके रसूल के ही साथ उपहास कर रहे थे?)
[सूरा तौबा : 65]
अब्दुल्लाह बिन उमर, मुहम्मद बिन काब, ज़ैद बिन असलम और क़तादा से वर्णित है। इन सबकी हदीसें आपस में मिली हुई हैं और इन सबका कहना है कि एक व्यक्ति ने तबूक युद्ध के दौरान कहा : हमने अपने इन क़ारियों (कुरआन पढ़ने वाले तथा उसका ज्ञान रखने वाले) की तरह पेट का पुजारी, अधिक झूठे बोलने वाला एवं जंग के समय ज़्यादा डरपोक किसी को भी नही देखा। दरअसल उसके निशाने पर अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम एवं आपके क़ारी एवं विद्वान सहाबा थे। यह सुन औफ़ बिन मालिक ने उससे कहा : तुम गलत बोल रहे हो। सच्चाई यह है कि तुम मुनाफ़िक़ हो। मैं अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को तेरे बारे में ज़रूर बताऊँगा।
जब औफ़ अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास पहुँचे, तो देखा कि उनके पहुँचने से पहले ही उस संबंध में कुरआन नाज़िल हो चुका है।
इतने में वह व्यक्ति आपके पास आ पहुँचा। उस समय आप अपनी सवारी पर सवार होकर रवाना हो चुके थे।
वह कहने लगा : ऐ अल्लाह के रसूल, हम तो केवल सफर की कठिनाई को भुलाने के लिए काफिले वालों में होने वाली साधारण बातें कर रहे थे। अब्दुल्लाह बिन उमर कहते हैं : ऐसा लग रहा है कि मैं आज भी उस व्यक्ति को देख रहा हूँ। वह नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की ऊँटनी के कजावे की रस्सी के साथ चिमटा हुआ है, पत्थर उसके पैरों को ज़ख़्मी किए दे रहे हैं, वह कह रहा है : हम तो महज़ बातचीत और दिललगी कर रहे थे और अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम उससे कह रहे हैं :{أَبِاللهِ وَآيَاتِهِ وَرَسُولِهِ كُنتُمْ تَسْتَهْزِئُونَ لا تَعْتَذِرُوا قَدْ كَفَرتُمْ بعْدَ إيمَانِكُم} (क्या तुम अल्लाह और उसकी आयतों और उसके रसूल से ही उपहास करते हो? बहाने मत बनाओ। दरअसल तुम ईमान लाकर फिर काफ़िर हो गए हो।)आप न उसकी बात पर ध्यान दे रहे हैं और न उससे अधिक कुछ कह रहे हैं।"
{أَبِاللهِ وَآيَاتِهِ وَرَسُولِهِ كُنتُمْ تَسْتَهْزِئُونَ لا تَعْتَذِرُوا قَدْ كَفَرتُمْ بعْدَ إيمَانِكُم} (क्या तुम अल्लाह और उसकी आयतों और उसके रसूल से ही उपहास करते हो? बहाने मत बनाओ। दरअसल तुम ईमान लाकर फिर काफ़िर हो गए हो।)
आप न उसकी बात पर ध्यान दे रहे हैं और न उससे अधिक कुछ कह रहे हैं।"
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली : इससे एक महत्वपूर्ण मसला यह निकलता है कि जो अल्लाह, कुरआन तथा रसूल का उपहास करेगा, वह काफ़िर हो जाएगा।
दूसरी : उस आयत की यही सटीक व्याख्या है कि जो भी ऐसा करेगा वह काफिर होगा।
तीसरी : चुगली करने और अल्लाह एवं उसके रसूल का हिताकांक्षी होने में अंतर है।
चौथी : क्षमा, जो अल्लाह को पसंद है, एवं अल्लाह के दुश्मनों के साथ सख़्ती करने में अंतर है।
पाँचवीं : किसी गलत काम को सही ठहराने के लिए पेश किए जाने वाले कुछ कारण ऐसे भी होते हैं कि उन्हें ग्रहण नहीं किया जाना चाहिए।
अध्याय : उच्च एवं अल्लाह के इस कथन का वर्णन :{وَلَئِنْ أَذَقْنَاهُ رَحْمَةً مِّنَّا مِن بَعْدِ ضَرَّاءَ مَسَّتْهُ لَيَقُولَنَّ هَـذَا لِي وَمَا أظُنُّ السَّاعةَ قَائِمَةً ولَئِن رُجِعتُ إلى رَبي إنَّ لي عِندَهُ لَلحُسنَى فَلَنُنَبِّئنَّ الَّذينَ كَفَرُوا بمَا عَمِلُوا ولَنُذِيقَنَّهُم مِن عَذَابٍ غَلِيظٍ} (और यदि हम उसे चखा दें अपनी दया, दुःख के पश्चात्, जो उसे पहुँचा हो, तो अवश्य कह देता है कि मैं तो इसके योग्य ही था और मैं नहीं समझता कि क़यामत होनी है और यदि मैं पुनः अपने पालनहार की ओर गया, तो निश्चय ही मेरे लिए उसके पास भलाई होगी। तो हम अवश्य ही काफ़िरों को उनके कर्मों से अवगत कर देंगे तथा उन्हें अवश्य ही घोर यातना चखाएँगे।)[सूरा फ़ुस्सिलत : 50]
{وَلَئِنْ أَذَقْنَاهُ رَحْمَةً مِّنَّا مِن بَعْدِ ضَرَّاءَ مَسَّتْهُ لَيَقُولَنَّ هَـذَا لِي وَمَا أظُنُّ السَّاعةَ قَائِمَةً ولَئِن رُجِعتُ إلى رَبي إنَّ لي عِندَهُ لَلحُسنَى فَلَنُنَبِّئنَّ الَّذينَ كَفَرُوا بمَا عَمِلُوا ولَنُذِيقَنَّهُم مِن عَذَابٍ غَلِيظٍ} (और यदि हम उसे चखा दें अपनी दया, दुःख के पश्चात्, जो उसे पहुँचा हो, तो अवश्य कह देता है कि मैं तो इसके योग्य ही था और मैं नहीं समझता कि क़यामत होनी है और यदि मैं पुनः अपने पालनहार की ओर गया, तो निश्चय ही मेरे लिए उसके पास भलाई होगी। तो हम अवश्य ही काफ़िरों को उनके कर्मों से अवगत कर देंगे तथा उन्हें अवश्य ही घोर यातना चखाएँगे।)
[सूरा फ़ुस्सिलत : 50]
मुजाहिद कहते हैं : "यानी वह कहे कि यह मुझे अपने कर्म की बुनियाद पर मिला है और मेरा इसपर अधिकार है।"
और अब्दुल्लाह बिन अब्बास कहते हैं : "वह, यह कहना चाहता है कि यह सब कुछ मेरे काम और मेरी वजह से।"
एक अन्य स्थान में उसका फरमान है :{قال إِنَّمَا أُوتِيتُهُ عَلَى عِلْمٍ عِندِي} (उसने कहा : मुझे तो यह उस ज्ञान के आधार पर मिला है, जो मेरे पास है।)क़तादा कहते हैं : "मेरे पास धन कमाने का जो ज्ञान है, यह उसी की बुनियाद पर मिला है।"
{قال إِنَّمَا أُوتِيتُهُ عَلَى عِلْمٍ عِندِي} (उसने कहा : मुझे तो यह उस ज्ञान के आधार पर मिला है, जो मेरे पास है।)
क़तादा कहते हैं : "मेरे पास धन कमाने का जो ज्ञान है, यह उसी की बुनियाद पर मिला है।"
जबकि अन्य विद्वानों ने कहा है : "यह सब कुछ मुझे इस आधार पर मिला है, क्योंकि अल्लाह जानता है कि मैं इसका योग्य हूँ।"
और यही मुजाहिद के इस कथन के मायने हैं कि : "यह मुझे मेरे सम्मान के आधार पर मिला है।"
तथा अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि उन्होंने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को कहते हुए सुना है :कि बनी इसराईल में तीन व्यक्ति थे : सफ़ेद दाग वाला, गंजा और अंधा।
कि बनी इसराईल में तीन व्यक्ति थे : सफ़ेद दाग वाला, गंजा और अंधा।
अल्लाह ने उनकी परीक्षा के लिए उनके पास एक फरिश्ता भेजा।
फरिश्ता सफ़ेद दाग वाले के पास आया और उससे पूछा : तुम्हें कौन-सी चीज़ सबसे अधिक पसंद है?
उसने कहा : अच्छा रंग एवं सुंदर त्वचा और जिस कारण मुझसे लोग घृणा करते हैं वह दूर हो जाए।
आप फ़रमाते हैं : तो फ़रिश्ते ने उसके शरीर पर हाथ फेरा और उसकी बीमारी दूर हो गई। अतः उसे अच्छा रंग तथा सुंदर त्वचा प्रदान किया गया।
फिर फरिश्ते ने पूछा : कौन-सा धन तुम्हारे निकट सबसे अधिक प्रिय है?
उसने कहा : ऊँट अथवा गाय। इस हदीस के वर्णनकर्ता इसहाक़ को शक है कि ऊँट कहा कहा था या गया। अतः उसे एक दस मास की गाभिन ऊँटनी दे दी गई।
साथ ही फ़रिश्ते ने कहा : अल्लाह इसमें तुम्हें बरकत दे।
आप फ़रमाते हैं : फिर वह फरिश्ता गंजा के पास पहुँचा।
और उससे पूछा : तुम्हें कौन-सी चीज़ सबसे अधिक पसंद है?
गंजे ने कहा : अच्छे बाल और यह कि जिस बीमारी के कारण लोग मुझसे घृणा करते हैं वह दूर हो जाए।
अतः, फरिश्ते ने उसके शरीर पर हाथ फेरा और उसकी बीमारी दूर हो गई। फिर उसे अच्छे बाल प्राप्त हुए।
उसके बाद फरिश्ते ने उससे पूछा : कौन-सा धन तुम्हारे निकट सबसे अधिक प्रिय है?
कहा : गाय अथवा ऊँट। अतः उसे एक गाभिन गाय दे दी गई।
फिर फ़रिश्ते ने कहा : अल्लाह इसमें तुम्हें बरकत दे।
फिर फरिश्ता अंधे के पास आया
और उससे पूछा : तुम्हें कौन-सी चीज़ सबसे अधिक पसंद है?
उसने कहा : मुझे सबसे ज़्यादा यह पसंद है कि अल्लाह मुझे मेरी आंखें लौटा दे और मैं लोगों को देख सकूँ। फरिश्ते ने उसपर हाथ फेरा, तो अल्लाह ने उसे आंखों की रौशनी वापस कर दी।
फिर फरिश्ते ने पूछा : कौन-सा धन तुम्हारे निकट सबसे अधिक प्रिय है?
उसने कहा : बकरी।
अतः उसे एक बच्चा देने वाली बकरी दे दी गई। फिर गाय, ऊँट तथा बकरी, इन सब के बहुत सारे बच्चे हुए।
अब एक के पास वादी भर ऊँट, दूसरे के पास वादी भर गाय एवं तीसरे के पास वादी भर बकरियाँ थीं।
आप फ़रमाते हैं : फिर वह फरिश्ता अपने (पहली बार वाले) रूप और पहनावे में सफ़ेद दाग वाले के पास आया और कहने लगा कि मैं एक निर्धन व्यक्ति हूँ, यात्रा में हूँ और मेरे सारे साधन तथा सामान समाप्त हो चुके हैं। ऐसे में, यदि अल्लाह फिर आपकी मदद का सहारा न मिला, तो अब मैं घर नहीं पहुँच सकता।
मैं आपसे उस अल्लाह का वास्ता देकर अपना सफ़र पूरा करने के लिए एक ऊँट माँगता हूँ, जिसने आपको अच्छा रंग, सुंदर त्वचा एवं धन प्रदान किया है।
लेकिन उसने कहा : मुझपर बहुत-से अधिकार हैं।
तो फरिश्ते ने उससे कहा : लगता है मैं तुम्हें जानता हूँ। तुम वही सफ़ेद दाग़ वाले हो ना, जिससे लोग घृणा करते थे और वही निर्धन हो ना, जिसे अल्लाह ने (अपनी कृपा से) धनवान बनाया?
उसने उत्तर दिया : यह धन मुझे मेरे बाप-दादा से विरासत में मिला है।
फरिश्ते ने कहा : यदि तुम झूट बोल रहे हो तो अल्लाह तुम्हें वैसा ही बना दे जैसे तुम पहले थे।
आप फ़रमाते हैं : फिर वह फरिश्ता गंजे के पास अपने (पहली बार वाले) रूप और पहनावे में आया।
दोनों के बीच वही वार्तालाप हुई जो उसके और सफ़ेद दाग वाले के बीच हुई थी।
अतः, फरिश्ते ने उससे कहा : यदि तुम झूट बोल रहे हो, तो अल्लाह तुम्हें वैसा ही बना दे, जैसे तुम पहले थे।
आप फ़रमाते हैं : फिर वह फरिश्ता अपने (पहली बार वाले) रूप और पहनावे में अंधे के पास आया और कहने लगा कि मैं एक गरीब इनसान हूँ, मुसाफिर हूँ, मेरे सफ़र के साधन समाप्त हो गए हैं और यदि अल्लाह फिर आप मेरी मदद न करें, तो अब मैं घर नहीं पहुँच सकता।
मैं आपसे उस अल्लाह का वास्ता देकर अपना सफ़र पूरा करने के लिए एक बकरी माँगता हूँ, जिसने आपको आँखें वापस कर दीं।
यह सुन उसने कहा : मैं अंधा था, अल्लाह ने मुझे आंखें लौटा दीं। अतः तुम्हें जो चाहिए ले लो और जो चाहो छोड़ दो। अल्लाह की क़सम, आज जो कुछ भी तुम ले लो, मैं तुमपर उसे वापस करने का बोझ नहीं डालूँगा।
इसपर फरिश्ते ने कहा : तुम अपना धन अपने पास ही रखो। बस तुम सब की परीक्षा हुई। अल्लाह तुमसे प्रसन्न हुआ और तुम्हें दोनों साथियों से नाराज़ हुआ।" इसे इमाम बुखारी तथा इमाम मुस्लिम ने रिवायत किया है।
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली : उपर्युक्त आयत की तफ़सीर।
दूसरी : क़ुरआन के शब्द : {لَيَقُولَنَّ هَـذَا لِي} (तो अवश्य कह देता है कि मैं तो इसके योग्य ही था।) का अर्थ बताया गया है।
तीसरी : क़ुरआन के शब्द : {إِنَّمَا أُوتِيتُهُ عَلَى عِلْمٍ عندي} (यह तो मुझे उस इल्म की बुनियाद पर मिला है जो मेरे पास है।) का अर्थ बताया गया है।
चौथी : उपर्युक्त घटना में बहुत सारी शिक्षा की बातें हैं।
अध्याय : उच्च एवं महान अल्लाह के इस कथन का वर्नण :{فَلَمَّا آتَاهُمَا صَالِحًا جَعَلاَ لَهُ شُرَكَاءَ فِيمَا آتَاهُمَا فَتَعَالى اللهُ عَمَّا يُشْرِكُونَ} (और जब उन दोनों को (अल्लाह ने) एक स्वस्थ बच्चा प्रदान कर दिया, तो अल्लाह ने जो प्रदान किया, उसमें दूसरों को उसका साझी बनाने लगे। तो अल्लाह इनके शिर्क की बातों से बहुत ऊँचा है।)[सूरा आराफ़ : 190]इब्ने हज़्म कहते हैं :"अब्दे अम्र (अम्र के गुलाम) और अब्दुल-काबा (काबा के गुलाम) आदि ऐसे नाम, जिनमें व्यक्ति को अल्लाह के सिवा किसी और का गुलाम (बंदा) करार दिया गया हो, के हराम होने पर समस्त उलेमा एकमत हैं। परन्तु अब्दुल-मुत्तलिब इन नामों के अंतर्गत नहीं आता।"
{فَلَمَّا آتَاهُمَا صَالِحًا جَعَلاَ لَهُ شُرَكَاءَ فِيمَا آتَاهُمَا فَتَعَالى اللهُ عَمَّا يُشْرِكُونَ} (और जब उन दोनों को (अल्लाह ने) एक स्वस्थ बच्चा प्रदान कर दिया, तो अल्लाह ने जो प्रदान किया, उसमें दूसरों को उसका साझी बनाने लगे। तो अल्लाह इनके शिर्क की बातों से बहुत ऊँचा है।)
[सूरा आराफ़ : 190]
इब्ने हज़्म कहते हैं :
"अब्दे अम्र (अम्र के गुलाम) और अब्दुल-काबा (काबा के गुलाम) आदि ऐसे नाम, जिनमें व्यक्ति को अल्लाह के सिवा किसी और का गुलाम (बंदा) करार दिया गया हो, के हराम होने पर समस्त उलेमा एकमत हैं। परन्तु अब्दुल-मुत्तलिब इन नामों के अंतर्गत नहीं आता।"
इस आयत के बारे में अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है, वह कहते हैं : "जब आदम ने हव्वा के साथ संभोग किया, तो उनका गर्भ ठहर गया। तब इबलीस उनके पास पहुँचा और कहने लगा : मैंने ही तुम दोनों को जन्नत से निकाला था। यदि तुमने मेरी बात न मानी, तो मैं तुम्हारे बच्चे के (सिर पर) पहाड़ी बकरे के दो सींग बना दूँगा और जब वह तुम्हारे पेट से निकलेगा तुम्हारा पेट फट जाएगा।
साथ ही मैं ऐसा और वैसा कर दूँगा कहकर उनको भयभीत करता रहा
और अंत में कहा कि तुम दोनों उसका नाम अब्दुल हारिस रखो।
उन्होंने उसकी बात नहीं मानी और इत्तेफ़ाक़ से बच्चा मरा हुआ पैदा हुआ।
फिर हव्वा को गर्भ ठहरा। फिर इबलीस उनके पास आकर वही बातें करने लगा, लेकिन उन्होंने उसकी बात नहीं मानी और इत्तेफ़ाक़ से फिर बच्चा मरा हुआ पैदा हुआ।
फिर जब हव्वा गर्भवती हुईं और इबलसीन ने आकर वही बातें दोहराईं, तो इस बार वे बच्चे के प्रेम के आगे हार गए और उसका नाम अब्दुल-हारिस रख दिया।
इसी का वर्णन इस आयत में हुआ है कि {جَعَلاَ لَهُ شُرَكَاءَ فِيمَا آتَاهُمَا} (जो अल्लाह ने उन्हें प्रदान किया, उसमें उन्होंने दूसरों को साझी बना लिया।)इसे इब्ने अबू हातिम ने रिवायत किया है।
इसे इब्ने अबू हातिम ने रिवायत किया है।
और इब्ने अबू हातिम ही के यहाँ सही सनद के साथ क़तादा से वर्णित है, वह कहते हैं : "इस आयत में साझी बनाने का अर्थ यह है कि उन्होंने उसकी बात मान ली, न कि उसकी इबादत की।"
और इब्ने अबू हातिम ही के यहाँ सही सनद के साथ मुजाहिद से अल्लाह के कथन : {لَئِنْ آتَيْتَنَا صَالِحًا} (यदि तू हमें कोई नेक संतान प्रदान करे) के संबंध में वर्णित है, वह कहते हैं : "उन्हें डर था कि कहीं इनसान के सिवा कुछ और न जन्म ले ले।"
उन्होंने कुछ इसी तरह की बातें हसन और सईद से भी नक़ल की हैं।
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :हर वह नाम हराम है, जिसमें व्यक्ति को अल्लाह के सिवा किसी और का बंदा करार दिया गया हो।दूसरी :सूरा आराफ़ की उपर्युक्त आयत की व्याख्या।तीसरी :वास्तविक अर्थ मुराद लिए बिना केवल इस तरह का नाम रखना ही शिर्क है।चौथी :किसी को संपूर्ण बच्ची प्रदान करना भी नेमत है।पाँचवीं :इस बात का उल्लेख कि सलफ यानी सदाचारी पूर्वज अनुसरण में शिर्क तथा इबादत में शिर्क की बीच अंतर करते थे।अध्याय : उच्च एवं महान अल्लाह के इस कथन का वर्नण :{وَللهِ الأَسْمَاءُ الْحُسْنَى فَادْعُوهُ بِهَا وَذَرُوا الَّذِينَ يُلْحِدُونَ فِي أَسْمَائِهِ} (और अल्लाह के बेहद अच्छे नाम हैं। अतः उसे उन्हीं के द्वारा पुकारो और उन लोगों को छोड़ दो, जो उसके नामों के संबंध में (इलहाद अर्थात) गलत रास्ता अपनाते हैं।)[सूरा आराफ़ : 180]
हर वह नाम हराम है, जिसमें व्यक्ति को अल्लाह के सिवा किसी और का बंदा करार दिया गया हो।
दूसरी :
सूरा आराफ़ की उपर्युक्त आयत की व्याख्या।
तीसरी :
वास्तविक अर्थ मुराद लिए बिना केवल इस तरह का नाम रखना ही शिर्क है।
चौथी :
किसी को संपूर्ण बच्ची प्रदान करना भी नेमत है।
पाँचवीं :
इस बात का उल्लेख कि सलफ यानी सदाचारी पूर्वज अनुसरण में शिर्क तथा इबादत में शिर्क की बीच अंतर करते थे।
अध्याय : उच्च एवं महान अल्लाह के इस कथन का वर्नण :
{وَللهِ الأَسْمَاءُ الْحُسْنَى فَادْعُوهُ بِهَا وَذَرُوا الَّذِينَ يُلْحِدُونَ فِي أَسْمَائِهِ} (और अल्लाह के बेहद अच्छे नाम हैं। अतः उसे उन्हीं के द्वारा पुकारो और उन लोगों को छोड़ दो, जो उसके नामों के संबंध में (इलहाद अर्थात) गलत रास्ता अपनाते हैं।)
[सूरा आराफ़ : 180]
इब्ने अबू हातिम ने अल्लाह के कथन : {يُلْحِدُونَ فِي أَسْمَائِهِ} (उसके नामों के संबंध में गलत रास्ता अपनाते हैं।} का अर्थ अब्दुल्लाह बिन अब्बास से वर्णन किया है कि उन्होंने फरमाया : "उसके नामों के मामले में शिर्क करते हैं।"
और अब्दुल्लाह बिन अब्बास ही से वर्णित है कि वह कहते हैं : "उन्होंने लात का नाम अल-इलाह से एवं उज़्ज़ा का नाम अल-अज़ीज़ से लिया है।"
तथा आमश उक्त आयत का अर्थ बयान करते हुए कहते हैं : "वे अल्लाह के नामों में वह चीज़ें दाखिल करते हैं, जिनका संबंध उसके नामों से नहीं हैं।"
इस अध्याय के मसायल :
पहली :अल्लाह के नामों को साबित करना।दूसरी :अल्लाह के सारे नाम बेहद अच्छे हैं।तीसरी :अल्लाह को उसके नामों से पुकारने का आदेश।चौथी :गलत रास्ता अपनाने वाले मूर्खों को छोड़कर आगे बढ़ने का आदेश।पाँचवीं :अल्लाह के नामों में "इलहाद" की व्याख्या।छठीं :अल्लाह के नामों के मामले में गलत रास्ता अपनाने वाले को धमकी।
अल्लाह के नामों को साबित करना।
दूसरी :
अल्लाह के सारे नाम बेहद अच्छे हैं।
तीसरी :
अल्लाह को उसके नामों से पुकारने का आदेश।
चौथी :
गलत रास्ता अपनाने वाले मूर्खों को छोड़कर आगे बढ़ने का आदेश।
पाँचवीं :
अल्लाह के नामों में "इलहाद" की व्याख्या।
छठीं :
अल्लाह के नामों के मामले में गलत रास्ता अपनाने वाले को धमकी।
अध्याय : "अल्लाह पर सलामती हो" कहने की मनाही
सहीह बुखारी तथा सहीह मुस्लिम में अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि उन्होंने कहा : हम नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पीछे नमाज़ में कहते : "अल्लाह पर उसके बंदों की ओर से सलामती हो, अमुक एवं अमुक पर सलामती हो।" तो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"अल्लाह पर सलामती हो, न कहो; क्योंकि अल्लाह तआला ही सलामती वाला है।"
"अल्लाह पर सलामती हो, न कहो; क्योंकि अल्लाह तआला ही सलामती वाला है।"
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :अस-सलाम की व्याख्या।दूसरी :यह अभिवादन है।तीसरी :अल्लाह पर सलामती भेजना उचित नहीं है।चौथी :अल्लाह पर सलामती भेजना उचित न होने का कारण भी बता दिया गया है।पाँचवीं :आपने सहाबा को वह अत-तहिय्यह सिखाई, जो अल्लाह के योग्य है।
अस-सलाम की व्याख्या।
दूसरी :
यह अभिवादन है।
तीसरी :
अल्लाह पर सलामती भेजना उचित नहीं है।
चौथी :
अल्लाह पर सलामती भेजना उचित न होने का कारण भी बता दिया गया है।
पाँचवीं :
आपने सहाबा को वह अत-तहिय्यह सिखाई, जो अल्लाह के योग्य है।
अध्याय : "ऐ अल्लाह! अगर तू चाहे तो मुझे माफ़ कर दे!" कहने की मनाही
सहीह बुखारी तथा सहीह मुस्लिम में अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"तुममें से कोई यह न कहे कि 'ऐ अल्लाह! अगर तू चाहे मुझे क्षमा कर दे', 'ऐ अल्लाह! यदि तू चाहे मुझ पर दया कर।' बल्कि पूरे विश्वास और भरोसे के साथ दुआ करे, क्योंकि अल्लाह पर कोई दबाव डालने वाला नहीं है।"और सहीह मुस्लिम में है :"और पूरी चाहत के साथ माँगे; क्योंकि कोई भी चीज़ जो अल्लाह देता है, वह अल्लाह के लिए बड़ी और कठिन नहीं होती।"
"तुममें से कोई यह न कहे कि 'ऐ अल्लाह! अगर तू चाहे मुझे क्षमा कर दे', 'ऐ अल्लाह! यदि तू चाहे मुझ पर दया कर।' बल्कि पूरे विश्वास और भरोसे के साथ दुआ करे, क्योंकि अल्लाह पर कोई दबाव डालने वाला नहीं है।"
और सहीह मुस्लिम में है :
"और पूरी चाहत के साथ माँगे; क्योंकि कोई भी चीज़ जो अल्लाह देता है, वह अल्लाह के लिए बड़ी और कठिन नहीं होती।"
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :दुआ करते समय अपवाद सूचक (जैसे यदि तू चाहे आदि) शब्दों का प्रयोग करने की मनाही।दूसरी :इस मनाही का कारण भी बता दिया गया है।तीसरी :अपके शब्द : "आदमी को चाहिए कि पूरे विश्वास के साथ माँगे।" पर ध्यान आकृष्ट करना।चौथी :पूरी चाहत के साथ माँगने का आदेश दिया गया है।पाँचवीं :पूरी चाहत के साथ माँगने के आदेश का कारण भी बता दिया गया है।
दुआ करते समय अपवाद सूचक (जैसे यदि तू चाहे आदि) शब्दों का प्रयोग करने की मनाही।
दूसरी :
इस मनाही का कारण भी बता दिया गया है।
तीसरी :
अपके शब्द : "आदमी को चाहिए कि पूरे विश्वास के साथ माँगे।" पर ध्यान आकृष्ट करना।
चौथी :
पूरी चाहत के साथ माँगने का आदेश दिया गया है।
पाँचवीं :
पूरी चाहत के साथ माँगने के आदेश का कारण भी बता दिया गया है।
अध्याय : "عَبْدِي" (मेरा दास) तथा "أَمَتي" (मेरी दासी) कहने की मनाही
सहीह बुख़ारी एवं सहीह मुस्लिम में अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अनहु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"तुममें से कोई ऐसा न कहे कि अपने रब को खाना पेश करो, अपने रब को वज़ू का पानी पेश करो (या वज़ू करने में उसकी मदद करो), बल्कि ऐसे बोले कि मेरा मालिक और मेरा संरक्षक। कोई ऐसा न कहे कि मेरा दास और मेरी दासी बल्कि एसे कहे कि मेरा सेवक और मेरी सेविका।"
"तुममें से कोई ऐसा न कहे कि अपने रब को खाना पेश करो, अपने रब को वज़ू का पानी पेश करो (या वज़ू करने में उसकी मदद करो), बल्कि ऐसे बोले कि मेरा मालिक और मेरा संरक्षक। कोई ऐसा न कहे कि मेरा दास और मेरी दासी बल्कि एसे कहे कि मेरा सेवक और मेरी सेविका।"
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :"عَبْدي" (मेरा दास) तथा "أَمَتي" (मेरी दासी) कहने की मनाही।दूसरी :दास यह न कहे कि मेरा रब और उससे यह नहीं कहा जाएगा कि अपने रब को खाना पेश करो।तीसरी :मालिक को शिक्षा दी गई है कि वह मेरा सेवक, मेरी सेविका और मेरा गुलाम कहे।चौथी :और गुलाम को शिक्षा दी गई कि वह मेरा मालिक और मेरा संरक्षक कहे।पाँचवीं :इसका उद्देश्य भी इंगित कर दिया है यानी तौहीद पूर्ण रूप से का पालन करना, यहाँ तक कि शब्दों के चयन के मामले में भी।
"عَبْدي" (मेरा दास) तथा "أَمَتي" (मेरी दासी) कहने की मनाही।
दूसरी :
दास यह न कहे कि मेरा रब और उससे यह नहीं कहा जाएगा कि अपने रब को खाना पेश करो।
तीसरी :
मालिक को शिक्षा दी गई है कि वह मेरा सेवक, मेरी सेविका और मेरा गुलाम कहे।
चौथी :
और गुलाम को शिक्षा दी गई कि वह मेरा मालिक और मेरा संरक्षक कहे।
पाँचवीं :
इसका उद्देश्य भी इंगित कर दिया है यानी तौहीद पूर्ण रूप से का पालन करना, यहाँ तक कि शब्दों के चयन के मामले में भी।
अध्याय : अल्लाह का वास्ता देकर माँगने वाले को खाली हाथ वापस न किया जाए
अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"जो अल्लाह का वास्ता देकर शरण माँगे, उसे शरण दो; जो अल्लाह का वास्ता देकर कुछ माँगे, उसे प्रदान करो; जो तुम्हें आमंत्रित करे उसका आमंत्रण ग्रहण करो; जो तुमपर कोई एहसान करे, उसे उसका बदला दो, और यदि तुम्हारे पास कुछ न हो, तो उसके लिए इतनी दुआ करो कि तुम्हे लगे तुमने उसका बदला चुका दिया है।"इसे अबू दाऊद और नसई ने सही सनद के साथ रिवायत किया है।
"जो अल्लाह का वास्ता देकर शरण माँगे, उसे शरण दो; जो अल्लाह का वास्ता देकर कुछ माँगे, उसे प्रदान करो; जो तुम्हें आमंत्रित करे उसका आमंत्रण ग्रहण करो; जो तुमपर कोई एहसान करे, उसे उसका बदला दो, और यदि तुम्हारे पास कुछ न हो, तो उसके लिए इतनी दुआ करो कि तुम्हे लगे तुमने उसका बदला चुका दिया है।"
इसे अबू दाऊद और नसई ने सही सनद के साथ रिवायत किया है।
इस अध्याय के मसायल :
पहली :अल्लाह का वास्ता देकर शरण माँगने वाले को शरण देने का आदेश।दूसरी :अल्लाह का वास्ता देकर माँगने वाले को देने का आदेश।तीसरी :आमंत्रण स्वीकार करने का आदेश।चौथी :किसी ने कोई एहसान किया हो, तो उसका बदला चुकाने का प्रयास होना चाहिए।पाँचवीं :यदि कोई एहसान का बदला चुका न सके, तो उसे एहसान करने वाले के हक़ में दुआ करनी चाहिए।छठीं :आपके शब्द : "उसके लिए इतनी दुआ करो कि तुम्हे लगे तुमने उसका बदला चुका दिया है।" ग़ौर करने योग्य हैं।
अल्लाह का वास्ता देकर शरण माँगने वाले को शरण देने का आदेश।
दूसरी :
अल्लाह का वास्ता देकर माँगने वाले को देने का आदेश।
तीसरी :
आमंत्रण स्वीकार करने का आदेश।
चौथी :
किसी ने कोई एहसान किया हो, तो उसका बदला चुकाने का प्रयास होना चाहिए।
पाँचवीं :
यदि कोई एहसान का बदला चुका न सके, तो उसे एहसान करने वाले के हक़ में दुआ करनी चाहिए।
छठीं :
आपके शब्द : "उसके लिए इतनी दुआ करो कि तुम्हे लगे तुमने उसका बदला चुका दिया है।" ग़ौर करने योग्य हैं।
अध्याय : अल्लाह का का वास्ता देकर जन्नत के सिवा कुछ न माँगा जाए
जाबिर रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया :"अल्लाह के चेहरे का वास्ता देकर जन्नत के सिवा कुछ नहीं माँगा जाएगा।"इस हदीस को अबू दाऊद ने रिवायत किया है।
"अल्लाह के चेहरे का वास्ता देकर जन्नत के सिवा कुछ नहीं माँगा जाएगा।"
इस हदीस को अबू दाऊद ने रिवायत किया है।
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :इस बात की मनाही कि अल्लाह के चेहरे का वास्ता देकर सबसे बड़े एवं अंतिम उद्देश्य के सिवा कुछ और माँगा जाए।दूसरी :इससे अल्लाह के चेहरा होने का सबूत मिलता है।
इस बात की मनाही कि अल्लाह के चेहरे का वास्ता देकर सबसे बड़े एवं अंतिम उद्देश्य के सिवा कुछ और माँगा जाए।
दूसरी :
इससे अल्लाह के चेहरा होने का सबूत मिलता है।
अध्याय : किसी परेशानी के बाद "यदि" शब्द प्रयोग करने की मनाही
अल्लाह तआला का फ़रमान है :{يَقُولُونَ لَوْ كَانَ لَنَا مِنَ الأَمْـرِ شَيْءٌ مَّا قُتِلْنَا هَـاهُنَا} (कहते हैं कि यदि हमारे अधिकार में कुछ होता तो हम यहाँ मारे न जाते।)[सूरा आल-ए-इमरान : 154]एक अन्य स्थान में उसका फ़रमान है :{الَّذِينَ قَالُواْ لإِخْوَانِهِمْ وَقَعَدُواْ لَوْ أَطَاعُونَا مَا قُتِلُوا} (जो बैठे रह गए और अपने भाइयों के संबंध में कहा कि यदि वे हमारी बात मानते तो एसे मारे न जाते।)[सूरा आल-ए-इमरान : 16]सहीह मुस्लिम में अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अनहु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"अपने लाभ की चीज़ के इच्छुक बनो तथा अल्लाह तआला से सहायता माँगो और कदापि विवश होकर न बैठो। यदि तुम्हें कोई विपत्ति पहुँचे तो यह न कहो कि 'यदि' मैंने ऐसा किया होता तो ऐसा और ऐसा होता। बल्कि यह कहो कि "قدر الله وما شاءفعل" (अर्थात अल्लाह तआला ने ऐसा ही भाग्य में लिख रखा था और वह जो चाहता है, करता है।) क्योंकि 'यदि' शब्द शैतान के कार्य का द्वार खोलता है।"
{يَقُولُونَ لَوْ كَانَ لَنَا مِنَ الأَمْـرِ شَيْءٌ مَّا قُتِلْنَا هَـاهُنَا} (कहते हैं कि यदि हमारे अधिकार में कुछ होता तो हम यहाँ मारे न जाते।)
[सूरा आल-ए-इमरान : 154]
एक अन्य स्थान में उसका फ़रमान है :
{الَّذِينَ قَالُواْ لإِخْوَانِهِمْ وَقَعَدُواْ لَوْ أَطَاعُونَا مَا قُتِلُوا} (जो बैठे रह गए और अपने भाइयों के संबंध में कहा कि यदि वे हमारी बात मानते तो एसे मारे न जाते।)
[सूरा आल-ए-इमरान : 16]
सहीह मुस्लिम में अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अनहु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :
"अपने लाभ की चीज़ के इच्छुक बनो तथा अल्लाह तआला से सहायता माँगो और कदापि विवश होकर न बैठो। यदि तुम्हें कोई विपत्ति पहुँचे तो यह न कहो कि 'यदि' मैंने ऐसा किया होता तो ऐसा और ऐसा होता। बल्कि यह कहो कि "قدر الله وما شاءفعل" (अर्थात अल्लाह तआला ने ऐसा ही भाग्य में लिख रखा था और वह जो चाहता है, करता है।) क्योंकि 'यदि' शब्द शैतान के कार्य का द्वार खोलता है।"
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :सूरा आल-ए-इमरान की उपर्युक्त दोनों आयतों की तफ़सीर।दूसरी :किसी आपदा के आने पर "यदि" शब्द प्रयोग करने की स्पष्ट मनाही।तीसरी :इसका कारण यह बताया गया है कि यह शब्द शैतान के कार्य का द्वार खोल देता है।चौथी :उसके स्थान पर एक अच्छी बात कहने का आदेश दिया गया है।पाँचवीं :लाभ की चीज़ का इच्छुक बनने तथा अल्लाह से मदद माँगने का आदेश दिया गया है।छठीं :विवशता दिखाने से मना किया गया है।
सूरा आल-ए-इमरान की उपर्युक्त दोनों आयतों की तफ़सीर।
दूसरी :
किसी आपदा के आने पर "यदि" शब्द प्रयोग करने की स्पष्ट मनाही।
तीसरी :
इसका कारण यह बताया गया है कि यह शब्द शैतान के कार्य का द्वार खोल देता है।
चौथी :
उसके स्थान पर एक अच्छी बात कहने का आदेश दिया गया है।
पाँचवीं :
लाभ की चीज़ का इच्छुक बनने तथा अल्लाह से मदद माँगने का आदेश दिया गया है।
छठीं :
विवशता दिखाने से मना किया गया है।
अध्याय : हवा तथा आँधी को गाली देने की मनाही
उबय बिन काब रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"वायु को गाली मत दो। यदि कोई ऐसी बात देखो, जो पसंद न हो तो कहो : ऐ अल्लाह! हम तुझसे माँगते हैं इस वायु की भलाई, इसमें जो कुछ है उसकी भलाई और इसे जिसका आदेश दिया गया है उसकी भलाई। तथा ऐ अल्लाह! हम तुझसे शरण माँगते हैं इस वायु की बुराई से, इसमें जो कुछ है उसकी बुराई से और इसे जिसका आदेश दिया गया है उसकी बुराई से।"इस हदीस को तिरमिज़ी ने सहीह करार दिया है।
"वायु को गाली मत दो। यदि कोई ऐसी बात देखो, जो पसंद न हो तो कहो : ऐ अल्लाह! हम तुझसे माँगते हैं इस वायु की भलाई, इसमें जो कुछ है उसकी भलाई और इसे जिसका आदेश दिया गया है उसकी भलाई। तथा ऐ अल्लाह! हम तुझसे शरण माँगते हैं इस वायु की बुराई से, इसमें जो कुछ है उसकी बुराई से और इसे जिसका आदेश दिया गया है उसकी बुराई से।"
इस हदीस को तिरमिज़ी ने सहीह करार दिया है।
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :वायु को गाली देने की मनाही।दूसरी :किसी अनचाही चीज़ को देखते समय लाभदायक बात करने का निर्देश दिया गया है।तीसरी :इस बात का निर्देश कि हवा भी अल्लाह के आदेश की अधीन होती है।चौथी :कभी उसे अच्छाई तो कभी बुराई का आदेश होता है।अध्याय : उच्च एवं महान अल्लाह के इस कथन का वर्णन :{يَظُنُّونَ بِاللهِ غَيْرَ الْحَقِّ ظَنَّ الْجَاهِلِيَّةِ يَقُولُونَ هَل لَّنَا مِنَ الأَمْرِ مِن شَيْءٍ قُلْ إِنَّ الأَمْرَ كُلَّهُ للهِ يُخْفُونَ فِي أنفُسِهِم مَا لا يُبدونَ لكَ يَقُولونَ لَو كانَ لنَا مِنَ الأمرِ شَيءٌ مَّا قُتِلنَا هَاهُنا قُل لَّو كُنتُمْ فِي بُيوتِكُم لَبَرزَ الَّذينَ كُتِبَ عليهِمُ القَتْلُ إِلَى مَضَاجِعِهِم ولِيَبتليَ اللهُ مَا فِي صُدُورِكُم ولِيُمَحِّصَ مَا فِي قُلُوبِكُم وَاللهُ عَلِيمٌ بِذَاتِ الصُّدُورِ} (वे अल्लाह के बारे में असत्य जाहिलियत की सोच सोच रहे थे। वे कह रहे थे कि क्या हमारा भी कुछ अधिकार है? (हे नबी!) कह दें कि सब अधिकार अल्लाह को है। वे अपने मनों में जो छुपा रहे थे, आपको नहीं बता रहे थे। वे कह रहे थे कि यदि हमारा कुछ भी अधिकार होता, तो यहाँ मारे नहीं जाते। आप कह दें : यदि तुम अपने घरों में रहते, तब भी जिनके (भाग्य में) मारा जाना लिखा है, वे अपने निहत होने के स्थानों की ओर निकल आते और ताकि अल्लाह जो तुम्हारे सीनों में है, उसकी परीक्षा ले तथा जो तुम्हारे दिलों में है, उसकी जाँच करे और अल्लह दिलों के भेदों से अवगत है।)[सूरा आल-ए-इमरान : 154]एक अन्य स्थान में उसका फ़रमान है :{الظَّآنِّينَ بِاللهِ ظَنَّ السَّوْءِ عَلَيْهِمْ دَائِرَةُ السَّوْءِ وغَضِبَ اللهُ عَلَيهِم ولَعَنَهُم وأعدَّ لهم جَهنَّمَ وسَآءتْ مَصِيرًا} (जो बुरा विचार रखने वाले हैं अल्लाह के संबंध में। उन्हीं पर बुरी आपदा आ पड़ी, अल्लाह का प्रकोप हुआ उनपर, उसने धिक्कार दिया उन्हें तथा तैयार कर दी उनके लिए नरक और वह बुरा जाने का स्थान है।)[सूरा फत्ह : 6]पहली आयत के संबंध में इब्ने क़य्यिम फरमाते हैं :"इस विचार की तफसीर यह बयान की गई है कि वे सोचते थे कि अल्लाह तआला अपने रसूल की मदद नहीं करेगा और उनके धर्म इस्लाम का शीघ्र ही पतन हो जाएगा। इस विचार की एक और तफ़सीर यह की गई है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर जो आपदा आई थी, वह अल्लाह की तक़दीर और उसके ज्ञान से नहीं आई थी। इस तरह, इस विचार की व्याख्या में हिकमत और तक़दीर, एवं रसूल के मिशन के सफलता तथा उनके धर्म के तमाम धर्मों पर गालिब आने का इनकार शामिल है। यही वह बुरा विचार है जो मुनाफिक़ों तथा मुश्रिकों में पाया गया था और जिसका उल्लेख अल्लाह ने सूरा फ़त्ह में किया है। इसे बुरा विचार इसलिए कहा गया; क्योंकि यह विचार अल्लाह तआला, उसकी हिकमत, उसकी प्रशंसा एवं उसके सच्चे वादे के लायक़ नहीं है।
वायु को गाली देने की मनाही।
दूसरी :
किसी अनचाही चीज़ को देखते समय लाभदायक बात करने का निर्देश दिया गया है।
तीसरी :
इस बात का निर्देश कि हवा भी अल्लाह के आदेश की अधीन होती है।
चौथी :
कभी उसे अच्छाई तो कभी बुराई का आदेश होता है।
अध्याय : उच्च एवं महान अल्लाह के इस कथन का वर्णन :
{يَظُنُّونَ بِاللهِ غَيْرَ الْحَقِّ ظَنَّ الْجَاهِلِيَّةِ يَقُولُونَ هَل لَّنَا مِنَ الأَمْرِ مِن شَيْءٍ قُلْ إِنَّ الأَمْرَ كُلَّهُ للهِ يُخْفُونَ فِي أنفُسِهِم مَا لا يُبدونَ لكَ يَقُولونَ لَو كانَ لنَا مِنَ الأمرِ شَيءٌ مَّا قُتِلنَا هَاهُنا قُل لَّو كُنتُمْ فِي بُيوتِكُم لَبَرزَ الَّذينَ كُتِبَ عليهِمُ القَتْلُ إِلَى مَضَاجِعِهِم ولِيَبتليَ اللهُ مَا فِي صُدُورِكُم ولِيُمَحِّصَ مَا فِي قُلُوبِكُم وَاللهُ عَلِيمٌ بِذَاتِ الصُّدُورِ} (वे अल्लाह के बारे में असत्य जाहिलियत की सोच सोच रहे थे। वे कह रहे थे कि क्या हमारा भी कुछ अधिकार है? (हे नबी!) कह दें कि सब अधिकार अल्लाह को है। वे अपने मनों में जो छुपा रहे थे, आपको नहीं बता रहे थे। वे कह रहे थे कि यदि हमारा कुछ भी अधिकार होता, तो यहाँ मारे नहीं जाते। आप कह दें : यदि तुम अपने घरों में रहते, तब भी जिनके (भाग्य में) मारा जाना लिखा है, वे अपने निहत होने के स्थानों की ओर निकल आते और ताकि अल्लाह जो तुम्हारे सीनों में है, उसकी परीक्षा ले तथा जो तुम्हारे दिलों में है, उसकी जाँच करे और अल्लह दिलों के भेदों से अवगत है।)
[सूरा आल-ए-इमरान : 154]
एक अन्य स्थान में उसका फ़रमान है :
{الظَّآنِّينَ بِاللهِ ظَنَّ السَّوْءِ عَلَيْهِمْ دَائِرَةُ السَّوْءِ وغَضِبَ اللهُ عَلَيهِم ولَعَنَهُم وأعدَّ لهم جَهنَّمَ وسَآءتْ مَصِيرًا} (जो बुरा विचार रखने वाले हैं अल्लाह के संबंध में। उन्हीं पर बुरी आपदा आ पड़ी, अल्लाह का प्रकोप हुआ उनपर, उसने धिक्कार दिया उन्हें तथा तैयार कर दी उनके लिए नरक और वह बुरा जाने का स्थान है।)
[सूरा फत्ह : 6]
पहली आयत के संबंध में इब्ने क़य्यिम फरमाते हैं :
"इस विचार की तफसीर यह बयान की गई है कि वे सोचते थे कि अल्लाह तआला अपने रसूल की मदद नहीं करेगा और उनके धर्म इस्लाम का शीघ्र ही पतन हो जाएगा। इस विचार की एक और तफ़सीर यह की गई है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम पर जो आपदा आई थी, वह अल्लाह की तक़दीर और उसके ज्ञान से नहीं आई थी। इस तरह, इस विचार की व्याख्या में हिकमत और तक़दीर, एवं रसूल के मिशन के सफलता तथा उनके धर्म के तमाम धर्मों पर गालिब आने का इनकार शामिल है। यही वह बुरा विचार है जो मुनाफिक़ों तथा मुश्रिकों में पाया गया था और जिसका उल्लेख अल्लाह ने सूरा फ़त्ह में किया है। इसे बुरा विचार इसलिए कहा गया; क्योंकि यह विचार अल्लाह तआला, उसकी हिकमत, उसकी प्रशंसा एवं उसके सच्चे वादे के लायक़ नहीं है।
अतः जो यह सोचे कि अल्लाह सदा बातिल को सत्य के विरुद्ध इस तरह जीत प्रदान करेगा कि सत्य मिट जाएगा अथवा यह विचार रखे कि जो कुछ हुआ वह अल्लाह की तक़दीर के अनुसार नहीं हुआ और उसमें ऐसी कोई हिकमत निहित नहीं है जिसपर अल्लाह की प्रशंसा करनी चाहिए, बल्कि यह सब कुछ केवल अल्लाह की इच्छा के तहत हुआ, तो यही काफिरों का विचार है, जिनके लिए जहन्नम की विनाशकारी आग है। वास्तविकता यह है अकसर लोग अपने तथा दूसरों के मामलात में अल्लाह के बारे में बुरा विचार ही रखते हैं। और इससे केवल वही मुक्ति पा सकता है, जिसके पास अल्लाह के नामों, गुणों तथा अल्लाह की हिकमत एवं उसकी प्रशंसा के तक़ाज़ों का ज्ञान हो।
अतः जिसके अंदर ज्ञान हो और वह अपना हित समझता हो वह इस बात पर ध्यान दे, अल्लाह से तौबा करे और अपने रब के बारे में इस तरह के बुरे विचार रखने पर उससे क्षमा याचना करे।
अगर तुम किसी भी इनसान को टटोलकर देखोगे, तो पाओगे कि वह तक़दीर के विषय में गलत विचार रखता है और उसे बुरा-भला कहता है। वह कहता है कि ऐसा होता तो बेहतर होता, वैसा होता तो अच्छा होता। किसी को कम आपत्ति है, तो किसी को अधिक। तुम खुद अपने आपको भी टटोलकर देख लो कि क्या तुम इससे सुरक्षित हो?
यदि तुम इससे बच गए तो तुम्हें एक बड़ी आपदा से बचे हुए हो, वरना मैं तुम्हें मुक्ति पाने वाला नहीं समझता।"
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :सूरा आल-ए-इमरान की उपर्युक्त आयत की व्याख्या।दूसरी :सुरा हिज्र की उपर्युक्त आयत की व्याख्या।तीसरी :इस बात का स्पष्ट उल्लेख कि इसके बहुत-से रूप हैं।चौथी :इससे वही बच सकता है जो स्वयं के बारे में जानता हो एवं उसे अल्लाह तआला के नामों तथा गुणों का भी ज्ञान हो।
सूरा आल-ए-इमरान की उपर्युक्त आयत की व्याख्या।
दूसरी :
सुरा हिज्र की उपर्युक्त आयत की व्याख्या।
तीसरी :
इस बात का स्पष्ट उल्लेख कि इसके बहुत-से रूप हैं।
चौथी :
इससे वही बच सकता है जो स्वयं के बारे में जानता हो एवं उसे अल्लाह तआला के नामों तथा गुणों का भी ज्ञान हो।
अध्याय : तक़दीर का इनकार करने वालों के बारे में शरई दृष्टिकोण
अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा कहते हैं : "उसकी क़सम जिसके हाथ में उमर के बेटे की जान है। यदि किसी के पास उहुद पर्वत के बराबर सोना हो और वह उसे अल्लाह की राह में दान कर दे, तो अल्लाह उसका दान तब तक क़बूल नहीं करेगा, जब तक वह तक़दीर पर ईमान न लाए।" फिर उन्होंने प्रमाण के तौर पर नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की यह हदीस सुनाई :"ईमान यह है की तुम अल्लाह, उसके फरिश्तों, उसकी किताबों, उसके रसूलों, अंतिम दिन तथा अच्छे एवं बुरे भाग्य पर ईमान लाओl"इस हदीस को इमाम मुस्लिम ने रिवायत किया है।और उबादा बिन सामित रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि उन्होंने अपने बेटे से कहा : ऐ मेरे बेटे, तुम्हें तब तक ईमान का स्वाद नहीं मिल सकता, जब तक तुम्हें इस बात का यक़ीन न हो कि जो तुम्हारे साथ हुआ वह तुमसे चूकने वाला नहीं था औ जो तुमसे चूक गया वह तुम्हारे साथ होने वाला नहीं था। मैंने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को फ़रमाते हुए सुना है :"सबसे पहले अल्लाह ने क़लम की रचना की और उससे कहा : लिख। उसने कहा : मेरे रब, क्या लिखूँ?
"ईमान यह है की तुम अल्लाह, उसके फरिश्तों, उसकी किताबों, उसके रसूलों, अंतिम दिन तथा अच्छे एवं बुरे भाग्य पर ईमान लाओl"
इस हदीस को इमाम मुस्लिम ने रिवायत किया है।
और उबादा बिन सामित रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि उन्होंने अपने बेटे से कहा : ऐ मेरे बेटे, तुम्हें तब तक ईमान का स्वाद नहीं मिल सकता, जब तक तुम्हें इस बात का यक़ीन न हो कि जो तुम्हारे साथ हुआ वह तुमसे चूकने वाला नहीं था औ जो तुमसे चूक गया वह तुम्हारे साथ होने वाला नहीं था। मैंने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को फ़रमाते हुए सुना है :
"सबसे पहले अल्लाह ने क़लम की रचना की और उससे कहा : लिख। उसने कहा : मेरे रब, क्या लिखूँ?
कहा : क़यामत तक अस्तित्व में आने वाली हर वस्तु की तक़दीर लिख।"
ऐ मेरे बेटे, मैंने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को कहते हुए सुना है :"जिसकी मृत्यु इसके सिवा किसी और विश्वास पर हो, तो वह मुझसे नहीं।"अहमद की एक रिवायत में है :"सबसे पहले अल्लाह ने क़लम की रचना की और उससे कहा : लिख, तो उसने उसी घड़ी में क़यामत तक होने वाली हर चीज़ लिख दी।"और इब्ने वह्ब की एक रिवायत में है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया :"जो भली तथा बुरी दोनों प्रकार की तक़दीर पर ईमान न रखे, अल्लाह उसे आग से जलाएगा।"
"जिसकी मृत्यु इसके सिवा किसी और विश्वास पर हो, तो वह मुझसे नहीं।"
अहमद की एक रिवायत में है :
"सबसे पहले अल्लाह ने क़लम की रचना की और उससे कहा : लिख, तो उसने उसी घड़ी में क़यामत तक होने वाली हर चीज़ लिख दी।"
और इब्ने वह्ब की एक रिवायत में है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया :
"जो भली तथा बुरी दोनों प्रकार की तक़दीर पर ईमान न रखे, अल्लाह उसे आग से जलाएगा।"
जबकि मुसनद तथा सुनन में इब्ने दैलमी से वर्णित है, वह कहते हैं कि मैं उबय बिन काब के पास आकर बोला : मेरे दिल में तक़दीर के बारे में थोड़ी-सी खटक है। मुझे कोई हदीस सुनाइए कि अल्लाह इस खटक को मेरे दिल से निकाल दे। उन्होंने कहा : अगर तुम उहुद पर्वत के बराबर भी सोना खर्च कर दो तो अल्लाह उसे ग्रहण नहीं करेगा, जब तक तक़दीर पर ईमान न रखो और इस बात पर विश्वास न रखो कि जो तुम्हारे साथ हुआ वह तुमसे चूकने वाला नहीं था औ जो तुमसे चूक गया वह तुम्हारे साथ होने वाला नहीं था। अगर तुम इसके सिवा किसी और आस्था पर मरोगे तो जहन्नम में प्रवेश करने वालों में शामिल हो जाओगे।
वह कहते हैं : मैं इसके बाद अब्दुल्लाह बिन मसऊद, हुज़ैफ़ा बिन यमान और ज़ैद बिन साबित के पास गया, तो हर एक ने मुझे अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के हवाले से इसी तरह की हदीस सुनाई।यह हदीस सहीह है, इसे हाकिम ने अपनी सहीह में रिवायत किया है।
यह हदीस सहीह है, इसे हाकिम ने अपनी सहीह में रिवायत किया है।
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :इस बात का उल्लेख कि तक़दीर पर ईमान लाना फ़र्ज़ है।दूसरी :इस बात का बयान कि तक़दीर पर ईमान कैसे लाना है।तीसरी :जो तक़दीर पर ईमान न लाए, उसके सारे अमल बर्बाद हो जाएँगे।चौथी :इस बात की सूचना कि तक़दीर पर ईमान लाए बिना किसी को ईमान का स्वाद नहीं मिलता।पाँचवीं :अल्लाह की सबसे पहली रचना का उल्लेख।छठीं :क़लम ने आदेश मिलते ही क़यामत तक होने वाली सारी चीजें लिख दीं।सातवीं :तक़दीर पर ईमान न रखने वाले से नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अपने बरी होने की बात कही है।आठवीं :सलफ़ (सदाचारी पूर्वजों) की आदत थी कि वे उलेमा से प्रश्न पूछकर संदेह दूर कर लेते थे और इसी पर इब्ने दैलमी ने अमल किया।नवीं :उलेमा ने भी उन्हें ऐसा उत्तर दिया कि उनका संदेह दूर हो जाए और इसके लिए उन्होंने अपनी बोत को अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ही की ओर मनसूब किया।
इस बात का उल्लेख कि तक़दीर पर ईमान लाना फ़र्ज़ है।
दूसरी :
इस बात का बयान कि तक़दीर पर ईमान कैसे लाना है।
तीसरी :
जो तक़दीर पर ईमान न लाए, उसके सारे अमल बर्बाद हो जाएँगे।
चौथी :
इस बात की सूचना कि तक़दीर पर ईमान लाए बिना किसी को ईमान का स्वाद नहीं मिलता।
पाँचवीं :
अल्लाह की सबसे पहली रचना का उल्लेख।
छठीं :
क़लम ने आदेश मिलते ही क़यामत तक होने वाली सारी चीजें लिख दीं।
सातवीं :
तक़दीर पर ईमान न रखने वाले से नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम अपने बरी होने की बात कही है।
आठवीं :
सलफ़ (सदाचारी पूर्वजों) की आदत थी कि वे उलेमा से प्रश्न पूछकर संदेह दूर कर लेते थे और इसी पर इब्ने दैलमी ने अमल किया।
नवीं :
उलेमा ने भी उन्हें ऐसा उत्तर दिया कि उनका संदेह दूर हो जाए और इसके लिए उन्होंने अपनी बोत को अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ही की ओर मनसूब किया।
अध्याय : चित्र बनाने वालों के बारे में शरई दृष्टिकोण
अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"अल्लाह तआ़ला ने फ़रमाया : उससे बड़ा अत्याचारी कौन होगा जो मेरी रचना की तरह पैदा करने की कोशिश करता है, (अगर हो सके तो) वे एक कण या एक दाना या एक जौ ही पैदा करके दिखाएँ।"इस इमाम बुख़ारी तथा इमाम मुस्लिम रिवायत किया है।बुखारी तथा मुस्लिम ही में आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"क़यामत के दिन सबसे अधिक कठोर यातना उन लोगों को होगी, जो अपनी रचना में अल्लाह की रचना से समानता करते हैं।"तथा बुखारी एवं मुस्लिम में ही अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"हर तस्वीर बनाने वाला नरक में जाएगा, उसकी बनाई हुई हर तस्वीर के बदले एक प्राण बनाया जाएगा, जिसके द्वारा उसे नरक में यातना दिया जाएगी।"इसी तरह बुख़ारी एवं मुस्लिम में अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"जो दुनिया में कोई चित्र बनाएगा, उसे क़यामत के दिन यह आदेश होगा कि उसमें आत्मा डाले और वह ऐसा कर नहीं पाएगा।"जबकि सहीह मुस्लिम में अबुल हय्याज से वर्णित है, वह कहते हैं : मुझसे अली रज़ियल्लाहु अन्हु ने कहा :"क्या मैं तुम्हें उस मुहिम पर न भेजूँ, जिसपर अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने मुझे भेजा था? आपने मुझे आदेश दिया था कि तुम्हें जो भी चित्र मिले, उसे मिटा डालना और जो भी ऊँची क़ब्र मिले, उसे बराबर कर देना।"
"अल्लाह तआ़ला ने फ़रमाया : उससे बड़ा अत्याचारी कौन होगा जो मेरी रचना की तरह पैदा करने की कोशिश करता है, (अगर हो सके तो) वे एक कण या एक दाना या एक जौ ही पैदा करके दिखाएँ।"
इस इमाम बुख़ारी तथा इमाम मुस्लिम रिवायत किया है।
बुखारी तथा मुस्लिम ही में आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :
"क़यामत के दिन सबसे अधिक कठोर यातना उन लोगों को होगी, जो अपनी रचना में अल्लाह की रचना से समानता करते हैं।"
तथा बुखारी एवं मुस्लिम में ही अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :
"हर तस्वीर बनाने वाला नरक में जाएगा, उसकी बनाई हुई हर तस्वीर के बदले एक प्राण बनाया जाएगा, जिसके द्वारा उसे नरक में यातना दिया जाएगी।"
इसी तरह बुख़ारी एवं मुस्लिम में अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :
"जो दुनिया में कोई चित्र बनाएगा, उसे क़यामत के दिन यह आदेश होगा कि उसमें आत्मा डाले और वह ऐसा कर नहीं पाएगा।"
जबकि सहीह मुस्लिम में अबुल हय्याज से वर्णित है, वह कहते हैं : मुझसे अली रज़ियल्लाहु अन्हु ने कहा :
"क्या मैं तुम्हें उस मुहिम पर न भेजूँ, जिसपर अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने मुझे भेजा था? आपने मुझे आदेश दिया था कि तुम्हें जो भी चित्र मिले, उसे मिटा डालना और जो भी ऊँची क़ब्र मिले, उसे बराबर कर देना।"
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :चित्र बनाने वालों के संबंध में बड़ी सख़्त चेतावनी।दूसरी :इसका कारण यह बताया गया है कि यह अल्लाह के साथ बेअदबी है। क्योंकि एक हदीस के अनुसार अल्लाह कहता है : {उससे बड़ा अत्याचारी कौन होगा जो मेरे पैदा करने की तरह पैदा करने की कोशिश करता है।}तीसरी :अल्लाह के सामर्थ्य तथा लोगों की विवशता का उल्लेख, क्योंकि एक हदीस के अनुसार अल्लाह कहता है : "वे एक कण अथवा एक दाना अथवा एक जौ ही पैदा करके दिखा दें।"चौथी :इस बात का स्पष्ट उल्लेख कि ऐसे लोगों को सबसे कठोर यातना का सामना होगा।पाँचवीं :अल्ला तआला हर तस्वीर के बदले एक प्राण पैदा करेगा, जिसके द्वारा तस्वीर बनाने वाले को नरक में यातना दिया जाएगा।छठीं :चित्र बनाने वाले से कहा जाएगा कि तस्वीर में जान डाले।सातवीं :तस्वीर कहीं मिले, तो उसे मिटा डालने का आदेश।
चित्र बनाने वालों के संबंध में बड़ी सख़्त चेतावनी।
दूसरी :
इसका कारण यह बताया गया है कि यह अल्लाह के साथ बेअदबी है। क्योंकि एक हदीस के अनुसार अल्लाह कहता है : {उससे बड़ा अत्याचारी कौन होगा जो मेरे पैदा करने की तरह पैदा करने की कोशिश करता है।}
तीसरी :
अल्लाह के सामर्थ्य तथा लोगों की विवशता का उल्लेख, क्योंकि एक हदीस के अनुसार अल्लाह कहता है : "वे एक कण अथवा एक दाना अथवा एक जौ ही पैदा करके दिखा दें।"
चौथी :
इस बात का स्पष्ट उल्लेख कि ऐसे लोगों को सबसे कठोर यातना का सामना होगा।
पाँचवीं :
अल्ला तआला हर तस्वीर के बदले एक प्राण पैदा करेगा, जिसके द्वारा तस्वीर बनाने वाले को नरक में यातना दिया जाएगा।
छठीं :
चित्र बनाने वाले से कहा जाएगा कि तस्वीर में जान डाले।
सातवीं :
तस्वीर कहीं मिले, तो उसे मिटा डालने का आदेश।
अध्याय : अधिक क़सम खाने की मनाही
अल्लाह तआला का फ़रमान है :{وَاحْفَظُواْ أَيْمَانَكُمْ} (और अपनी क़समों की रक्षा करो।)[सूरा माइदा : 89]अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है, वह कहते हैं कि मैैंनेे अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को यह कहते हुए सुना है :"क़सम सामान को मार्केट में चलाने का माध्यम तो है, लेकिन कमाई की बरकत ख़त्म कर देती है।"इस हदीस को इमाम बुख़ारी तथा इमाम मुस्लिम ने रिवायत किया है।और सलमान रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"तीन व्यक्ति ऐसे हैं, जिनसे अल्लाह न बात करेगा और न उन्हें गुनाहों से पवित्र करेगा तथा उनके लिए दुखदायी यातना है : बूढ़ा व्यभिचारी, कंगाल अभिमानी और ऐसा व्यक्ति जिसने अल्लाह को अपना सामान बना लिया हो; उसी की क़सम खाकर ख़रीदता हो और उसी की क़सम खाकर बेचता हो।"इसे तबरानी ने सही सनद के साथ रिवायत किया है।तथा सहीह बुखारी एवं सहीह मुस्लिम में इमरान बिन हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है, वह कहते हैं कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"मेरी उम्मत के सबसे उत्तम लोग मेरे ज़माने के लोग हैं, फिर जो उनके बाद आएँ और फिर जो उनके बाद आएँ। इमरान रज़ियल्लाहु अन्हु कहते हैं : मुझे नहीं मालूम कि आपने अपने युग के बाद दो युगों का ज़िक्र किया या तीन युगों का। फिर तुम्हारे पश्चात एसे लोग आएँगे जिनसे गवाही तलब नहीं की जाएगी फिर भी गवाही देंगे, ख़यानत करेंगे और अमानत की रक्षा नहीं करेंगे, मन्नत मानेंगे और उसे पूरी नहीं करेंगे और उनमें मोटापा फैल जाएगा।"तथा अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"सबसे उत्तम लोग मेरे युग के लोग हैं, फिर जो उनके बाद आएँ, फिर जो उनके पश्चात हों। फिर ऐसे लोग पैदा होंगे जिनकी क़सम से पहले गवाही और गवाही से पहले क़सम होगी।"
{وَاحْفَظُواْ أَيْمَانَكُمْ} (और अपनी क़समों की रक्षा करो।)
[सूरा माइदा : 89]
अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है, वह कहते हैं कि मैैंनेे अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को यह कहते हुए सुना है :
"क़सम सामान को मार्केट में चलाने का माध्यम तो है, लेकिन कमाई की बरकत ख़त्म कर देती है।"
इस हदीस को इमाम बुख़ारी तथा इमाम मुस्लिम ने रिवायत किया है।
और सलमान रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :
"तीन व्यक्ति ऐसे हैं, जिनसे अल्लाह न बात करेगा और न उन्हें गुनाहों से पवित्र करेगा तथा उनके लिए दुखदायी यातना है : बूढ़ा व्यभिचारी, कंगाल अभिमानी और ऐसा व्यक्ति जिसने अल्लाह को अपना सामान बना लिया हो; उसी की क़सम खाकर ख़रीदता हो और उसी की क़सम खाकर बेचता हो।"
इसे तबरानी ने सही सनद के साथ रिवायत किया है।
तथा सहीह बुखारी एवं सहीह मुस्लिम में इमरान बिन हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है, वह कहते हैं कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :
"मेरी उम्मत के सबसे उत्तम लोग मेरे ज़माने के लोग हैं, फिर जो उनके बाद आएँ और फिर जो उनके बाद आएँ। इमरान रज़ियल्लाहु अन्हु कहते हैं : मुझे नहीं मालूम कि आपने अपने युग के बाद दो युगों का ज़िक्र किया या तीन युगों का। फिर तुम्हारे पश्चात एसे लोग आएँगे जिनसे गवाही तलब नहीं की जाएगी फिर भी गवाही देंगे, ख़यानत करेंगे और अमानत की रक्षा नहीं करेंगे, मन्नत मानेंगे और उसे पूरी नहीं करेंगे और उनमें मोटापा फैल जाएगा।"
तथा अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :
"सबसे उत्तम लोग मेरे युग के लोग हैं, फिर जो उनके बाद आएँ, फिर जो उनके पश्चात हों। फिर ऐसे लोग पैदा होंगे जिनकी क़सम से पहले गवाही और गवाही से पहले क़सम होगी।"
इबराहीम नख़ई कहते हैं : "जब हम छोटे थे तो गवाही और वचन देने पर (हमारे बडे) हमारी पिटाई करते थे।"
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :क़समों की रक्षा करने की वसीयत।दूसरी :इस बात की सूचना कि क़सम सामान को मार्केट में चलाने का माध्यम तो है, लेकिन कमाई की बरकत ख़त्म कर देती है।तीसरी :जो क़सम खाए बिना क्रय-विक्रय नहीं करता, उसके लिए बड़ी सख़्त चेतावनी।चौथी :इस बात का बयान कि जहाँ पाप का कारण साधारण हो, वहाँ उसका गुनाह बढ़ जाता है।पाँचवीं :उन लोगों की निंदा की गई है, जो क़सम तलब किए बिना ही क़सम खाते हैं।छठीं :नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने तीन अथवा चार युगों की प्रशंसा की है और उसके बाद जो कुछ होना था, उसका भी उल्लेख कर दिया है।सातवीं :उन लोगों की निंदा की गई है, जो गवाही तलब किए बिना ही गवाही देते हैं।आठवीं :इस बात का ज़िक्र कि सलफ़ (सहाबा और ताबिईन) गवाही और वचन देने पर बच्चों को मारा करते थ।
क़समों की रक्षा करने की वसीयत।
दूसरी :
इस बात की सूचना कि क़सम सामान को मार्केट में चलाने का माध्यम तो है, लेकिन कमाई की बरकत ख़त्म कर देती है।
तीसरी :
जो क़सम खाए बिना क्रय-विक्रय नहीं करता, उसके लिए बड़ी सख़्त चेतावनी।
चौथी :
इस बात का बयान कि जहाँ पाप का कारण साधारण हो, वहाँ उसका गुनाह बढ़ जाता है।
पाँचवीं :
उन लोगों की निंदा की गई है, जो क़सम तलब किए बिना ही क़सम खाते हैं।
छठीं :
नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने तीन अथवा चार युगों की प्रशंसा की है और उसके बाद जो कुछ होना था, उसका भी उल्लेख कर दिया है।
सातवीं :
उन लोगों की निंदा की गई है, जो गवाही तलब किए बिना ही गवाही देते हैं।
आठवीं :
इस बात का ज़िक्र कि सलफ़ (सहाबा और ताबिईन) गवाही और वचन देने पर बच्चों को मारा करते थ।
अध्याय : अल्लाह एवं उसके रसूल का संरक्षण देने का बयान
अल्लाह तआला का फ़रमान है :{وَأَوْفُواْ بِعَهْدِ اللهِ إِذَا عَاهَدتُّمْ وَلاَ تَنقُضُوا الأَيْمَانَ بَعْدَ تَوْكِيدِهَا وقَدْ جَعَلْتُمُ اللهَ عَلَيكُم كَفِيلاً إنَّ اللهَ يَعلَمُ مَا تَفْعَلُونَ} (और जब अल्लाह से कोई वचन करो, तो उसे पूरा करो और अपनी शपथों को सुदृढ़ करने के पश्चात् भंग न करो, जब तुमने अल्लाह को अपने ऊपर गवाह बनाया है। निश्चय अल्लाह जो कुछ तुम करते हो, उसे जानता है।)[सूरा नह्ल : 91]और बुरैदा रज़ियल्लाहु अन्हु वर्णन करते हुए कहते हैं कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम जब किसी व्यक्ति को किसी सेना अथवा उसकी छोटी टुकड़ी का नेतृत्व प्रदान करते, तो उसे अल्लाह के भय तथा मुसलमान साथियों के साथ अच्छा व्यवहार करने का आदेश देते हुए कहते :"अल्लाह का नाम लेकर युद्ध करना। अल्लाह की राह में अल्लाह का इनकार करने वालों से युद्ध करना। देखो, युद्ध करना, परन्तु ग़नीमत के धन को न छिपाना, धोखा न देना, युद्ध में मरे हुए व्यक्ति के शरीर के अंग न काटना और किसी बच्चे को न मारना। जब तुम्हारा सामना मुश्रिक शत्रुओं से हो तो उन्हें तीन बातों की ओर बुलाना। उनमें से कोई भी बात मान लें, तो उसे उनकी ओर से स्वीकार कर लेना और उनसे युद्ध करने से बाज़ आ जाना। सबसे पहले उन्हें इस्लाम की ओर बुलाना, यदि वे मान लें तो उनका रास्ता छोड़ देना। साथ ही उन्हें अपना क्षेत्र छोड़कर इस्लामी क्षेत्र की ओर हिजरत करने का आदेश देना। उन्हें बताना कि यदि वे ऐसा करेंगे तो उन्हें वो सारे अधिकार प्राप्त होंगे, जो अन्य मुहाजिरों को प्राप्त हैं, तथा उन्हें उन ज़िम्मेवारियों का पालन करना होगा, जिनका पालन मुहाजिरों को करना होता है। अगर वे हिजरत करने से इनकार कर दें तो बताना कि वे देहात में रहने वाले मुसलमानों के समान होंगे। उनपर अल्लाह के आदेश लागू होंगे, परन्तु ग़नीमत और फ़य के धन में उनका भाग नहीं होगा। हाँ, यदि वे मुसलमानों के साथ युद्ध में भाग लें तो बात अलग है। अगर वे इस्लाम ग्रहण करने से मना कर दें तो उनसे जिज़्या माँगना। मान लें तो ठीक है। हाथ उठा लेना। परन्तु यदि न मानें तो अल्लाह से मदद माँगना और उनसे युद्ध करना। और जब किसी दुर्ग में छिपे लोगों की घेराबंदी कर लो और वह तुमसे अल्लाह तथा उसके रसूल का वचन एवं संरक्षण मांगें तो तुम उन्हें अल्लाह तथा उसके रसूल का वचन एवं संरक्षण न देना, बल्कि अपने तथा अपने साथियों का वचन एवं संरक्षण देना, क्योंकि अगर तुम अपना तथा अपने साथियों का दिया हुआ वचन एवं संरक्षण भंग कर दो, तो निःसंदेह यह इस बात से बहुत सरल है कि अल्लाह तथा उसके रसूल की ओर से दिए गए वचन एवं संरक्षण को भंग करो। इसी तरह जब किसी दुर्ग में छिपे लोगों की घेराबंदी कर लो और वे चाहें कि तुम उन्हें अल्लाह के आदेश पर उतारो, तो ऐसा न करना। उन्हें अपने आदेश पर उतारना, क्योंकि तुम्हें क्या पता कि तुम उनके बारे में अल्लाह के उचित आदेश तक पहुँच पा रहे हो कि नहीं?"इसे इमाम मुस्लिम ने रिवायत किया है।
{وَأَوْفُواْ بِعَهْدِ اللهِ إِذَا عَاهَدتُّمْ وَلاَ تَنقُضُوا الأَيْمَانَ بَعْدَ تَوْكِيدِهَا وقَدْ جَعَلْتُمُ اللهَ عَلَيكُم كَفِيلاً إنَّ اللهَ يَعلَمُ مَا تَفْعَلُونَ} (और जब अल्लाह से कोई वचन करो, तो उसे पूरा करो और अपनी शपथों को सुदृढ़ करने के पश्चात् भंग न करो, जब तुमने अल्लाह को अपने ऊपर गवाह बनाया है। निश्चय अल्लाह जो कुछ तुम करते हो, उसे जानता है।)
[सूरा नह्ल : 91]
और बुरैदा रज़ियल्लाहु अन्हु वर्णन करते हुए कहते हैं कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम जब किसी व्यक्ति को किसी सेना अथवा उसकी छोटी टुकड़ी का नेतृत्व प्रदान करते, तो उसे अल्लाह के भय तथा मुसलमान साथियों के साथ अच्छा व्यवहार करने का आदेश देते हुए कहते :
"अल्लाह का नाम लेकर युद्ध करना। अल्लाह की राह में अल्लाह का इनकार करने वालों से युद्ध करना। देखो, युद्ध करना, परन्तु ग़नीमत के धन को न छिपाना, धोखा न देना, युद्ध में मरे हुए व्यक्ति के शरीर के अंग न काटना और किसी बच्चे को न मारना। जब तुम्हारा सामना मुश्रिक शत्रुओं से हो तो उन्हें तीन बातों की ओर बुलाना। उनमें से कोई भी बात मान लें, तो उसे उनकी ओर से स्वीकार कर लेना और उनसे युद्ध करने से बाज़ आ जाना। सबसे पहले उन्हें इस्लाम की ओर बुलाना, यदि वे मान लें तो उनका रास्ता छोड़ देना। साथ ही उन्हें अपना क्षेत्र छोड़कर इस्लामी क्षेत्र की ओर हिजरत करने का आदेश देना। उन्हें बताना कि यदि वे ऐसा करेंगे तो उन्हें वो सारे अधिकार प्राप्त होंगे, जो अन्य मुहाजिरों को प्राप्त हैं, तथा उन्हें उन ज़िम्मेवारियों का पालन करना होगा, जिनका पालन मुहाजिरों को करना होता है। अगर वे हिजरत करने से इनकार कर दें तो बताना कि वे देहात में रहने वाले मुसलमानों के समान होंगे। उनपर अल्लाह के आदेश लागू होंगे, परन्तु ग़नीमत और फ़य के धन में उनका भाग नहीं होगा। हाँ, यदि वे मुसलमानों के साथ युद्ध में भाग लें तो बात अलग है। अगर वे इस्लाम ग्रहण करने से मना कर दें तो उनसे जिज़्या माँगना। मान लें तो ठीक है। हाथ उठा लेना। परन्तु यदि न मानें तो अल्लाह से मदद माँगना और उनसे युद्ध करना। और जब किसी दुर्ग में छिपे लोगों की घेराबंदी कर लो और वह तुमसे अल्लाह तथा उसके रसूल का वचन एवं संरक्षण मांगें तो तुम उन्हें अल्लाह तथा उसके रसूल का वचन एवं संरक्षण न देना, बल्कि अपने तथा अपने साथियों का वचन एवं संरक्षण देना, क्योंकि अगर तुम अपना तथा अपने साथियों का दिया हुआ वचन एवं संरक्षण भंग कर दो, तो निःसंदेह यह इस बात से बहुत सरल है कि अल्लाह तथा उसके रसूल की ओर से दिए गए वचन एवं संरक्षण को भंग करो। इसी तरह जब किसी दुर्ग में छिपे लोगों की घेराबंदी कर लो और वे चाहें कि तुम उन्हें अल्लाह के आदेश पर उतारो, तो ऐसा न करना। उन्हें अपने आदेश पर उतारना, क्योंकि तुम्हें क्या पता कि तुम उनके बारे में अल्लाह के उचित आदेश तक पहुँच पा रहे हो कि नहीं?"
इसे इमाम मुस्लिम ने रिवायत किया है।
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :अल्लाह के वचन, उसके नबी के वचन तथा मुसलमानो के वचन में अंतर।दूसरी :दो चीज़ों में से उस चीज़ को अपनाने का निर्देश दिया गया है, जिसमें हानि कम हो।तीसरी :आपका फ़रमान : "अल्लाह का नाम लेकर उसकी राह में युद्ध करो।"चौथी :आपका फ़रमान : "अल्लाह का इनकार करने वालों से युद्ध करो।"पाँचवीं :आपका फ़रमान : "अल्लाह से मदद माँगो और उसके शत्रुओं से युद्ध करो।"छठीं :अल्लाह के फैसले तथा उलेमा के फैसले में अंतर।सातवीं :सहाबी ज़रूरत पड़ने पर ऐसा फैसला करते थे, जिसके बारे में उन्हें मालूम नहीं होता था कि वह फैसला अल्लाह के फैसले के अनुकूल है या नहीं?
अल्लाह के वचन, उसके नबी के वचन तथा मुसलमानो के वचन में अंतर।
दूसरी :
दो चीज़ों में से उस चीज़ को अपनाने का निर्देश दिया गया है, जिसमें हानि कम हो।
तीसरी :
आपका फ़रमान : "अल्लाह का नाम लेकर उसकी राह में युद्ध करो।"
चौथी :
आपका फ़रमान : "अल्लाह का इनकार करने वालों से युद्ध करो।"
पाँचवीं :
आपका फ़रमान : "अल्लाह से मदद माँगो और उसके शत्रुओं से युद्ध करो।"
छठीं :
अल्लाह के फैसले तथा उलेमा के फैसले में अंतर।
सातवीं :
सहाबी ज़रूरत पड़ने पर ऐसा फैसला करते थे, जिसके बारे में उन्हें मालूम नहीं होता था कि वह फैसला अल्लाह के फैसले के अनुकूल है या नहीं?
अध्याय : अल्लाह पर क़सम खाने की मनाही
जुन्दुब बिन अब्दुल्लाह रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है, वह बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"एक व्यक्ति ने कहा : अल्लाह की क़सम, अल्लाह अमुक व्यक्ति को क्षमा नहीं करेगा। इसपर सर्वशक्तिमान एवं महान अल्लाह ने कहा : वह कौन होता है कि मेरी क़सम खाए कि मैं अमुक को क्षमा नहीं करूँगा। जाओ मैंने उसे क्षमा कर दिया और तेरे कर्मों को नष्ट कर दिया।"इस हदीस को इमाम मुस्लिम ने रिवायत किया है।और अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु की हदीस में है कि यह बात कहने वाला एक इबादतगुज़ार व्यक्ति था। अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु ने कहा :"उसने एक ऐसी बात कह दी, जिससे उसकी दुनिया
"एक व्यक्ति ने कहा : अल्लाह की क़सम, अल्लाह अमुक व्यक्ति को क्षमा नहीं करेगा। इसपर सर्वशक्तिमान एवं महान अल्लाह ने कहा : वह कौन होता है कि मेरी क़सम खाए कि मैं अमुक को क्षमा नहीं करूँगा। जाओ मैंने उसे क्षमा कर दिया और तेरे कर्मों को नष्ट कर दिया।"
इस हदीस को इमाम मुस्लिम ने रिवायत किया है।
और अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु की हदीस में है कि यह बात कहने वाला एक इबादतगुज़ार व्यक्ति था। अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु ने कहा :
"उसने एक ऐसी बात कह दी, जिससे उसकी दुनिया
एवं आखिरत दोनों बर्बाद हो गईं।"
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :अल्लाह पर क़सम खाने से सावधान किया गया है।दूसरी :जहन्नम की आग हमारे जूते के फीते से भी अधिक हमसे निकट है।तीसरी :इसी तरह, जन्नत भी उतनी ही क़रीब है।चौथी :इस हदीस से, उस हदीस की पुष्टि होती है, जिसमें है कि : "आदमी कोई बात करता है..." पूरी हदीस देखें।पाँचवीं :कभी-कभी इनसान को किसी ऐसे काम की वजह से क्षमा प्राप्त हो जाती है, जो उसे बड़ा नापसंद था।
अल्लाह पर क़सम खाने से सावधान किया गया है।
दूसरी :
जहन्नम की आग हमारे जूते के फीते से भी अधिक हमसे निकट है।
तीसरी :
इसी तरह, जन्नत भी उतनी ही क़रीब है।
चौथी :
इस हदीस से, उस हदीस की पुष्टि होती है, जिसमें है कि : "आदमी कोई बात करता है..." पूरी हदीस देखें।
पाँचवीं :
कभी-कभी इनसान को किसी ऐसे काम की वजह से क्षमा प्राप्त हो जाती है, जो उसे बड़ा नापसंद था।
अध्याय : अल्लाह को किसी के सामने सिफ़ारिशकर्ता के रूप में प्रस्तुत करने की मनाही
जुबैर बिन मुतइम रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि एक देहाती नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास आया और कहने लगा : ऐ अल्लाह के रसूल! लोगों पर दुर्बलता छा गई है, परिवार भूक का शिकार है और माल-धन बर्बाद हो गए हैं, अतः आप अपने रब से हमारे लिए बारिश की दुआ करें। हम आपके सामने अल्लाह को और अल्लाह के सामने आपको सिफ़ारिशकर्ता के रूप में प्रस्तुत करते हैं। यह सुन नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"सुबहानल्लाह, सुबहानल्लाह" आप इतनी देर तक सुबहानल्लाह कहते रहे कि इसका प्रभआव सहाबा के चेहरों पे नज़र आने लगा। फिर आपने फ़रमाया : "तुझपर आफसोस है, तुझे मालूम है कि अल्लाह कौन है? अल्लाह का सम्मान इससे कहीं अधिक है। उसे किसी के सामने सिफ़ारिशकर्ता के रूप में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता।"फिर आगे पूरी हदीस ज़िक्र की। इसे अबू दाउद ने रिवायत किया है।
"सुबहानल्लाह, सुबहानल्लाह" आप इतनी देर तक सुबहानल्लाह कहते रहे कि इसका प्रभआव सहाबा के चेहरों पे नज़र आने लगा। फिर आपने फ़रमाया : "तुझपर आफसोस है, तुझे मालूम है कि अल्लाह कौन है? अल्लाह का सम्मान इससे कहीं अधिक है। उसे किसी के सामने सिफ़ारिशकर्ता के रूप में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता।"
फिर आगे पूरी हदीस ज़िक्र की। इसे अबू दाउद ने रिवायत किया है।
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :आपने उस व्यक्ति का खंडन किया, जिसने कहा : "हम अल्लाह को आपके सामने सिफ़ारिशकर्ता के रूप में प्रस्तुत करते हैं।"दूसरी :इस वाक्य से आपके चेहरा यूँ परिवर्तित हुआ कि आपके सहाबा के चेहरों में उसका असर देखा गया।तीसरी :आपने उस देहाती की इस बात का खंडन नहीं किया कि : "हम आपको अल्लाह के सामने सिफ़ारिशकर्ता के रूप में प्रस्तुत करते हैं।"चौथी :सुबहानल्लाह की व्याख्या की ओर ध्यान आकृष्ट करना।पाँचवीं :मुसलमान नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से बारिश की दुआ करवाते थे।
आपने उस व्यक्ति का खंडन किया, जिसने कहा : "हम अल्लाह को आपके सामने सिफ़ारिशकर्ता के रूप में प्रस्तुत करते हैं।"
दूसरी :
इस वाक्य से आपके चेहरा यूँ परिवर्तित हुआ कि आपके सहाबा के चेहरों में उसका असर देखा गया।
तीसरी :
आपने उस देहाती की इस बात का खंडन नहीं किया कि : "हम आपको अल्लाह के सामने सिफ़ारिशकर्ता के रूप में प्रस्तुत करते हैं।"
चौथी :
सुबहानल्लाह की व्याख्या की ओर ध्यान आकृष्ट करना।
पाँचवीं :
मुसलमान नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से बारिश की दुआ करवाते थे।
अध्याय : इस बात का उल्लेख कि मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने तौहीद की सुरक्षा की एवं शिर्क तक ले जाने वाले हर रास्ते को बंद किया
अब्दुल्लाह बिन शिख़्ख़ीर रज़ियल्लाहु अन्हु फरमाते हैं कि मैं बनू आमिर के एक शिष्टमंडल के साथ नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास आया और हमने कहा : आप हमारे सय्यिद (सरदार, मालिक) हैं।
यह सुन आपने कहा : "सय्यिद तो बस बरकत वाला एवं महान अल्लाह है।"
हमने कहा : आप हमारे अंदर सबसे उत्तम व्यक्ति एवं महान हैं।
आपने फरमाया : "यह बातें या इनमें से कुछ बातें कहो, और ध्यान रहे कि शैतान तुम्हे किसी भी अवस्था में गलत रह पर न डाल सके।"इसे अबू दाऊद ने उत्तम सनद के साथ रिवायत किया है।और अनस रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि कुछ लोगों ने कहा : ऐ अल्लाह के रसूल, ऐ हममें उत्तम और हममें उत्तम व्यक्ति के बेटे, हमारे सय्यिद (सरदार, मालिक) और हमारे सय्यिद (सरदार, मालिक) के बेटे। तो फरमाया :"लोगो, तुम अपनी बात कहो, लेकिन शैतान तुम्हें गलत राह की ओर न ले जाए। मैं मुहम्मद हूँ, अल्लाह का बंदा ओर उसका रसूल। मुझे यह पसंद नहीं कि जो स्थान सर्वशक्तिमान एवं महान अल्लाह ने मुझे प्रदान किया है, तुम मुझे उससे आगे बढ़ाओ।"इसे नसई ने उत्तम सनद के साथ रिवायत किया है।
इसे अबू दाऊद ने उत्तम सनद के साथ रिवायत किया है।
और अनस रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि कुछ लोगों ने कहा : ऐ अल्लाह के रसूल, ऐ हममें उत्तम और हममें उत्तम व्यक्ति के बेटे, हमारे सय्यिद (सरदार, मालिक) और हमारे सय्यिद (सरदार, मालिक) के बेटे। तो फरमाया :
"लोगो, तुम अपनी बात कहो, लेकिन शैतान तुम्हें गलत राह की ओर न ले जाए। मैं मुहम्मद हूँ, अल्लाह का बंदा ओर उसका रसूल। मुझे यह पसंद नहीं कि जो स्थान सर्वशक्तिमान एवं महान अल्लाह ने मुझे प्रदान किया है, तुम मुझे उससे आगे बढ़ाओ।"
इसे नसई ने उत्तम सनद के साथ रिवायत किया है।
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :इसमें लोगों को अतिशयोक्ति से सावधान किया गया है।दूसरी :जिसे हमारे सय्यिद कहा जाए, उसे क्या कहना चाहिए?तीसरी :आपने फ़रमाया : "तुम्हें शैतान गुमराह न करे।" हालाँकि उन्होंने कोई गलत बात नहीं कही थी।चौथी :आपका फ़रमान : "मुझे यह पसंद नहीं कि जो स्थान अल्लाह ने मुझे प्रदान किया है, तुम मुझे उससे आगे बढ़ाओ।"अध्याय : उच्च एवं महान अल्लाह के इस कथन का वर्णन :{وَمَا قَدَرُوا اللهَ حَقَّ قَدْرِهِ وَالأَرْضُ جَمِيعـًا قَبْضَـتُهُ يَوْمَ الْقِيَامَةِ وَالسَّمَواتُ مَطْوِّيَاتٌ بِيَمِينِهِ سُبحَانَهُ وَتَعالى عَمَّا يُشْرِكُونَ} (तथा उन्होंने अल्लाह का सम्मान नहीं किया, जैसे उसका सम्मान करना चाहिए था और क़यामत के दिन धरती पूरी उसकी एक मुट्ठी में होगी, तथा आकाश लपेटे हुए होंगे उसके दाहिने हाथ में। वह पवित्र तथा उच्च है उस शिर्क से, जो वे कर रहे हैं।)[सूरा ज़ुमर : 67]अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है, वह कहते हैं : एक अह्ल-ए-किताब विद्वान अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास आया और कहा : "ऐ मुहम्मद, हमारी पुस्तकों में है कि अल्लाह आकाशों को एक उंगली पर, पृथ्वियों को एक उंगली पर, पेड़ों को एक उंगली पर, पानी को एक उंगली पर, मिट्टी को एक उंगली पर और शेष सृष्टि को एक पर रख कर फरमाएगा : मैं ही बादशाह हूँ! तो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम उसकी बात की पुष्टि के तौर पर हँस पड़े, यहाँ तक की आपके सामने के दांत प्रकट हो गए। फिर आपने यह आयत पढ़ी :{وَمَا قَدَرُوا اللهَ حَقَّ قَدْرِهِ وَالأَرْضُ جَمِيعـًا قَبْضَـتُهُ يَوْمَ الْقِيَامَةِ} (और उन्होंने अल्लाह का जैसा आदर करना चाहिए था वैसा आदर नहीं किया, जबकि पूरी ज़मीन क़यामत के दिन उस की मुट्ठी में होगी।)और सहीह मुस्लिम की एक रिवायत में है :"और पहाड़ तथा पेड़ एक उंगली पर होंगे फिर अल्लाह उन्हें हिलाते हुए फरमाएगा : मैं ही बादशाह हूँ, मैं ही अल्लाह हूँ।"जबकि सहीह बुखारी की एक रिवायत में है :"आकाशों को एक उंगली पर, पानी ओर मिट्टी को एक उंगली पर एवं शेष सृष्टि को एक उंगली पर रखेगा।"इसे सहीह बुख़ारी एवं सहीह मुस्लिम ने रिवायत किया है।इसी तरह, सहीह मुस्लिम में अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया :"अल्लाह क़यामत के दिन आकाशों को लपेटकर अपने दाएँ हाथ में कर लेगा और कहेगा : मैं ही बादशाह हूँ, कहाँ हैं सरकशी करने वाले लोग? कहाँ हैं अहंकार करने वाले लोग? फिर सातों धर्तियों को लपेटकर अपने बाएँ हाथ में कर लेगा और कहेगा : मैं ही बादशाह हूँ! कहाँ हैं सरकशी करने वाले लोग? कहाँ हैं अहंकार करने वाले लोग?"और अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा से वर्णित है, वह कहते हैं :"रहमान (अत्यंत कृपाशील) की हथेली में सातों आसमान और सातों ज़मीन ऐसी हैं, जैसे तुममें से किसी के हाथ में राई का दाना हो।"और इब्ने जरीर कहते हैं कि मुझसे यूनुस ने बयान किया, वह कहते हैं कि हमें इब्ने वह्ब ने बताया, वह कहते हैं कि इब्ने ज़ैद ने कहा, वह कहते हैं कि मुझसे मेरे पिता ने बताया कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया :"कुर्सी के सामने सात आकाश ऐसे हैं, जैसे एक ढाल में पड़े हुए सात दिरहम हों।"इब्ने जरीर कहते हैं : अबूज़र्र रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :"अल्लाह के अर्श की तुलना में उसकी कुर्सी का उदाहरण यूँ समझो, जैसे किसी बड़े मैदान में लोहे का एक कड़ा पड़ा हो।"तथा अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है, वह कहते हैं :"पहले आसमान और दूसरे आसमान के बीच पाँच सौ साल की दूरी है, हर दो आसमानों के बीच पाँच सौ साल की दूरी है, सातवें आसमान तथा कुर्सी के बीच पाँच सौ साल की दूरी है, कुर्सी एवं पानी के बीच पाँच सौ साल की दूरी है, अर्श पानी के ऊपर है और अल्लाह अर्श के ऊपर है। तुम्हारा कोई भी कार्य उससे छुप नहीं सकता।"इसे इब्ने महदी ने हम्माद बिन सलमा से, उन्होंने आसिम से, उन्होंने ज़िर्र से और उन्होंने इब्ने मसऊद से वर्णन किया है। इससे मिलती-जुलती एक हदीस मसऊदी ने आसिम से, उन्होंने अबू वाइल से और उन्होंने इब्ने मसऊद से रिवायत की है। यह बात हाफ़िज़ ज़हबी ने कही है। साथ ही उन्होंने यह भी कहा है कि इसकी कई सनदें हैं।और अब्बास बिन अब्दुल मुत्तलिब रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया : "तुम्हें मालूम है, आसमान तथा ज़मीन के बीच की दूरी कितनी है?" हमने कहा : अल्लाह तथा उसके रसूल को अधिक ज्ञान है। आपने फरमाया :"दोनों के बीच पाँच सौ साल की दूरी है, हर दो आसमानों के बीच पाँच सौ साल की दूरी है, हर आसमान की मोटाई पाँच सौ साल के बराबर है, सातवें असमान तथा अर्श के बीच एक समुद्र है जिसके निचले एवं ऊपरी भाग के बीच उतनी ही दूरी है जितनी आसमान और ज़मीन के बीच है और उच्च एवं महान अल्लाह इन सब के ऊपर है और इनसानों का कोई भी कार्य उससे नहीं छुपता।"
इसमें लोगों को अतिशयोक्ति से सावधान किया गया है।
दूसरी :
जिसे हमारे सय्यिद कहा जाए, उसे क्या कहना चाहिए?
तीसरी :
आपने फ़रमाया : "तुम्हें शैतान गुमराह न करे।" हालाँकि उन्होंने कोई गलत बात नहीं कही थी।
चौथी :
आपका फ़रमान : "मुझे यह पसंद नहीं कि जो स्थान अल्लाह ने मुझे प्रदान किया है, तुम मुझे उससे आगे बढ़ाओ।"
अध्याय : उच्च एवं महान अल्लाह के इस कथन का वर्णन :
{وَمَا قَدَرُوا اللهَ حَقَّ قَدْرِهِ وَالأَرْضُ جَمِيعـًا قَبْضَـتُهُ يَوْمَ الْقِيَامَةِ وَالسَّمَواتُ مَطْوِّيَاتٌ بِيَمِينِهِ سُبحَانَهُ وَتَعالى عَمَّا يُشْرِكُونَ} (तथा उन्होंने अल्लाह का सम्मान नहीं किया, जैसे उसका सम्मान करना चाहिए था और क़यामत के दिन धरती पूरी उसकी एक मुट्ठी में होगी, तथा आकाश लपेटे हुए होंगे उसके दाहिने हाथ में। वह पवित्र तथा उच्च है उस शिर्क से, जो वे कर रहे हैं।)
[सूरा ज़ुमर : 67]
अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है, वह कहते हैं : एक अह्ल-ए-किताब विद्वान अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास आया और कहा : "ऐ मुहम्मद, हमारी पुस्तकों में है कि अल्लाह आकाशों को एक उंगली पर, पृथ्वियों को एक उंगली पर, पेड़ों को एक उंगली पर, पानी को एक उंगली पर, मिट्टी को एक उंगली पर और शेष सृष्टि को एक पर रख कर फरमाएगा : मैं ही बादशाह हूँ! तो नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम उसकी बात की पुष्टि के तौर पर हँस पड़े, यहाँ तक की आपके सामने के दांत प्रकट हो गए। फिर आपने यह आयत पढ़ी :
{وَمَا قَدَرُوا اللهَ حَقَّ قَدْرِهِ وَالأَرْضُ جَمِيعـًا قَبْضَـتُهُ يَوْمَ الْقِيَامَةِ} (और उन्होंने अल्लाह का जैसा आदर करना चाहिए था वैसा आदर नहीं किया, जबकि पूरी ज़मीन क़यामत के दिन उस की मुट्ठी में होगी।)
और सहीह मुस्लिम की एक रिवायत में है :
"और पहाड़ तथा पेड़ एक उंगली पर होंगे फिर अल्लाह उन्हें हिलाते हुए फरमाएगा : मैं ही बादशाह हूँ, मैं ही अल्लाह हूँ।"
जबकि सहीह बुखारी की एक रिवायत में है :
"आकाशों को एक उंगली पर, पानी ओर मिट्टी को एक उंगली पर एवं शेष सृष्टि को एक उंगली पर रखेगा।"
इसे सहीह बुख़ारी एवं सहीह मुस्लिम ने रिवायत किया है।
इसी तरह, सहीह मुस्लिम में अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया :
"अल्लाह क़यामत के दिन आकाशों को लपेटकर अपने दाएँ हाथ में कर लेगा और कहेगा : मैं ही बादशाह हूँ, कहाँ हैं सरकशी करने वाले लोग? कहाँ हैं अहंकार करने वाले लोग? फिर सातों धर्तियों को लपेटकर अपने बाएँ हाथ में कर लेगा और कहेगा : मैं ही बादशाह हूँ! कहाँ हैं सरकशी करने वाले लोग? कहाँ हैं अहंकार करने वाले लोग?"
और अब्दुल्लाह बिन अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा से वर्णित है, वह कहते हैं :
"रहमान (अत्यंत कृपाशील) की हथेली में सातों आसमान और सातों ज़मीन ऐसी हैं, जैसे तुममें से किसी के हाथ में राई का दाना हो।"
और इब्ने जरीर कहते हैं कि मुझसे यूनुस ने बयान किया, वह कहते हैं कि हमें इब्ने वह्ब ने बताया, वह कहते हैं कि इब्ने ज़ैद ने कहा, वह कहते हैं कि मुझसे मेरे पिता ने बताया कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया :
"कुर्सी के सामने सात आकाश ऐसे हैं, जैसे एक ढाल में पड़े हुए सात दिरहम हों।"
इब्ने जरीर कहते हैं : अबूज़र्र रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया :
"अल्लाह के अर्श की तुलना में उसकी कुर्सी का उदाहरण यूँ समझो, जैसे किसी बड़े मैदान में लोहे का एक कड़ा पड़ा हो।"
तथा अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है, वह कहते हैं :
"पहले आसमान और दूसरे आसमान के बीच पाँच सौ साल की दूरी है, हर दो आसमानों के बीच पाँच सौ साल की दूरी है, सातवें आसमान तथा कुर्सी के बीच पाँच सौ साल की दूरी है, कुर्सी एवं पानी के बीच पाँच सौ साल की दूरी है, अर्श पानी के ऊपर है और अल्लाह अर्श के ऊपर है। तुम्हारा कोई भी कार्य उससे छुप नहीं सकता।"
इसे इब्ने महदी ने हम्माद बिन सलमा से, उन्होंने आसिम से, उन्होंने ज़िर्र से और उन्होंने इब्ने मसऊद से वर्णन किया है। इससे मिलती-जुलती एक हदीस मसऊदी ने आसिम से, उन्होंने अबू वाइल से और उन्होंने इब्ने मसऊद से रिवायत की है। यह बात हाफ़िज़ ज़हबी ने कही है। साथ ही उन्होंने यह भी कहा है कि इसकी कई सनदें हैं।
और अब्बास बिन अब्दुल मुत्तलिब रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमाया : "तुम्हें मालूम है, आसमान तथा ज़मीन के बीच की दूरी कितनी है?" हमने कहा : अल्लाह तथा उसके रसूल को अधिक ज्ञान है। आपने फरमाया :
"दोनों के बीच पाँच सौ साल की दूरी है, हर दो आसमानों के बीच पाँच सौ साल की दूरी है, हर आसमान की मोटाई पाँच सौ साल के बराबर है, सातवें असमान तथा अर्श के बीच एक समुद्र है जिसके निचले एवं ऊपरी भाग के बीच उतनी ही दूरी है जितनी आसमान और ज़मीन के बीच है और उच्च एवं महान अल्लाह इन सब के ऊपर है और इनसानों का कोई भी कार्य उससे नहीं छुपता।"
इसे अबू दाऊद आदि ने रिवायत किया है।
इस अध्याय की मुख्य बातें :
पहली :अल्लाह के कथन : {وَالأَرْضُ جَمِيعـًا قَبْضَـتُهُ يَوْمَ الْقِيَامَةِ} (और पूरी ज़मीन क़यामत के दिन उसकी मुट्ठी में होगी।) की व्याख्या।दूसरी :यह और इस प्रकार के ज्ञान नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के युग में यहूदियों के पास बाक़ी थे, जिसे उन्होंने न अनुचित समझा और न उसका गलत अर्थ निकाला था।तीसरी :जब उस यहूदी विद्वान ने अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के सामने उक्त बातों का उल्लेख किया, तो आपने उसे सच माना और कुरआन ने भी उसकी पुष्टि कर दी।चौथी :जब उस यहूदी विद्वान ने इस महान ज्ञान का उल्लेख किया, तो अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम हँस पड़े।पाँचवीं :अल्लाह तआला के दो हाथों का उल्लेख और यह कि दाएँ हाथ में आसमान होंगे और दूसरे हाथ में ज़मीनें।छठीं :अल्लाह के दूसरे हाथ को बाएँ हाथ का नाम दिया गया है।सातवीं :उस समय सरकशी करने वालों और अहंकार दिखाने वालों का उल्लेख किया जाना।आठवीं :अब्दुल्लाह बिन अब्बस का कथन : "रहमान (अत्यंत कृपाशील) की हथेली में सातों आसमान और सातों ज़मीन ऐसी हैं, जैसे तुममें से किसी के हाथ में राई का दाना हो।"नवीं :आकाश की तुलना में कुर्सी की विशालता।दसवीं :कुर्सी की तुलना में अर्श की विशालता।ग्यारहवीं :अर्श, कुर्सी और पानी के अलावा एक तीसरी चीज़ है।बारहवीं :हर दो आसमानों के बीच की दूरी।तेरहवीं :सातवें आसमान और कुर्सी के बीच की दूरी।चौदहवीं :कुर्सी और पानी के बीच की दूरी।पंद्रहवीं :अर्श पानी के ऊपर है।सोलहवीं :अल्लाह तआला अर्श के ऊपर है।सत्रहवीं :आसमान और ज़मीन के बीच की दूरी।अठारहवीं :हर आसमान की मोटाई पाँच सौ साल की दूरी के बराबर है।उन्नीसवीं :आसमानों के ऊपर जो समुद्र है, उसके निचले तथा ऊपरी भाग के बीच की दूरी पाँच सौ साल की है। और अल्लाह को अधिक ज्ञान है।
अल्लाह के कथन : {وَالأَرْضُ جَمِيعـًا قَبْضَـتُهُ يَوْمَ الْقِيَامَةِ} (और पूरी ज़मीन क़यामत के दिन उसकी मुट्ठी में होगी।) की व्याख्या।
दूसरी :
यह और इस प्रकार के ज्ञान नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के युग में यहूदियों के पास बाक़ी थे, जिसे उन्होंने न अनुचित समझा और न उसका गलत अर्थ निकाला था।
तीसरी :
जब उस यहूदी विद्वान ने अल्लाह के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के सामने उक्त बातों का उल्लेख किया, तो आपने उसे सच माना और कुरआन ने भी उसकी पुष्टि कर दी।
चौथी :
जब उस यहूदी विद्वान ने इस महान ज्ञान का उल्लेख किया, तो अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम हँस पड़े।
पाँचवीं :
अल्लाह तआला के दो हाथों का उल्लेख और यह कि दाएँ हाथ में आसमान होंगे और दूसरे हाथ में ज़मीनें।
छठीं :
अल्लाह के दूसरे हाथ को बाएँ हाथ का नाम दिया गया है।
सातवीं :
उस समय सरकशी करने वालों और अहंकार दिखाने वालों का उल्लेख किया जाना।
आठवीं :
अब्दुल्लाह बिन अब्बस का कथन : "रहमान (अत्यंत कृपाशील) की हथेली में सातों आसमान और सातों ज़मीन ऐसी हैं, जैसे तुममें से किसी के हाथ में राई का दाना हो।"
नवीं :
आकाश की तुलना में कुर्सी की विशालता।
दसवीं :
कुर्सी की तुलना में अर्श की विशालता।
ग्यारहवीं :
अर्श, कुर्सी और पानी के अलावा एक तीसरी चीज़ है।
बारहवीं :
हर दो आसमानों के बीच की दूरी।
तेरहवीं :
सातवें आसमान और कुर्सी के बीच की दूरी।
चौदहवीं :
कुर्सी और पानी के बीच की दूरी।
पंद्रहवीं :
अर्श पानी के ऊपर है।
सोलहवीं :
अल्लाह तआला अर्श के ऊपर है।
सत्रहवीं :
आसमान और ज़मीन के बीच की दूरी।
अठारहवीं :
हर आसमान की मोटाई पाँच सौ साल की दूरी के बराबर है।
उन्नीसवीं :
आसमानों के ऊपर जो समुद्र है, उसके निचले तथा ऊपरी भाग के बीच की दूरी पाँच सौ साल की है। और अल्लाह को अधिक ज्ञान है।
उच्च एवं महान अल्लाह के अनुग्रह से किताबुत तौहीद सम्पन्न हुई।